Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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कामना (kavita)
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नहीं मांगते राज्य, स्वर्ग-सुख, हमें मुक्ति की चाह नहीं।
बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।
जब पथ से विचलित हो जन-मन
भूल जाय परमार्थ-प्रयोजन;
खोजे अपना ही सुख-साधन,
बढ़े असुरता का सम्मोहन;
तब हम प्रतिपल तिल-तिल जलकर बने ज्योति की रह कहीं।
बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।
पराधीनता की कुंठाएं
जब मानव को विवश बनायें;
मृग-मरीचिका-सी आशाएं
असफल प्राणों को भटकायें;
तब उस जीवन के मरुथल में, हमें बना दो छांह कहीं।
बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।
तथाकथित सब धर्म-धुरंधर
हों जब भाग्यवाद पर निर्भर,
भूतल को भवसिन्धु बताकर
दूर हटें झंझा से डरकर;
तब हम कर्णधार को लेकर, जूझें बनकर नाव कहीं।
बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।
जब तक सुलभ न स्वर्ग सभी को,
शान्ति नहीं व्याकुल धरती को;
जब तक चैन न हर प्राणी को
कैसे रुचे आत्म-सुख जी को?
जन्म-जन्म के पुण्य हमारे, लुट जायें परवाह नहीं।
बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।
*समाप्त*