Magazine - Year 1979 - July 1979
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ज्ञान का उद्देश्य-पीड़ा और पतन का निवारण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
बौद्ध धर्म की विचार धारा देश की सीमाओं को लाँघती हुई अन्य राष्ट्रों को भी प्रभावित कर रही थी। उन विचारों को ठीक प्रकार समझ पाना तथा उसके उपरान्त अपना सकना तभी सम्भव हो सकता था जबकि अन्य देशों के निवासियों के लिए उन्हीं के भाषा में बौद्ध धर्म के विचारों का प्रकाशन हो। इस महान कार्य के लिए बौद्ध भिक्षुक सतत प्रयत्नशील थे। जापान के एक भिक्षुक ने जापानी भाषा में बौद्ध ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य हाथ में लिया। कार्य कठिन था तथा साधन साध्य भी।
सम्पूर्ण ग्रन्थों के अनुवाद कराने में लगभग दस हजार रुपये का खर्च आता था। उक्त भिक्षुक ने जन सहयोग प्राप्त करने के लिए भिक्षा माँगना आरम्भ किया। सतत् प्रयत्न एवं मनोयोग का सत्परिणाम जन सहयोग के रूप में मिला। अभीष्ट धनराशि एकत्रित हो गई। अनुवाद कार्य प्रारम्भ होने वाला ही था कि एक आकस्मिक घटना हुई। उस क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। पीड़ितों की वेदना ने भिक्षुक के हृदय को झकझोर कर रख दिया। आन्तरिक करुणा, सेवा, सहयोग एवं त्याग के रूप में परिलक्षित हुई। यह सोचकर कि ग्रन्थों का अनुवाद प्रकाशन तो बाद में भी हो सकता है तथा जिस दया, करुणा का पाठ पढ़ाने एवं इस भावना को उभारने के लिए यह कार्य किया जा रहा है उसकी ही रक्षा न हो तो फिर उसका उद्देश्य कहाँ रहा। बौद्ध भिक्षुक ने तत्काल निर्णय लिया तथा एकत्रित धनराशि को अकाल से त्रस्त लोगों की क्षुधा तृप्ति के लिए समर्पित कर दिया। उसके सहयोगियों ने कहा कि जिस कार्य के लिए तुमने धन एकत्रित किया है वह अपूर्ण रह जायेगा भिक्षुक ने उत्तर दिया, ‘उस महान कार्य की नींव यही है।
अकाल का प्रकोप दूर होते ही पुनः उसने गाँव-गाँव जाकर भिक्षा माँगना आरम्भ किया। दस वर्षों तक निरन्तर प्रयास करने पर इतना धन संग्रह हो गया कि उस से ग्रन्थों का अनुवाद प्रकाशन कार्य पूरा हो जाय। किन्तु लगता था कि प्रकृति को अभी यह स्वीकार नहीं था। बाढ़ के भयंकर विप्लव ने जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जनता के करुण क्रन्दन ने पुनः सहयोग की अपेक्षा की। भिक्षुक ने प्राप्त धनराशि को फिर बाढ़ पीढ़ियों में बाँट दिया। इस अवधि तक उसकी आयु सत्तर वर्ष पार कर चुकी थी। साथियों ने उनके इस कार्य को पागलपन की संज्ञा दी। उन सबकी बातों को भिक्षु ने हँसते हुए टाल दिया।
निर्लिप्त भाव से वह पुनः भिक्षा के प्रयोजन से निकला नब्बे वर्ष की आयु तक वह भिक्षा माँगता रहा। धनराशि एकत्रित होते ही उसने फिर उस अधूरे कार्य को पूरा करने की बात सोची। उसे ईश्वरीय कृपा ही कहना चाहिए कि उस समय कोई प्राकृतिक प्रकोप नहीं हुआ। ग्रन्थ का अनुवाद हुआ तथा छपा। पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा गया कि “यह तीसरा संस्करण है। दो इसके पूर्व निकल चुके हैं जो पीड़ा पतन के निवारण में अपनी आहुति दे चुके हैं इसलिए वे अदृश्य हो गये। वे दोनों संस्करण इस तीसरे दृश्य की तुलना में कहीं अधिक सुन्दर एवं प्रेरणास्पद थे।”
ज्ञान का उद्देश्य है अज्ञान की तमिस्रा में डूबें लोगों को आलोक प्रदान करना। पीड़ा-पतन का निवारण करना। इस महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही अनेकानेक धर्मग्रंथों की रचना की गई। उस श्रेष्ठ पथ पर बढ़ने में ये मार्ग दर्शन करते हैं। यदि उस लक्ष्य को भुला दिया गया तथा ग्रन्थों की रचाना को ही मात्र लक्ष्य मान लिया जाय तो यह भूल होगी। धर्म-अध्यात्म का विशाल कलेवर खड़ा करने का एक मात्र उद्देश्य है मानवी संवेदनाओं का विकास तथा समष्टिगत चेतना के साथ उसे जोड़ देना। दूसरों के दुख-दर्द में अपनी भाव-संवेदनाएँ यदि न जुट सकी तो शास्त्रों के ज्ञान की उपयोगिता कहाँ रही। उनका प्रयोजन क्या रहा?