Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रकृति स्वयं आपकी चिंता करती है
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प्रगति चाहे भौतिक हो या आत्मिक, स्वस्थ शरीर उसके लिये सर्वप्रथम आवश्यक है। शरीर यदि अस्वस्थ हो, रुग्ण हो, दुर्बल हो तो भौतिक प्रगति के लिए आवश्यक प्रयास करना सम्भव नहीं हो सकेगा। थोड़े से ही श्रम में शरीर थक जायेगा और बहुत बार तो श्रम करने योग्य भी स्थिति नहीं रह जायेगी। इसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिये भी शरीर का स्वस्थ, निरोग होना आवश्यक है। जितनी भी साधनाएँ की जाती हैं, आत्मिक विकास के लिये, जितने भी उपक्रम करने पड़ते हैं वे शरीर के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। अस्वस्थ शरीर से साधना के लिये बैठना तक सम्भव नहीं रह जाता। इसीलिये शास्त्रकारों ने कहा है, ‘शरीर माघ खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् वास्तव में शरीर ही सबसे पहला धर्म साधन का आधार है। यौगिक क्रियाओं से लेकर परमार्थ उपकार और लोक मंगल के कार्यों तक में शरीर का ही उपयोग करना पड़ता है।
निश्चित ही शरीर सब कुछ नहीं है। चेतना का महत्व उससे हजार गुना अधिक है, परन्तु ऐसा भी नहीं है कि शरीर एकदम उपेक्षणीय है और उसे स्वस्थ, स्वच्छ, सुव्यवस्थित रखने के लिए कुछ नहीं किया जाना चाहिए। ऊपर की मंजिल में प्रवेश करने के लिए सबसे अन्तिम सीढ़ी पर चढ़ना पड़ता है, परन्तु सबसे अन्तिम सीढ़ी तक तभी पहुँचा जा सकता है जब पहली सीढ़ी को पार कर लिया गया। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करने के लिये शरीर प्राथमिक सीढ़ी है।
शरीर का महत्व इसलिये है कि उसमें आत्मा निवास करती है। उच्चस्तरीय विकसित आत्मा ही किसी व्यक्ति को महामानव या देवमानव बनाती है, परन्तु उन्हें महान बनाने वाले कृत्य शरीर द्वारा ही सम्पन्न करने होते हैं। किसी व्यक्ति का प्रथम परिचय शरीर के प्रति उसके व्यवहार से ही लगता है। सम्भाषण, वार्तालाप, संवाद, विचार-विमर्श और क्रिया-कलापों का परिचय तो बाद में चलता है। पहले उसका व्यक्तित्व शरीर के माध्यम से ही समाने प्रस्तुत होता है और वह अपने शरीर को जिस ढंग से संवार, सम्हाल कर रखता है, जैसा स्वच्छ सुथरा दिखाई देता है, वैसा ही उसके व्यक्तित्व का प्रथम प्रभाव पड़ता है। कहने का आशय यह कि मानवीय सत्ता का प्रथम कलेवर उसका अपना शरीर ही है और वह जीवन को तभी उद्देश्यपूर्ण ढंग से सार्थक बना सकता है जबकि उसका शरीर स्वस्थ हो।
कहा जा चुका है कि उत्तम स्वास्थ्य के बिना न तो कोई व्यक्ति भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है या भोग पाता है तथा न ही कोई आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। आयुर्वेद प्रणेता ऋषियों ने इसीलिये कहा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबका साधन शरीर ही है। संसार के भौतिक सुखों का आनन्द शरीर ही है। संसार के भौतिक सुखों का आनन्द शरीर के द्वारा ही उठा पाना सम्भव है तो लोक-सेवा, परोपकार आदि करने का एकमात्र साधन भी शरीर ही है। शरीर द्वारा ही योगीजन यौगिक सिद्धियां प्राप्त करते हैं और सर्वोत्तम उपलब्धि, मानव जीवन की सार्थकता मोक्ष शरीर से किये गये कर्मों द्वारा प्राप्त करते हैं। इसीलिए महर्षि चरक ने कहा है-
सर्वमन्यत्परित्यज्य शरीर मनुपालयेत।
तद्भावे हि भावानां सर्वभावः शरीरिणाम्॥
अर्थात्- ‘‘सबसे पहले शरीर रक्षा, स्वास्थ्य रक्षा की आरे ध्यान देना चाहिए क्योंकि देहधारियों के लिये अच्छे स्वास्थ्य के अभाव में सारा संसार ही अभावमय है।” प्रश्न उठता है अच्छा स्वास्थ्य किसे कहते हैं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि किसी रोग का न होना ही अच्छा स्वास्थ्य है। शरीर के साथ-साथ मन का निरोग होना भी आवश्यक है। शरीर स्वस्थ तभी रह सकता है जब मन भी स्वस्थ हो। इसे यों भी कहा जा सकता है कि मन यदि रुग्ण हो तो शरीर भी बीमार पड़ जाता है। अन्यथा प्रकृति ने शरीर का निर्माण इस कुशलता के साथ किया है कि वह छोटे-मोटे झटके तो यों ही पार कर जाता है और उनसे जरा भी प्रभावित नहीं होता। प्रभावित तब होता है, जब मन भी रुग्ण हो या विकारग्रस्त होता है।
कभी कहा जाता था कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है, किन्तु अब यह मान्यता बदल गई है और कहा जाने लगा है कि मन यदि स्वच्छ और स्वस्थ हो तो शरीर के अंग अवयव इतने समर्थ और पुष्ट होते हैं कि वे आने वाले विकारों का स्वयं ही उपचार कर लेते हैं। प्रसिद्ध शरीर विज्ञानी डा. एलवर्ट टोके ने लिखा है ‘‘कि निश्चित ही देह में अनेक सूक्ष्म और नाजुक भाग हैं और यह भी सही है कि शरीर की सामान्य क्रिया में थोड़ा-सा रत्तीभर परिवर्तन भी बहुत बड़ा प्रभाव डाल सकता है किन्तु उससे ज्यादा सही यह है कि शरीर में इन दुष्प्रभावों को रोकने, विघटन का प्रतिरोध और रोगवाही कारणों को नष्ट करने की अद्भुत क्षमताएँ हैं।”
डा. एलवर्ट टोके ने अपनी पुस्तक ‘ह्यूमन बॉडी एण्ड हाऊ इट वर्क्स’ पुस्तक में शरीर की इस अद्भुत क्षमता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। रोग के वाहक कारणों को शरीर में प्रवेश करने से सर्वप्रथम तो त्वचा ही रोक देती है। बहुत से रोग वाहक ऐसे होते हैं जो रोमकूपों से भी बारीक होते हैं तथा त्वचा के छिद्रों से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे वाहकों से लड़ने और उन्हें नष्ट करने के लिये त्वचा के नीचे मृत कोशिकाओं की अभेद्य सुरक्षा पंक्ति तैयार रहती है, जो किसी सुदृढ़ दुर्ग की भांति उन्हें प्रवेश करने से रोक देती है।
रोगाणु यदि शरीर के खुले अंगों अर्थात् मुख या नासा गुहाओं से प्रवेश करते हैं तो वहाँ भी प्रकृति ने उन्हें भी रोकने के लिए रक्षा-चौकियाँ बिठा रखी हैं और ऐसा जाल बिछा रखा है कि बेचारे उससे बच कर आगे बढ़ ही नहीं सकते। उदाहरण के लिए यदि ये नासिका गुहा में प्रवेश भी कर जाएं तो कुछ आगे चल कर ऐसी श्लेष्मिक झिल्लियों का सामना करना पड़ता है जिनसे एक तरल चिपचिपा द्रव स्रवित होता रहता है। अधिकाँश उसी स्राव में फँस कर रह जाते हैं और आगे नहीं बढ़ पाते। इस पर भी कोई धृष्ट, धूर्त रोग कीट इस स्राव से बचकर आगे बढ़ जाने में सफल हो जाता है तो श्वास नली में नासिका गुहा से भी अधिक कड़ी सुरक्षा व्यवस्था रहती है। वहाँ भी झिल्लियाँ और श्लेष्मा की दीवारें होती हैं इसके अतिरिक्त लहराते हुये रोमाभ भी होते हैं जो उनका रास्ता रोक लेते हैं। ये रोमाभ न केवल उन्हें रास्ते में रोक लेते हैं बल्कि उन्हें वापिस बाहर जाने के लिये भी विवश कर देते हैं।
इतने पर भी कोई विजातीय जीवाणु यदि आगे बढ़ने में सफल हो जाते हैं तो उनके लिए आहार नली और पाचन क्षेत्र में ऐसा मारक अम्लीय द्रव वहाँ विद्यमान रहता है जो उनके लिये विष का काम करता है और अधिकाँश जीवाणु इस अम्लीय घातक विष से मर जाते हैं। तिस पर भी यदि कोई जीवाणु बच जाता है तो वे धकेल कर पाचन संस्थान के उस क्षेत्र में फेंक दिये जाते हैं जहाँ उनके लिये इधर-उधर हाथ पैर मारकर शरीर दुर्ग में अस्त-व्यस्तता फैलाने का कोई अवसर नहीं रहता और उन्हें मल-मूत्र के साथ वापिस उसी संसार में पहुँचना पड़ता है जहाँ से कि वे आये थे।
चोट पहुँचने, कीड़ों के काटने, घाव लग जाने के कारण इन रोगाणुओं को शरीर दुर्ग में प्रवेश करने तथा वहाँ गड़बड़ी फैलाने का अच्छा अवसर मिलता है। किन्तु शरीर का सुरक्षा विभाग वहाँ इतनी तत्परता का परिचय देता है कि वहाँ भी इनकी दाल नहीं ही गल पाती। थोड़ी बहुत दूर तक वे घुसपैठ भले ही करलें, किन्तु तब तक शरीर का रक्षा विभाग वह अमुक पहुँचा देता है जो उन्हें मार भगाता है। जिस स्थान पर चोट लगती है या घाव होता वहाँ रक्त में विद्यमान न्यूट्रोफिल ऊतक श्वेत कण तथा मोनोसाइट, जलसेना, थलसेना, नभसेना की भाँति तुरन्त सीमा पर पहुँचते हैं और इन रोगाणुओं के साथ द्वन्द्व युद्ध करने लगते हैं। इनमें से श्वेताणु तो इन रोगाणुओं का सीधे भक्षण ही कर जाते हैं।
जिस स्थान पर चोट लगती है या घाव होता है वह सूजन इसी कारण आ जाती है कि वहाँ तीनों तरह के रक्षक बड़ी संख्या में आ जमा होते हैं। रुधिर के श्वेतकण तो सीधे इन रोगाणुओं का भक्षण करने लगते हैं, परन्तु न्यूट्रोफिल जीवाणुओं से मरणासन तक संग्राम करते हैं। या तो वे जीवाणुओं को नष्ट कर डालते हैं अथवा लड़ते-लड़ते स्वयं वीरों की तरह मर जाते हैं। इन मरे हुये रक्षकों और आक्रामक जीवाणुओं के शव ही पीव और मवाद के रूप में बाहर निकलता है।
कई बार इस युद्ध में आक्रमणकारी जीवाणु जीत जाते हैं और अन्दर के क्षेत्र में घुसपैठ कर जाते हैं। उस स्थिति में ये अगला आक्रमण लक्षिकावाहिनियों पर करते हैं। या कि वही इनके सामने होती है। लक्षिकावाहिनियों के पथ पर लक्षिका ग्रन्थियों के रूप में पहले से ही ऐसी व्यवस्था रहती है कि वे बिना कोई युद्ध चुनौती दिये चुपके से उन्हें कैद कर लेती हैं। इन ग्रन्थियों में बाह्य विजातीय तत्वों के लिए बड़ी-बड़ी छलनियां होती हैं। आगे प्रवेश करने के लिए जीवाणुओं को उन्हें पार करना ही होता है और ये छलनियाँ इतनी सम्वेदनशील होती हैं कि किसी भी बाह्य तत्व या विजातीय कणों के आते ही उन्हें तुरन्त कैद कर लेती हैं। इन कैदियों को उनके निश्चित निर्धारित स्थान पर ले जाया जाता है और जब इन्हें कारावास दिया जाता है तो प्रायः जलशोध की शिकायत हो जाती है, जो सामान्य उपचार से ही ठीक हो जाती है।
यह रक्षा व्यवस्थाएँ ही आमतौर पर विजातीय द्रव्यों, रोगों के उत्पन्न करने वाले कारणों से निबटने के लिये पर्याप्त है, परन्तु प्रकृति इतनी होशियार है कि उसने एक अतिरिक्त व्यवस्था अलग से कर रखी है, जो इन व्यवस्थाओं के असफल हो जाने पर काम आती है। यह व्यवस्था शरीर में बहने वाले रुधिर के कण-कण में व्याप्त है।
कभी कभार कोई विशेष जीवाणु या उनके विषाक्त उत्पाद रक्त पर पहली बार आक्रमण करते हैं तो उसका प्रतिपिण्ड तुरन्त नहीं बन पाता। उस स्थिति में रोग उत्पन्न हो जाता है किन्तु रोग की अवस्था में भी प्रतिपिण्ड जब बनने लगते हैं तो इतनी तीव्रता से बनते हैं कि वे रोग को नष्ट करके ही मानते हैं। जब रोग समाप्त हो जाता है तो यह इस बात का प्रतीक है कि रक्त में उस विजातीय द्रव्य के प्रतिपिण्ड बनने की क्षमता आ गई है और दुबारा रोग के उत्पन्न होने पर प्रतिपिण्ड बनने में कोई विलम्ब नहीं होगा।
इस प्रकार प्रकृति ने रोगों से बचने, उनसे लड़ने और उन्हें उत्पन्न करने वाले कारणों को नष्ट करने की क्षमता या व्यवस्था स्वयं ही उत्पन्न कर ली है। इसके उपरान्त भी लोग बीमार पड़ते हैं तो कारण समझ में नहीं आता कि इतनी सुदृढ़ सुरक्षा व्यवस्था होने पर भी लोग बीमार क्यों पड़ते हैं? स्वस्थ रहने के लिए वास्तव में विशेष कुछ उपाय करना आवश्यक नहीं है। आवश्यक इतना करना भर है कि जिससे वे कारण दूर हो जांय जो शरीर को रोग प्रतिरोधक क्षमता या उसकी सुरक्षा व्यवस्था को दुर्बल बनाते हैं।
वे कारण हैं खान-पान और रहन-सहन की गलत आदतें। डा. कार्टलेन का कथन है कि मनुष्य किन्हीं बाहरी कारणों से नहीं बल्कि हमेशा गलत खान-पान और गलत रहन-सहन के कारण ही बीमार पड़ता है। यह जानते हुए भी कि शरीर सभी प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक उत्कर्षों का साधक है, वह स्वस्थ रहे तभी हर प्रकार से आनन्दित रहा जा सकता है, खान-पान और रहन-सहन की गलत आदतें डालना नासमझीपूर्ण आत्मघाती प्रक्रिया ही सिद्ध होती है।
शास्त्रकारों ने शरीर को परमात्मा का मन्दिर कहा है। इसमें ईश्वर का अंश आत्मा निवास करता है। मन्दिर को गन्दा नहीं रखा जाता, वहाँ कूड़ा-कचरा नहीं फैलाया जाता, वहाँ की व्यवस्था नहीं बिगाड़ी जाती तो क्या कारण परमात्मा के जीवित जागृत और प्रत्यक्ष मन्दिर की व्यवस्था तोड़ी-मरोड़ी जाय तथा वहाँ अस्त-व्यस्तता उत्पन्न की जाय।
इतना उच्च दृष्टिकोण नहीं भी अपनाया जाता तो कम से कम यही विचार कराना चाहिए कि प्रकृति हमारे स्वास्थ्य की स्वयं कितनी चिन्ता करती है। उसने स्वस्थ रहने और रोगों से बचने के लिए कैसी अनुपम व्यवस्था की है? उस व्यवस्था को भंग करना नासमझी ही नहीं प्रकृति द्रोह भी है जिसका दण्ड रोग, बीमारी और अकाल मृत्यु के रूप में भोगना पड़ता है।