Magazine - Year 1979 - July 1979
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Language: HINDI
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हीनाचार परीतात्मा
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क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। असंयम बरतने पर रुग्णता घेरती है। कटुवचन बोलने से शत्रुता बढ़ती है। अपव्यय से दारिद्र आता है। नशा पीने से खुमारी आती है। विष खाने से मृत्यु होती है। पुरुषार्थी प्रगति करते हैं। आलसी असफल रहते हैं। दर्पण में अपनी ही छवि दीखती है। कुएँ में अपनी ही आवाज प्रतिध्वनित होती है।
अनाचार बरतने की प्रतिक्रिया विपत्ति के रूप में सामने आती है। लोग इस मोटी बात कोन जाने क्यों भूल जाते हैं। अनाचार करते हुए सुख की आशा की जाती है। यह लघुदृष्टि है। तुरन्त के लाभ को देखकर उस पर टूट पड़ना और पीछे के परिणाम को न देखना, अदूर दर्शिता ही है। अदूरदर्शी तात्कालिक प्रसन्नता को देखते हैं, और आटे की गोली के लोभ में प्राण गँवाने वाली मछली की तरह अपनी दुर्गति कराते हैं ऐसी अनाचार परक भूल न करने के लिए शास्त्रकार ने सर्वसाधारण को सचेत किया है।
ब्रजत्यधः प्रयात्युच्चैर्नर स्वैरेव चेष्टितैः।
अधःकूपस्य खनक ऊर्ध्वं प्रासादकारकः॥
मनुष्य अपने ही कामों से नीचे चला जाता है और ऊपर चढ़ जाता है। कुएँ को खोदने वाला नीचे की ओर उतरता जाता है। और प्रासाद का बनाने वाला ऊपर की ओर चढ़ता जाता है।
दुराचाररती लोके गर्हणीयः पुमान्भवेत्।
दुराचारी व्यक्ति व्याधियों से अभिभूत हो जाया करता है अर्थात् उसे बहुत-से रोग घेर लिया करते हैं- वह सदा ही अल्प आयु वाला होता है। और हमेशा दुःखों के भोगने वाला रहा करता है।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैमाप्नुयात्॥
कठ 1।2।24
दुराचारी, अशांतचित्त और असंयमी मनुष्य तत्वज्ञान की बातें करते रहने पर भी उस परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते।
आचारः परमो धर्मः सर्वषामिति निश्चयः।
हीनाचारपरीतात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति॥
नैनं तपाँसि न ब्रह्म नाग्निहोत्र न दक्षिणाः।
हीनाचारमितो भ्रष्टं तारयन्ति कथंचनः॥
दुराचारी हि पुरुषो लोक भवति निन्दितः।
दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च॥
आचारात्फलते धर्ममाचारात्फलते धनम्।
आचाराच्छिमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्॥
वशिष्ठ स्मृति 166 से 172
श्रेष्ठ आचरण ही धर्म का प्रथम आधार है। यह सब प्रकार निश्चित है। पाप आचरण करने वाला परलोक में दुर्गतिग्रस्त होता है॥66॥
दुराचारी को तप, वेद, अग्निहोत्र, दक्षिणा आदि कोई भी तार नहीं सकता॥167॥
दुराचारी की सर्वत्र निंदा होती है वह दुखों का भागी, अल्पायु और रोगी होता है॥171॥
सदाचारी का ही धर्म फलता है। उसी का धन फलता है। उसी को श्रेय प्राप्त होता है और आचरण यदि भ्रष्ट हो जाय तो मनुष्य को मार डालता है॥172॥
दरिद्रौ यस्त्वसंतुष्टः कृपणौ योऽजितेन्द्रियः।
गुणेष्वसक्तधीरीशों गुणसंगों विपर्ययः॥
-महायोग विज्ञान
जो असंतुष्ट है वही दरिद्र है। जो अजितेंद्रिय है वह दीन कृपा है। जो वासनाओं में आसक्त है वही असमर्थ पराधीन है।
यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः।
न स तत्पदमाप्नोति स ऽ चारं चाधिगच्छति॥
कठ॰ वल्ली 3 मं 7।
जो अविवेकी, अव्यवस्थित और कुकर्मों में निरत रहता है, वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, भव बन्धनों में ही पड़ा रहता है।