Magazine - Year 1979 - July 1979
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्राकृतिक प्रकोपों का कारण और निवारण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पिछले दशक में संसार को प्राकृतिक प्रकोपों के बीच से अधिक गुजरना पड़ा है। सूखा, बाढ़, भूकम्प कि घटनाओं में तीन - चार वर्षों से जितनी वृद्धि हुई है उतना पहले कभी नहीं देखा गया। मौसम में इतना अप्रत्याशित परिवर्तन शायद ही कभी हुआ हो। वातावरण इतना असन्तुलित हो गया है कि यह ठीक पता नहीं कि मौसम में कब क्या परिवर्तन हो जाय। कहीं ठंड बढ़ी है तो कहीं गर्मी, अभी हाल में प्रकाशित समाचार के अनुसार सहारा के रेगिस्तान में ओले पड़े तथा भयंकर बारिश हुई है। उस रेगिस्तानी इलाके में ओले पड़ना एक आश्चर्य जनक, अद्भुत एवं अप्रत्याशित घटना है। प्रकृति को इतना क्रुद्ध पहले कभी नहीं देखा गया है। मौसम की विचित्रता, प्राकृतिक असन्तुलन को देखने से लगता है कि कहीं हम प्रलय काल के निकट तो नहीं है जिसकी कल्पना प्रस्तुत करते हुए ऋषि कहता है-
यत्र मत्र भूस्खलनं च कदाचित् भूकम्पनम्।
क्वचित् बृष्टिरनाबृष्टिः जायते तस्मिनं क्षने॥
(मत्स्य पंराण)
उस समय सर्वत्र भूस्खलन और भूकम्प आते हैं। कहीं अतिवृष्टि और कहीं अनावृष्टि होती है।
तथ्य चाहे जो भी हो प्रकृति के असन्तुलन की बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। अप्रत्याशित प्रकृति प्रकोप यह सोचने को बाध्य करते है कि इस असन्तुलन का कारण क्या है? दैवीय प्रकोप या मनुष्य की स्वयं विनिर्मित परिस्थितियाँ। आध्यात्म तत्व दर्शन के अनुसार इस प्रकार के प्रकृति प्रकोप को दैवी आक्रोश समझा जा सकता है और उसका कारण मनुष्य की उस संकीर्ण स्वार्थपरता को माना जा सकता हैं जिसके कारण देवता रुष्ट होते है। ऐसे प्रसंग न आने पायें उसके लिये मनुष्यों और देवों के बीच परस्पर सद्भाव सम्पन्न आदान-प्रदान बना रहना चाहिए। यह कार्य यज्ञ परम्परा का प्रखर बनाये रहने से ही सम्पन्न हो सकता हैं। गीता का कथन है-
देवान्यावयत नेन ते देवा भावयन्तु वः।
तुम सब यज्ञीय कर्मों द्वारा देवताओं को प्रसन्न करो। देवता प्रसन्न होकर अपने अनुग्रह की वर्षा करेंगे।
देवताओं को प्रसन्न रखने से अभिप्राय यहाँ प्रकृति को संतुलित एवं व्यवस्थित रखने से भी है। प्रकृति दैवीय शक्तियों की क्रीड़ा भूमि है। उसके अनुदानों से ही विश्व वसुंधरा पुष्पित - पल्लवित होती तथा समुन्नत बनती है। विभिन्न दैवीय शक्तियाँ ही अपना स्थूल परिचय प्रकृति की हलचल बन कर देती है। जिनका अलंकारिक वर्णन पौराणिक उपाख्यानों में आता है। इनमें वर्णन है कि देवता मनुष्य के सत्कर्मों से प्रसन्न होकर अनुदान बखेरते हैं। इन देवताओं के अनुग्रह को प्राप्त करने के लिये इन्हें प्रसन्न रखना होता है। प्रसन्न रखने का अभिप्राय यहाँ उन्हें प्रसाद, उपहार देने से नहीं है न उनकी आवश्यकता ही देवी देवताओं को है। वे शक्तियाँ मात्र अनुनय - विनय पर प्रसन्न नहीं होतीं। मानवी मर्यादा के नियमों पर चलकर तथा आदर्शवादी परम्परा अपनाकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है।
बिजली प्राप्त करने के लिये धनऋण तारों की व्यवस्थिति तार - लाइन बनानी पड़ती है? विद्युत संचार की प्रक्रिया तब कहीं जाकर आरम्भ होती है और बल्ब में चमकती, पंखे में चलती तथा हीटर को गर्म करती देखी जाती है। इसे चाहे दैवीय अनुग्रह माना जाय अथवा नियम मर्यादाओं के पालन का प्रतिफल।
प्रकृति के अनुग्रह को भी इसी प्रकार समझा जा सकता है। यह अनुदान उच्चस्तरीय नियम - व्यवस्था के अधीन चलते रहने से ही मिलता रहता है। जिस प्रकार बिजली के नंगे तारों को छूने वाले उसके प्रकोप के भाजन बनते, दुर्घटना ग्रस्त होकर मरते देखे जाते हैं उसी प्रकार प्राकृतिक व्यवस्था में अवरोध पैदा करने वाले, उसके कोप का भाजन बनते है। चाहे उसे प्राकृतिक प्रकोप कहा जाय चाहे मानवी कृत्य अथवा दैवी आक्रोश।
प्रकृति के प्रकोपों में यह बढ़ोत्तरी कुछ वर्षों से ही आयी हैं। यह बढ़ोत्तरी विघातक अनुसंधानों, परमाणु परीक्षणों के साथ बढ़ी है। औद्योगीकरण से प्रदूषण के संकट का अभी हल नहीं निकल पाया था कि परमाणु - परीक्षण की विभीषिका भी आकर जुट गई। इस दोहरे प्रहार ने सारी प्राकृतिक व्यवस्था को ही चरमरा दिया।
‘न्यूटन का प्रतिपादन है-”प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। इस विपरीत प्रक्रिया के वेग एवं मात्रा में ही समानता नहीं होती बल्कि उसके स्वरूप एवं प्रतिफल में भी एक रूपता होती है।”
अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे का बुरा सर्वविदित है। कहने को तो यह सिद्धान्त पुराना पड़ गया किन्तु इसके पीछे तथ्य सनातन है। यह सिद्धान्त सृष्टि के कण-कण में कार्य कर रहा है। गेहूँ का बीज पृथ्वी में पड़कर असंख्यों बीज के रूप में फलित होता है। अच्छाइयाँ एवं बुराइयाँ अपने अनुरूप प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती है।
शास्त्रों में वर्णन है कि मनुष्य जितनी गंदगी फैलाता है उसकी स्वच्छता के लिये तथा वातावरण को परिशोधित करने के लिये यज्ञ कृत्य करने चाहिये। यज्ञ देवता वातावरण को परिशोधित करते तथा सन्तुलित रखते हैं। उसके प्रभाव से ऋतुएँ समय पर आती है। सन्तुलित वातावरण मानवी सुख-समृद्धि का आधार बनता है। पौष्टिक अन्न, वनस्पतियाँ उपजाती है। मनुष्य स्वस्थ एवं निरोग बनता है। यज्ञ प्रयोगों के सत्परिणामों से सभी परिचित है। अतीत में जब तक यज्ञ प्रक्रिया चलती रही प्रकृति का सन्तुलन बना रहा। कहते हैं कि भारत में कभी दूध-दही की नदियाँ बहती थी। आध्यात्मिक ही नहीं भौतिक अनुदानों से भी भारत ने विश्व-मानव को तृप्त किया था। कालान्तर में यही प्रक्रिया बन्द हो गई। मनुष्य का भ्रष्ट चिन्तन तथा दुष्ट कर्तृत्व वातावरण में ऐसे प्रदूषण भरने लगा जो वायुमण्डल में बढ़ती जाने वाली विषाक्तता से भी अधिक भयंकर है।
निस्सन्देह प्राकृतिक असन्तुलन का दोषी मनुष्य स्वयं है। दोषारोपण चाहे भगवान पर किया जाय अथवा देवी देवताओ पर, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। परिणामों को तो भुगतना ही होगा। इन प्राकृतिक प्रकोपों ने अपार सम्पत्ति को तो नष्ट किया ही, नर संहार भी कम नहीं हुआ। समस्त प्राणियों को उसका श्राप सहना पड़ा। इस क्षति का लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो प्रतीत होगा कि प्रकृति एक हाथ से देकर दूसरे हाथ से लौटाने पर उतारू हो गई है।
भूकम्प, बाढ़, भूस्खलन जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के कारणों पर भी विचार किया जाय तो इस संदर्भ में आँखें खोल देने वाले तथ्य सामने उपस्थित होते हैं। भूकम्प के बारे में ‘इलास्टिक रिवाउण्ड सिद्धान्त” सर्व विदित है। इसके अनुसार अनेक स्थानों पर पृथ्वी काँपती है जिससे टूट-फूट होती है। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ पलभर में धराशायी हो जाती हैं। विपुल धन-शक्ति एवं जनशक्ति होती है। नष्ट होती है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार पृथ्वी एक गर्म पिघलता हुआ गोला है जिसकी ऊपरी परत पर मिट्टी की एक हल्की एवं ठण्डी परत जमी है। कई स्थानों पर यह पपड़ी कमजोर है। बनावट में असमानता होने तथा असमान फैलाव -सिकुड़न के कारण पृथ्वी के भीतर स्थित चट्टानें कहीं-कहीं बनी हुई रहती है। जब तनाव किसी प्रकार बढ़ जाता है अथवा किसी बाहरी दबाव से झटका लगता है तब वे टूट जाती है। यही प्रक्रिया भूकम्प का कारण बनती है। पृथ्वी की यह पपड़ी जहाँ-जहाँ कमजोर हैं प्रायः भूकम्प का झटका वही महसूस किया जाता है।
परमाणु विस्फोट के समय उस स्थान की पृथ्वी में कम्पन होता है। यह कम्पन कमजोर एवं तनाव पूर्ण चट्टानों को झटका देकर तोड़ देती है। यह आवश्यक नहीं कि जिस स्थान पर परमाणु परीक्षण हो रहा है वहीं की चट्टानें टूटे बल्कि दूरवर्ती पृथ्वी की कमजोर चट्टानों को भी तोड़ सकती है। भूकम्प का झटका इन स्थानों पर महसूस किया जाता है।
अनेक स्थानों पर भूकम्प का झटका अनुभव होने का कारण है भूकम्प से उठी कम्पन तरंगों का पृथ्वी के एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलना। ये तरंगें दो प्रकार की होती है। एक तरंग तो पृथ्वी के ऊपरी पृष्ठ से होकर चलती है जिसे पृष्ठीय तरंग कहते है। दूसरी तरंग पृथ्वी के भीतर जाकर दो भागों बट जाती है। एक को एस॰ तथा दूसरी को पी. तरंगें कहते हैं। विभिन्न गति से चलती हुई ये तरंगें पृथ्वी के अधिक घने केन्द्रीय भाग से टकराकर लौटती है। जहाँ दोनों तरंगें एक दूसरे को प्रचलित करती हैं, वहाँ भूकम्प का झटका तीव्र महसूस किया जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि बहुत समय पूर्व उत्तरकाशी के पास हुए भू-स्खलन जिसके फलस्वरूप हिमालय की विशाल चट्टानें टूटकर गिर पड़ी थी, के पीछे उपरोक्त प्रक्रिया ही कारण थी।
परमाणु परीक्षणों से उत्पन्न होने वाली भूगर्भीय तरंगों से भूकम्पों की संख्या में अभिवृद्धि हुई है। अनुवाद प्रक्रिया द्वारा ये तरंगें पृथ्वी की मजबूत चट्टानों को भी तोड़ने में समर्थ हैं। इनकी गति यदि पृथ्वी में चट्टानों की प्राकृतिक कम्पन के समान है तो चट्टानों के टूटने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। रिजोनेन्स की शक्ति से हर कोई परिचित है। पुल पार करते हुए सिपाहियों के कदम मार्च को तोड़ दिया जाता है। एक साथ, एक गति एक ताल के क्रम से ध्वनि के रिजोनेन्स से पुल टूटने की सम्भावना रहती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक स्थान के परमाणु परीक्षणों से किसी अन्य स्थान पर कभी भी, बहुत समय बाद भी भूकम्प आ सकता है।
समुद्री तूफानों के आने में भी इस प्रकार के परीक्षणों की बात वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे है। सामान्य लहरों की अपेक्षा कभी-कभी तो इन तूफानों में लहरों की ऊँचाई अप्रत्याशित रूप से डेढ़ सौ फीट तक पहुँच जाती है। इनका वेग दो सौ मील प्रति घण्टा तक देखा गया है। पिछले दिनों आंध्रप्रदेश में आये भयंकर तूफान में उन लहरों की विनाशकारी शक्ति देखने में आयी। विश्वास किया जाता है समुद्री तूफानी लहरों का सम्बन्ध ज्वार लहरों से है। किन्तु वैज्ञानिकों का कहना है कि इन तूफानी लहरों का कारण पृथ्वी की सतह अथवा समुद्र के भीतर आये भूकम्प भी होते है।
बाढ़ की घटनाओं में असामान्य वृद्धि कुछ वर्षों से देखी जा रही है। अभी पिछले वर्ष की भयंकर बाढ़ ने करोड़ों व्यक्तियों को बेघर कर दिया। असंख्यों लोग मरे न केवल भारत बल्कि अन्य देशों को भी भयंकर बाढ़ का सामना करना पड़ा है। बाढ़ के कारणों का पता लगाने पर जो तथ्य सामने आये है वे बताते है कि यह स्वयं मनुष्य की क्रियाएँ है। जो प्रतिक्रिया स्वरूप इस प्रकार की विभीषिकाएँ खड़ी करती है। सामान्यतया वर्षा की प्रक्रिया में समुद्र का पानी सूर्य की गर्मी में भाप बनकर उड़ता रहता है। वही ठण्डा होकर जल की बूंदों में बदल जाता है। इन्हीं बूंद समूहों को बादल कहते हैं। ये बूँदें हल्की होने के कारण हवा में तैरती रहती तथा नीचे नहीं गिरती। इन बूँदों का आकार अतिरिक्त भाप के ठण्डा होते रहने से बढ़ जाता है। बड़ी बूंदें भार बढ़ने के कारण पृथ्वी पर गिरने लगती है।यह वर्षा की सामान्य प्रक्रिया सन्तुलित रूप से चलती रहती है। असन्तुलन की स्थिति तब बनती है जब वायुमंडल में स्थित आक्सीजन नाइट्रोजन तथा कार्बन डाई आक्साइड आवेश युक्त हो जाती है। विस्फोट से उत्पन्न रेडियो धर्मी पदार्थ ऊपर वायुमण्डल में जाकर आक्सीजन नाइट्रोजन और कार्बन डाई आक्साइड को आवेशित करते है। ‘आयन’ की स्थिति में आने पर इन पर पानी की बूंदें अधिक जना होने लगती हैं। बूँदों का अतिरिक्त जमाव अधिक वर्षा का कारण बनता है।
नदियों में आई बाढ़ का एक कारण परमाणु-पुरी-क्षणों से उत्पन्न अधिक ताप से पहाड़ों पर जमी बर्फ का पिघलना भी है। इसके साथ वर्षा का संयोग जुट जाने से स्थिति और भी संकट पूर्ण हो जाती है।
प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। परिणाम सामने है- विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक विक्षोभ। निस्सन्देह वर्तमान संकट पूर्ण परिस्थितियों के लिये उत्तरदायी मनुष्य स्वयं है। इस विषाक्तता के परिशोधन की व्यवस्था तो बनाई ही जानी चाहिए नये परमाणु परीक्षणों पर सख्ती से रोक लगनी चाहिये। साथ ही अधिक उत्पादन के लिये विशालकाय उद्योगों की स्थापना की होड़ सभी देशों में चल रही है इस अविवेकपूर्ण उत्साह को बन्द किया जाय। बड़े उद्योगों से उत्पादन तो बढ़ेगा किन्तु उनसे उत्पन्न होने वाली विषाक्तता का यदि लेखा जोखा लिया जाय तो उत्पादन की अपेक्षा कहीं अधिक महंगा पड़ेगा। प्रदूषण की वृद्धि रोकने के लिए बड़े उद्योगों का कुटीर उद्योगों में परिवर्तन किया जाय। उससे उत्पादन में कमी जो सकती है। किन्तु दूरगामी परिणामों की दृष्टि से देखा जाय तो बड़े उद्योगों से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण जितनी क्षति पहुँचाते हैं। उसकी तुलना में यह हानि अल्प होगी। वस्तुओं का उत्पादन कम हो तो भी गुजारा किया जा सकता है। आवश्यकताओं में कटौती करके काम चलाया जा सकता है, किन्तु उद्योगों के प्रदूषण की प्रतिक्रिया -स्वरूप होने वाले प्राकृतिक विक्षोभों को सहन करना असह्य है।
वातावरण की विषाक्तता के परिशोधन में यह उपचार की सनातन परम्परा ही सफल हो सकती है। यज्ञीय - दर्शन को जन-सामान्य के चिन्तन में उतारा जा सके तो सत्प्रवृत्तियों के विकास में असामान्य योगदान मिलेगा। चिन्तन की भ्रष्टता एवं कर्तृत्व की निकृष्टता का परिष्कार भी इसी प्रकार सम्भव है। इस बात से कोई भी विचारशील इन्कार नहीं कर सकता कि भ्रष्ट चिन्तन एवं निकृष्ट कर्तृत्व वातावरण को उसी प्रकार दूषित कर रहे है जिस प्रकार परमाणविक परीक्षण।
यज्ञे देवमा की प्रतिष्ठापना इस युग की माँग हैं। सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन यज्ञीय प्रवृत्तियों के प्रसार से ही सम्भव है। वातावरण की सन्तुलन परिशोधन तथा प्राकृतिक प्रकोपों के रोकथाम के लिए यज्ञानुष्ठान का प्रचलन व्यापक स्तर पर करना होगा।