Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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संस्कार भी चेतना के साथ चलते हैं
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क्या मृत्यु के बाद मनुष्य का अस्तित्व सचमुच सदा के लिए समाप्त हो जाता है? या वह किसी न किसी रूप में फिर भी बना रहता है? मर चुके व्यक्ति क्या पुनः जन्म लेते हैं? आदि प्रश्न ऐसे हैं, जिनका विज्ञान के पास फिलहाल कोई उत्तर नहीं है। किन्तु ऐसे असंख्यों उदाहरण हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि मरने के बाद भी मनुष्य का अस्तित्व विद्यमान रहता है। केवल शरीर ही नष्ट होता है, आत्म-चेतना शरीर के पिंजड़े से मुक्त होकर दूसरा नया शरीर तलाशने लगती है। इस तरह के हजारों मामले अब तक प्रकाश में आ चुके हैं, जिनमें सम्बन्धित व्यक्तियों ने उसी समय से अपने पिछले जन्म के बारे में बताना आरम्भ कर दिया, जबकि वे ठीक से इस जन्म के बारे में भी जानने-समझने या व्यक्त कर पाने की स्थिति में नहीं थे।
कई बार तो ऐसे उदाहरण भी देखने में आए हैं, जिनमें छोटे बच्चों ने विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया और अपने परिवार के लोगों को चमत्कृत कर दिया। उनकी यह विलक्षणता उनके परिवार, पास-पड़ोस के लोगों, मोहल्लों तथा गाँवों, नगरों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि सैकड़ों विद्वानों और अपने-अपने क्षेत्र के प्रभृतिजनों के लिए विस्मय का कारण बनी। ऐसा ही एक उदाहरण उत्तर प्रदेश का है। सन् 1947 में झाँसी जिले के यौनी ग्राम में एक विचित्र बालक का जन्म हुआ। हलकूराम लौधी के घर में जन्मे इस बालक का डील-डौल पैदा होते ही तीन वर्ष के बच्चे के समान था, साथ ही वह नेत्रहीन भी था। जब उसकी आयु छह मास हो गई तो वह रामचरित मानस के दोहे और चौपाइयाँ गाने लगा। सामान्यतः छह मास की आयु में कोई बच्चा छः माह की आयु में कोई बच्चा गाना याद करना तो क्या, ठीक से बोल भी नहीं पाता। इस बच्चे द्वारा रामायण के दोहे, चौपाइयाँ गाते देखकर सभी ग्रामवासी आश्चर्यचकित रह गए।
दो वर्ष का हो जाने पर बालक को निकटस्थ कस्बे मऊरानीपुर के रामायणी पण्डितों ने परीक्षा के लिए बुलाया कि उसके सम्बन्ध में जो कुछ कहा बताया जाता है उसमें कितनी सचाई है? उन पण्डितों के सामने बालक ने बिना किसी पुस्तक का सहारा लिए तीन घण्टे तक लगातार रामायण के दोहे चौपाई गाकर सुनाये। यह कार्यक्रम तीन दिनों तक चला और बालक ने बिना किसी का सहयोग लिए उसी प्रकार रामचरित मानस गा-गाकर सुनाई। इस जन्मान्ध बालक ने तीन वर्ष का होने तक कई बार अपनी इस विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। जगह-जगह से लोग उसे देखने आने लगे। उसे पूर्व जन्म का कोई विद्वान, सन्त महात्मा समझा जाने लगा। यही नहीं कई स्थानों पर तो हलकूराम को अपने बेटे के साथ बुलाया गया तथा उसने सिमघट, सागर, ग्वालियर, लाहौर और हरिद्वार में विद्वमंडली के सामने रामायण के पाठ सुनाये।
राधाचरण नाम के इस जन्मान्ध बालक ने छोटी-सी आयु में, जब बच्चे पहली दूसरी कक्षा में पढ़ते हैं भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण आदि धर्म ग्रन्थों के उद्धरण देकर पाँच-पाँच घण्टे तक धारा प्रवाह व्याख्यान देना आरम्भ कर दिया। लोग राधाचरण की इस विलक्षण प्रतिभा से चमत्कृत हुए। उसकी यह विशेषता थी कि किसी भी ग्रन्थ का कोई एक उद्धरण बता दिया जाए तो वह उस पर प्रवचन दे लेता था। राधाचरण ने अपने पूर्वजन्म का वृतान्त भी बताया। वह कहा करता था कि पिछले जन्म में वह मुतंगेश्वर (पम्वापुर) की एक गुफा में साधना किया करता था और साधना करते हुए ही उसकी मृत्यु हुई। उसने गुफा तक पहुँचने का मार्ग तथा उसमें रखे अपने चिमटे और खड़ाऊ के बारे में भी बताया। लोगों ने उस स्थान पर जाकर देखा तो सब कुछ सही पाया गया।
पिछले जन्म की घटनाओं और स्थितियों का सही-सही विवरण देने वाले मामले तो हजारों की संख्या में प्रकाश में आए हैं। ऐसे केसों को लेकर वैज्ञानिकों का ध्यान भी आकृष्ट हुआ और देश-विदेश में अनेकों संस्थाएँ पुनर्जन्म की घटनाओं पर शोध करने में संलग्न हुई हैं। भारत की ‘इंडियन पैरासाइकिक रिसर्च इंस्टीट्यूट’ संस्था ने अमेरिका के डा. आयन इस्टीवेन्स, राबर्ट कुकाल, डा. एच. एन. बनर्जी तथा डा. जमुना प्रसाद के सहयोग व निर्देशन में भारत, अमेरिका, ब्रिटेन तथा जर्मनी में पुनर्जन्म की कई घटनाओं का अध्ययन और सर्वेक्षण किया है। इनमें कुछ घटनाएँ पुनर्जन्म के सम्बन्ध में शोध की नई दिशाएँ और सम्भावनाएँ खोलती हैं।
पश्चिम जर्मनी के आगस्वर्ग नामक स्थान पर जन्मी फ्रैडरिका का केस इस तरह की घटनाओं में बहुत दिलचस्प है। उसका रंग, रूप, कद काठी तो जर्मनों की तरह ही है, परन्तु उसकी आँखें भारतीय महिलाओं की तरह काली और केश भी भारतीय स्त्रियों जैसे ही थे। कम उम्र में ही उसने विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया और पढ़ना-लिखना सीख लिया। वह अपना प्रत्येक काम अपनी उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक कुशलता और स्फूर्ति के साथ निबटा लेती थी। जब वह तेरह-चौदह वर्ष की थी, तभी उसने जर्मन, डच और अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। भारतीय भाषाओं में उसने संस्कृत को सीखने में बड़ी कुशाग्रता का परिचय दिया। उल्लेखनीय है कि जर्मनी की लगभग सभी शिक्षण संस्थाओं में संस्कृत के अध्ययन अध्यापन की सुविधा उपलब्ध है। फ्रैडरिका ने इस व्यवस्था का लाभ तो उठाया ही भारतीय धर्म-दर्शन के अध्ययन-मनन में भी उसने पर्याप्त रुचि ली और कुछ ही समय बीतते वह पूजा−पाठ करने लगी, उसने वेद पुराणों और आर्ष ग्रन्थों के कई अंश कण्ठस्थ कर लिए। किशोरावस्था में प्रवेश करने तक तो वह ज्योतिष, अंकशास्त्र, पराविद्या, ब्रह्मविद्या, योगचक्र कुण्डलिनी आदि के विषय में भी इस प्रकार बातें करने लगी, जैसे वह इन विषयों की अधिकारी विद्वान हो।
फ्रैडरिका के पिता बैंक में नौकरी करते थे। परिवार की स्थिति सामान्य थी। माँ अपनी बेटी के इस स्वभाव और रुझान को देखकर चिंतित रहने लगी थी। बचपन में ही उसने अपनी माँ को चिन्ताओं का समाधान करते हुए बताया कि वह पिछले जन्म में एक धर्म परायण भारतीय महिला थी और उसका सारा जीवन ही धार्मिक कर्मकाण्डों तथा पूजापाठों को करते हुए व्यतीत हुआ था। उसने वेद, पुराणों और अन्य भारतीय धर्मग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था। एक दुर्घटना में जब उसकी मृत्यु हुई तो मरने के पूर्व उसे अच्छी तरह होश था तथा वह मरते समय यही सोचती रही थी कि उसे अगला जन्म जहाँ कहीं भी मिले, वेद, पुराणों तथा धर्मशास्त्रों के अध्ययन में उसकी रुचि इसी प्रकार बनी रहे।
फरवरी 1978 में फ्रैडरिका भारत भी आई। यहाँ उससे बरेली की पराविद्या शोध संस्थान की उस यूनिट से संपर्क किया जो पुनर्जन्म पर शोध कर रही थी। फ्रैडरिका ने अपने पिछले जन्म का जो भी विवरण बताया, यथा जन्म स्थान, माता-पिता का नाम, परिवार के सम्बन्ध में परिचय, पति और पति के परिवार की जानकारी, बच्चों के नाम आदि के सम्बन्ध में उसने जो भी वक्तव्य दिये वे सब टेप किये गए और उस आधार पर जाँच की गई तो बताये गए सभी विवरण सही पाये गए।
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में भी इसी प्रकार की एक घटना प्रकाश में आई है, जिसमें एक हरिजन महिला ने मरने के बाद एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। सन् 1969 में श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र के घर में जन्मी इस कन्या को अपने पिछले जन्म की याद उस समय आई जब वह अपने पिता के साथ रेल से कहीं जा रही थी। रेल पर सवार होते ही बच्ची हकबका गई। भय के कारण उसका चेहरा पीला पड़ गया। पिता को कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उसे क्या हो गया है? पूछने पर बहुत देर बाद उस लड़की ने अपनी तुतली जबान से बताया कि इसी रेल गाड़ी से कटकर वह मर गई थी।
पिता ने इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और बात आई-गई हो गई। एक दिन लक्ष्मीनारायण जी के घर एक हरिजन घूरे पर पड़ा खर-पतवार माँगने आया। उसने एक सुअर मारा था और उसे भून कर खाने के लिए ही वह खर-पतवार माँगने के लिए आया था। लड़की ने यह जानकर सुअर का माँस खाने की जिद की। मिश्रजी के डाँटने पर उसने तनक कर कहा, ‘मेरा तुमसे क्या रिश्ता? मैं कंकरिया की रहने वाली हूँ। इन्दल मेरे बेटे का नाम है तथा ललई मेरा दूल्हा है। तुम छोड़ दो मुझे, मैं अपने घर चली जाऊँगी।
पिता और घर के अन्य लोग यह सुनकर दुःखी हुए और सोचने लगे कि कहीं उस पर किसी प्रेतात्मा का प्रकोप तो नहीं हुआ है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। पीछे कुछ लोगों की सलाह पर उसके बताये संकेतों के अनुसार जाँच-पड़ताल की गई तो पता चला कि वह जो कुछ भी बता रही थी-वह सच है।
पिछले जन्मों की स्मृतियों के यह प्रमाण सिद्ध करते हैं कि मृत्यु केवल शरीर को ही मारती है। चेतना में जमे संस्कार न तो आसानी से नष्ट होते हैं तथा न ही उनमें विशेष परिवर्तन आता है। अलबत्ता ये संस्कार थोड़े बहुत बदल जरूर जाते हैं, किन्तु उनमें पूर्णतः परिवर्तन नहीं होता, संस्कारों का निर्माण दीर्घकालीन अभ्यासों से होता है। उनकी जड़ें चेतना में गहराई तक जमी हों तो वे मरने के बाद दूसरे जन्म में भी पूर्ववत् प्रकट होने लगते हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व और कृतित्व उन्हीं के अनुरूप संचालित होने लगता है। यदि ऐसा नहीं हो तो भी व्यक्ति उन पूर्ववर्ती संस्कारों से बहुत सीमा तक प्रभावित होता है तथा तद्नुकूल आचरण करता है। भले ही उसे पिछले जन्म की याद रहे या न रहे।
आत्मिक विकास के लिए आचार-विचार के परिष्कार और आहार-बिहार के संयम पर इसीलिए महत्व दिया जाता है कि उनसे ही संस्कारों का निर्माण होता है तथा वे संस्कार व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।