Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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एक नई दुनिया अब हाथ लगने ही वाली है।
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मनुष्य की सम्भावनाएँ असीम होते हुए भी उसे ससीमता अपने बन्धन में जकड़े रहती है और प्रकृति के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आतुर होते हुए भी वह विशाल समुद्र में से कुछ सीपियाँ और घोंघे ही ढूँढ़ पाता है।
पिछले दो सौ वर्षों में विज्ञान के क्षेत्र में हम बहुत आगे बढ़े हैं। अन्तरिक्षीय खोजें अपने समय की विशेष उपलब्धियाँ हैं। इससे पूर्व अणु विस्फोट भी चकित कर चुका है। अब हम अद्यावधि प्राप्त जानकारियों से भी कहीं अधिक जिस विस्मयजनक क्षेत्र में विस्मयजनक उपलब्धियों के क्षेत्र में प्रवेश करने जा रहे हैं—वह है प्रति पदार्थ से बनी हमारे साथ−साथ रह रही एक समांतर दुनिया। इसका ज्ञान प्राप्त करके हम जानेंगे कि काया और छाया की तरह दो संसार न जाने कब से साथ−साथ जुड़े हुए हैं और एक दूसरे पर निर्भर रह रहे हैं।
अपनी परिचित अणु सत्ता से इस अपने विश्व में दीख पड़ने वाले पदार्थ बने है। उन्हीं के उपयोग से अपना काम चलता है। अब यह पता चला है कि अणु का प्रतिद्वन्द्वी एक और प्रति अणु है। पदार्थ के प्रतिद्वन्द्वी प्रति पदार्थ का भी अस्तित्व मौजूद है। इतना ही नहीं इनसे बनी हुई एक अनोखी प्रतिद्वन्द्वी दुनिया भी मौजूद है। अब तक हम इस सबसे परिचित नहीं रहे यह ठीक है, पर इससे क्या—स्थिति तो हमारी जानकारी होने न होने की परवा किये बिना यथावत् बनी ही हुई है।
एण्टीमैटर—एन्टीयुनिवर्स की चर्चा अब कोई कल्पना या सम्भावना नहीं रही वरन् एक ऐसी यथार्थता बन गई है जिस पर तेजी से खोज की जा रही है और यह पता लगाया जा रहा है कि इन दोनों प्रतिद्वन्द्वी संसारों के बीच आदान−प्रदान का दरवाजा किस तरह खुल सकता है।
इस दिशा में यदि थोड़ी और सफलता मिल गई तो पौराणिक उपाख्यानों में वर्णित देवलोक और असुर−लोक की गाथाओं को हम साकार देखेंगे और अनुभव करेंगे कि भगवान और शैतान की तरह चिरन्तन काल से दो प्रतिद्वन्द्वी संसार आपस में गुँथे हुए चले आ रहे हैं। उनके सामान्य सहकार को बढ़ाना सम्भव हो सके तो अपनी दुनिया इतनी बड़ी सामर्थ्य करतल गत कर लेगी जिसके सहारे मात्र पृथ्वी तो क्या ब्रह्माण्ड के विशाल क्षेत्र पर अधिकार कर लेना और बिखरी सम्पदाओं से लाभ उठा सकना उसके लिए सम्भव हो जायगा। फिर मनुष्य विश्व का मुकुटमणि नहीं—ब्रह्माण्ड का अधिनायक बनकर रहेगा।
इस सुखद सम्भावना के साथ साथ यह विभीषिका भी मौजूद है कि प्रति पदार्थ की सत्ता डायनामाइट बारूद और अणु विस्फोट से निकलने वाली ऊर्जा से भी अधिक खतरनाक है। इस क्षेत्र में एक भी चिनगारी गलत−सलत ढंग से पड़ गई तो फिर किसी की खैर नहीं। न पृथ्वी की—न सौरमण्डल की और न समूचे ब्रह्माण्ड की। उस विस्फोट से पूरे ब्रह्माण्ड का आधार ही बदल सकता है और प्रस्तुत जड़−चेतन की स्थिति में आमूल−चूल परिवर्तन हो सकता है। यदि विभीषिका सचमुच कभी साकार हुई तो उस महाक्रान्ति के बाद की स्थिति कल्पनातीत होगी। तब प्राणधारी भी अब की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रकार के होंगे और उनकी आकृति एवं प्रकृति की हम लोगों के साथ कोई समानता न होगी। तब ज्ञान−विज्ञान के आधार भी उलट जायेंगे। अभी तो उस महाप्रलय का स्वरूप समझना ही कठिन पड़ रहा है फिर महाक्रान्ति के बाद होने वाले अभिनव सृजन और उसमें प्राणियों की स्थिति का स्वरूप किस प्रकार सोचा जा सकता है।
प्रति पदार्थ की खोज बड़ी सावधानी किन्तु तत्परता के साथ हो रही है। अन्तरिक्ष पर अधिकार करने के लोभ का संवरण न किया जा सका तो फिर ‘प्रति विश्व’ की सत्ता को जानने और उसके साथ तालमेल बिठाकर और भी बहुत कुछ पाने की सम्भावना को आँख से ओझल किया ही कैसे जा सकता है। ‘प्रति पदार्थ’ ‘प्रति विश्व’ आज के विज्ञान जगत का सर्वोपरि आकर्षण है। उसकी खोज में अत्यन्त गम्भीर प्रयास सावधानी के साथ किये जा रहे हैं।
पदार्थ के प्रति पक्षी “प्रति पदार्थ” की कल्पना तो सन् 1928 में ही सापेक्षवादी क्वांटम सिद्धान्त के अंतर्गत ही कर ली गई थी, पर तब उस सम्बन्ध में वैसे प्रत्यक्ष प्रयोग सम्भव न थे जैसे कि आज हो गये हैं। जिस प्रकार क्रिया की प्रतिक्रिया और ध्वनि की प्रतिध्वनि होती है उसी प्रकार ‘पदार्थ’ के साथ−साथ ‘प्रति पदार्थ’ भी काम करता है। इन उभयपक्षीय अस्तित्वों से ही विश्व में विविध प्रकार की गतिविधियाँ सम्भव हो रही हैं। यदि किसी डिब्बे में गोलियाँ खचा−खच भर दी जायँ तो फिर उनका हिलना डुलना भी सम्भव न हो सकेगा; इसी प्रकार यदि संसार में सर्वत्र परमाणु ही ठसे पड़े हों तो फिर उनका हिलना−डुलना ही बन्द हो जायगा और सर्वत्र निस्तब्ध नीरवता एवं स्थिरता दिखाई पड़ेगी। यह प्रति पदार्थ ही है जो अणुओं को अपनी हलचलें जारी रखने का अवसर दे रहा है।
रूस और अमेरिका के वैज्ञानिक इस प्रति पदार्थ को प्राप्त करने का जी तोड़ प्रयत्न कर रहे हैं। नाभिकीय कणों को तीन हजार करोड़ इलेक्ट्रान बाट की गर्मी देकर एक नया प्रति कण प्राप्त किया गया है—’ड्यूट्रान’ हाइड्रोजन और हीलियम के प्रतिकण प्राप्त करने की आशा अब बलवती होती जा रही है। पर अभी इस कठिनाई का हल नहीं निकला है कि उन्हें सुरक्षित कैसे रखा जाय। इनकी एक बुरी आदत यह है कि वे अकेले अपना अस्तित्व बनाये रहने में असमर्थ होते हैं। उत्पन्न होते ही अन्य कणों के साथ घुलते हैं और अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। यदि इसे सुरक्षित रखा जा सकना सम्भव हो गया तो पदार्थ और प्रति−पदार्थ का घर्षण सम्भव हो जायगा और उसे प्रक्रिया से इतनी अधिक ऊर्जा प्राप्त की जा सकेगी कि संसार भर में सस्ती बिजली की कमी कहीं भी अनुभव न की जाय। तब जहाँ−तहाँ छोटे−छोटे सूर्य उगाये जा सकेंगे और उनसे आवश्यक ऊर्जा इच्छानुसार और सुविधानुसार ग्रहण करते रह सकना सम्भव हो जायगा।
अन्तरिक्ष से प्राप्त रेडियो, तरंग बताती हैं कि किसी क्षेत्र में प्रति द्रव्य बड़े परिमाण में उत्पन्न हो रहा है। यह उत्पत्ति कहाँ हो रही है इसके सम्बन्ध में विज्ञानी आल्फवेन का कथन है कि वह ‘साइग्लेस’ और ‘विर्गो’ निहारिकाओं में उबल रहा है और उससे नये−नये ऐसे ग्रह−नक्षत्रों का सृजन हो रहा है जो इस प्रति पदार्थ से ही बने हैं। वे उसका नाम चतुर्थ आयाम स्तर का प्लाज्मा बताते हैं और कहते हैं उसकी सामर्थ्य अपने लोक में पाये जाने वाली आणविक ऊर्जा से कहीं अधिक सशक्त है।
कैलीफोर्निया विश्व−विद्यालय में सन् 1970 में सबसे पहले “प्रतिकण” के अस्तित्व को कल्पना क्षेत्र से आगे बढ़कर प्रामाणिक स्तर पर खड़ा किया था। न्यूक्लियर इंटर एक्शन के दौरान ‘प्रतिकण’ का फोटो खींचा गया था। इसके लिए एक सेकेंड के पन्द्रह अरबवें भाग में फोटो खींच सकने वाला यन्त्र विशेष रूप से बनाया गया था और उस प्रमाणित प्रतिकण का नाम ‘सन्टी ओमेगा माइनस’ दिया गया था। तब से अब तक इन पाँच वर्षों में और भी कई प्रतिकण खोजे जा चुके हैं।
यह खोज तीन सिद्धान्तों के आधार पर सम्भव हुई है। (1) सापेक्षिकता सिद्धान्त द्वारा शक्ति के निगेटिव होने का प्रमाण प्रस्तुत करने से (2) क्वांटम मिकैनिक्स के समीकरण का हल प्रस्तुत करने से (3) वेवेमिकैनिक्स के इलेक्ट्रान के गुणों की अभिनव विवेचना करने से।
सन् 1928 में जब डिराक ने क्वान्टम मिकैनिक्स के समीकरण का हल करते हुए इनर्जी के निगेटिव रूप की नई व्याख्या कीं और प्रति इलेक्ट्रान, पाजिट्रान के अस्तित्व का प्रतिपादन किया तो तत्कालीन मूर्धन्य विज्ञानवेत्ताओं ने उनका उपहास उड़ाया पर पीछे खोज जारी रहे सन् 1932 में जब प्रति इलेक्ट्रान के फोटो खिंचकर सामने आये तो वह बात प्रामाणिक ठहरा दी गई। सर्वविदित है कि ट्राँजिस्टर का आविष्कार ‘होल’ और ‘इलेक्ट्रान’ प्रक्रिया के सहारे ही सम्भव हुआ है। इसमें ‘होल’ वस्तुतः प्रति इलेक्ट्रान का ही एक रूप है।
प्रति इलेक्ट्रान के सम्बन्ध में एक सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उसका जीवन काल अत्यन्त स्वल्प है। वह जन्म लेते ही इलेक्ट्रान के साथ संयुक्त हो जाता है और उस विलय से ‘गामा विकरण’ उत्पन्न होता है।
प्रति पदार्थ एवं प्रति विश्व की खोज के आरम्भिक दिनों में केवल इलेक्ट्रान का प्रतिद्वन्द्वी, प्रति इलेक्ट्रान ही खोजा जा सकता था, पर यह सम्भावना तो ध्यान में बनी ही रही कि इसी प्रकार अन्य कणों के भी प्रति पक्षी, प्रतिद्वन्द्वी, प्रतिकण हो सकते हैं। सन् 1955 में इसका भी समाधान मिल गया। ‘वेवाट्रान’ नामक सूक्ष्मदर्शी यन्त्र की सहायता से न्यूट्रोन और प्रोटान के प्रतिपक्षी भी खोज लिये गये हैं। इससे सिद्धान्ततः प्रति पदार्थ और प्रतिविश्व के अस्तित्व का स्वीकार कर लिया गया है और यह आशा बँध गई है कि कभी न कभी मनुष्य इस महादैत्य को अपना वशवर्ती बनाकर ने केवल अपनी पृथ्वी का वरन् लोक−लोकान्तरों का अधिपति बन सकने का स्वप्न साकार कर सकेगा।
अभी तक पदार्थ के सम्बन्ध में हमारा अनुभव बहुत स्वल्प है। अभी अपने हाथ केवल खण्डन क्रिया फिशन—हाथ लगी है। यह कितनी कठिन और कितनी जटिल है इसे वे लोग जानते हैं जो परमाणु विस्फोट के साधन जुटाते हैं। उस कार्य में अत्यधिक ऊर्जा प्रयुक्त करनी पड़ती है। खण्डन से अधिक कठिन संश्लेषण—फ्यूजन है। इससे खण्डन की तुलना में कहीं अधिक शक्ति का प्रयोग के लिए जुटाना पड़ेगा। इससे भी बड़ी कठिनाई यह है कि संश्लेषण के लिए प्रयुक्त ऊर्जा और क्रिया से उत्पन्न प्रति ऊर्जा और प्रतिक्रिया इतनी सशक्त होगी जिसे नियन्त्रित रख सकना कम से कम आज की स्थिति में तो किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हैं। प्रति परमाणु के संश्लेषण में अनुमानतः दस लाख डिग्री ताप उत्पन्न होगा। यह कितना भयंकर होगा इसका अनुमान इस बात से लग सकता है कि पानी केवल 100 डिग्री गर्मी से ही उबलने और भाप बनकर उड़ने लगता है।
प्रति अणु की शक्ति अपने जाने−माने अणु की तुलना में सहस्रों गुनी अधिक होगी। यदि वह हाथ लग जाय तो केवल हीलियम गैस से भी हम नया सूर्य बना सकेंगे और उसका मनचाहा उपयोग कर सकेंगे।
प्रति पदार्थ में एक ओर बुरी आदत है कि वह जन्म लेते ही ‘पदार्थ’ में घुस पड़ता है और उसी में विलीन हो जाता है। यदि ‘प्रति परमाणु’ बन गया तो उसे वर्तमान परमाणु में घुस पड़ने से कैसे रोका जा सकेगा? यह एक और भी बड़ा सिरदर्द है। संयोग से नई चीज की उत्पत्ति का सिद्धान्त सर्वविदित है। प्रस्तुत परमाणुओं के साथ सम्भावित प्रति परमाणु जब संयुक्त होंगे तो न जाने किस नई शक्ति का उदय हो जाय। यदि वह सृजनात्मक न होकर ध्वंसात्मक हुई तो फिर अपनी पृथ्वी तो उससे माचिस की तीली की तरह खाक हो जायगी। पूरे सौरमण्डल और अपनी सम्पूर्ण आकाश गंगा का ही नक्शा बदल सकता है। तब जो कुछ आज दिखाई पड़ रहा है उससे सर्वथा भिन्न प्रकार के दृश्य सामने आ खड़े हो सकते हैं।,
प्रति पदार्थ का अस्तित्व अब असंदिग्ध रूप से जान और मान लिया गया है और इस बात पर वैज्ञानिक जगत में पूर्ण सहमति हो गई है कि इस ब्रह्माण्ड के अनेक क्षेत्र प्रति पदार्थ से बने हुए हैं और उनकी भौतिक स्थिति अपनी पृथ्वी की परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न—लगभग उलटी है। जिस प्रकार अपनी दुनिया है ‘प्रति पदार्थ’ तनिक−सी झाँकी देकर लुप्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार उन प्रति पदार्थ से बने लोकों में अपने क्षेत्र का पदार्थ हलकी−सी झलक दिखाकर वहाँ की संरचना में घुलता और समाप्त होता रहता होगा।
तन्त्र साधना में ‘छाया पुरुष’ साधना का विस्तृत विवरण मिलता है। यह छाया पुरुष क्या है? जीवित मनुष्य का एक सशक्त प्रतिबिम्ब। जिसे साधन प्रयोगों द्वारा अपने वशवर्ती बनाया जाता है और वह किसी भिन्न सत्ता वाले अदृश्य व्यक्ति की तरह आज्ञानुसार काम करता है। इसकी क्षमता साधनकर्त्ता की अपेक्षा कहीं अधिक होती है।
छाया पुरुष का अस्तित्व भले ही संदिग्ध हो, पर छाया विश्व और छाया पदार्थ की सिद्धि अब वैज्ञानिक जगत में मान्यता प्राप्त कर चुकी है और उसे पकड़ने, वशवर्ती करने के लिए प्रबल चेष्टा हो रही है।
दर्पण के सामने खड़े होने पर एक अपने ही जैसा मनुष्य दीखता है, पर वह होता है उलटा। जिधर हमारा दाहिना हाथ होता है उधर उसका बाँया हाथ। अन्य अंग भी उलटे होते हैं। फोटोग्राफी की प्लेट पर भी यही होता है। अपने काले बाल सफेद होते हैं और सफेद दाँत काले। इसे नेगेटिव प्लेट कहते हैं। इसे उलट कर फिर फोटो खींचा जाता है तब कहीं सीधी तस्वीर आती है। बिम्ब का प्रतिबिम्ब उलटा होता है। इसे मिररइमेज कहते हैं—काया और छाया का—छाया और प्रतिच्छाया का यही क्रम चलता है। विपरीतता के लिए अँग्रेजी में ‘एन्टी’ शब्द का प्रयोग होता है।
पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु है। इस परमाणु के भी कई अंग−प्रत्यंग हैं। इस परमाणु परिवार को ही पदार्थ का सूक्ष्मतम अंग माना जाता था, पर अब इसके साथ एक सहोदर भाई और जुड़ गया है वह है ‘प्रति पदार्थ’। पार्टिकल्स अब अकेले नहीं हैं उनके साथ—’एन्टी पार्टिकल्स’ की चर्चा भी जोरों पर है।
परमाणु कितना बड़ा होता है इसका मोटा अनुमान इस प्रकार लगा सकते हैं कि चीनी के एक दाने में लगभग एक हजार शंख परमाणु होंगे। जो ठोस नहीं है। उनके भीतर मध्य भाग में नाभिक होता है, नाभिक न्यूक्लियस—को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर पार्टिकल्स उसी प्रकार चक्कर लगाते हैं जिस प्रकार सूर्य के इर्द−गिर्द उसके ग्रह−उपग्रह। नाभिक का निर्माण प्रोटान और न्यूट्रान कणों के संयोग से बना होता है उसके चारों ओर चक्कर लगाने वाले कण इलेक्ट्रान कहलाते हैं। इलेक्ट्रानों में विद्युत का ऋण आवेश और प्रोटानों में धन आवेश होता है। न्यूट्रानों पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता। अब कुछ और कण भी खोज निकाले गये हैं और उन्हें मेसान, न्यूट्रीनो फोटान, सिगमा प्लस, सिगमामाइनस, सिगमाजीरो आदि नाम दिये गये हैं।
मोटे तौर से सभी परमाणु एक जैसे होते हैं, पर उनकी भीतरी रचना में प्रोटान, इलेक्ट्रान आदि की संख्या का जो अन्तर रहता है उसी आधार पर उनकी भिन्नता रहती है और भिन्न स्तर के परमाणुओं का समूह विभिन्न प्रकार के पदार्थों के अस्तित्व रूप से सामने आता है।
छाया पुरुष की साधना तान्त्रिक उपासना के क्षेत्र में बहुत समय से प्रचलित है। छाया लोक की चर्चा बहुत समय से कही सुनी जाती रही है अब यह सम्भावना प्रामाणिक स्तर पर स्वीकार की जा रही है कि एक दिव्यलोक हमारे साथ−साथ ही रह रहा है; उसमें ने केवल पदार्थ ही भरा है वरन् प्राणी भी निवास कर रहे हैं। वे प्राणी देव दानवों की कल्पना से मिलते−जुलते हो सकते हैं और जीवाणुओं, विषाणुओं जैसे भी। हम मनुष्यों से वे समर्थ अपरिचित उदासीन भी हो सकते हैं और सम्बद्ध सहचर बनकर हमारी परिस्थितियों के निर्माण में भारी योगदान करते हुए भी पाये जा सकते हैं। कहा नहीं जा सकता कि इस अविज्ञात संसार में भरा हुआ जड़ चेतन हमारे लिए संपर्क बढ़ाने योग्य है या अयोग्य। इन रहस्यों का उद्घाटन भविष्य में होगा। आज तो उसका स्वरूप समझने का प्रारम्भिक कदम ही उठाया जा सकना सम्भव है सो ही उठ भी रहा है।
प्रकृति के रहस्यों के पर्त जैसे−जैसे खुल रहे हैं वैसे वैसे मानव बुद्धि अधिकाधिक हतप्रभ होती जा रही है और अपनी असीमता की गर्वोक्ति पर पुनर्विचार कर रही है। खोज किसी भी सीमा तक बढ़ जाय—हाथ कुछ भी लग जाय तभी विराट् विश्व और मानव प्राणी की तुलनात्मक स्थिति देखते हुए ‘नेति−नेति’ की उक्ति ही दुहराई जाती रहेगी।