Magazine - Year 1975 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
क्या स्वर्ग और अपवर्ग धरती पर ही थे?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
‘स्वर्ग’ के सम्बन्ध में पौराणिक मान्यता यह है कि पुण्यात्मा व्यक्ति मरने के बाद सुख−सुविधा भरे जिस लोक में जाते हैं उसे स्वर्ग कहते हैं। दार्शनिक लोग स्वर्ग को उदात्त दृष्टिकोण मानते हैं और कहते हैं चिन्तन की इस विशेष शैली को अपनाकर मनुष्य अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी अविच्छिन्न सुख−शान्ति का रसास्वादन करता रहता है।
इतिहास और भूगोल की दृष्टि से स्वर्ग कोई ऐसा स्थान विशेष होना चाहिए जहाँ लोगों का आना−जाना बिना किसी विशेष कठिनाई के होता रहता हो। जहाँ भौतिक समृद्धियों और आत्मिक विभूतियों का बाहुल्य रहता हो। दशरथ, अर्जुन, नारद आदि के ऐसे कितने ही कथानक है जिनमें स्वर्ग जाना और वापिस आना उसी प्रकार बताया गया है जैसे हम सामान्य स्थानों पर बिना अधिक कठिनाई उठाये जाते रहते हैं। पाण्डवों के स्वर्गारोहण की तुक इस प्रकार बैठती है कि वे जीवन के अन्तिम दिनों उसी शान्तिमय क्षेत्र में निवास करने के लिए चले गये थे।
लगता है—हिमालय के जिस भू−भाग को इन दिनों ‘उत्तराखण्ड’ कहते हैं उससे थोड़ा और अधिक बड़ा तथा ऊँचा क्षेत्र उन दिनों स्वर्ग कहलाता था। उसमें देव प्रकृति के लोग रहते थे। लोक−कल्याण की विविध−विधि योजनाएँ और व्यवस्थाएँ वहीं से बनती थीं। वह पूरा क्षेत्र एक प्रकार से मानव−कल्याण के विविध उत्पादनों की प्रयोगशाला थी। ऋषि और देव पुरुष वहीं के शान्त वातावरण में इस प्रकार के अभिनव उत्पादन करते थे जिनसे समस्त विश्व लाभान्वित हो सके।
स्वर्ग का जिस प्रकार पौराणिक वर्णन उपलब्ध है उससे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। सुमेरु पर्वत पर देवता रहते थे। सुमेरु शृंखला, बद्रीनाथ और गंगोत्री के मध्यवर्ती क्षेत्र में अभी भी विद्यमान है। स्वर्ग से दूध की गंगा उतर कर शिवजी की जटाओं में आई और फिर धरती पर बही। इस अलंकारिक वर्णन की इस प्रकार संगति बैठती है कि गोमुख से ऊपर हिमाच्छादित शिवलिंग चोटी है उस पर पिघलती हुई बर्फ दूध की धारा जैसी दीखती है। नीचे उतर कर वह कुछ दूर चट्टानों में समा जाती है और फिर गोमुख पर प्रकट होती है। इस दृश्य को गंगावतरण के पौराणिक अलंकार में पूरी तरह दृश्यमान हुआ पाया जाता है। नन्दन वन स्वर्ग में था। गोमुख से ऊपर चढ़कर सुरभित पुष्पों से भरी मखमल के कालीन की तरह बिछी भूमि को भी अभी भी नन्दन वन कहा जाता है। कैलाश और मानसरोवर का जिस प्रकार वर्णन है उसकी तुक तिब्बत में चले गये कैलाश के साथ नहीं बैठती। शिवजी की जटाओं से गंगा का निकलना तभी ठीक बैठता है जब नन्दन वन के समीप की शिवलिंग चोटी को कैलाश और उसके निकटवर्ती सरोवर को मानसरोवर माना जाय। पाण्डवों ने अन्त समय स्वर्ग के लिए प्रयाण किया था। वह स्वर्गारोहण पर्वत अभी भी वसोधारा पठार के आगे विद्यमान है। व्यास जी ने जहाँ महाभारत लिखा था वह व्यास गुफा वहीं है उन्हीं के पास लिपिकार गणेश रहते थे। गणेश गुफा भी व्यास गुफा के समीप ही है। यह स्वर्ग क्षेत्र उस प्रदेश में था जिसे बद्रीनाथ और गंगोत्री का मध्यवर्ती भाग कह सकते हैं। यही हिमालय का हृदय है। दिव्यदर्शियों का कथन है कि ब्रह्माण्ड की सघन अध्यात्म चेतना का धरती पर विशिष्ठ अवतरण इसी क्षेत्र में होता है। भौतिक शक्ति यों के धरती पर अवतरण का केन्द्रबिन्दु विज्ञान जगत में ध्रुव प्रदेश को माना जाता है। अध्यात्म जगत में वैसी ही मान्यता इस हिमालय के हृदय के सम्बन्ध में है। यह स्वर्ग क्षेत्र ब्रह्माण्ड−व्यापी दिव्य−चेतनाओं का अवतरण केन्द्र है जहाँ शोध करते हुए, तप करते हुए, महामनीषी अपने को देव शक्ति यों से सुसज्जित करते थे। अभी भी उस क्षेत्र में स्थूल और सूक्ष्म शरीरधारी दिव्य सत्ताओं के अस्तित्व पाये जाते हैं। वे अपने क्रिया−कलाप से समस्त भूमण्डल को प्रभावित करती हैं।
इन्द्र देवता की सहायता के लिए दशरथ जी अपना रथ लेकर गये थे। पहिया गड़बड़ाने लगा तो कैकेयी ने अपनी उँगली लगाकर उस विपत्ति का समाधान किया था। ठीक उसी प्रकार का एक और वर्णन यह मिलता है कि अर्जुन इन्द्र की सहायता करने गये थे, प्रसन्न होकर इन्द्र ने अर्जुन को रूपसी, उर्वशी का उपहार दिया था जिसे उसने अस्वीकार कर दिया था। जहाँ मनुष्यों का आवागमन सम्भव हो सके ऐसा स्वर्ग धरती पर ही हो सकता है। इन्द्र और चन्द्र देवताओं का गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से छल करना धरती पर ही सम्भव है। दधीचि ने अपनी अस्थियाँ याचक देवताओं को प्रदान की थीं। आदि−आदि अगणित उपाख्यान ऐसे हैं जिसमें देवताओं और मनुष्यों के पारस्परिक घनिष्ठ सहयोग की चर्चा है। इन पर विवेचनात्मक दृष्टि से विचार करें तो उसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि स्वर्ग कहीं भूमि पर ही होना चाहिए और देवता, मनुष्यों का कोई वर्ग विशेष ही होना चाहिए। इसका समाधान उत्तराखण्ड को देव भूमि मान लेने से ही हो सकता है। देवर्षि नारद का बार−बार विष्णुलोक में जाना और वहाँ के अधिपति विष्णु से साँसारिक समस्याओं पर विचार विनिमय करना तभी सही सिद्ध होगा जब हमें उस पुण्य भूमि को स्वर्ग के रूप में मान्यता दें। उस क्षेत्र में अभी भी भ्रमण करके ऐसे अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध किये जा सकते हैं जिनके आधार पर पौराणिक स्वर्ग की संगति इस क्षेत्र के साथ बिठाई जा सके।
देव वर्ग के लोग इस पुण्य भूमि के दिव्य वातावरण में निवास करते थे और धर्म−तन्त्र की उपलब्धियों से समस्त विश्व को लाभान्वित बनाने की विविध−विधि योजनाएँ बनाते थे; तैयारियाँ करते थे और साधन जुटाते थे। इन कष्टसाध्य महाप्रयासों का नाम ही तप था। तपस्वी देवता एक प्रकार के अध्यात्म विज्ञान के शोधकर्ता और विभूति उत्पादक कहे जा सकते हैं। यह क्षेत्र ऐसी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं से भरा पड़ा था जिनमें शरीर यन्त्र और मनः तन्त्र के भीतर छिपे हुए शक्ति शाली रहस्यों का अधिकाधिक अनावरण सम्भव हो सके। शास्त्रों का सृजन, योगाभ्यास की उपलब्धियाँ अध्यात्म दर्शन का विकास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा, शास्त्र, रसायन, शिल्पकला आदि की भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियाँ इसी क्षेत्र से निकल कर आती थीं और उनसे लाभान्वित होने वाले उसे स्वर्ग निवासी देवताओं का वरदान कहकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते थे। देवार्चन हर मनुष्य का कर्त्तव्य था ताकि उसे क्षेत्र में किसी प्रकार का अभाव अनुभव न हो। गीता में यज्ञ से देवताओं की पुष्टि की बात कही गई है, इसे सर्वसाधारण द्वारा देव प्रयोजनों के लिए विविध−विधि अनुदान प्रस्तुत करना ही समझा जाना चाहिए। यज्ञ का सीधा अर्थ दान एवं त्याग, बलिदान है। देव प्रयोजनों के लिए श्रम, समय, मन, धन आदि से सहयोग करते रहना है। यह उन दिनों सर्वसाधारण का नित्यकर्म था। समय−समय पर अग्निहोत्र भी इसी प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने वाले प्रतीक पूजन के रूप में किये जाते थे। यज्ञ से पूजित देवता मनुष्यों पर सुख−शान्ति बरसाते हैं और यज्ञ न करने वाले विपत्ति में फँसते हैं इस गीता वचन में सामान्य प्रजाजनों को देव वर्ग को, देव कर्म को, समुचित सहयोग प्रदान करते रहने की अनिवार्य आवश्यकता का उद्बोधन कराता है। यह देवता और कोई नहीं−उस समय स्वर्ग क्षेत्र में निवास करके धर्म प्रेरणा के—भावनात्मक परिष्कार के विविध−विधि आधारों का निर्माण करने वाले महामानव ही थे। समस्त धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण करने के लिए उनका महा प्रयास, जन साधारण को देव वन्दन एवं देव पूजन के लिए अनायास ही नतमस्तक बनाता था।
गंगा−यमुना का दुआवा आर्यावर्त कहलाता था। भौतिक समृद्धियों के विविध प्रयोगों को सुविस्तृत बनाने के लिए हमारे पूर्वजों का एक महत्वपूर्ण वर्ग इस क्षेत्र में रहता था। यह भूखण्ड कृषि पशु−पालन आदि की दृष्टि से बहुत उपयुक्त था। जलवायु की उत्तमता असंदिग्ध थी। शासकीय प्रयोग यहीं होते थे। चक्रवर्ती शासन के सूत्र इसी क्षेत्र से चलते थे। अश्वमेध यज्ञों में से अधिकाँश इसी क्षेत्र में हुए हैं। बनारस और प्रयाग में गंगातट पर ऐसे घाट अभी भी विद्यमान हैं जहाँ कई−कई—दस−दस अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न हुए हैं। अश्वमेधों की आवश्यकता बिखरे हुए गणतन्त्र को एकता, व्यवस्था, मर्यादा एवं नियन्त्रण के सुदृढ़ सूत्र में आबद्ध करने के लिए ही पड़ती थी। विश्रृंखलता और विकृतियों के निराकरण के लिए ऐसे विशालकाय सम्मेलन करने ही पड़ते थे।
आर्यावर्त राजतन्त्र का विश्व−व्यापी सूत्र संचालन करता था। सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजा इन्हीं प्रयासों में निरत थे। सूर्यवंश में राम जैसे और चन्द्रवंश में कृष्ण जैसे अनेकानेक महाप्रतापी अवतारी पुरुष जन्में है। दुष्यन्त पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नामकरण भारत हुआ। देव और असुरों के युद्धों से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है। यह इन नर−नाहरों द्वारा देश−देशान्तरों में असुरता उत्पन्न करने वाले तत्वों का उन्मूलन करने वाले युद्ध प्रयासों का ही अलंकारिक वर्णन है। उन्हें दुर्दान्त दुष्टता के साथ समय−समय पर असाधारण संघर्ष करने पड़े। परशुराम के कुल्हाड़े का चमत्कार वन्य प्रदेशों की दुर्गम झाड़−झंखाड़ों से—हिंस्र वन्य पशुओं से मुक्त करने के रूप में ही समझा जा सकता है।
ऐसे ही विविध−विधि प्रयास करके आदिमकालीन कुसंस्कारी मनुष्यों तथा पशुओं को क्रम व्यवस्था में आबद्ध करने को उन दिनों धर्म युद्ध कहा जाता था। सम्पत्ति उपार्जन और व्यवस्था स्थापन के विविध प्रयोग एवं प्रयास आर्यावर्त में होते थे और फिर यहाँ से उनका विस्तार समस्त विश्व के व्यापक क्षेत्र में किया जाता था। स्वर्ग और धरती की पारस्परिक घनिष्ठता इसी क्षेत्र में देखी जाती थी। उत्तराखण्ड के समुन्नत क्षेत्र का देव निवास स्वर्गलोक और नीचे उतर कर समीपवर्ती क्षेत्र में बिखरा हुआ भू−लोक पारस्परिक घनिष्ठ सहयोग बनाये हुए था। उनके आदान−प्रदान से सर्वतोमुखी प्रगति का पथ−प्रशस्त होता था और ऐसे आधार विनिर्मित होते थे जिनसे भारत की भौगोलिक सीमाओं के अन्दर विकसित होने वाली प्रगति और समृद्धि का अधिकाधिक विस्तार विश्व के दूरवर्ती क्षेत्रों को भी उपलब्ध होता रहे।
ऊपर की पंक्ति यों में केवल प्रयोगशाला क्षेत्र की चर्चा हुई है। भारत का प्रयोगशाला क्षेत्र ज्ञान की दृष्टि से उत्तराखण्ड वाला स्वर्गलोक और विज्ञान की दृष्टि से आर्यावर्त का भू−लोक कहा जा सकता है। इसे मस्तिष्क और हृदय की उपमा दी जा सकती है, पर उसे समस्त शरीर नहीं कहा जा सकता। भारत का समग्र शरीर तो समस्त संसार में व्याप्त था, पर यदि उसके उद्गम केन्द्र—मर्मस्थल को देखा जाय तो वह उत्तराखण्ड का स्वर्ग और आर्यावर्त का अपवर्ग ही ठहरता है। यहीं से आध्यात्मिक और भौतिक प्रगति का विश्व−व्यापी सूत्र संचालन होता था। ऐसा इतिहास और भूगोल के जानकारों का एक विचारणीय मत है।