Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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उद्धत यौनाचार के भयावह दुष्परिणाम
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विवाह के साथ ही नर-नारी के बीच यौन सम्बन्धों की छूट मिलती है और उनमें ही यह प्रतिबन्ध है कि वह पतिव्रत और पत्नीव्रत की मर्यादाओं के अनुरूप ही चलें। जब सन्तानोत्पादन की आवश्यकता दोनों पक्ष समान रूप से अनुभव करें तभी उस प्रसंग में हाथ डाला जाय अन्यथा हंसी विनोद हास परिहास जैसे क्रीड़ा कौतुकों से प्रेम प्रदर्शन का उद्देश्य पूरा कर लिया जाय। स्नेह और सहयोग दिनचर्या के प्रत्येक क्रिया-कलाप में समन्वित रखा जा सकता है और उतने भर से दाम्पत्य-जीवन में उल्लास एवं उत्साह बना रह सकता है।
सृष्टि के सभी जीव जन्तु इस मर्यादा का पालन करते हैं। उनमें से अधिकाँश वर्ष में एक बार ही प्रजनन प्रयोजन के लिए इस ओर कदम बढ़ाते हैं। बुद्धि हीन होते हुए भी वे प्रकृति अनुशासन का पालन करते हुए साथ-साथ रहते हुए इस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते।
अकेला मनुष्य ही है। जो इस अनुबन्ध का उल्लंघन करता है और यौनाचार को मनोरंजन का विषय बनाता है। प्रजनन अंगों की संरचना ऐसी है जिनका यौनाचार के निर्मित न्यूनतम उपयोग ही किया जाना चाहिए। तो भी मात्र अपने जोड़ीदार के साथ। इसका उल्लंघन करने से स्वास्थ्य खोखला होता है। तेज और सौंदर्य घटता है, जीवनी शक्ति में कमी पड़ती है। फिर कहीं यदि इस संदर्भ से मर्यादाओं का उल्लंघन चल पड़े। नर नारी अनेकों को अपना साथी बनाने और उच्छृंखलता बरतने लगें तो यौन रोगों की उत्पत्ति होना स्वाभाविक है। पारस्परिक सद्भावना और विश्वास पात्रता घटती है। इतना ही नहीं अनाचार की ओर देखने-सुनने वालों का भी मन चलता है और वह श्रृंखला बढ़ते चलने पर पारिवारिक ही नहीं सामाजिक जीवन का भी ढाँचा बटोर देती है। सन्तान पर बुरा असर पड़ता है और आर्थिक अपव्यय का एक नया द्वार खुलता है। इस सबमें बड़ी बात है कि अनेकों के साथ दाम्पत्य संपर्क स्थापित करने का प्रतिफल भयंकर यौन रोगों के रूप में सामने आते हैं। जो जीवन भर कष्ट देते हैं। उनका स्थायी उपचार भी नहीं हो पाता। एक पक्ष इस प्रकार के रोगों से ग्रसित हो तो उसकी छूत दूसरे पक्ष को लगती है। सन्तानोत्पादन का क्रम चल पड़े तो नवजात शिशु भी उस वंश परम्परा को साथ लेकर आते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी वह अभिशाप त्रास देता रहता है। व्यभिचारी और व्यभिचारणियाँ प्रायः इस प्रकार के रोगों के शिकार पाये जाते हैं। वेश्याओं के यहाँ इस व्यथा का उत्पादन होता है और उसकी बेल इतनी लम्बी चलती है कि वह न जाने कितनों को अपनी चपेट में लेकर विनाशकारी दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। जिन देशों या समाज में यौन स्वेच्छार पनपता है उसके पारिवारिक जीवन में आशंका अविश्वास और कलह के केंद्र रहते ही हैं साथ ही यह भयंकर रोग परम्परा इस तेजी से पनपती है कि दोषियों के साथ-साथ निर्दोष भी गेहूँ के साथ घुन की तरह पिसते हैं। पाश्चात्य देशों में यह व्यथा बेतरह बढ़ती जा रही है क्योंकि वहाँ दाम्पत्य मर्यादाओं का पालन अनिवार्य नहीं समझा जाता।
प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त युवकों और प्रौढ़ों का बहुत बड़ी संख्या में संहार हुआ। फलतः आश्रितों की भावनात्मक और आर्थिक स्थिति को भारी आघात लगा। नारियों की तुलना में नर बहुत कम रह गये। अनाथ महिलाओं के सामने पारिवारिक निर्वाह की एक विकट समस्या के रूप में सामने आयी, फिर वे भावनात्मक सहयोग का अभाव भी अनुभव करने लगीं। इन दोनों कर्मियों की सहज पूर्ति यौन स्वेच्छाचार अपनाने से होती थी। इसलिए वह अधिक सस्ता और व्यापक होता चला गया। दाम्पत्य मर्यादाएं नहीं के बराबर रह गईं।
इस कुप्रचलन के जहाँ अन्यान्य दुष्परिणाम सामने आये वहाँ एक महान संकट यौन रोगों के रूप में सामने आया प्रदर, प्रमेह, स्वप्न दोष जैसे सामान्य रोगों से व्याधि उन महारोगों तक फैली जिन्हें सुजाक था ‘सिफलिस’ कहते हैं। छोटे रोगों को तो लोग गुपचुप भी सहन करते रहे, पर ‘सिफलिस’ वैसा रोग नहीं हैं जो छिपाये छिप सके। उसमें लगभग कोढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इतना ही नहीं उसमें ज्ञानेन्द्रियाँ सड़ने गलने लगती हैं और रक्त में उस रोग के विषाणुओं की अभिवृद्धि से सारे शरीर में व्रण विस्फोट होने लगते हैं। इससे भी बड़ी बात है कि वह छूत की बीमारियों में अग्रणी होने से एक से दूसरे को दौड़कर लगता है और निर्दोष भी असावधानी के कारण इस संक्रामक व्यथा के चंगुल में जकड़ जाते हैं और अपने संपर्क क्षेत्र इसी आग में झुलसते हैं।
सन् 1914 ये 1919 तक चले प्रथम विश्व महायुद्ध का दौर प्रायः यूरोप के देशों में रहा। विशेषतया जर्मनी के निकटवर्ती देशों में। इसलिए युद्ध के उपरान्त अन्य समस्याओं के अतिरिक्त व्यभिचार के और तज्जनित व्यभिचार की बाढ़ आई। लगे हाथों संक्रामक रोग ‘सिफलिस’ भी उबल पड़ा। जिनने उसका दुष्परिणाम देखा वे ऐसे रोगियों को साक्षात् यमदूत समझकर अपना प्राण बचाने के लिए घबराने और दूर रहने लगे।
जेल में एक पादरी की मृत्यु इसी रोग से हुई। एक से दूसरे में इसकी भयंकरता की जानकारी अफवाहों के साथ फैली, फलतः उस जेल के कैदी कहीं अन्यत्र तबादले के लिए आग्रह करने लगे। चूँकि चर्चा दूर-दूर तक फैल चुकी थी, इसलिए जहाँ भी उनके तबादले होते थे वहाँ के कैदियों ने उन्हें अपने यहाँ न आने देने का हठ ठान लिया। अन्त में उस सिर दर्द से कैदियों को मुक्त करके अधिकारियों ने किसी प्रकार अपना पीछा छुड़ाया।
बात कैदियों की नहीं गली-मुहल्लों की थी। एक ही छोटे कस्बे में करीब 2000 रोगी ऐसे पाये गये, जिनकी बीमारी प्रत्यक्ष दिखती थी। उन्हें कोई घर में रखने को तैयार न हो रहा था। अस्पतालों के डाक्टरों ने भी उनका इलाज करने से इनकार कर दिया। ऐसी दशा में उनके लिए किसी पुराने किले का खण्डहर निवास ग्रह बनाया गया। डाक्टर वहीं एक जगह खाने और लगाने की दवाएं रखवा देता था। शासन भी भोजन वस्त्र का ऐसा प्रबन्ध कर देता था कि एक स्टोर से वे लोग स्वयं ही अपने काम की चीजें निकाल लिया करें। जिन्हें प्रबन्धक नियुक्त किया गया था वे भी अपनी लम्बी छुट्टी लेकर चले गये या स्तीफे भेज दिये।
वैज्ञानिक शोधों ने इसे अच्छा करने की तो नहीं पर किसी सीमा तक दबाने की औषधियाँ निकालीं। प्रतिबन्धों के बीच पीड़ित भारी संख्या में मरे और इसके उपरान्त वर्षा थमने की तरह रोगों की भयंकरता घटी पर उसके जीवाणु एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे।
इस संकट को युद्ध का अभिशाप माना गया। सैनिकों के गली मुहल्लों में प्रवेश करने पर प्रतिबन्ध लगाये गये। बड़े जन संपर्क वाले कारखानों में इसकी डाक्टरी जाँच जल्दी-जल्दी होने लगी। महिलाओं के लिए अलग से अस्पताल बने। जन साधारण को इस भयंकरता से परिचित कराया गया तो एक शताब्दी में यह तूफान किसी प्रकार रुका और सामान्य स्थिति बनी।
इसके बाद दूसरा महायुद्ध आ धमका। उनने भी वही पुरानी परिस्थितियों को नया जीवन दिया। इस बीच एक और नया व्यसन पनपा ‘समलिंगी यौनाचार’ का। पुरुष पुरुषों से और स्त्रियाँ स्त्रियों से अपनी उच्छृंखल आदत का किसी प्रकार समाधान करने लगीं। सोचा क्या था कि कदाचित उससे वह पुरानी व्यथा न उभरेगी और व्यसन को भी तृप्ति मिलती रहेगी।
यह प्रयास और भी अधिक अप्राकृतिक होने के कारण नये रूप में उभरा इस नये रोग का नाम ‘एड्स’ (ए. आय. डी. एस.) अर्थात् एक्वायर्ड इम्यूनो डेफीशिएन्सी सिप्ड्रोम रखा गया। ऐन्टीवायटिक्सो के नये आविष्कारों ने सिर्फ इतनी ही मदद की कि पुराने लक्षणों को नया रूप दे दिया।
इस रोग का रोगी अपने स्नायु समूहों की क्षमता तथा ज्ञान तंतुओं की क्षमता खोता चला जाता है और कुछ ही सप्ताह में पक्षाघात पीड़ित की तरह अपंग हो जाता है। इसी स्थिति में उसकी मृत्यु हो जाती है। अच्छाई इतनी ही है कि रोगी को बहुत दिन पैर नहीं पटकने पड़ते। इलाज पर ज्यादा खर्च नहीं कराना पड़ता और जल्दी ही परलोक की टिकट कटा लेता है।
पिछली बार ‘सिफलिस’ का दौर यूरोप तक सीमित रहा और क्योंकि तब तक आवागमन के साधन सीमित थे और औद्योगीकरण, पर्यटन भी इतना नहीं बढ़ा था कि उस कारण ‘सिफलिस का क्षेत्र विस्तार हो सके। इसके लिए गोरों को ही चरित्र भ्रष्ट माना जाता था और युद्धोन्माद का दुहरा दण्ड भुगतते हुए देखा जाता था। पर अभी तीसरा युद्ध नहीं आया। जहाँ-तहाँ छुट-पुट लड़ाइयाँ ही चलीं किन्तु अन्य कारणों में आवागमन बढ़ गया। यह प्रायः सम्पन्न होते हैं और नई-नई जगहों में नये-नये प्रकार से व्यसन को भुनाना चाहते हैं। फलतः नया रोग ‘ए. आय. डी. एस.’ अब क्रमशः विश्वव्यापी होता चला जा रहा है। उसने अपनी लपेट में एशिया को भी ले लिया है। सिंगापुर, थाईलैण्ड एक प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र बनता जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय तस्करी का भी वह अड्डा बनता जाता है साथ ही व्यभिचार का केन्द्र भी। इसका प्रतिफल स्पष्ट है। उधर से इस रोग के बीज लेकर लोग अपने-अपने यहाँ वापस लौटते हैं और फिर अपने परिवार पड़ौस को इस उपहार का वितरण करते हैं।
प्लेग हैजा की तरह द्रुतगति से इसका विस्तार नहीं होता और न लक्षण ही इतने स्पष्ट प्रकट होते हैं। जानकारी तब मिलती है जब पानी सिर के ऊपर होकर उतर जाता है। पोशाकों का फैशन जैसे जल्दी-जल्दी बदलता रहता है और उसकी नकल यहाँ से वहाँ होती रहती है उसी प्रकार अब रोगों का प्रचलन भी चित्र विचित्र रूप में आता है। पूर्वकाल में यौन रोग नपुँसकता के तथा दुर्गन्धित स्रावों के रूप में उपजते थे। पीछे वे सुजाक आतशक के रूप में बदल गये। जब तक इनकी रोकथाम के कुछ उपाय खोजे गये तब तक नये रोग एड्स की भयंकरता सामने आ गई है। उसकी पहुँच संसार के कोने-कोने में पहुँचती जाती है, पर्यवेक्षण से पता चला है कि अब इस रोग के रोगी लाखों की परिधि पार करके करोड़ों में पहुँच चुके हैं और अभी कोई कारगर उपाय इसका नहीं खोजा जा सका। जब तक खोजा जायेगा तब तक प्रचलित उद्दण्डता के कारण उसका कोई और रूप सामने आ उपस्थित होगा।
कोलंबस अमेरिका की खोज में गया था। वहाँ रैड इंडियन महिलाओं से संपर्क साधा और लौटने पर इस प्रकार सड़ा कि जननेन्द्रिय से लेकर पेट तक बुरी तरह सड़ गया था।
अमेरिका की सभ्यता में रजनीश आश्रम में भी शिष्य और शिष्याएं बड़ी संख्या में रहते हैं। उनकी शिक्षा भी ‘संभोग में समाधि’ की है। ऐसी दशा में उन्हें भी अपने परिवार में यह शिक्षा बहुत जोर देकर देनी पड़ी है कि जोड़े बार-बार न बदले जांय।
अभिनव ‘एड्स’ रोग पर नियन्त्रण कब तक हो सकेगा। इसका उत्तर एक ही है कि यौन सदाचार को अनिवार्य मानने वाली पुरातन दम्पत्ति परम्परा को अपना कर परिवार को स्वर्ग बनाने से इनकार किया जाता रहा तब तक उस क्षेत्र को नरक की अनेकानेक व्यथाओं वेदनाओं से मुक्त नहीं रखा जा सकता। इन अभिशापों में ‘एड्स’ जैसे यौन रोगों की अभिवृद्धि तो निश्चित ही है। हम अपने दुष्कर्मों का प्रतिफल हाथों हाथ भुगतेंगे ही।