Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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सृष्टा का उत्तराधिकारी महान बनकर रहे
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मानवी विकास का वास्तविक स्वरूप निर्धारित करना हो तो यह मानकर नहीं चला जा सकता कि मनुष्य शरीर पाने तक ही उसकी अन्तिम परिधि है। उसे विकासोन्मुख होने के लिए शरीरगत जीवनयापन को भी सब कुछ न मानकर अपनी सत्ता उस चेतना के साथ जोड़नी पड़ेगी जो इस ब्रह्माण्ड पर अनुशासन करती और अन्तराल को सुविकसित स्वच्छ बना लेने वालों पर अपनी उच्चस्तरीय अनुकम्पा बरसाती है। साथ ही मनुष्य को इस प्रकार का चिन्तन अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित करती है कि उसके अन्तराल में अति महत्वपूर्ण क्षमताओं का भी भण्डार भरा बड़ा है जिसे थोड़ा विकसित कर लेने पर वह काया की दृष्टि से यथावत् रहते हुए भी व्यक्तित्व कि दृष्टि से यथावत् रहते हुए भी व्यक्तित्व की दृष्टि से महानतम बन सकता है।
इस अध्यात्म विकास के तत्वज्ञान के अनुरूप चेतना को विकसित परिष्कृत, समर्थ, विलक्षण बनाने का द्वार मनुष्य शरीर मिलने के उपरान्त खुलता है। इससे पूर्व तो वह मात्र जीवधारी ही बनकर रहता है। साथ ही प्रकृति का अनुशासन मानने के लिए बाधित रहता है। दो प्रकृति पर अनुशासन करने, उसे अपने अनुकूल बनाने की विद्या का ज्ञान तक नहीं होता। प्रकृति पर परमात्मा का स्वामित्व है। दूसरा हस्तान्तरण उसके युवराज मनुष्य को उसकी परिपक्वता विकसित होते ही उपलब्ध होने लगता है। यह दूसरी बात है कि वह उस अनुदान का कितनी बुद्धिमत्ता के साथ किन प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त करता है।
विकास की मानवी परत में उभरते ही उसे आत्मबोध की एक नई उपलब्धि हस्तगत होती है वह अनुभव करता है कि काय कलेवर उसका समग्र स्वरूप नहीं वरन् एक वाहन उपकरण आच्छादन मात्र है। उसके भीतर रहने वाली चेतना ही मनुष्य को ऊँचा उठाती नीचे गिराती है। मनः स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदाता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। वह प्रकृति की कठपुतली मात्र नहीं है। अन्य प्राणियों की तरह मात्र निर्वाह ही उसकी एकमात्र आवश्यकता नहीं है। वरन् व्यक्तित्व का स्तर उठाकर जीवन सज्जा को-अनेकों उपलब्धियों विभूतियों से अलंकृत करना भी एक विशिष्ट उद्देश्य है। जब तक यह विचारणा नहीं उठती तब तक वस्तुतः मनुष्य नर पशु ही रहता है और इन्द्रिय लिप्साओं तथा मानसिक तृष्णाओं तक ही उसकी गतिविधियाँ सीमित रहती हैं, न वह जीवन का महत्व समझ पाता है और न उसे चेतना की पृथकता-विशिष्टता सम्बन्धी कुछ ज्ञान होता है।
विकास की दृष्टि से पेड़ की ऊंचाई एक सीमा तक बढ़ती जाती है। वह सीमा पूरी होने पर उसका फैलाव एवं मोटाई की अभिवृद्धि होती है तथा फूल फल लदने लगते हैं। योनियों की दृष्टि से हाथी, सिंह, ह्वेल आदि का विस्तार तथा प्रभाव बढ़ा चढ़ा है, पर शरीर संरचना और मानसिक स्तर की दृष्टि से मनुष्य ही मूर्धन्य है। इसीलिए उसे सृष्टि शिरोमणि कहा जाता है। प्राणि जगत पर उसका अधिकार है। इतना ही नहीं प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों की परतें उसने उधाड़ी हैं और एक सीमा तक उस पर आधिपत्य भी प्राप्त किया है। सुख साधन उसके पास असीम मात्रा में हैं। अस्त्र-शस्त्रों सहित रण कौशल में उसकी प्रवीणता है। समाज गठन और शासन तन्त्र का निर्माण उसी का अनुपम कौशल है। पदार्थ विज्ञान में उसने असाधारण उन्नति की है। यह सब बातें इस बात का प्रमाण हैं कि प्राणि जगत में उसकी प्रमुखता असंदिग्ध है।
पेड़ की ऊंचाई पूरी हो जाने पर उसकी प्रगति फल-फूलों की दिशा पकड़ती हैं। यह बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी है उसका विकास मानसिक और आत्मिक दो दिशाओं में प्रस्फुटित होता है और इन क्षेत्रों की बढ़ी-चढ़ी सफलताओं में अपनी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति करता है।
विकास अविरल गति से चलता है इससे मानवी संदर्भ में भौतिक उन्नति एवं आध्यात्मिक प्रगति के नाम से जाना जाता है। यही उत्कर्ष की दो दिशाएं हैं। सम्पदाओं से सुसम्पन्न व्यक्ति को अति मानव कहा गया है और आत्मिक उत्कृष्टता को अति मानस।
भौतिक प्रगति में शरीर बल, बुद्धि बल, साधनबल, संगठन बल, अधिकार, कला कौशल आदि की गणना होती है। ऐसे लोग श्रीमन्त, सामन्त, शासक, विद्वान आदि नामों से जाने जाते हैं। उनकी महत्वाकाँक्षा इस दिशा में बढ़ती है कि अधिकाधिक वैभव, क्षेत्र एवं जन समुदाय पर उनका अधिपत्य हो और अधिकाधिक लोग उनका लोहा मानें, सम्मान प्रदान करें। ऐसे लोग सामान्य क्षेत्र में भी बहुत होते हैं और उन्हें वरिष्ठ कहते हैं। जब वे आर्थिक या शासकीय क्षेत्र में समर्थ होते हैं तो उनकी महत्वाकाँक्षा और भी अधिक तीव्र हो जाती है। इतिहास ऐसे लोगों के प्रमाण उदाहरणों से भरा पड़ा है। हिरण्याक्ष, वृत्रासुर, रावण आदि की चर्चा इसी वर्ग में होती है। पिछले दो महायुद्ध जर्मनी के शासकों की महत्वाकाँक्षाओं के कारण ही लड़े गये और उनमें मरने वालों तथा तबाह होने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुँची। हिटलर, मुसोलिनी ऐसे ही महत्वाकाँक्षी थे। आज भी रूस और अमेरिका पर परस्पर ऐसी ही तैयारियों में संलग्न होने का दोषारोपण करते हैं। दार्शनिक नीत्से के शब्दों में यह वर्ग विश्व विजय का स्वप्न देखता है उसकी पूर्ति के लिए असंख्यों के विनाश में नहीं चूकता। लोग इन्हीं का लोहा मानते हैं और आतंक से भयभीत होकर अथवा चापलूसी में शेर के द्वारा किये शिकार में श्रृंगाल को भी कुछ झूठन मिल जाने का ताना बाना बुनते हैं। इस वर्ग को तथा उनके समर्थकों को अतिमानव शब्द से सम्बोधित किया जा सकता है जो महामानव शब्द से सर्वथा प्रतिकूल शब्द है।
आन्तरिक विकास की आध्यात्म उत्कर्ष की दूसरी दिशा धारा है। उसे योगी अरविन्द के शब्दों में अति मानस कहा जा सकता है। इसका सर्वसुलभ उपाय है- सज्जनता। जिसे उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और उदार व्यवहार का समन्वय कह सकते हैं। यह सहजीवन का महा मानव स्तर है। इसे जो अपनाते हैं वे क्षुद्र प्रयोजनों में निरत नहीं रहते। पेट और प्रजनन का कार्य भी वे निपटाते तो रहते हैं, पर ऐसा नहीं होता कि उन्हीं में अपना सीमा बन्धन बाँध लें। वे लोक-कल्याण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन के सामयिक क्रिया-कलापों को अपने जीवन क्रम में अविच्छिन्न रूप से सम्मिलित करते हैं। इसके लिए निजी आवश्यकताओं में कटौती करनी पड़ती है तो उसे भी करते हैं, और कार्य भार तथा विरोधियों का दबाव बढ़ने से जो कठिनाई उठानी पड़ती है उन्हें भी सहन करते हैं। उन्हें सन्त, सुधार, शहीद के नाम से इतिहासकार स्मरण करते हैं। महापुरुषों, महामानव या युग पुरुष के नाम से ऐसे ही लोगों को श्रेय सम्मान दिया जाता है और उनकी उत्कृष्टता से प्रभावित होकर अगणित व्यक्ति उनका अभिनन्दन अनुकरण करते हैं।
इससे भी सूक्ष्म क्षेत्र में उतरने वाले व्यक्ति अपने अन्तराल को अधिकाधिक परिशोधन और परिष्कार करते हैं। कषाय कल्मषों को सतर्कतापूर्वक बुहारते हैं और क्रिया क्षेत्र में ही नहीं अन्तराल में उठते रहने वाले उतार-चढ़ावों को भी सन्तुलित करते हैं। उनके भीतर पवित्रता और बाहर प्रखरता का समावेश रहता है। ऐसे लोग तप का आश्रय लेकर अपनी प्रसुप्तियों को जगाते और प्रखरताओं को तेजस्वी करते हैं। योग के सहारे आत्मा और परमात्मा के बीच समन्वय का आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त करते हैं। जिनकी तपश्चर्या और योग साधना बलवती होती है उन्हें ऋषि, देवता, अवतार आदि नामों से पुकारते हैं। वे लोक कल्याण के लिए स्वाध्याय सामग्री विनिर्मित करते हैं और सामयिक समस्याओं के समाधान के सत्संग का ऐसा भाण्डागार विनिर्मित करते हैं जिसमें से अमृत जल भर कर विज्ञजन लोकमानस को परिष्कृत करने में जुट पड़ते हैं। इस आधार पर वे स्वयं दौड़ धूप करने की अपेक्षा दिशा निर्धारण एवं योजना निर्माण की दृष्टि से लोक सेवा की तुलना में कहीं अधिक काम कर गुजरते हैं।
हर कोई नहीं जानता, पर सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि प्रयत्न प्रयासों के महत्व की उपेक्षा न करते हुए सूक्ष्म वातावरण में लोक मानस को किसी भी दिशा में तूफान की तरह उड़ा ले जाने की विशेष सामर्थ्य होती है। सूक्ष्म वातावरण यदि भावनात्मक प्रदूषणों से, दुष्प्रवृत्तियों से भर रहा हो तो उसका प्रभाव समूचे संसार या समुदाय पर पड़ता है। उसमें विकृतियाँ भरती चली जांय तो छूत की बीमारियों की तरह अगणित लोग उससे प्रभावित होते हैं और अच्छी राह छोड़कर कुमार्ग पर घिसटते जाते हैं। इसके विपरीत यदि सूक्ष्म वातावरण को तेजस्वी ऋषि कल्प व्यक्तियों द्वारा भर दिया जाय तो चन्दन के पेड़ की तरह उसका प्रभाव न केवल समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ों को सुगन्धित बना देता हैं वरन् दूर-दूर के वातावरण में मनोरम सुगन्ध की मनोरमा सद्भावना भर देता है।
ऋषि कल्प व्यक्ति अदृश्य वातावरण पर प्रभाव छोड़ते हैं और अपने तेजस्वी व्यक्तित्व द्वारा समय के अनुपयुक्त प्रवाह को उलट कर सीधा करते हैं। इतने पर भी उनकी कार्यपद्धति हर किसी के समझने की नहीं होती। वे अपनी अतीन्द्रिय क्षमताएं उभारते हैं और उनके सहारे अनेक असमर्थों को सामर्थ्यवान बनाकर ऐसे लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं जिसे ईश्वर की चमत्कारी अनुकम्पा ही कहा जा सके। आत्मबल में अलंकारिक रूप से हजार हाथियों का बल बताया गया है।
यों लोक सेवी महामानव यदि अपना व्यक्तित्व निखार कर सामयिक आवश्यकताओं को पूरी करने में सफल होते हैं। अतिमानस का पहला या दूसरा चरण जो भी अपनाया जा सके अपने और समस्त समाज के विश्व ब्रह्माण्ड के उत्कर्ष में सहायक ही होते हैं।
सांसारिक दृष्टि से चर्म चक्षुओं से अतिमानवों का ही अधिक महत्व माना और उल्लेख होता है, पर सच्चाई यह है अतिमानस विनिर्मित करने की दिशाधारा ऐसी है जिसमें अपना ही नहीं विश्व मानव का ही वास्तविक हित साधन होता है।