Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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परमात्म सत्ता के विराट् रूप का दर्शन
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परमात्मा का दर्शन एक प्रिय और आकर्षक विषय है। लोगों की मान्यता है- इस दर्शन भर से ईश्वर को इतना अनुग्रहीत किया जा सकता है कि उससे जो कुछ भी उचित अनुचित माँगा जाय वह निश्चित रूप से मिल जाय।
इस सम्बन्ध में संव्याप्त भ्रम धारणा इतनी बड़ी और गहरी है कि उसके निरस्त करने के कुछ समय वर्ग सकता है। किन्तु यह निश्चित है कि भ्रम का अपना कोई अस्तित्व नहीं और वह वास्तविकता का प्रकाश प्रकट होते ही क्षण भर में तिरोहित हो जाता है।
ईश्वर का मनुष्य आकृति में या किसी देवता के रूप में प्रकट होना, दर्शन देना, यह विशुद्ध रूप से अपनी कल्पना अथवा मान्यता का खेल है। सर्वव्यापी कोई भी वस्तु या शक्ति निराकार ही हो सकती है और जो निराकार है उसके प्रत्यक्ष दर्शन कैसे हों?
मात्र इतना हो सकता है कि अपनी भावनाएं यदि प्रगाढ़ हों तो वे कल्पित स्वरूप के अनुरूप दिवा स्वप्न की तरह दर्शन देने लगे। भगवान भावना स्तर पर मनुष्य के साथ संपर्क साधते हैं। इसलिए उनकी अनुभूति अन्तःकरण में दिव्य विचारों के रूप में हो सकती है। वह भी यदि वास्तविक होगी तो उस अनुभूति को व्यावहारिक जीवन में उतारे बिना रहने नहीं दे सकती।
यदि जीवन क्रम पुराने ढर्रे का गये बीते लोगों के स्तर का बना रहे। चिन्तन में पवित्रता और प्रखरता का काया कल्प स्तर का परिवर्तन न हुआ हो तो समझना चाहिए कि वह दिव्य दर्शन भी दिवा स्वप्न के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। ऐसा तो हिप्नोटिज्म के आधार पर किसी को भी ईश्वर, देवता या और कुछ दिखाया जा सकता है।
वहाँ ईश्वर को साकार मानने के उपरान्त ही चर्म चक्षुओं से उसके देखे जाने की आशा की जा सकती है। पर क्या ईश्वर जन्म लेते और मरते हैं? निश्चय ही नहीं। इस मान्यता की अपेक्षा तो विराट् ब्रह्म-विशाल विश्व के रूप में ईश्वर का भाव क्षेत्र में प्रतिष्ठित करना श्रेष्ठ है। तुलसीदास जी ने “सियाराम मय सब जग जानी” के रूप में ही उनका दर्शन और अभिवन्दन किया था।
विष्णु सहस्र नाम में पहले ‘विश्व’ का नाम आता हैं। पर्वत, नदी, वन आदि समस्त विश्व परमात्मा का ही स्वरूप है। प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में भी ऋषियों ने परमात्मा के दर्शन किये। इसी परमात्मा बोध के कारण हिमालय, गंगा, आदि पवित्र समझे जाने लगे। यह अज्ञानवश प्रकृति में ईश्वरत्व का आरोप नहीं है।
श्रुति का कथन है कि एक ही ब्रह्म का विद्वानों द्वारा बहुत नाम रूपों में वर्णन किया गया है। पृथक-पृथक सम्प्रदायों में उनके विभिन्न नाम रूप हैं। पर इससे ईश्वरों का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।
परमात्मा कर्त्तव्य निष्ठ है। उससे उत्पन्न देव गण सदा क्रियाशील और अनुशासित रहकर कार्य करते हैं उन्हें भय है कि यदि अकर्मण्यता और प्रमाद बरता गया तो प्रकोप का भाजन बनना पड़ेगा। अतः नियत समय पर कर्तव्यरत रहते और कार्य अंजाम के प्रति सजग रहते हैं। इन्द्र, अग्नि तथा मृत्यु भी इसीलिए आज्ञानुवर्ती होकर कार्य करते हैं।
भीषास्माद वातः पवते। भीषोदेति सूर्यः।
भीषास्मादिन्द्रश्चाग्निश्च। मृत्यु-र्धाबति पंचम।
यह ईश्वर नियम रूप है। यदि हम ईश्वरीय नियमों का प्रति पालन करते हैं तो समझना चाहिए कि हमारी आस्तिकता सच्ची है।
अनेक देवताओं की मान्यता से एकेश्वरवाद के सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं आता। नदी या तालाब में लहरें उठती रहती हैं। उनके स्वरूप अलग-अलग दृष्टिगोचर होते हैं। इतने पर भी वे वस्तुतः जलाशय के अविच्छिन्न अंग ही हैं। इसी प्रकार अगणित देवताओं सम्बन्धी मान्यताओं के पीछे भी एक ही परम तत्व को समाहित समझा जाना चाहिए।
पुरुष सूक्त के अनुसार देवताओं की उत्पत्ति ईश्वर के अंगों से बताई गई है। पुरुष की संज्ञा परमात्मा को दी गई है। पुरुष का स्वरूप शब्दातीत है। उसके हाथ पैर सिर आदि अनन्त हैं। उसकी शक्ति अनन्त, अपरिमित है। इसी कारण उन्हें “सहस्र शीर्षा पुरुषः। सहस्राक्षः सहस्र पात्।” कहकर विराट् रूप में सम्बोधित किया जाता है।
ईश्वर के मुंह से अग्नि और इन्द्र की उत्पत्ति बताई जाती है। मन से चन्द्रमा और प्राण से वायु की उत्पत्ति बताई जाती है। नाभि से अन्तरिक्ष की उत्पत्ति हुई है। “चन्द्रमा मनसो जातः।” चक्षो सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च। प्राणव्दायुर जायत। नाभ्य आसीन्दन्तरिक्षम्। पद्म्याँ भूमि र्दिशः श्रोत्रात।”
अच्छा हो हम ईश्वर या देवताओं की व्यक्ति विशेष के स्तर की मान्यता न बनाये। उसे एक व्यापक सत्ता के रूप में हृदयंगम करें। विभिन्न देवी-देवताओं या अवतारों की प्रतिमा बनाने और पूजने में हर्ज नहीं किन्तु उसकी निराकारिता, सर्वव्यापकता और न्यायशीलता में सन्देह करके वैसा कुछ नहीं सोचा जाना चाहिए जैसा कि भक्त जन दर्शन करने के फेर में इसलिए रहते हैं कि उनकी इच्छित मनोकामनाएं इतने भर से पूर्ण हो जायगी।
वस्तुतः ईश्वर की अनुकम्पा या साँसारिक सफलता पाने के लिए हमें अपनी पात्रता का विकास करना चाहिए। उपलब्धियाँ उसी आधार पर हस्तगत होती हैं। पूजा उपासना का तात्पर्य भी पात्रता विकसित करना भर है। न कि ईश्वर को फुसलाना।