Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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सान्निध्य की सार्थकता अनुशासन में
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आत्मा के कौशल से शरीर का निर्वाह चलता है और शरीर के सहयोग से आत्मा अपना लक्ष्य पूरा कर पाता है। यह सम्भव तभी होता है जब दोनों के बीच उच्चस्तरीय सहयोग बना रहे। यदि इनमें से एक पक्ष भी असहयोग या विग्रह करे तो दूसरे पक्ष की ही नहीं, उसकी अपनी भी दुर्गति होगी। आत्मा को शरीर का पोषण और नियमन करना चाहिए तथा शरीर को आत्मा के निमित्त परिश्रम करने एवं अनुशासन पालने में तत्पर रहना चाहिये। यही है एक मात्र सुख शान्ति का मार्ग।
संसार की पदार्थ सत्ता विराट् ब्रह्म का शरीर है। सदुद्देश्यों का प्रतीक प्रतिनिधि परमात्मा इसका अधिपति है। दोनों के मध्य सहयोग रहना चाहिये। इसमें परमात्मा पक्ष ने सृष्टि को समर्थ और समुन्नत बनाये रहने में कहीं कोई चूक नहीं रहने दी है। उसके अनुदान और नियम पदार्थों को उपयोगी और प्राणियों को प्रसन्न रखने के निमित्त अपना काम बराबर करते रहते हैं। शरीर सत्ता के दल-दल में फँसी हुई जीव चेतना ही उच्छृंखलता बरतती है और ईश्वरीय अनुशासन के विरुद्ध विद्रोह का झंडा खड़ा करती है। यही है व्यापक असन्तुलन का एक मात्र कारण जिसने इस सुन्दर विश्व उद्यान में अनेकानेक विग्रह एवं व्यवधान खड़े किये हैं।
इस सर्वभक्षी संकट का एक ही कारण है- चेतना और पदार्थ के मध्यवर्ती जीवन का आदर्श और स्वरूप विकृत हो जाता है। यदि जीवनचर्या में आत्मा और सम्पदा का तालमेल बिठाये रहने की विवेकशीलता बनी रहती तो सर्वत्र सुख-शान्ति का ही वातावरण दिखता। अनिष्टों और संकटों से घटाटोप का दैवी प्रकोप नहीं, मनुष्य द्वारा अपने पैरा कुल्हाड़ी मारना कहना चाहिये। समापन भी आमंत्रण देने वाले को ही करना होगा। विनाश की विभीषिकाएँ मनुष्य ने अपने चिन्तन और चरित्र में उच्छृंखलता की मात्रा बढ़ाकर ही की है। यदि विपत्तियां अरुचि कर या असहाय प्रतीत होती हों तो उसे ही अपने कदम वापिस लौटाने होंगे।
जीवन के दो पक्ष हैं- शरीर प्रकृति का प्रतिनिधि, आत्मा विराट् चेतना की अंशधर। दोनों एक दूसरे के साथ रहें उतना ही पर्याप्त नहीं, वरन् होना यह भी चाहिए कि दोनों एक दूसरे की प्रगति तथा प्रसन्नता का भी ध्यान रखें। सान्निध्य ही नहीं, सहयोग भी चाहिये। सहयोग न होने पर जो कुछ बच रहता है उससे विसंगतियाँ ही उत्पन्न होती हैं। जेल में एक साथ अनेकों कैदी रहते हैं। मुसाफिर खाने में ढेरों लोग सटे बैठे रहते हैं, बाड़े में कितनी ही भेड़ें बन्द रहती हैं, पर साथ रहने से किसी का कुछ बनता नहीं, उलटी असुविधा ही होती है। आत्मा और शरीर दोनों साथ-साथ रहें तो, पर एक दूसरे से श्रेय साधन में रुचि न लें तो फिर उस उपेक्षापूर्ण निर्बाद्ध से जीवनचर्या नीरस और निरर्थक ही बनती जाती है।
साथ रहने वाले यदि एक दूसरे के विरुद्ध आचरण करें तब तो समझना चाहिए कि संकट ही खड़ा हुआ। चारपाई में खटमल, सिर में जुंए, कमरे में मच्छर तथा घर में साँप, बिच्छू, चूहे, छछूँदर अति समीप रहते हुये भी अपने आश्रयदाता के लिये विपत्ति बन कर ही रहते हैं। अधिपति इन सहचरों से पिंड छुड़ाने की बात ही सोचता रहता है। शरीर और आत्मा के एक साथ रहने से प्राणी जीवित तो रहता है, पर सहयोग के अभाव में न कहीं आनन्द दिखता है और न प्रगति का आधार बनता है। उलटे खिन्नता, उद्विग्नता के कारण दोनों एक दूसरे से पिण्ड छुड़ाने की बात सोचने लगते हैं।
आत्मा और काया को एक दूसरे का हित साधक बन कर रहना चाहिये और सच्चे अर्थों में दाम्पत्य-जीवन का आदर्श उपस्थित करना चाहिये। इस क्षेत्र में क्षणिक आकर्षण एवं उत्तेजन से बचना और चिरस्थायी हित साधन का ध्यान रखना होता है। अनावश्यक आवेश के प्रसंग आने पर समझदारों में से एक दूसरे आतुर को समझाता और रोकता है। उसका समय बुरा लगने जैसे अप्रिय अवसर रहने पर भी विवेकवान दंपत्ति अपने साथी को अहित कर मार्ग पर नहीं जाने देते। इसमें असहयोग या विरोध भी करना पड़ सकता है। यों ऐसे अवसर अपवाद स्वरूप ही कभी कभी आते हैं। साधारणतया स्नेह सहयोग का आदान-प्रदान ही चलता रहता है। दूरदर्शिता अन्तरः हितकर ही होती है। उसे अपनाने पर जो सामयिक मनोमालिन्य उभरा था वह भी देर तक टिक नहीं पाता।
आत्मा का दूरगामी हित साधन काया करे इसके लिए उसका सहयोग आदर्शवादी सत्प्रवृत्तियों को क्रियान्वित करने में होना चाहिए। शरीर की प्रभृति इस ढाँचे में ढलनी चाहिये कि उसकी ज्ञानेन्द्रियों को उच्चस्तरीय क्रिया-कलापों में रस आने लगे, उसकी कर्मेंद्रिय ऐसे श्रम करने में उत्साह प्रकट करने लगे, साथ ही यदि कुसंस्कारों का दबाव अनुचित कृत्य करने में हो, तो उसकी प्रतिक्रिया आत्मा का अहित होने का ध्यान रखते हुए असहयोग अनुत्साह जैसी होनी चाहिये।
यह शरीर पक्ष का नीति निर्धारण हुआ। अब आत्मा की, चेतना की, जिम्मेदारी आती है। उसे काया को निरोग, बलिष्ठ एवं दीर्घजीवी बनाये रहने के उत्तरदायित्व को ध्यान में रखते हुए ऐसा मार्ग-दर्शन करना चाहिये जिसमें मात्र औचित्य भरी गतिविधियाँ ही अपनाई जाती रहें। ऐसा कुछ न बन पड़े जो तात्कालिक उत्तेजना की दृष्टि से तो आकर्षक लगे किन्तु परिणाम में काया को क्षीण दुर्बल बनाने लगे। बच्चे सभी को प्यारे लगते हैं, पर उनकी चित्र-विचित्र फरमाइशों को तत्काल पूरा करते, रहने के लिये कोई अभिभावक सहमत नहीं होता। जो उचित है, उतनी ही मात्रा में बच्चे का मन रखा जाता है। शेष के लिये इधर-उधर की बातों में लगा कर या स्पष्ट मना करके उसे बालहठ छोड़ने की स्थिति तक पहुँचा दिया जाता है। आत्मा की वरिष्ठता इसी में है कि वह शरीर रूपी पत्नी का आत्यांतिक हित देखे उसकी अनगढ़ फरमाइशों के प्रति उदासीनता ही बरते। साथ ही जो उचित एवं आवश्यक है उसे पूरा करने में उत्साह दिखाने तथा सहयोग करने में तनिक भी त्रुटि न रहने दे।
काया को निरोग दीर्घजीवी बनाने का उत्तरदायित्व आत्मा को वहन करना चाहिये। इसके लिये चटोरी आदतें और बचकानी मचलनें यदि रोकनी पड़े तो उसे विग्रह नहीं हित साधन ही समझा जाय। इतना ही नहीं देखना यह भी होगा कि उसे अपयश एवं तिरस्कार का भाजन न बनना पड़े। अकर्म करने से बदनामी सहनी पड़ती है और अप्रामाणिकता लद जाने से तिरस्कार बरसता है। स्वस्थ ही नहीं शरीर को यशस्वी एवं प्रामाणिक भी होना चाहिये। इसके लिए यह आवश्यक है कि चेतना काया को संचित कुसंस्कारिता के आधार पर अवाँछनीय आचरण करने की छूट न दे। जहाँ औचित्य के लिये प्रोत्साहन देना आवश्यक है वहाँ यह भी कर्तव्य है कि अनुचित को निरस्त किया जाय। वैसे आग्रह से मीठे, कडुए ढंग से अस्वीकृत कर दिया जाय। ऐसी विवेकपूर्ण नीति अपनाने पर ही आत्मा का काया के लिये विवेकपूर्ण सदव्यवहार सध सकेगा। इसके विपरीत बालहठ पूरी करते रहने की अदूरदर्शिता अपनाने में सब प्रकार से अहित ही अहित है।
काया और आत्मा की घनिष्ठता, एकात्मकता सर्व विदित है। दोनों साथ-साथ ही रहते हैं और मिल-जुलकर काम भी करते हैं। इतने पर भी एक त्रुटि ऐसी बनी रहती है जिसके कारण वह सहचरत्व उपयोगी न बनकर अनिष्टकारक सिद्ध होता है। मनुष्य जीवन को सुरदुर्लभ कहा गया है। यह चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मिलने वाला असाधारण सौभाग्य है। इसे सार्थक बनाने के लिए आवश्यक है कि मानवी काया और आत्मा के मध्य उच्चस्तरीय हित साधन की दूरदर्शिता भी बनी रहे। इसके लिए कौशल एवं चातुर्य भर से काम नहीं चलता, वरन् दूरगामी परिणामों को महत्व दे सकने वाले और तद्नुरूप निर्णय ले सकने वाले विवेक को जागृत रहना भी आवश्यक है। इसके अभाव में शरीर की क्रिया-शक्ति और चेतना की विचार-शक्ति भारी उछल-कूद करते रहने पर भी अन्ततः विषाक्त परिणाम ही उत्पन्न करती है।
कई मित्र ऐसे होते हैं जो अनजान में ही अपने साथी को शत्रु जैसी विपत्ति में फँसा देते हैं। शरीर और आत्मा की पारस्परिक सघनता रहते हुये भी उनके पारस्परिक व्यवहार ऐसे हो सकते हैं जिनमें मित्र द्वारा शत्रु जैसा व्यावहारिक होने के दुर्भाग्य को नग्न नृत्य करते देखा जा सके। यह जीवन समाप्त होने पर यदि नारकीय यन्त्रणा सहनी पड़ी- लौटकर फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना पड़ा, सुभावसर गँवा देने के लिए चिरकाल तक पश्चाताप की आग में जलना पड़ा तो यही कहा जायेगा कि काया और आत्मा के विवाह की सार्थकता सिद्ध नहीं हुई। दोनों एक दूसरे के लिये मरते, खपते तो रहे, पर कोई किसी का हित साधन न कर सका। आत्मा की दुर्गति हुई तो शरीर भी कहाँ सुखी रह सकेगा। शरीर ने दुष्प्रवृत्ति अपनाकर अपना स्वास्थ्य और यश गँवाया तो उससे आत्मा भी गौरवशाली कहाँ हुआ? ऐसी दशा में मित्रता के साथ शत्रुता के व्यवहार को अमृत में विष घुल जाने की तरह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा।
अनचाहा अहित इसी को कहते हैं। सोते समय राजा की रख वाली करने वाले बन्दर ने चेहरे पर बैठी मक्खी को मारने के लिए तलवार चला दी। वह कहानी काल्पनिक भी हो सकती है, पर आत्मा और काया के बीच दोनों पक्षों का एक दूसरे की मित्रता प्रत्यक्ष है, पर परोक्ष की दृश्य सर्वथा विपरीत है। हेय प्रयोजनों में समर्थन देने को भी लोक-व्यवहार में ‘दोस्ती’ ही कहा जाता है, पर इस प्रकार के गिरोह कुसंग भर कहे जाते हैं और चाण्डाल चौकड़ी जैसे नाम से पुकारे जाते हैं।
अध्यापक अनुशासन सिखाते हैं और छात्रों का बचकानापन ‘येन केन प्रकारेण’ सुधारने का प्रयत्न निरन्तर जारी रखते हैं। बच्चे ऐसे गुरुजनों से कतराते तो अवश्य हैं, पर बड़े होने पर वे सोचते हैं कि अभिभावकों से भी बड़ा अनुदान उन्हें अध्यापक से मिला। अनुशासन बरतने पर जो अनख लगता और मन बिचकता है उसे स्वाभाविक दुर्बलता मानते हुये भी पहुँचना इसी निर्णय पर पड़ता है कि इस कटु प्रसंग की तरह विपन्नता से छूटने के लिये नीम गिलोय की तरह गले उतारा जाय।
व्यक्तिगत जीवन में जिस पर दाम्पत्य जीवन में दूरदर्शी सहकारिता की आवश्यकता है, उसी प्रकार समष्टि की सार्वभौम व्यवस्था में प्रकृति और पुरुष का उच्चस्तरीय सहयोग होना चाहिये। साधनों और हलचलों का ईश्वरीय नियन्त्रण में- आदर्शवादी अनुशासन में नियन्त्रित रहना चाहिये। आत्म पक्ष के अनुशासन में जन-जन को आबद्ध रखने का उत्तरदायित्व ऋषियों और मनीषियों के कन्धों पर आया है इसलिए इन्हें धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधित्व करने वाले देव-दूत कहा जाता है। निराकार भगवान की साकार मूर्ति परमार्थ परायण महामानवों को कहते हैं। चेतना के प्रतिनिधि वही हैं। उनका कर्तव्य है कि प्रकृति सम्पदा और प्राणियों की गतिशीलता में अनौचित्य का समावेश न होने दें।
प्रकृति तो जड़ है उसमें शक्ति और गुण है। इस विशिष्टता का अपना महत्व है। इतने पर भी यह उत्तरदायित्व अन्ततः चेतना पर ही आता है कि वह इस प्रकार की व्यवस्था बनाये जिसमें पदार्थ सम्पदा का स्वभाव का कहीं भी दुरुपयोग सम्भव न हो सके। प्रकृति का स्वभाव अधोगामी है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति ऊपर से नीचे को खींचती है। पानी ढलान की ओर बहता है। पतन की ओर मन चलता है। पशु-पक्षी भी प्रजनन क्रिया में अनायास ही प्रवीण पाये जाते हैं। कठिन तो अभ्युदय की ऊँचाई की ओर उछलने वाली उत्कृष्टता ही पड़ती है। भारी उल्काएँ जमीन पर अनायास ही आ गिरती हैं किन्तु छोटे से राकेट को अन्तरिक्ष में उछालने के लिये बड़ी मात्रा में शक्ति बुद्धि और संपत्ति लगानी पड़ती है। यह प्रकृति के उत्थान क्रम में अवरोध को तोड़ने की आदत को निरस्त करना ही है।
सान्निध्य एवं सहयोग का सौभाग्य तभी सराहा जा सकता है, जब उसके पीछे दूरदर्शिता, विवेकशीलता, हित-साधना के लिए अपनाया गया अनुशासन भी सम्मिलित हो। इस तथ्य को इन दिनों गम्भीरतापूर्वक समझने और समझाये जाने की आवश्यकता है।