Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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सृष्टि के स्वरूप में झाँकती अदृश्य सत्ता
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एक व्यक्ति ने ताजमहल देखा। अनुपम कलाकृति को देखकर उसका मन पुलकित हो गया। ऐसी सुन्दर कृति उसने कभी नहीं देखी थी। उसके मन में तीन प्रकार के विचार उत्पन्न हुये। (1) यह कृति अपने आप बन गई (2) अकस्मात् बन कर तैयार हो गई (3)इसको किसी विचारशील मनुष्य ने बनाया है। सामान्यतया किसी भी व्यक्ति से पूछा जाय कि इन तीनों प्रकार के विचारों में कौन सही है? तो प्रत्येक का उत्तर होगा प्रथम दोनों निराधार तथा तृतीय सत्य है। प्रथम तथा द्वितीय के समर्थन करने वालों को विवेक रहित, मूर्ख कहा जायेगा और उनका उपहास किया जायेगा।
सृष्टि रचना को लेकर भी समय-समय पर इसी प्रकार के प्रश्न उठते रहे हैं? मानवकृत रचनाओं के संदर्भ में सबका ही एक मत होगा। किन्तु सृष्टि रचना के विषय में विभिन्न प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं, जो निराधार हैं। पर आश्चर्य यह है कि तथाकथित अपने को बुद्धिमान कहने वाले व्यक्ति इस प्रकार की निराधार मान्यताओं के प्रति दुराग्रह पूर्ण समर्थन करते देखे जाते हैं। सृष्टि के उद्भव के संदर्भ में प्रचलित मान्यताएँ निम्न हैं-
(1) सृष्टि अपने आप बन गई। अनादि काल से यह अपने आप बनती बिगड़ती चली आ रही है।
(2) सृष्टि अकस्मात बन गई।
(3) सृष्टि का कारण प्रकृति (नेचर) है।
(4) इसको बनाने वाली कोई समर्थ ज्ञानमय सत्ता है।
यथार्थ की जानकारी के लिये इन मान्यताओं की विवेचना आवश्यक है।
कारण सत्ता के बिना कार्य सम्भव नहीं, इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता। चाहे वह नास्तिक हो अथवा आस्तिक। किन्तु देखा यह जाता है कि यह सिद्धांत मानव कृत रचनाओं, क्रियाओं के लिये तो स्वीकार किया जाता है किन्तु सृष्टि के लिये नहीं। एक सुन्दर मकान को देखकर ध्यान सहज ही उन कारीगरों की ओर चला जाता है, जिनके कला-कौशल मकान के भीतर झलकते दिखायी देते हैं। आकर्षक मूर्ति को देखकर कलाकार का मान होता है। मोटर, हवाई जहाज, रेल आदि में मानवी श्रम एवं बौद्धिक क्षमता के योगदान की बात स्वीकार की जाती है। वैज्ञानिक उपलब्धियों में वैज्ञानिकों की गहरी सूझ-बूझ एवं अथक श्रम का परिचय मिलता है। इन संरचनाओं को देखकर हर कोई अनुमान लगाता है कि इनको बनाने वाला कोई न कोई है?
विशाल सृष्टि एवं उसकी सुव्यवस्थित क्रिया प्रणाली देखकर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या इसको बनाने एवं संचालन करने वाली कोई कारणभूत सत्ता है?
एक मान्यता यह है कि सृष्टि अपने आप बन गई। वैज्ञानिकों के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति से पूर्व एक सूक्ष्म द्रव्य आकाश में फैला था। सूर्य, चन्द्रमा किसी का भी अस्तित्व नहीं था। कुछ काल बाद यह द्रव्य केन्द्र स्थानों पर सघन हो गया। केन्द्रों में गति उत्पन्न हो गई। गति से प्रत्येक केन्द्र गोल में परिवर्तित होकर अपनी धुरी पर तेजी से घूमने लगा। तीव्र गति के कारण गोले के भाग टूटकर अलग होने लगे। इन अंशों से ग्रह, उपग्रह का निर्माण हुआ, जो बाद में एक निर्धारित कक्षा में घूमने लगे। सूर्य, चन्द्रमा, मंगल आदि ग्रहों का निर्माण आदि काल के विशाल गोलों से हुआ।
प्रकृति के परमाणुओं के गतिशील होने तथा गतिशील होकर सृष्टि-निर्माण की बात यदि स्वीकार भी करली जाय तो भी समाधान इतने मात्र से नहीं हो जाता। परमाणुओं में गति कैसे उत्पन्न हो गई, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। उपरोक्त कथन उसी प्रकार है जैसे मकान को देखकर कहा जाय कि मिट्टी के कणों में गति उत्पन्न हो गई। ये कण पानी के साथ मिलकर ईंटों में परिवर्तित हो गये। इन ईंटों को शान्त बैठे रहना अच्छा नहीं लगा, उनमें पुनः गति उत्पन्न हुई। सीमेन्ट, लोहे से समझौता किया। परस्पर एक दूसरे के ऊपर सजते हुये चले गये। सीमेन्ट ने जोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया? लोहे के इस त्याग वृति का अनुकरण किया तथा मकान के बोझ को सम्भालने का उत्तरदायित्व वहन किया। जिसके फलस्वरूप मकान बनकर तैयार हो गया। मनुष्य द्वारा बनाई गई वस्तुओं के संदर्भ में इस प्रकार का यदि प्रतिपादन किया जाय तो उसे अविवेकपूर्ण कहा जायेगा। पर सृष्टि रचना के विषय में इस प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है तो उसे क्या कहा जाय।
सृष्टि के अपने आप बनने बिगड़ने की मान्यता में एक तर्क यह दिया जाता है कि यह परमाणुओं का स्वभाव है किन्तु कोई भी स्वभाव क्रिया में परिणत तभी हो सकता है जब कि उसमें कोई गति देने वाला हो। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। चीनी का स्वभाव है मीठा होना, नमक का नमकीन। आटा, पानी, घी का अपना अलग-अलग स्वभाव है। इन वस्तुओं को यदि एक स्थान पर रख दिया जाय और सोचा जाय कि ये वस्तुएँ अपने स्वभाव से प्रेरित होकर गतिशील हो जायेंगी। इस प्रकार मिष्ठान अथवा पकवान बनकर तैयार हो जायेगा। यह सर्वथा असम्भव है। वस्तुओं के अन्दर अपनी विशेषताएँ तो हैं किन्तु उनके स्वयं के अन्दर कोई प्रेरक शक्ति नहीं है, जो गति दे सके। मिठाई तो तभी बनती है जब हलवाई एक निश्चित मात्रा में उन वस्तुओं को एक निश्चित क्रम में मिलाता है। प्रकृति के परमाणुओं में स्वभाव की विशेषता होते हुये भी अपने को निश्चित, आकार प्रकार में परिवर्तित कर सकने की असमर्थता है। उन्हें संयुक्त करने अभीष्ट आकार प्रदान करने में किसी समर्थ विचारशील चेतन सत्ता के हाथ की बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
सृष्टि रचना के संदर्भ में दूसरे प्रकार की मान्यता है कि यह अकस्मात् बन गई। इसके पूर्व कि इस मान्यता की विवेचना की जाय, अकस्मात् शब्द की व्याख्या करना कहीं अधिक आवश्यक है? इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। एक व्यक्ति बम्बई पहुँचा। वहाँ पर उसकी भेंट अपने पुराने मित्र से हुई, जो दिल्ली में रहता था। प्रचलित मान्यता इसी को अकस्मात की संज्ञा देती है। किन्तु गहराई में जाने का प्रयत्न करें तो स्पष्ट होगा कि आकस्मिक मिलन का निमित्त कारण दोनों की इच्छा शक्ति थी, जिससे प्रेरित होकर वे बम्बई पहुंचे। स्पष्ट है कि कोई भी घटना अकस्मात नहीं घटित होती उसके पीछे कोई न कोई कारण होता है। तूफान अचानक आता है किन्तु उसकी भूमिका वायुमण्डल में पहले ही बन जाती है। वर्षा होती है, लगता तो है कि यह आकस्मिक घटना है किंतु इसके पूर्व बादलों का बनना, हवा का चलना आदि प्रक्रिया सम्पन्न होती है तब कहीं वर्षा होती दिखायी देती है। घटनाएँ तो विभिन्न क्रियाओं की श्रृंखला का परिणाम है। पहले सम्पन्न हुई क्रियाओं को न देख पाने के कारण ही कहा जाता है कि अमुक घटना अकस्मात घटित हो गई है।
सृष्टि रचना के विषय में अकस्मात की मान्यता कुछ इसी प्रकार है। इस सिद्धांत का अभिप्राय यह होगा कि सृष्टि की विभिन्न घटनाएँ स्वतन्त्र तथा असंबद्ध इच्छाशक्तियों द्वारा नियन्त्रित एवं संचालित हैं, जो परस्पर मिलकर सृष्टि को बनाती है। एक शक्ति बादल बना रही है तो दूसरी नदी एवं समुद्र। तीसरी पहाड़ बनाने में संलग्न है, चौथी ग्रह-नक्षत्र। पांचवीं हवा चलाने में व्यस्त है। इस क्रम में बढ़ते जांय तो असंख्यों प्रकार की रचनाओं के लिये असंख्यों तरह की शक्तियों की आवश्यकता होगी। इस पर विवेक दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि इच्छा शक्ति की बात विभिन्न प्रकार की शक्तियों में परोक्ष रूप से स्वीकार की गई है। इस प्रकार एक सृष्टि कर्ता की बात को स्वीकार न करके ऐसे प्रतिपादन द्वारा असंख्यों प्रकार के इच्छा शक्ति वाले ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया। सृष्टि रचना में किसी समर्थ विचारशील सत्ता के अस्तित्व का समर्थन यह प्रतिपादन स्वयं करता है।
स्पष्ट है कि परमाणुओं के आकस्मिक संयोग से इतनी सुन्दर, व्यवस्थित सृष्टि का निर्माण सम्भव नहीं। इसे विज्ञान एवं विचारशीलता का अंध-विश्वास ही कहा जाना चाहिये जिसमें सृष्टि के अकस्मात सृजन की बात कही जाती है। यदि परमाणुओं के परस्पर उलट-फेर से सूर्य, चन्द्र, मंगल तथा अन्यान्य ग्रह-उपग्रह बन सकते हैं तो एक सामान्य मकान अपने आप बनकर तैयार क्यों नहीं हो जाता। समुद्र, नदी, पहाड़ बन सकते हैं तो एक कुआँ क्यों नहीं बन जाता। ‘अकस्मात्’ बनने की बात यदि सृष्टि के विषय में कही जाती है तो मानवकृत रचनाओं के लिये भी स्वीकार किया जाना चाहिये किन्तु यह सर्वथा असम्भव है।
तीसरे प्रकार के समर्थकों का कहना है कि संसार का निर्माण स्वयं प्रकृति करती है? यह मान्यता उपरोक्त दोनों से भी अधिक अविवेकपूर्ण पूर्ण है। आकार-प्रकार की दृष्टि से प्रकृति की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रकृति से अभिप्राय यहाँ सृष्टि नियम से माना जाये तो सृष्टि कर्ता मानना बहुत बड़ी भूल होगी। पाश्चात्य जगत के प्रसिद्ध विचारक फिलन्ट अपनी पुस्तक ‘फिलन्ट्स थिज्म’ में लिखते हैं कि ‘‘सृष्टि रचना एवं उसकी सुव्यवस्थित क्रिया प्रणाली का कारण सृष्टि नियम बताना, वस्तुतः टालमटोल करना है। नियम व्यवस्था बिना किसी चेतन सत्ता के सम्भव नहीं है।’’
प्रो. हवैविल का कहना है कि ‘‘किन्हीं घटनाओं का सम्बन्ध बताने वाले, उन पर शासन करने वाले नियम यह बताते हैं कि कोई व्यवस्थापक, ज्ञानमय सत्ता है। नियम प्रबंध के कारण नहीं हो सकते वरन् इस बात के सूचक हैं कि कोई नियामक सत्ता है।
उपरोक्त मान्यताओं के विवेचन से स्पष्ट है कि सृष्टि को बनाने वाली कोई चेतन सत्ता है। जो विचारशील ही नहीं शक्ति सम्पन्न भी है। चौथी प्रकार की मान्यता की पुष्टि इन तीनों की विवेचना द्वारा होती है।
हमारा अस्तित्व इस बात का प्रमाण है कि उसकी आदि कारण सत्ता भी है? जीवन है तो उसका स्त्रोत भी है। चेतना है तो उसका आदि स्थल भी है। सृष्टि स्वयं प्रमाण है कि सृष्टि कर्ता है। जड़-चेतन का सृजन, अभिवर्धन एवं परिवर्तन की प्रक्रिया सम्पन्न करने वाली शक्ति उद्गम रहित नहीं हो सकती। जो सबका कारण, जीवन शक्ति, ज्ञान, आनन्द का आदि स्त्रोत है वही परमात्मा है। उसी को विभिन्न धर्म सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं?
उस परम सत्ता को समझ न सकने के कारण ही इस प्रकार की अविवेकपूर्ण मान्यताएँ बनायी जाती हैं। जिन्होंने अन्वेषण किया, साधना में प्रवृत्त हुये उन्होंने न केवल सृष्टि की आदि कारण सत्ता को जाना वरन् उसके सान्निध्य का लाभ भी उठाया। दिव्य आलिंगन का अनुभव किया। उस आनन्द की मस्ती में कह उठे.............. “भौतिक जगत के सारे सुख उस आनन्द के समक्ष कुछ भी नहीं है।’’
संत, महात्मा, ऋषि, महर्षियों के ज्वलंत इतिहास इस बात के प्रमाण हैं। जिनके जीवन की पवित्रता, व्यक्तित्व की श्रेष्ठता सहज ही जन-सामान्य को आकर्षित कर लेती है। उनके आत्मबल की सम्पन्नता संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को प्रेरणा ही नहीं देती वरन् उनकी गतिविधियों में भी आमूल-चूल परिवर्तन करके श्रेष्ठता की ओर बढ़ने के लिए बाध्य करती है। उसी शक्ति की छोटी चिनगारी अपनी अन्तरात्मा में जलती देखी। दिव्य सत्ता को सम्पूर्ण चराचर में ओत-प्रोत देखा तथा सृष्टि की सुव्यवस्था में उसका प्रवाह अनुभव किया। उन महान आत्माओं के पद चिन्हों पर चला जा सके तो सृष्टि की आदि कारण सत्ता को जाना ही नहीं अनुभव भी किया जा सकता है। जिसको अनुभव करने के उपरान्त किसी प्रकार की कामना शेष नहीं रह जाती है। यह जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि है। मानव जीवन का परम लक्ष्य यही है।