Magazine - Year 1979 - July 1979
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Language: HINDI
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आर्थिक प्रगति नैतिक प्राण प्रतिष्ठा से ही संभव होगी.
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देश में आर्थिक क्रांति की आवश्यकता है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। पिछली पंचवर्षीय योजनाएं इस प्रयोजन के लिए बनती रही हैं, पर उनसे कोई विशेष-प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ। कृषि, उद्योग आदि के जो साधन बढ़ते हुए थे वे जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्पन्न होती रहने वाली नई आवश्यकताओं की तुलना नहीं कर पाते वरन् कुछ पीछे ही हट जाते हैं। मुद्रास्फीति के कारण रुपये के गिरे हुए मूल्य को देखते हुए प्रति व्यक्ति आय वृद्धि का थोड़ा-सा अनुमान लगाया भी जा सकता है पर वह काल्पनिक है क्योंकि बढ़ती जा रही महंगाई को देखते हुए उस तनिक-सी आय वृद्धि का कोई महत्व नहीं रह जाता। शिक्षितों और अशिक्षितों की बेकारी घटती नहीं वरन् लगातार बढ़ती ही जाती है। आजीविका ढूंढ़ने की प्रतीक्षा में बैठे हुए समर्थ लोगों की संख्या दो करोड़ से ऊपर है। स्त्री, बच्चे, वृद्ध, रुग्ण, अपंग इनके अतिरिक्त हैं। यदि काम मिले तो वे भी कुछ उपार्जन कर सकते हैं, पर काम है कहां? विदेशों का कर्ज बढ़ रहा है और अब तक जो लिया गया है उसकी ब्याज ही हर साल इतनी हो जाती है जिसे चुका सकना वर्तमान स्थिति को देखते हुए नितांत कठिन है।
स्पष्ट है कि आर्थिक कठिनाई के कारण प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है। स्वास्थ्य, शिक्षा, निवास जैसी प्राथमिक आवश्यकताएं अर्थ साधन मांगती हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि किसी विकासोन्मुख देश के नागरिकों की निर्वाह आवश्यकता भली प्रकार होते रहने के साधन उपलब्ध हों। कमी पड़ने पर कई तरह की विकृतियां उत्पन्न होती हैं। व्यक्ति स्वयं अविकसित रह जाता है और समाज की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था खतरे में पड़ जाती है।
कहना न होगा कि पूंजी विनियोग, भूमि वितरण, संपत्ति का सीमाकरण, लघु उद्योगों का विकास आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो थोड़ी-सी प्रशासनिक प्रखरता जुटा लिये जाने पर ही संभव हो सकते है और कुछ ऐसे हैं जिनके लिए नई पूंजी की आवश्यकता पड़ेगी। विचारणीय है कि क्या ऐसा वर्तमान स्थिति में नहीं हो सकता? भूमि वितरण और संपत्ति सीमा निर्धारण में थोड़े से कानूनी हेर-फेर करने और उन पर ईमानदारी से अमल करने भर से बहुत बड़ा काम हो सकता है। पूंजी जुटाने के लिए नये स्रोत ढूंढ़ने की अपेक्षा जो उपलब्ध है उसे ही हथियाने में क्यों कठिनाई होनी चाहिए? बांचु समिति का अनुमान है कि देश में 7000 करोड़ रुपये का काला धन है। इसमें थोड़ी-सी चतुरता का परिचय देकर इसमें से आधा धन तत्काल नये उद्योगों के लिए प्राप्त किया जा सकता है। साधन संपन्न लोगों पर 850 करोड़ रुपये की कर वसूली पड़ी हुई है। इसमें से समझौते की नीति अपनाकर भी आधी रकम प्राप्त की जा सकती है। सहकारी समितियों के माध्यम से दिया गया 300 करोड़ रुपये का ऋण ऐसे ही कागजी बन गया है। यह जिस समझ के साथ लिया और दिया गया है उसने यह रकम एक प्रकार से दलदल में फंसा दी है। तो भी प्रयत्न करने पर आधा पैसा लौट ही सकता है। सरकारी उद्योगों में 5000 करोड़ रुपये का धन लगा हुआ है। यदि इनका संचालन नीतिपूर्वक हो तो 10 प्रतिशत शुद्ध लाभ मिल सकता है और 500 करोड़ रुपया वार्षिक की नई आय हो सकती है। इसके अतिरिक्त खाली जमीनों का राष्ट्रीयकरण जैसे अन्य उपाय भी हैं जिनसे राष्ट्रीय पूंजी बढ़ाकर उसे देश की आर्थिक प्रगति के साधन जुटाने में लगाया जा सकता है।
काले धन को ही लें। वह पूंजीपतियों के पास जितना है उससे कहीं अधिक राजनेताओं और बड़े अफसरों के पास है। नेताओं को चुनावों में अनाप-शनाप खर्च करने के लिए तथा अपनी मजबूती के लिए पैसा चाहिए। अफसर बहती गंगा में हाथ धोने से क्यों चूूूूूूूूकें? उन्हें कमाना तो उन्हीं से है जिनके पास काले धन के स्त्रोत है। यदि वे बन्द हो जायेंगे तो उन्हें कहाँ से मिलेगा। ऐसी दशा में बाहर से रोकथाम का ढोल पीटने पर भी ये कालेधन की उत्पत्ति साधनों का प्रश्रय दिये रहती है। इस स्थिति में काला धन उन्हीं छोटे लोगों में बटोरा जा सकता है जो इन बड़े आदमियों के संपर्क से दूर हैं। इस स्थिति के रहते टैक्सों से होने वाली आय का उचित अंश सरकार को मिल सकेगा ऐसी संभावना कम ही है।
उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का लाभ जनता को-सरकार को मिलना चाहिये। उद्योगों के लिए दिये गये ऋण के फल स्वरूप बेकारी दूर होनी चाहिये। पर पर्यवेक्षण करने पर निराशाजनक तथ्य ही सामने आते है। जिनके हाथ में इन सूत्रों के संचालन का उत्तरदायित्व है वे उसे निबाहने में प्रयोग अथवा असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं।
श्रम संगठनों का उद्देश्य न केवल श्रमिक स्वार्थों का अधिकाधिक पोषण होना चाहिए वरन् यह भी होना चाहिए कि श्रम शक्ति का समुचित लाभ समाज को मिले। काम के घंटे बर्बाद करने, आलस्य और उपेक्षा बरतने, टकराव, तोड़−फोड़ और हड़तालों का माहौल बनाये रहने भर के लिए यदि श्रम, संगठन बनते और चलते हैं तो उनसे देश की आर्थिक समृद्धि में क्या योगदान मिलेगा?
भूमि सीमा सुधार कानून बने हुए मुँढृतें बीत गई। देश की 34 करोड़ एकड़ जमीन में से लगभग 3 करोड़ एकड़ जमीन वितरण योग्य थी। उसमें से केवल घटिया दर्जे की 20 लाख एकड़ जमीन प्राप्त की जा सकी है। बाकी मिली भगत के पेट में चली गई। यदि ईमानदारी से वह कार्य हुआ होता तो अन्न उत्पादन बढ़ता और देहात के बेरोजगारों को काम मिल सकता था।
शहरी बड़े उद्योगों और कारखानों की ओर ताकते रहने की अपेक्षा-असली भारत की ओर ध्यान देना पड़ेगा जो छोटे देहातों में बिखरा पड़ा है। इसके लिए सिंचाई, भूमि विकास, वन विकास, विद्युतीकरण, गृह-निर्माण, सड़क निर्माण, पशु व्यवसाय, पेय जल पूर्ति, लघु उद्योग विकास जैसी परियोजनाओं को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है पर कार्य नौसिखिये बाबू लोगों की कागजी घुड़दौड़ और ठेकेदारी के नये स्त्रोत खोल देने भर से पूरे नहीं हो सकते। इन कार्यों पर अब तक करोड़ों रुपया खर्च हो चुका है पर उसका परिणाम देखकर यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि इस प्रयोजन में लगे हुए श्रम, बुद्धि धन तथा साधनों का ठीक उपयोग हो गया।
सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में आर्थिक प्रगति के लिए अपने-अपने ढंग से जो प्रयत्न हो रहे हैं उनके बाहरी स्वरूप में नुकता चीनी करने की गुंजाइश नहीं है पर एक बहुत बड़ी कमी रही जाती हैं सचाई और तत्परता की कमी, यह तत्व जब तक पैदा न किया जायगा प्रचुर प्रयास और असीम साधन होते हुए भी कोई कहने लायक सफलता हाथ न लगेगी और चिरकाल तक समृद्धि के दिवा स्वप्न देखते हुए प्रतीक्षा में बैठा रहना पड़ेगा।
साधन स्वल्प होने से भी काम चल सकता हैं। आवश्यकता चरित्र निष्ठा की है। इस दिशा में मार्गदर्शन उन्हें करना चाहिए जिन्हें नेतृत्व का अवसर प्राप्त है। उचित और सरल यही है कि अर्थ व्यवस्था से लेकर शिक्षा सुरक्षा तक के सभी क्षेत्रों में लोक नायकों की असंदिग्ध ईमानदारी और कर्तव्य परायणता काम करे। तब नौकरशाही की वे चालें भी निरस्त हो जायेंगी जो सरकारी धन और जनता की सुविधा से खिलवाड़ करती रहती है और प्रगति के रथ को आगे बढ़ने देने की अपेक्षा पीछे ही घसीटती हैं।
असावधान नेतृत्व जनता में नव चेतना उत्पन्न नहीं कर सकता और असावधान जनता पर से असावधान नेतृत्व का लदा भार हल्का नहीं हो सकता। हमें सर्वतोमुखी सतर्कता और प्रखरता उत्पन्न करनी होगी जिसका सबसे पहला कदम होगा चरित्रनिष्ठा की पुनः प्रायः प्रतिष्ठा। यह सरकारी और गैर सरकारी दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से आवश्यक है। इस आवश्यकता को पूरा किये बिना हम न तो आर्थिक प्रगति का स्वप्न, पूरा कर सकेंगे और न अन्य क्षेत्रों में समृद्ध सशक्त बन सकेंगे।