Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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ऋषि अंगिरा (kahani)
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ऋषि अंगिरा के शिष्य उदयन बड़े प्रतिभाशाली थे, पर अपनी प्रतिभा के स्वतन्त्र प्रदर्शन की उमंग उनमें रहती थी। साथी सहयोगियों से अलग-अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास यदा-कदा किया करते थे। ऋषि ने सोचा यह वृत्ति इसे ले डूबेगी...... समय रहते समझना होगा।
सर्दी का दिन था बीच में अंगीठी में कोयले दहक रहे थे, सत्संग चल रहा था। ऋषि बोले कैसी सुन्दर अंगीठी दहक रही है। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न? सभी ने स्वीकार किया।
ऋषि पुनः बोल- देखो, अमुक कोयला सबसे बड़ा-सबसे तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। ऐसे तेजस्वी का लाभ अधिक निकट से लूँगा।
चिमटे से पकड़कर वह बड़ा तेजस्वी अंगार ऋषि के समीप रख दिया गया।
चर्चा चल पड़ी। -पर यह क्या? अंगार मुर्झा सा गया। उस पर राख की पर्त आ गयी और वह तेजस्वी अंगार काला कोयला भर रह गया।
ऋषि बोले- बच्चों देखा, तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना। अंगीठी में यह अन्त तक तेजस्वी रहता और सबसे बाद तक गर्मी देता। पर अब न इसका श्रेय रहा- न इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके।
शिष्य समझ गये- ऋषि परम्परा वह अंगीठी है जिसमें प्रतिभाऐं संयुक्त रूप से सार्थक होती हैं। व्यक्तिगत प्रतिभा का अहंकार न टिकता है न फलित होता है।