Magazine - Year 1981 - Version 2
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Language: HINDI
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वरदायी अभिशाप
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जुए में सारा राजपाट हार जाने के बाद दुर्योधन द्वारा पुनः निमन्त्रित किये जाने पर धूत क्रीड़ा के लिए बैठे युधिष्ठिर फिर हार गए और अबकी बार उन्हें वनवास के लिए जाना पड़ा। पाण्डव उन दिनों वनवास में जीवन व्यतीत कर रहे थे तभी भगवान वेदव्यास ने अर्जुन को तपस्या की प्रेरणा दी। दिव्य दृष्टि से भगवान व्यास को यह ज्ञान हो गया था कि महाभारत अवश्यंभावी है। इस महासागर में पाण्डवों का पक्ष सुदृढ़ करने के लिए ही उन्होंने अर्जुन को तपश्चर्या के लिए जाने का परामर्श दिया था।
अपने भाइयों से अनुमति प्राप्त कर अर्जुन हिमालय पर तप करने चले गए। वहाँ उन्होंने तप के द्वारा भगवान शंकर को प्रसन्न कर लिया। अवदर दानी भगवान शंकर प्रसन्न होकर अर्जुन को पाशुयतास्त्र दिया, जो अजेय और अमोघ था।
शिव से अनुगृहीत होने के उपरान्त अर्जुन के पास देवलोक से देवराज इन्द्र आये और उन्हें अपने दिव्यस्थ में बिठा कर स्वर्णलोक ले गए। वहाँ इन्द्र ने तथा अन्य लोकपालों ने अर्जुन को अनेकानेक दिव्यास्त्र प्रदान किये तथा वनवास की समाप्ति के बाद निश्चित रूप से सम्भावित महाभारत युद्ध में सहयोग देने, उनकी ओर से युद्ध करने का आश्वासन दिया।
इन्द्र के पास रहते समय ही देवताओं के शत्रु निवातकवच नामक असुर ने देवलोक पर आक्रमण किया। गांडीवधारी अर्जुन ने अकेले ही इस असुर का सामना किया और द्वंद्व युद्ध कर उसे परास्त कर दिया।
असुरों पर विजय प्राप्त कर जब अर्जुन अमरावती लौटे तो देवताओं ने बड़े उल्लास से उनका स्वागत किया। देवसभा में उन्हें इन्द्र ने अपने समीप अपने समकक्ष सिंहासन पर बिठाया। गंधर्वगणों ने वीणा उठाई और मधुर रागनियां छेड़ीं। अप्सराओं ने नृत्य आरम्भ किया। देव प्रतिहारी एक-एक कर अप्सराओं के नाम पुकारता और वह अप्सरा अपनी सम्पूर्ण नृत्यकला का परिचय देती हुई सहनर्तकियों के साथ नृत्य करती। अप्सराओं के नृत्य और गन्धर्वों की रागिनियों से देवसभा के वातावरण में मुग्ध कर देने वाली झंकृति व्याप्त हो जाती। परन्तु जिस अतिथि के स्वागत में यह सब हो रहा था, वह इन सबसे असंपृक्त-सा शान्त अपने आसन पर विराजमान था। स्वर्ग के इस वैभव विलासमय वातावरण में बैठे अर्जुन को बल्कलधारी, कन्दमूल खाकर निर्वाह करने और भूमिशयन कर क्लाँति मिटाने वाले वनवासी भाई स्मरण आ रहे थे। उनकी स्मृति मानस पटल पर रह-रहकर उभर आने से अर्जुन को इन सबमें तनिक भी रस और आकर्षण नहीं अनुभव हो रहा था।
नृत्य चल रहा था। एक अप्सरा आ रही थी और पूर्ववर्ती अप्सरा जा रही थी। इसी क्रम में देव प्रतिहारी ने उर्वशी का नाम लिया। अर्जुन ने उर्वशी की ओर सिर उठा कर देखा। इसके पूर्व उन्होंने किसी अप्सरा की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा था। देव प्रतिहारी ने जब उर्वशी का नाम लिया तो अर्जुन की दृष्टि सहसा उठ गई थी और उन्होंने नृत्यरत उर्वशी को कई बार देखा भी था।
निकट ही बैठे देवराज इन्द्र ने अर्जुन की यह दृष्टि लक्षित कर ली और महोत्सव समाप्त होने पर गंधर्वराज चित्रसेन को अपने पास बुलाकर कहा, उर्वशी के पास जाकर मेरी यह आज्ञा सूचित कर दो कि वे आज रात्रि में अर्जुन की सेवा में रहें। अर्जुन हम सबके परमप्रिय हैं। उन्होंने हम पर उपकार किया है। उन्हें प्रत्येक भाँति प्रसन्न रखना हमारा कर्त्तव्य है।
तप तेज से कान्तिमान अर्जुन की स्वर्णिम काया, उन्नत ललाट, पुरुषोचित सौंदर्य और भव्य व्यक्तित्व देखकर उर्वशी स्वयं उन पर अनुरक्त हो चुकी थी। चित्रसेन द्वारा जब उसे देवराज इन्द्र का यह आदेश मिला तो अयाचित और अनायास ही अपना मनोरथ पूरा हो जाने से उसने आदेश को अनुमति मान कर प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया। उर्वशी अपने स्वर्गिक रूप सौंदर्य का जितना श्रृंगार सज्जित कर सकती थी, किया और रात्रि का प्रथम प्रहर बीतते ही अर्जुन के कक्ष में जा पहुँची।
अर्जुन उस समय जाग ही रहे थे। उन्हें वन में कष्ट सह रहे अपने भाई, माता और पत्नी का स्मरण आ रहा था। उनके कष्टों की कल्पनाएँ मन में रह-रहकर उठ रही थीं और वे उन कल्पनाओं से व्यथित होकर शय्या पर इधर-उधर करवटें बदल रहे थे। उर्वशी ने जैसे ही उनके कक्ष में प्रवेश किया, अर्जुन शय्या छोड़कर उठ खड़े हुए तथा मस्तक झुका कर करबद्ध प्रणाम करते हुए बोले, “माता! आप इस समय कैसे पधारीं? आपकी क्या सेवा करूं?”
माता सम्बोधन सुनकर ही उर्वशी जैसे आकाश से जमीन पर गिर पड़ी। विस्मय आघात को सम्हालते हुए उर्वशी ने बतलाया कि वह स्वयं अर्जुन पर आसक्त है तथा देवराज इन्द्र ने भी ऐसा ही आदेश दिया है। उर्वशी ने आग्रह किया कि वे उसकी प्रार्थना स्वीकार कर लें।
‘आप मुझसे ऐसी अनुचित बात फिर न कहना।’ अर्जुन ने स्थिर भाव से कहा, ‘मैंने महर्षिगणों से सुन रखा है कि आप की कुरुकुल की जननी हैं। आज के महोत्सव में जब देव प्रतिहारी ने आपका नाम लिया तो मुझे यह स्मरण हो आया और आपके दर्शन की इच्छा अनायास ही जागृत हो गई। इस इच्छा से प्रेरित होकर मैंने अपनी कुलमाता समझ कर आपके पावन चरणकमलों के अनेक बार दर्शन किए, प्रतीत होता है इसीसे देवराज को भ्रम हो गया।’
‘भ्रम हुआ हो या यथार्थ अनुभव, उर्वशी ने समझाया, ‘पार्थ यह ध्यान रखो कि यह पृथ्वी नहीं स्वर्ग है। हम अप्सराएँ न किसी की माता हैं न बहिन।’ स्वर्ग में आया हुआ प्रत्येक प्राणी अपनी स्थिति के अनुसार हमारे यौवन का उपभोग कर सकता है। यही यहाँ का नियम है और मैं स्वयं अपनी ओर से प्रस्तुत हूँ।’
रात्रि का एकान्त समय। श्रृंगार विभूषित स्वर्ग राज्य की सर्वश्रेष्ठ अक्षय रूप यौवन सम्पन्न अप्सरा उर्वशी का प्रणय निवेदन, किन्तु धर्मज्ञ अर्जुन के चित्त को कामदेव स्पर्श नहीं कर सका। उन्होंने पूर्व की भाँति ही करबद्ध विनती की। आर्य! जिस प्रकार कुन्ती मेरी माता है, जिस प्रकार माद्री मेरी माता है और जिस प्रकार इंद्राणी शची देवी मेरी माता है उसी प्रकार आप भी मेरी माता हैं। आप मुझे पुत्र समझ कर ही अनुगृहीत करें और मेरे योग्य कोई सेवा बताएँ।’
अर्जुन अपने पवित्र भावों को व्यक्त कर रहे थे और उर्वशी को इस प्रकार के भाव अपना अपमान प्रतीत हो रहे थे। किसी ऋषि ने भी उसकी इस प्रकार उपेक्षा नहीं की थी, जैसे अर्जुन कर रहे थे। जिसे भी, जब भी चाहा उर्वशी ने अपने कमनीय कोमल और उद्दीपक सौंदर्य से पराभूत किया है। मृत्युलोक का एक प्राणी उसके आनिन्ध अपूर्व और अद्वितीय सौंदर्य की उपेक्षा कर रहा था। उर्वशी इस अपमान से विदग्ध हो उठी और उसने क्रुद्ध होकर अर्जुन को शाप दिया, ‘अर्जुन तुम नपुंसक की भाँति मेरे निवेदन को अस्वीकार कर रहे हो। मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम्हें पुंसत्व हीनों की भाँति रहकर एक वर्ष तक स्त्रियों के बीच नाचते, गाते रहना पड़ेगा।’
इतना कहकर उर्वशी वहाँ से फुफकारती हुई चली गई। अर्जुन इस शाप से भी अविचलित रहे और उन्होंने जाती हुई उर्वशी को शिरसा प्रणाम किया। प्रातःकाल देवराज इन्द्र को यह सारा घटना-क्रम विदित हुआ। अर्जुन की संयम निष्ठा पर प्रसन्न होते हुए उन्होंने कहा, ‘धनंजय! धर्म का पालन करने वाले पर कभी विपत्ति नहीं आती। यदि कोई विपत्ति आती भी है तो अन्ततः उससे मंगल ही होगा। उर्वशी का शाप एक मानव वर्ष तक रहेगा और उस शाप के कारण वनवास के अन्तिम अज्ञातवास वाले एक वर्ष के समय में तुम्हें कोई पहचान नहीं सकेगा। तुम्हारे लिए यह शाप भी उस समय वरदान ही सिद्ध होगा क्योंकि धर्म पर दृढ़ रहने के कारण तुम निर्देश होते हुए भी शाप के भागी बने हो।