Magazine - Year 1979 - July 1979
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Language: HINDI
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मौत इस तरह आगे धकेली जा सकती है
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मौत को सदा के लिए टाला तो नहीं जा सकता पर उसे बहुत समय के लिए आगे खिसकाया अवश्य जा सकता है। जिंदगी को यदि सचमुच प्यार किया जा सके तो मौत का दिन समय से पूर्व न आने देने की सावधानी बरतनी चाहिए। यदि इस दिशा में सतर्क रहा जा सके। तो इतनी जल्दी मरने की आवश्यकता न पड़े जितनी कि आम लोगों को समय से बहुत पहले ही विदाई लेनी पड़ती है।
जीवन एक संप्रदाय है, जिसे प्राप्त करने वाले को उसकी सुरक्षा तथा सदुपयोग की बात भी सोचनी चाहिए। इसके लिए बहुत बड़ी योजना बनाने की आवश्यकता नहीं है; अपव्यय का बचाव करते रहने से भी काम चल सकता है। सभी जानते हैं कि आमदनी अधिक और खर्च कम होने से सम्पदा बढ़ती है। इसके विपरीत खर्च बढ़ता रहे और आमदनी घट जाए तो दरिद्र बनने एवं दिवालिया, होने में देर न लगेगी। जीवनी शक्ति का उत्पादन उपयुक्त आहार-विश्राम की व्यवस्था बनाये रहने से बढ़ता है। इसके विपरीत शक्तियों को उत्पादन से अधिक खर्च किया जाता रहे तो पूँजी के समाप्त होने पर टाट उलट जाने की परिस्थितियाँ ही बनेंगी। शक्ति का अपव्यय साँसारिक प्रयोजनों में दौड़-धूप तथा अधिक परिश्रम करने से नहीं होता जितना कि पाचन तंत्र के अनावश्यक भार वहन करने से होता है। आमतौर से लोग आवश्यकता से अधिक भोजन करने के आदी होते है। भूख से अधिक खाना एक ऐसा अपराध है जिसके बदले में अकाल मृत्यु का दंड भुगतान पड़ता है और दुर्बलता, रुग्णता से ग्रसित रहकर रोते-खीजते समय बिताना पड़ता है उसे मौत से पहले हथकड़ी, बेड़ी, काल कोठरी जैसी प्रताड़नाओं के समतुल्य समझा जा सकता है। औसत आदमी जितना खाता है उससे आधे में शरीर की आवश्यकता सहज ही पूरी होती रह सकती है। शेष आधार तो पाचन तंत्र की क्षमता को बर्बाद करने तथा उसे विषाक्त विकृत बनाने में ही लगा रहता है। सभी जानने हैं कि सामर्थ्य से अधिक वजन लादने पर भारवाही जानवर किस प्रकार दुर्बल होने और वे मौत मरते है।
पेट की थैली इसलिए नहीं बनी है कि उसका कोना-कोना ठसाठस भर दिया जाय। वस्तुतः वह गोदाम नहीं वर्कशाप है जिसमें जीवन रसों के उत्पादन से संबंधित अनेकों क्रिया -कलाप चलते रहते है। यह सारी जगह यदि सामान से ही भर दी जाय तो अन्य कार्य किस प्रकार सम्पन्न होते रह सकेंगे। पाचन रस प्रायः इतनी ही मात्रा में स्रावित होते है जो सीमित और स्वल्प मात्रा के आहार का ठीक तरह पाचन कर सकें। मंद आग के छोटे चूल्हे, पर यदि बड़े भगौने भरकर खिचड़ी पकाई जाय तो वह बहुत समय लगने पर भी कच्ची ही बनी रहेगी। यही बात हमारे अति मात्रा में खाये हुए आहार से होती है। वह पचकर शुद्ध रक्त के रूप में परिणित नहीं हो पाता- वरन् निरर्थक पड़े-पड़े सड़न उत्पन्न करता है और उस सडाँद की विषाक्तता जिस अंग में जितनी मात्रा में जा पहुँचती है वहाँ चित्र-विचित्र रोगों की उत्पत्ति होने लगती है।
अपच से दुहरी हानि है। एक तो शरीर निर्वाह के आवश्यक रसों का उत्पादन न होने से दुर्बलता छाई रहती है, दूसरे उस भार को ढोने और हटाने में इतनी शक्ति खर्च हो जाती है जो दिन भर के परिश्रम से किसी भी प्रकार कम नहीं होती। आजीविका आदि के लिए किया गया श्रम कुछ घण्टे का ही होता है और उसकी पूर्ति शुद्ध रक्त से होती रहती है। पर यदि चौबीसों घंटे निरन्तर पाचन तंत्र से अनावश्यक भार ढोते रहना पड़े और क्षति पूर्ति के लिए उपयुक्त रक्त आहार न मिले तो फिर क्षति पूर्ति कैसे होगी संचित पूँजी की इस प्रकार निरन्तर घटोत्तरी होती रहती है और दुर्बलता तथा जीर्णता के रूप में उस आन्तरिक दिवालियापन का परिचय मिलने लगता है।
यह सब हानियाँ अधिक भोजन करने के फलस्वरूप उठानी पड़ती है। समझा यह जाता है कि अधिक कमाने की तरह अधिक मात्रा में खाना भी लाभदायक होता है। अधिक खायेंगे तो अधिक पोषण मिलेगा। यह मान्यता इतनी अधिक भ्रम पूर्ण और अनावश्यक है कि फैली हुई अन्ध परम्पराओं में उसे अत्यधिक हानिकारक माना जा सकता है। इसी प्रकार शकर, मसाले और चिकनाई के सहारे भूरे तले गये खाद्य पदार्थ स्वाद के नाम पर सर्वत्र प्रतिष्ठा पाते, महंगे बिकते और स्वाद पूर्वक अधिक मात्रा में खाये जाते है। नशे बाजी की तरह, अधिक खाना भी एक आदत बन जाती है और पेट पर भारी वजन डाले बिना उस घुटन का समाधान ही नहीं होता है। मस्तिष्क पर दबाव डालने वाले नशे मनः क्षेत्र को भयंकर क्षति पहुँचाते हैं फिर भी अभ्यस्त लोगों को उस बर्बादी के बिना चैन ही नहीं पड़ता। ठीक इसी प्रकार स्वादिष्ट व्यंजनों को अधिक मात्रा में खाते रहने की आदत ऐसी बुरी है जिस प्रकारान्तर से छोटी आत्म-हत्या के समतुल्य ही ठहराया जा सकता है। यह तलवार की तरह एक झटके में काम तमाम नहीं करती और न विष खाने जैसे भयंकर दुष्परिणाम ही तत्काल सामने आते है। इतनी भर है इस कुटेव की हानि, कि दीमक की तरह जीवन वृक्ष की जड़ों को खोखली करने में लगी रहती है और उसे असमय में ही धराशायी बना देती है।
दूर-दर्शिता का तकाजा यह है कि तथ्यों पर विचार करने और बुद्धिमत्ता पूर्ण रीति-नीति अपनाने का रवैया अपनाया जाय। भूलो को सुधारा जाय और औचित्य को कसौटी मानकर जीवन चर्या को सुव्यवस्थित बनाया जाय। ऐसी में सर्वतोमुखी हित साधन है और उसी में प्रगतिशील, सुसम्पन्न, उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना सन्निहित है। बुद्धिमत्ता अपनाने और औचित्य को जीवन व्यवहार में स्थान देने का साहस जुट सके तो उसका सर्वप्रथम उपयोग, आहार संबन्धी अवांछनीयता के निराकरण में किया जाना चाहिए। क्योंकि जीवन की स्थिरता और समर्थता का इसी से सीधा सम्बन्ध है। पूँजी पल्ले हो तभी ही उससे लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा, यदि संचय ही बर्बादी ही अन्धी दौड़ की तरह चल रही है तो प्रगति दौर प्रसन्नता की बात बनेगी ही कैसे?
अनुशासन की सर्वत्र प्रशंसा और महिमा है। इस प्रवृत्ति का अभ्यास आत्मानुशासन से किया जाना चाहिए और इस संदर्भ में प्रथम चरण-आहार की मात्रा को नियन्त्रित किया जाना चाहिए। विशेष अपवादों की बात दूसरी है; पर आम नीति के संबंध में इतना कहा जा सकता है कि अभ्यस्त मात्रा में आधी नहीं तो एक तिहाई कमी कर देने की गुँजाइश निश्चित रूप से है ही। यदि यह अभीष्ट हो तो खाने से पूर्व ही भोजन की मात्रा निर्धारित कर लेनी चाहिए। उतना ही नपा तुला आहार एक बार लेकर दूसरी बार लेने के शिष्टाचार को समाप्त कर देना चाहिए।
भोजन परोसने में अधिक आग्रह इन दिनों शिष्टाचार और प्रेम प्रदर्शन का अंग बना हुआ हैं। खाने - खिलाने में यह शिष्टाचार एक आवश्यकता बना हुआ है। पर वस्तुतः यह प्रकारान्तर से शत्रुता जैसी अहितकर है। परोसे हुए सामान की या तो जूठन बचती है या पेट पर अवाँछनीय भार लदता है। आर्थिक हानि तो स्पष्ट ही है। यदि कम मात्रा में खाया जाय तो पैसे की बचत होगी और अन्न संकट की जो विभीषिका देश पर छाई रहती है उससे सहज ही छुटकारा मिलेगा। भोजन के समय यदि पास बैठना ही आवश्यक हो तो अन्य मनोरंजक चर्चाएं की जा सकती है। आवश्यक नहीं कि अधिक खाने और अधिक परोसने का आग्रह ही प्रेम प्रदर्शन का अंग माना जाय।
दावतों का यह नया ढंग किसी कदर अधिक उपयुक्त है जिसमें अपने हाथ से आवश्यक वस्तु स्वयं परोस लेने का क्रम चल तो गया है। इसमें आग्रह के व्यक्तिगत दबाव से छुटकारा पाने का मार्ग मिल जाता है। यह एक आँशिक अच्छाई है जो दैनिक आहार ग्रहण करते हुए भी अपनाई जा सकती है। किन्तु यह उपचार भी आधा अधूरा ही है। उचित यह है कि एक बार ही विवेक को कसौटी पर कस कर खाद्य पदार्थों की मात्रा थाली में रखी जाय। पहले से ही अपने पेट की थाह रखनी चाहिए कि उसमें कितना डाला जाना हैं। उस नाप-तोल का ध्यान रखते हुए आधा या दो तिहाई पेट पूरा कर सकने जितनी मात्रा रख लेनी चाहिए। इसके बाद और न लेने की नीति ही अपनानी चाहिए।
यहां एक बात और भी ध्यान में रखने योग्य है कि अभ्यस्त चटोरेपन की आदत को भी लगे हाथों निरस्त किया जाय और कुशल चिकित्सक की तरह क्षुधा निवृत्ति ही नहीं उपयुक्त पोषण दे सकने योग्य खाद्य सामग्री को ग्रहण करने के उपरांत मात्र चटोरापन पूरा करने वाली सामग्री को साहसपूर्वक पहली बार ही लौटा दिया जाय, देखकर बहुधा अपनी ललक लिप्सा जागृत हो उठती है और ऐसी वस्तुएं लेली जाती हैं जो स्वाद की दृष्टि से भले ही रुचिकर हों स्वास्थ्य की दृष्टि से नितांत हानिकारक होती हैं। बुद्धिमत्ता का अनेक प्रयोजनों में जिस तरह उपयोग किया जाता है उसी तरह यह भी विवेकशीलता की कसौटी रहनी चाहिए कि, स्वाद के नाम पर भारभूत एवं हानिकारक पदार्थों का चुनाव तो नहीं कर लिया है। सीमित मात्रा की तरह खाद्य पदार्थों के सुपाच्य होने की बात को भी प्रमुखता दी जानी चाहिए और इस संदर्भ में कठोर आत्मानुशासन बरतना चाहिए।
बाहर खाने जाना हो तब के लिए परोसने और चुनने की सतर्कता बरतने और स्वीकार अस्वीकार करने का प्रश्न उठता है। घर में तो पहले से ही सुनिश्चित नीति निर्धारित कर ली जानी चाहिए। खाद्य पदार्थों में क्या ग्रहण किया जायेगा और किन्हें वर्जित रखा जायेगा यह सूची पहले से ही निर्णित रहनी चाहिए। पकाने के ढंग में हलकी मंद आग का उपयोग होना चाहिए। भाप में पकाने की पद्धति अपनाई जा सके तो वह सर्वोत्तम है। शकर, मसाले चिकनाई लिए बिना काम न चले तो उनकी मात्रा स्वल्प ही रखी जाय। भूनने तलने की अपेक्षा उबालने को पर्याप्त समझा जाय। मात्रा नपी-तुली रहे। ध्यान बढ़ाने की ओर नहीं चलना चाहिए वरन् कमी और कटौती की बात सोची जाय। स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि पदार्थों की मात्रा से नहीं उनके ठीक तरह पच जाने से ही शक्ति मिलती है। मात्रा को नहीं स्तर को वरिष्ठता दी जानी चाहिए। ठीक तरह बना हुआ सुपाच्य भोजन स्वल्प मात्रा में होते हुए भी इतनी शक्ति प्रदान कर देता है जितना कि भारभूत आहार दस गुनी मात्रा में लेने पर भी प्रयोजन पूरा नहीं कर सकता।
यह छोटे-छोटे अनुशासन हैं जो खाद्य पदार्थों की मात्रा स्तर पर लगाये जा सकते हैं। बार-बार खाने और पूरी तरह चबाकर उदरस्थ करने की नीति भी ऐसी है जो आहार अनुशासन श्रृंखला का आवश्यक अंग समझी जानी चाहिए। ठूंस कर खाने और चटोरेपन के गले में बांधे रहने की कुटेव से यदि छुटकारा पाया जा सके तो समझना चाहिए मौत के दिन बहुत आगे धकेल दिए। जिंदगी की अवधि लंबी कर ली और समर्थ स्वस्थता का आनंद मिलते रहने की संभावना सुनिश्चित हो गई। थोड़े से आत्मानुशासन को अपनाकर यदि मौत को धकेलना और जिंदगी का अधिक लंबा अधिक रसास्वादन करते रहना संभव होता है तो निश्चय ही यह किसी प्रकार घाटे का सौदा नहीं है।