Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रकृति परिवार के प्रत्येक घटक में प्रचुर सामर्थ्य
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प्रकृति के आँगन में विशालकाय जीवों की अथवा बहुत छोटे और आँखों से न दिखाई देने वाले प्राणियों की भी भरमार है। शरीर में बहुत छोटे और बहुत बड़े का अन्तर होते हुये भी सभी प्राणी अपना जीवन निर्वाह समान रूप से व्यतीत करते हैं। इसके लिये प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को उसकी आवश्यकता और स्थिति के अनुसार पर्याप्त सामर्थ्य दी है। हाथी, ऊँट, गैण्डा, जिराफ, चिंपेंजी, गुरिल्ला, सिंह, व्याघ्र, व्हेल, शार्क जैसे समर्थ और बड़े शरीर वाले प्राणियों की गतिविधियों तथा उनकी सामर्थ्यों के सम्बन्ध में हमें बहुत कुछ जानकारी उपलब्ध है। मनुष्य इन सबमें सर्वाधिक बुद्धिमान समझा जाता है। उसकी बुद्धि शीलता के सम्बन्ध में बहुत कुछ जाना खोजा और कहा गया है किन्तु इसी आधार पर यह नहीं मान लेना चाहिए कि प्रकृति ने ऐसी विशेषताएँ बड़ी आकृति वाले प्राणियों को ही दी हैं। छोटे जीवों में चींटी, दीमक और मधुमक्खियों के जैसे कीड़े-मकोड़ों की गतिविधियों को यदि गम्भीरता पूर्वक देखा जाय तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है और मानना पड़ता है कि उन्हें अपने जीवन क्षेत्र की परिधि में प्रकृति ने मनुष्य से भी अधिक बुद्धिमता और कुशलता प्रदान की है।
जिन प्राणियों के सम्बन्ध में समझा जाता है कि उनमें कोई बुद्धि नहीं होती, वास्तव में ऐसा होता नहीं है। वे बुद्धिमान हैं या निर्बुद्धि। इसका विश्लेषण निर्धारण हम अपनी क्षमता के स्तर को मान दण्ड बनाकर करते हैं और उस समय यह भूल जाते हैं कि सब प्राणियों का जीवन क्रम तथा उनका क्रिया-कलाप एक जैसा नहीं है। प्रत्येक प्राणी को उसकी आवश्यकता के अनुसार प्रकृति ने पर्याप्त कुशलता और सफलता प्राप्त करने योग्य क्षमता दी है। इस तरह से वे न तो तुच्छ ठहरते हैं और न ही मूर्ख तथा अशक्त। मछलियों के समाज में कदाचित हमें रहना पड़े और जल में निवास करना पड़े तो निस्सन्देह मछलियाँ हमें सर्वथा अशक्त एवं शोचनीय दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पड़ा प्राणी दिखाई देंगी। यही बात मक्खियों के सम्बन्ध में भी लागू होती है। मक्खियां ही क्यों कोई भी प्राणी या जीव-जंतु हमें अपनी तुलना में दीनहीन ही प्रतीत होगा।
बड़े और स्थूल प्राणियों में ऐसे जीव-जन्तुओं का अध्ययन किया जाय जिन्हें विकसित कहा जा सकने योग्य मस्तिष्क तथा संवेदना सूचक इन्द्रिय समूह प्राप्त नहीं है। इतनी अभावग्रस्तता के बीच भी उन्हें चेतना का अपना अद्भुत स्तर उपलब्ध है और धंधे वृद्धि से लेकर जीवनयापन के दूसरे साधन तक बहुत कुछ प्राप्त हैं। और वह इतना अधिक तथा विस्तृत है कि मनुष्य उसे देखकर दाँतों तले अंगुली ही रख सकता है।
उदाहरण के लिए जीवाणुओं की अपनी दुनिया है। ये बहुत छोटे हैं। उनमें से कितने ही तो ऐसे हैं जो सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता के बिना खुली आँखों से नहीं देखे जा सकते। इतना होते हुए भी उन्हें अपने स्तर का क्रिया-कलाप, जीवनयापन करने की आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त है। शरीर के अनुपात से उन्हें जितनी सामर्थ्य प्राप्त है उसी हिसाब से हमारे शरीर के लिये कितनी सामर्थ्य चाहिये? इसका हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि उन जीवों की तुलना में मनुष्य को प्रकृति के अनुदान बहुत ही स्वल्प मात्रा में प्राप्त हैं। जीवाणुओं को उनके छोटे कलेवर के अनुसार जो कुछ मिला है, यदि वही अनुदान मनुष्य को प्राप्त रहा होता तो उसकी क्षमता इतनी अधिक होती जितनी कि हम देवताओं की सामर्थ्य के रूप में करते हैं।
जीवित प्राणियों में सबसे सूक्ष्म ईकाई अमीबा है, इनमें ‘तरल’ प्रोटोप्लाज्मा भरा रहता है। ऊपर से ग्लूकोज की झिल्ली रहती है। इनका आकार प्रायः एक इंच का पच्चीस हजारवां भाग होता है। ये स्वयं ही अपने शरीर में प्रजनन करते हैं। 24 घण्टे में प्रायः एक जीवाणु लगभग डेढ़ करोड़ नये जीवाणु उत्पन्न कर देता है और प्रत्येक जीवाणु अपने जन्म के प्रायः पन्द्रह मिनट बाद प्रजनन योग्य प्रौढ़ता प्राप्त कर लेता है। सूर्य का तीव्र ताप इनकी मृत्यु का प्रधान कारण होता है। इनमें कोमलता और अशक्तता बहुत होती है। पर इतने पर भी प्रकृति ने इन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वे सभी विशेषताएँ प्रदान कर दी हैं, जिनके आधार पर ये प्रलय से भी भयंकर विपत्तियों से जूझते हुए अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकते हैं।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पृथ्वी पर जीवन चेतना का अवतरण सर्व प्रथम द्रव्य के रूप में हुआ। धरती की उष्णता शान्त होकर जब जीवधारियों के योग्य हुई तो सबसे पहले जीव द्रव्य प्रोटोप्लाज्मा उत्पन्न हुआ। प्रथम जीवधारी, जीव द्रव्य की बूँदों के सम्मिश्रण से नहीं बना, वरन् वह एक स्वतन्त्र सत्ता सम्पन्न एक कोशीय जीव था। उपलब्ध अमीबा उसी के स्तर का जीव था। यह एक कोशीय जीव नदी, तालाबों, नालियों एवं कीचड़ जैसे स्थानों में पाया जाता है और इसका आकार प्रायः इंच के सौवें भाग के बराबर होता है। इनके ऊपर एक पतली झिल्ली चढ़ी रहती है जिसे प्लाज्मा लेमा कहते हैं। इसमें कई-कई शंकुपाद हाथी की सूँड के समान निकले रहते हैं और वह अपना आहार इन्हीं के सहारे पकड़ता तथा खींचता रहता है।
अमीबा प्रौढ़ हो जाने पर अपने आपको ही दो टुकड़ों में विभाजित कर लेता है। उसकी वंश परम्परा इसी प्रकार बढ़ती है। विभाजन के पूर्व वह अपनी आकृति को गोलाकार बनाता है और इस प्रकार अपनी आकृति को बढ़ाते हुये वह मध्य में पतला होते हुये दो टुकड़ों में बँट जाता है। इस भाँति उसके विभाजन, प्रजनन कर्म को सम्पन्न होने में लगभग डेढ़ घण्टे का समय लगता है।
जड़ परमाणुओं की चर्चा भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र में प्रायः होती रहती है। इन परमाणुओं की भाँति ही सजीव जगत में भी कई प्रकार के परमाणु होते हैं, इनमें से एक होता है- डायटम। डायटम का अर्थ होता है दो परमाणुओं की शक्ति वाला। यों ये वनस्पति वर्ग में आते हैं किंतु इनमें पेड़-पौधों जैसे प्रत्यक्ष लक्षण नहीं दिखाई देते। इसका आकार इंच के पचासवें हिस्से से लेकर हजारवें हिस्से के बराबर तक होता है। वे सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों की सहायता से ही देखे जा सकते हैं।
इनकी आकृति को किसी सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से विस्तारित रूप में देखा जाय तो इतने सुन्दर और चित्र-विचित्र दिखाई देते हैं कि देखने वाले इनकी सुन्दरता पर मुग्ध होकर रह जाता है। लगता है किसी बहुत ही कुशल कारीगर ने इन्हें अपना सम्पूर्ण प्रतिभा का उपयोग कर पच्चीकारी और मीनाकारी को एक से एक सुन्दर डिजाइनों के रूप में गढ़ा है। गुलदस्ते, रत्नजड़ित हार, डिजाइनदार कालीन जैसी कितनी ही कलात्मक वस्तुओं और केकड़ा, कनखजूरा, स्फटिक, कच्छप जैसे प्राणियों की तरह एवं कई प्रकार के पुष्प गुच्छाओं के रूप में इन्हें सूक्ष्म दर्शक यन्त्र द्वारा ही देखा जा सकता है। देखने वालों को अचम्भा होता है कि इतने छोटे, असमर्थ और अविकसित प्राणी पर नियति ने कितनी सुन्दरता से अपनी कलाकृति का अनुदान बखेरा है। इनकी चाल इतनी विचित्र है कि यह न केवल वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य का विषय है, अपितु मनुष्य मात्र को बहुत कुछ सिखाती भी है। कितने ही यन्त्रों का गतिक्रम निर्धारण करने में इन छोटे डायटमों के अध्ययन से महत्वपूर्ण मार्ग सूचक संकेत मिले हैं। इनमें से कुछ टैंक की तरह तो कुछ जलयान की तरह, कुछ राकेट की तरह और कुछ बिजली की तरह आगे पीछे हटते, बढ़ते अपनी गति का प्रदर्शन करते हैं। ये भी अपने आपको दो टुकड़ों में विभाजित करके एक से दो बनते हैं।
जड़ अण्ड ‘परमाणु’ के नाम से पुकारे जाते हैं और चेतन प्राणधारियों में काम करने वाले चेतन अण्डजों को कोशिकाएँ कहते हैं। यों ये कोशिकाएँ भी अण्डजों से ही अपने आप निर्मित होती हैं, पर उनमें चेतना का अतिरिक्त अंश मिल जाने से उन्हें दूसरे वर्ग में रखा गया है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जड़ जगत अण्डजों से और चेतना सृष्टि जीवाणुओं तथा कोशिकाओं से बनी है। जिस प्रकार परमाणु के भीतर भी कई अनोखी सृष्टि होती है उसी प्रकार कोशिकाओं के भीतर भी एक पूरा चेतन सरोवर भरा हुआ होता है। इन दोनों को अलग इकाइयां समझा जाता है, पर ये अविच्छिन्न नहीं हैं। इनके भीतर भी विश्लेषण करने जैसे असीम तत्व और अगणित भेद-प्रभेद भरे होते हैं। इस लघुता का अन्त भी विराट् के अन्त की तरह अभी तो बुद्धि की सीमा से बाहर ही दिखता है, जिसे जितना खोलते हैं उतनी ही एक के भीतर एक नई-नई पर्तें निकलती चली जाती हैं।
जीव परिवार में सभी सदस्य पौधे और प्राणी सभी कोशिकाओं से बने हुए हैं। ये कोशिकाएँ एक विशेष प्रकार के चिपचिपे पदार्थ से भरी होती है। ये कोशिकाएँ अपनी पूर्ववर्ती कोशिकाओं के विभाजन से बड़ी होती है और विभाजन क्रम से ही उनकी आगे की वंश वृद्धि होती रहती है, प्राणी की वृद्धि, विकास, आनुवाँशिकता, बलिष्ठता, दुर्बलता, जरा, मृत्यु, मनःस्थिति आदि का आधार इन कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना पर ही निर्भर रहता है। इस प्रकार हम चाहें तो इन कोशिकाओं को भी एक स्वतंत्र जीवधारी जैसी संरचना कह सकते हैं। जीव का समान स्वरूप इन जीवाणु कोशिकाओं के संगठन का ही दूसरा नाम है।
संसार का सबसे छोटा और लघुकाय प्राणी अमीबा है। अमीबा जैसे और भी कई जीव हैं जो एक कोशीय होते हैं। अन्य विकसित और बड़े प्राणियों से इनकी संख्या अधिक होती है। 160 पौंड के वयस्क पुरुष में 60 हजार अरब तक कोशिकाएँ होती हैं। इनके भीतर भरे हुए पदार्थ को प्रोटोप्लाज्म कहा जाता है। इसके ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली इतनी लचीली होती है कि उसमें होकर आवश्यक आदान-प्रदान होता रहता है, किन्तु वह अवाँछनीय प्रवेश को रोके रहती है। प्रोटोप्लाज्म या जीव द्रव्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- एक साइटोप्लाज्म और दूसरा न्यूक्लीयस। साइटोप्लाज्म में लवण, वसायें, शर्करा, प्रोटीन, खनिज जैसे अनेकों पदार्थ सम्मिश्रित होते हैं। न्यूक्लीयस उसी उसी के भीतर एक अचेतन मृत सघन गेंद की तरह रहता है। उसकी संरचना क्रोमोसोम समूह के न्यूकलीओस पदार्थों से होती है।
मानव शरीर की कोशिकाओं में 46 क्रोमोसोम होते हैं। इनमें भी बहुत छोटे-छोटे कण होते हैं, जिन्हें जीन कहा जाता है। वंश परम्परा से वे उत्तराधिकार इन जीवों द्वारा ही भावी पीढ़ी पर उतरते हैं। इन जीवों को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है और उनके सम्बन्ध में अधिक बारीकी तथा तत्परता के साथ खोज की जा रही है। यदि गहराई में उतर कर देखा जाए तो ये जीन भी एक स्वतंत्र सत्ता कहे जा सकने जैसी स्थिति में होते हैं।
निर्जीव समझे जाने वाले रासायनिक पदार्थों की स्थिति जड़ अचेतन स्तर की दयनीय और दीन-हीन प्रतीत होती है। प्रायः तो उन्हें जड़ कहकर चेतन जगत से बहिष्कृत ही मान लिया जाता है, पर वैज्ञानिक अन्वेषणों से यह पता चला है कि निर्जीव कहलाने वाले इन रासायनिक पदार्थों में भी वह अद्भुत शक्ति भरी पड़ी है, जिससे वे निर्जीव होते हुए भी जीवन को, जीवधारियों को उत्पन्न कर सके। लेकिन इनमें वह शक्ति तभी क्रियान्वित हो सकती है जब ये परस्पर घुल-मिलकर रहने के लिए तत्पर हो जांय। अलग-अलग रहने की पृथक्तावादी नीति जब तक ये अपनाये रहते हैं तभी तक वे जड़ हैं, पर जिस क्षण वे रासायनिक द्रव्य में सन्तुलित रूप से एकत्रित होते हैं, उसी क्षण द्रव्य के रूप में चेतना का संचार होने लगता है।
जीव द्रव्य या प्रोटोप्लाज्म कुछ रासायनिक तत्वों का सम्मिश्रण मात्र समझा जाता है। कार्बन, क्लोरीन, आयोडीन, मैग्नीशियम आदि रासायनिक पदार्थों का समन्वयीकरण इस जीव द्रव्य को विनिर्मित करने की भूमिका सम्पादित करता है। प्रकृति परिवार में, सृष्टि परिवार में रहने वाले सभी छोटे-बड़े सदस्यों के सम्बन्ध में हमें मानना चाहिए कि हम न तो सृष्टि के सबसे बड़े और महान प्राणी हैं और न ही प्रकृति ने हमें कोई विशिष्ट क्षमताएँ प्रदान कर पक्षपात बरता है। इस आधार पर न उपलब्धियों पर उद्धत होना चाहिए तथा न ही उद्धत। साथ ही छोटे प्रतीत होने वाले प्राणियों को न हेय दृष्टि से देखें न तुच्छ समझें तथा न ही दयनीय दुर्भागी, वरन् यही समझते हुए अपनी जीवन नीति निर्धारित करें कि सृष्टि के प्रत्येक घटक में ईश्वर की दिव्य-ज्योति विद्यमान है।