Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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सूक्ष्म की शक्ति को समझा जाय
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किसी का वैभव बड़प्पन देखकर उसकी गरिमा का मूल्यांकन करना अवास्तविक है। गरिमा उत्कृष्टता में छिपी रहती है क्योंकि सशक्त ता उसी के साथ जुड़ी रहती है। सूक्ष्म जगत में प्रवेश करने पर भौतिकता का कलेवर नहीं रहता, पर इसे शक्ति में कोई कमी नहीं आती वरन् वह आवरण का भार हलका हो जाने पर और भी अधिक क्षमता सम्पन्न बनती जाती है।
अध्यात्म सूक्ष्मता का विज्ञान है। उसमें पदार्थ के विस्तार की नहीं गुणों की तेजस्विता को महत्व दिया गया है। आन्तरिक उत्कृष्टताएँ आँखों से दृष्टिगोचर नहीं होतीं तो भी उनका प्रभाव कितना अधिक होता है इसे सहज ही जाता जा सकता है। विचारवान इसीलिए विस्तार की अपेक्षा सूक्ष्मताजन्य प्रखरता को ही महत्व देते हैं।
“अधिकस्य अधिकं फलम्” की उक्ति बहुत मोटी बातों में ही सही सिद्ध होती है। सूक्ष्म प्रयोजनों में स्वल्प का ही महत्व बढ़त जाता है। दृश्य जगत क्या है? पदार्थों का समुच्चय । पदार्थ क्या हैं, योगिकों, तत्वों और परमाणुओं का समन्वय। परमाणु क्या है— विद्युत बिन्दुओं का संगठन । इन विद्युत बिन्दुओं इलेक्ट्रान प्रोटीनों की भी गहराई अभी खोजी जा रही है। दृश्य जगत वस्तुतः उन विद्युत बिन्दुओं से आरम्भ होता है जो कहने−सुनने में सरल किन्तु देखने— अनुभव करने में अपने अत्यन्त छोटे कलेवर के कारण अति कठिन हैं।
हमारे शरीर के जीवाणु बहुत ही छोटे हैं। उनकी शोषण शक्ति भी उनके कलेवर के अनुरूप ही स्वल्प है। उनमें प्रवेश कर सकने वाले पदार्थ इतने छोटे होने चाहिए जो इन शरीरगत जीवाणुओं, कोशाओं के भवन में आसानी से प्रवेश पा सकें। आहार में प्राकृतिक रूप से हर जीवनोपयोगी पदार्थ बहुत ही छोटे अंशों में विद्यमान रहता है इसलिए वे पचकर शरीर में घुल−मिल जाते हैं। पर यदि उन्हें सघन रूप से लिया जाय तो उनके मोटे कण चूर्ण−विचूर्ण होने में बहुत समय और श्रम लेंगे और तब कहीं कठिनाई से थोड़ी मात्रा में हजम होंगे।यही कारण है कि शाक−भाजी ,अन्न, दूध में अत्यन्त स्वल्प मात्रा में मिले हुए क्षार और खनिज हमारे शरीर में घुल जाते हैं किन्तु उन्हीं पदार्थों को यदि गोलियों के रूप में खाया जाय तो उनका बहुत छोटा अंश ही शरीर को मिलेगा बाकी स्थूल होने के कारण बिना पचे ही मल मार्ग से निकल जायगा।
हाइड्रोजन परमाणु का एक इलेक्ट्रान अपने केन्द्र के चारों ओर एक सेकेंड में 6000 खरब चक्कर काटता है। परमाणु की रचना सौरमण्डल में सदृश है उनके भीतर विद्युत कण भयंकर गति से घूमते हैं फिर भी उसके पेट में बड़ा सा आकाश भरा रहता है। परमाणुओं के गर्भ में चल रही भ्रमण शीलता के कारण ही इस संसार में विभिन्न हलचलें हो रही हैं। यदि वे सब रुक जायँ तो आधा इञ्च धातु का वजन तीस लाख टन हो जायगा और सर्वत्र अकल्पनीय भार जड़ता भरी दिखाई पड़ेगी।
वजन की दृष्टि से कौन वस्तु भारी और कौन हलकी है, इस आधार पर उसकी गरिमा का मूल्याँकन नहीं हो सकता । चट्टान बहुत भारी है किन्तु उसका मूल्य हीरे के एक छोटे से टुकड़े की बराबर नहीं होता । सबसे हलका हाइड्रोजन अणु— अन्य भारी समझे जाने वाले अणुओं की तुलना में कम नहीं अधिक ही महत्व प्राप्त कर रहा है।
औषधि में सूक्ष्म मात्रा के महत्व प्रतिपादन कर्त्ता जर्मनी के चिकित्सा शास्त्री हैनिमौन ने जब अपने सिद्धान्त प्रकाशित किये तो तत्कालीन शरीर विज्ञानियों ने उसका विरोध किया और उपहास उड़ाया । सर जेम्स वाइ, सिम्पसन ने “होमियोपैथी इट्स टेनेन्टस् एण्ड टेन्डेन्सीज “पुस्तक लिखकर उस सूक्ष्मता के सिद्धान्त का उपहास उड़ाया और खण्डन किया। किन्तु यह उपहास बहुत दिन स्थिर न रहे सका । 50 वर्ष के अन्दर ही अनेक मूर्धन्य विज्ञानी इस सिद्धान्त के समर्थक बन गये। डा. जी. डबल्यू. वैलफोर ने सूक्ष्मता की शक्ति को अकल्पनीय और अद्भुत बताया। आरम्भिक दिनों चिकित्सा शास्त्रियों ने सूक्ष्मता की शक्ति पर अविश्वास किया था और उसका उपहास उड़ाया था, पीछे जब गहराई को खोजा गया तो पाया गया कि सूक्ष्मता की शक्ति को अप्रमाणिक नहीं ठहराया जा सकता ।
कार्लवान नागेली के चार ताँबे के पैसे उनकी बिना जानकारी में पानी के एक बर्तन में गिर पड़े , वह पानी सहज स्वभाव स्पाइरोगिरा के पौधों की जड़ में डाल दिया गया। पौधे कुछ ही घण्टे के भीतर मर गये। अकस्मात ऐसा क्या हो गया। इस खोज में उनके जड़ में डाले गये पानी की खोजबीन हुई और उसमें पड़े हुए ताँबे के पैसों की संगति मिलाई गई।पीछे गहरे अन्वेषण से पता चला कि ताँबे की इतनी स्वल्प मात्रा इतनी सशक्त होती है कि उनके द्वारा पौधों पर ऐसा अद्भुत प्रभाव पड़ सके ।
बड़े पदार्थ अणुओं का एक विशाल रूप होता है इसमें कलेवर भर का विस्तार होता हे प्रत्येक कण को अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और प्रभाव प्रकट करने का अवसर नहीं मिलता । वे यदि अलग−अलग होकर अपनी मूल सत्ता को प्रकट कर सकने की स्थिति में होते हैं तो आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं।
आहार और चिकित्सा में सूक्ष्मता को महत्व मिलना चाहिए । इस तथ्य पर विज्ञानवेत्ता बहुत समय से प्रकाश डाल रहे हैं। सूक्ष्मता के विशेष शोधकर्ता डच विज्ञानी प्रो. डाँडर ने एकबार डार्विन को लिखा था— एट्रोपिन की एक ग्रेन का लाखवाँ हिस्सा भी आँखों पर प्रभाव डालता है। इस प्रकार का डार्विन ने स्वयं का अपना अनुभव प्रो.डाँडर ने को लिखा था। −अमोनिया की 1 ग्रेन का एक करोड़ चालीस लाखवाँ हिस्सा शरीर की ग्रन्थियों द्वारा ग्रहण करने पर आँत्र वाहक स्नायुओं में तेज झटका मारते हुए उन्होंने देखा है। इसी प्रकार नमक की एक ग्रेन का बारह करोड़वाँ भाग भी अपना आश्चर्यजनक काम करता है।
डा. ए. शिगर ने कामिक एसिड की एक ग्रेन का ढाई लाखवाँ हिस्सा जैसी स्वल्प मात्रा अपने गठिया में मरीजों को देकर आश्चर्यजनक लाभ देखा था।
चिकित्सा विज्ञान में औषधि की स्वल्प मात्रा की उपयोगिता को सिद्ध करने में डा. शुशलर ने बहुत परिश्रम किया हैं। उन्होंने अपने “टिशू रेमिडीज” प्रतिपादन में इसी बात पर जोर दिया है कि शरीर के सेल सूक्ष्म मात्रा में उपलब्ध लवणों को ही अपने भीतर शोषित कर सकते हैं।कारण यह है कि रुग्ण शरीर के तन्तु घनत्व की एक विशिष्ठ स्थिति में होते हैं कि वे रक्त के क्षारीय पदार्थों को सामान्य रूप से शोषित कर सकें। अपनी दुर्बलता के कारण वे अधिक सूक्ष्म मात्रा में — अलग−अलग किये गये कणों को ही सोख पाते हैँ। यदि उन पदार्थों के अणु अधिक सघन रूप से परस्पर जुड़े हों तो फिर कोशाओं के लिए उनका शोषण कठिन हो जायगा और उन्हें पोषण रहित स्थिति में ही गुजारा करना पड़ेगा।
एक पाव दूध में एक ग्रेन का छह लाखवाँ अंश जितना स्वल्प लोहा होता है। पर इतने से ही बच्चे के शरीर की लौह आवश्यकता पूरी हो जाती है।यदि इसी लोहे को गोली या सुई के रूप में दें तो उससे वैसा पोषण प्राप्त न हो सकेगा। शरीर में फ्लोरीन तो लोहे से भी कम है। उसकी आवश्यकता पूरी करने के लिए आहार या औषधि में उसी स्वल्प अनुपात से विरल अणुओं के रूप में वह तत्व होना चाहिए तभी कोशाओं की वह आवश्यकता पूरी हो सकेगी। लोहा या फ्लोरीन बड़ी मात्रा में देकर शरीर का हित नहीं अहित ही किया जा सकता है। वह बड़ी मात्रा में हजम न होकर अनावश्यक भार डालने के बाद मल द्वारों से बाहर निकल जायगी।
पानी में हजारवें भाग के रूप में घुला दालों का ग्लटिन हाइड्रोक्लोरिक एसिड आसानी से पच जाता है, पर जब वही अधिक मात्रा में होता है तो निरर्थक चला जाता है। बात को और भी अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए यह स्मरण करना चाहिए कि एक क्यूबिक इंच के 1200000 वाँ भाग आकार का एक लाल रक्ताणु होता है। एक बूँद खून में इस तरह के प्रायः तीन लाख अणु होते हैं। वे ही खनिजों, क्षारों तथा अन्य रसायनों को अपने ऊपर लादे सारे शरीर में होते फिरते है इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है और खाद्य−पदार्थों में सूक्ष्मता के सिद्धान्त की उपयोगिता समझी जा सकती हैं।
मनुष्य की स्वयं की पूर्ण सत्ता बीज रूप में कितनी छोटी होती है यह जानने के लिए हमें शुक्राणु के आकार पर विचार करना होगा। गर्भाधान के समय उसका आकार एक क्यूबिक मिलीमीटर का दस लाखवाँ भाग मात्र होता है। उसी के भीतर शारीरिक और मानसिक दृष्टि से एक पूर्ण मानव उकडू−मुकडू बनकर बैठा रहता है। इस सारी दुनिया में प्रायः 5 ओंस रेडियम होने का अनुमान लगाया गया है; पर इतने से ही उसकी महत्वपूर्ण आवश्यकता अगले 25 हजार वर्ष तक मजे पूरी होती रहेगी।
मोटी बुद्धि विस्तार को देखकर ही प्रभावित होती हैं। उसे यह पता नहीं होता कि काया की विशालता का कोई मूल्य नहीं जीवन तो माप−तौल में न आ सकने वाली अकिंचन सी चेतना का है। वह चेतना ही इतने बड़े शरीर यन्त्र के अगणित कलपुर्जों का संचालन करती है और जब वह शिथिल पड़ जाती है तो शरीर लड़खड़ा जाता है और विलग हो जाने पर वही शरीर तत्काल सड़−गलकर नष्ट होने लग जाता है।
प्रकाश रश्मियों की लम्बाई एक इंच के सोलह से तीस लाखवें हिस्से के बराबर होती है। रेडियो पर सुने लाख छियासी हजार मील की होती है, वे एक सेकेंड में सारी धरती की सात परिक्रमा कर लेती हैं। शब्द और प्रकाश की तरंगों का आकार एवं प्रवाह इतना सूक्ष्म एवं गतिशील है कि उन्हें बिना सूक्ष्म यन्त्रों की सहायता के हमारी इंद्रियां अनुभव नहीं कर सकती हैं।
इस सूक्ष्मता की चरमसीमा तक पहुँचते हैं तो उपनिषद्कार की भाषा में हम विद्युत ब्रह्म की सीमाएँ छूने लगते हैं। परमाणु सत्ता के अंतर्गत काम करने वाले विद्युत बिन्दुओं की ओर ही यह संकेत है। बृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि 5।7।1 में कहता है—”विद्युद्धयेव ब्रह्म” यह विद्युत ब्रह्म है।
चर्म−चक्षुओं से दीख पड़ने वाले वैभव विस्तार का मूल्य बढ़ा−चढ़ाकर मानने की स्थूल बुद्धि प्रायः धोखा खाती है। गहराई से तलाश करने से पता चलता है कि महत्व विस्तार का नहीं उसमें सन्निहित सूक्ष्म क्षमता का है। मनुष्य के धन, बल, पद, ज्ञान आदि के आधार पर नहीं, उसकी आन्तरिक स्थिति को देखकर ही यह समझा जा सकता है कि वह कितना समर्थ और कितना मूल्यवान है।