Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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अवाँछनीय संग्रह का दुर्भाग्यपूर्ण अंत
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पृथ्वी उतनी ही संपत्ति उत्पन्न करती है जितनी उसके पुत्रों के निर्वाह के लिए नितान्त आवश्यक हैं। इस अनुदान को सभी लोग सहोदर भाइयों की तरह मिल बाँटकर खायें तो सबकी जीवन यात्रा सुखपूर्वक चलती रह सकती हैं और बचा हुआ समय मानवी जीवन के महान उद्देश्यों की पूर्ति में लग सकता हैं। सुख-शांति का वातावरण इसी नीति को अपनाये रहने में बना रह सकता है।
बुद्धि विपर्यय से ग्रस्त मनुष्य अमीर बनने का प्रयत्न करता है। इधर-उधर से समेट कर सम्पत्ति अपने नीचे जमा करता है इसके दो परिणाम होते हैं एक तो संग्रहकर्ता का परिवार अमीरी के अहंकार में उद्धत आचरण करने पर उतारू होता है विलासिता में डूबता है और अनेक व्यसनों तथा दोष, दुर्गुणों का शिकार होता है। दूसरी ओर निर्धनों का शोषण होता है और असमानता जन्य ईर्ष्या जगती है। ऊँची दीवार उठाने के लिए कहीं न कहीं गड्ढा करके ही मिट्टी निकालनी पड़ती है। दूसरों को गरीब बनाये बिना कोई अमीर नहीं बन सकता। कानूनी या गैर कानूनी तरीके अपनाकर उसे शोषण करने एवं निष्ठुरता अपनाने के मार्ग पर ही चलना पड़ेगा। अन्यथा धन संग्रह न हो सकेगा। अधिक उपार्जनकर्ता को अधिक उदार भी होना चाहिए और अपनी विशेष प्रतिभा का विशेष लाभ समाज को देना चाहिए। इस प्रकार अधिक उत्पादन का कौशल उसे सम्मान एवं सन्तोष देकर फिर उदार कार्यों द्वारा वितरित हो जाता है। लिप्सा और निष्ठुरता धारण किये बिना किसी के लिए भी अमीरी सम्भव नहीं।
तत्वदर्शियों ने ‘परिग्रह’ को सर्व प्रधान पाँच प्रमुख पातकों में से एक माना है और सौ हाथों से कमाने के साथ-साथ हजार हाथों से दान करने सत्कार्यों के लिए समाज को लौटा देने का—निर्देश किया है। किन्तु लालची मनुष्य धनी बनने की ललक में अमीरी जमा करता जाता है। निश्चित रूप से यह विश्व व्यवस्था के प्रति विद्रोह है। इस संग्रह—पाप का दुष्परिणाम न केवल संग्रहकर्ता को वरन् समस्त समाज को भुगतना पड़ता है।
अमीरी जहाँ भी संग्रहित हुई है वहीं विपत्ति आई है और उस सम्पदा का दुर्दशाग्रस्त दुखद अन्त हुआ है। संग्रहित खजाने जहाँ-तहाँ फिर भूमिसात् हुए है या समुद्र में डूबे हैं और उनके संग्रहकर्ता रोते-कलपते संसार से विदा हुए है।
इटली, फ्राँस और अल्जीरिया के बीच एक छोटा सा टापू है—कौरसिया। इस पर फ्राँस का आधिपत्य है। यहां की सभ्यता को इटली और फ्रांस का सम्मिश्रण कहा जा सकता है। इसी के समीप वास्तिया खाड़ी के उथले समुद्र में जर्मन सेनापति रोमेल द्वारा अफ्रीका से लूटा हुआ खजाना डूबा पड़ा है। इसकी कीमत सत्रह अरब डालर आँकी जाती है।
द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी ने जब अफ्रीका पर हमला बोला तो वह पहली बार तो आँधी-तूफान की तरह बढ़ता चला गया और हजारों मील बढ़ता चला गया। किन्तु जब मित्र राष्ट्रों ने डटकर मुकाबला किया तो उसके पैर उखड़ गये। इस बीच उसने अपने अधिकृत क्षेत्र के सभी धनी लोगों को पकड़-पकड़कर उनके पास जो कुछ था सभी लूट लिया था। इस लूटे धन को वह बराबर जर्मनी भेजता रहा था। पर जब रोमेल को वापिस लौटना पड़ रहा था तब तो उसने लूट को अत्यन्त तीव्र कर दिया और जल्दी-जल्दी धन राशि इकट्ठी करके उसे अपने देश पहुँचाने में जुट गया। एक बड़ा स्टीमर भरकर रातों रात विपुल धन उसने जर्मनी भेजा। यह 17 सितम्बर 1943 की बात है। सब सामान लोहे के मजबूत बक्सों में बन्द कर दिया गया और तहखानों के ताले लगाकर सील कर दिया गया।
समुद्र में भी दोनों पक्ष के युद्ध-पोत और पनडुब्बियाँ चक्कर लगा रहे थे इसलिए इस स्टीमर को चक्करदार रास्ते से भेजा गया। रास्ते में जहाजी, कर्मचारियों की नीयत बिगड़ी और वे खजाने को लूट ले जाने पर आमादा हो गये। कप्तान के साथ हीलहज्जत के सिलसिले में स्टीमर खतरे में पड़ रहा था, दूसरी ओर विपक्ष की पनडुब्बियों को जर्मन नौका जाने का सुराग लग गया। उसे पकड़ने की मोर्चाबन्दी बन गई। ऐसी दशा में स्टीमर के कप्तान ने यही उचित समझा कि खजाना समुद्र में डुबो दिया जाय और कर्मचारियों से पूछताछ करने पर कुछ भेद न मिल सके इसलिए स्टीमर के कप्तान ने यही उचित समझा कि शत्रु पक्ष के हाथों पड़ने की अपेक्षा आत्म-हत्या कर लेना उपयुक्त है। अस्त जर्मनों ने अपने ही बमों से उसे उड़ा दिया और स्टीमर धज्जी-धज्जी होकर उड़ गया। पीछे यह पता भी लग गया कि इसी में रोमेल के भेजे हुए धन का बहुत बड़ा भाग भरा हुआ था।
तब से लेकर अब तक कितने ही बार उस खजाने को समुद्र से ढूँढ़ने और निकालने के प्रयत्न हुए हैं,पर यह प्रयास का दुखद अन्त हुआ है। गोताखोरी के लिए निकली हुई टीमें किसी न किसी दैवी विपत्ति में फँस कर अपने प्राण गँवाती रही है। सफलता का कोई सूत्र किसी के भी हाथ नहीं लगा। इन दुर्घटनाओं की शृंखला के पीछे अनुमान लगाया जाता है कि स्टीमर के जर्मन कप्तान का प्रेत उसकी चौकीदारी करता है और जो उसे निकालने का प्रयत्न करता है उसकी जान लेकर छोड़ता है।
न्यूयार्क के स्टैनले पब्केशन की पत्रिका ‘मैन्स लाइफ’ के सितम्बर 1966 के अंक में मारटिन ब्रैन्स्टन द्वारा बंगाल की खाड़ी से करोड़ों रुपये की भूमिगत रत्न राशि खोद निकालने का विस्तृत विवरण छपा है।
मार्टिन ने सुन रखा था कि बंगाल की खाड़ी में समुद्री डाका मारने वाले गिरोह का सरगना ‘बस्तुम’ था। उसने अपना एक मजबूत जहाजी बेड़ा बना रखा था और कितने ही डाका मारने की कला में प्रवीण डाक अपने गिरोह में भर्ती किये थे। दस वर्ष तक उसने उस क्षेत्र में पूरा आतंक फैला रखा था। व्यापारिक जहाज कहीं जाते तो यह समझकर लंगर खोलते कि उन्हें वस्तुम से आत्म-रक्षा करनी पड़ेगी। इस प्रयोजन के लिए वे अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित एवं कुशल तैराक योद्धा भी साथ लेकर चलते थे। तो भी जहाँ भी दाव लगता वह डाकू अपना आतंक प्रस्तुत कर देता और बहूमूल्य वस्तुएँ लूटकर ले जात। इस प्रकार उसने करोड़ों रुपये की सम्पत्ति जमा की। उसे रख कहाँ जाय? इस प्रश्न का समाधान उसे बंगाल की खाड़ी में छितराये हुए छोटे-छोटे द्वीपों में मिला। उसे अपनी योजनाएँ बनाने और जहाजों की मरम्मत, भोजन व्यवस्था, दवादारु आदि की जरूरत पड़ती इसलिए उसे अपना अड्डा अदल-बदल कर इन द्वीपों में ही रखना पड़ता था।
यह बात नौवीं सदी के अन्तिम वर्षों की है। उन दिनों उत्तर भारत में राजा भोज का शासन था। भोज के बेटे महेन्द्रपाल ने अपना राज्य बढ़ाया और उसे बंगाल की खाड़ी तक पहुँचा दिया। खाड़ी का बन्दरगाह विदेशों से व्यापार बढ़ाने का अच्छा साधन था। महेन्द्रपाल का पूरा ध्यान इस ओर था, पर डाकू वस्तुम के आतंक ने वह मार्ग एक प्रकार से अवरुद्ध ही कर रखा था। इसलिए यह आवश्यक हो गया कि समुद्र को डाकुओं के खतरे से मुक्त किया जाय। उड़ीसा के राजकुमार की सहायता से वस्तुम को किसी बड़े प्रलोभन का लालच देकर महेन्द्रपाल ने पकड़वा लिया इसके बाद उसके जहाज भी जब्त कर लिए गये और साथी डाकुओं को जेल में डाल दिया गया।
वस्तुम को तरह-तरह की यातनायें दी गई कि वह अपने अब तक के छिपे खजाने का भेद बताये। किन्तु वह भी ऐसी मिट्टी का बना था कि टस से मस नहीं हुआ और यन्त्रणाएँ सहते-सहते अपने प्राण गँवा बैठा।
तब से लेकर पिछले दिनों तक वस्तुम के खजाने की बहुतों ने खोज की पर किसी के हाथ कुछ न लगा। अँग्रेजी शासन काल में मारटिन व्रेन्स्टन ने उस खजाने की अति गम्भीरतापूर्वक खोज की। खाड़ी में छोटे-बड़े 81 द्वीप हैं। इनमें जो इस काम के थे कि उनमें डाकुओं के ठहरने की सुविधा हो सकती हैं उनकी संख्या 10−12 निकली। इनमें से भी अधिक उपयुक्त केवल एक निकला।
इसी की खोज करने का निश्चय किया गया। मारटिन अपने साथ कलकत्ते की एक नर्तकी लावी को अपना दुभाषिया लेकर वहाँ गया। उस द्वीप पर एक मुसलमान राजा राज्य करता था। काजी का उस पर असर था। काजी को मिलाकर मार्टिन ने खुदाई की स्वीकृति प्राप्त कर ली। खुदाई का उद्देश्य खजाना है वह तो नहीं बताया पर वहाँ कोई बड़ी खान निकलने की सम्भावना बताकर उन्हें सन्तुष्ट कर दिया।
खुदाई उन्होंने कई जगह की तो एक जगह उन्हें सचमुच ही सोने और रत्नों से भरा सन्दूक मिल गया जिसे किसी तरह छुपाकर अपनी नाव में पहुँचाने में सफल हो गये और उस द्वीप वालों के सहयोग की सराहना करते—अपने दुर्भाग्य पर रोना रोते वे लोग वापिस लौट आये। वे लोग 40 करोड़ डालर की सम्पत्ति में से सिर्फ कुछ लाख पा सके, पर पीछे आपसी फूट पड़ जाने से उपभोग करने के स्थान पर जान ही गँवा बैठे।
द्वितीय महायुद्ध के दिनों जब जापानियों ने अमेरिका के पर्ल हार्वर पर हमला किया तो सर्वत्र आतंक छा गया। जापान उन दिनों सचमुच इतना समर्थ बन चुका था कि यह अणुबम आड़े न आता तो वह अपने प्रभाव क्षेत्र में उसी प्रकार पैर फैला लेता जिस तरह कि योरोप में जर्मनी ने फैलाये थे।
प्रशान्त सागर के फिलीपाइन द्वीप समूहों में अमेरिका की प्रचुर सम्पत्ति जमा थी। यह कहीं जापानियों के हाथ न पड़ जाय इस आशंका से अमेरिका उसे नष्ट करने पर तुला हुआ था। लगभग एक करोड़ रुपये के सरकारी खजाने के नोट आग लगाकर नष्ट कर दिये गये। एक पनडुब्बी भर कर सोना, चाँदी तथा दूसरी चीजें अमेरिका भेजी जा चुकी थीं। फिर भी कई करोड़ के चाँदी के सिक्के जमा थे, उन्हें हटाने का अवसर भी निकल चुका था। अस्तु यही निश्चय किया गया कि उसे लोहे के बक्सों में बन्द करके समुद्र में डुबो दिया जाय। सैनिक फैसले के अनुसार 6 मई 1942 को फिलीपाइन की कवैली खाड़ी में उन सन्दूकों को डुबो दिया गया। इसके तुरन्त बाद जापानी सेना ने उस सारे क्षेत्र पर अपना कब्जा कर लिया।
खजाना डुबोने का सुराग जापानियों को लग गया। उन्होंने पकड़े हुए अमेरिकी गोताखोरों को लालच और भय दिखाकर इस बात के लिए रजामंद कर लिया कि डूबे हुए खजाने को निकालने में सहायता करें। उन्हें वैसा ही करना पड़ा कुछ सन्दूक ज्यों के त्यों निकाल भी लिये गये। पीछे अमेरिकी गोताखोरों ने सोचा यह अमेरिकी धन उन्हीं के देशवासियों के विरुद्ध गोला–बारूद बनाने में काम लाया जायगा। इसलिए कोई तरकीब निकालनी चाहिए। उन्होंने कुछ बक्से साबुत निकाल देने और कुछ के पेंदे ढीले करके सिक्के समुद्र में बिखर जाने का रास्ता निकाल लिया। कुछ खाली कुछ भरे बक्से निकलते रहे। जापानी भरे बक्सों पर प्रसन्न थे और खाली देखकर इसे पेटियों की कमजोरी से उत्पन्न दुर्भाग्य मानकर सन्तोष करते रहे। कहते हैं कि जितना धन निकाला गया उससे कई गुनी सम्पत्ति समुद्र की अथाह जल राशि में छितरा दी गई और अब उसे ढूँढ़ निकालने की कोई सम्भावना नहीं है।
अमेरिका की बीहड़ भूमि पर जब गोरों ने अधिकार जमाया तो उन्हें लुप्तप्राय संस्कृति के अवशेषों के साथ-साथ उन लोगों के संचित स्वर्ण भण्डार भी जहाँ तहाँ जमीन में दबे हुए मिले। इसके अतिरिक्त वह भूमि वैसे भी स्वर्ण गर्भा रही है। अनेक स्थानों पर छोटी-बड़ी खदानें हैं जिनमें सोना पाया और निकाला जाता रहा है।
इस धन राशि को लूट-लूटकर गोरे लोगों ने अपने-अपने देशों को प्रचुर परिमाण में दौलत भेजी है। स्पेनी, फ्राँसीसी, इटालवी तथा अन्य देशों के गोरे भी अँग्रेजों के प्रतिद्वंद्वी रहे है और एक दूसरे की उपलब्धियों को लूट लेने में भी अपने हथकण्डे अजमाते रहे हैं। बेचारे आदिवासी रैड इण्डियनों को बड़ी संख्या में इसी लूट-खसोट के सिलसिले में अपनी जाने गँवानी पड़ी हैं।
सन् 1870 की बात है। कैलीफोर्निया के इंडियन वैल्स नामक कस्बे में एक ऐसे खूसट गोरे का दिन-दहाड़े कत्ल हुआ जिसने प्रचुर परिमाण में सोने और चाँदी के बक्से भर कर जमा किये थे, पर उन्हें वह किसी काम में खर्च नहीं करता था। लुटेरों ने उस पर हाथ साफ किया। पूछने पर जब उसने दौलत का पता नहीं दिया तो उसे काट डाला गया। पर दौलत लुटेरों के हाथ भी नहीं लगी वह जहाँ-तहाँ जमीन में ही गढ़ी रही।
प्रथम महायुद्ध के सात वर्ष बाद जमीन में युद्ध प्रयोजनों में बिखरी हुई धातुएँ ढूँढ़ने वाले विभाग का एक इंजीनियर अपने काम का एक उपयोगी यन्त्र बना चुका था। कुछ दिन उसका प्रयोग करने के बाद उस इंजीनियर के मन में यह विचार आया कि क्यों न वह इस यन्त्र की सहायता से अमेरिका में दबे हुए छिपे खजानों को ढूँढ़ निकाले। इस विचार से उसकी आँखें चमक गई और अपने उपकरण लेकर अमेरिका चल पड़ा। उसका नाम था—फ्रेंकफिश।
फ्रेंकफिश ने इण्डियन वेल्स में हुई एक धनी की हत्या और उसकी जमीन में दबी सम्पत्ति की चर्चा सुनी, तो अपना पहला प्रयोग वहीं करने का निश्चय किया। भाग्य ने साथ दिया और उसने वह खजाना ढूँढ़ ही निकाला। 6700 चाँदी के सिक्के, 3000 सोने की मुहरों के अतिरिक्त एक छोटे बक्से में हीरों के आभूषण भी उसे मिले।
जिस बुड्ढे की हत्या हुई थी वह उन स्पेनी डाकुओं में से एक था जिसके दल के पास 80 हजार स्वर्ण मुद्राएँ जमा हो गई थीं, किन्तु दल में फूट पड़ जाने के कारण कुछ तो आपस में ही लड़ मरकर हो गये थे और कुछ जितना हाथ पड़ा उतना लेकर भाग खड़े हुए थे। वह भी दौलत को छिपाने के चक्कर में ही सारी जिन्दगी गँवा बैठा। इसी के ताने-बाने दिन-रात बुनता रहा और अन्ततः उसी में उलझ कर मर गया।
उस खजाने को निकालते समय जो अनुभव हुए उसकी विस्तृत गाथा फ्रेंकफिश ने प्रकाशित कराई है और बताया है कि किस तरह उसे खजाने की रखवाली पर बैठी हुई मृतात्मा का डरावना चेहरा और आँखों से निकलता आक्रोश देखने को मिला। फिर भी वह बिना डरे अपने काम पर लगा ही रहा।
फ्रेंकफिश ने शेष जीवन में खुदाई का काग जारी रखा और कई खजाने तथा पुरातत्व की दृष्टि से मूल्यवान अवशेष ढूँढ़ निकाले। उन सबका उसने एक संग्रहालय बना दिया है और धन ऐसे कामों में लगा दिया है जिससे सार्वजनिक हित साधन हो सके। वह कहता रहा कि बिना परिश्रम का धन किसी के लिए भी उपयोग के लायक नहीं हो सकता।
फ्रेंकफिश अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान निकला। उसने खजाना डुबाने वाले और निकालने वालों में कुछ अन्तर प्रस्तुत किया है। उसने ख्याति प्राप्त करने में सन्तोष कर लिया है। और हराम की कमाई को हजम करने के लालच में अपनी आंतें न फाड़ लेने की बुद्धिमत्ता दिखाई। उसे जो मिला है उसे उसने अमेरिका के पुरातत्व विभाग को सौंप दिया है।
अधिक अमीर बनने—संग्रह करके सौ पीढ़ियों के लिए मौज उड़ाने की व्यवस्था करने वाले लोग पाते अन्त की उपरोक्त घटनाओं से समझा जा सकता है। छोटे रूप में तो यही प्रयास हममें से हर कोई करता रहता है। यही ललक जब तक छूटेगी नहीं तब तक विश्व व्यवस्था के प्रति किया गया विद्रोह—अनावश्यक धन संग्रह केवल विपत्ति ही उत्पन्न करता रहेगा।