Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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संयम से रहें दीर्घजीवी बनें
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मनुष्य की कायिक संरचना ऐसी है जिसके अनुसार यदि अवयवों की जान−बूझकर तोड़−फोड़ न की जाय तो अपनी पूर्णायुष्य सौ वर्ष तक बिना किसी कठिनाई के जीवित रह सकता है। उसकी मानसिक संरचना अन्य सभी प्राणियों की तुलना में अधिक विचित्र विलक्षण है। उसमें ऐसी विद्युत शक्ति, प्राण शक्ति एवं संकल्प शक्ति के भाण्डागार हैं जिनके सहारे दुर्बलता को हटाया, रुग्णता को भगाया और मनचाही दीर्घायुष्य का उपयोग किया जा सकता है। टूटे और थके जीव कोशों को फिर से नवीनीकरण की काया-कल्प क्षमता इस सृष्टि के समस्त प्राणियों में मात्र मनुष्य को ही प्राप्त है। समाधि जैसे उपचारों के सहारे वह लम्बा विश्राम लेकर मरण और पुनर्जीवन के बीच थकाव मिटाने वाली सुविधा स्वयं अर्जित कर सकता है। इस प्रकार उसे एक ही शरीर को स्थिर रखते हुए कई−कई बार जन्म लेने की स्थिति का लाभ लेते रहने का अवसर मिलता रह सकता है। दीर्घायुष्य अन्य प्राणियों के लिए आश्चर्यजनक हो सकती है वे कदाचित ही अपनी निर्धारित अवधि का व्यतिरेक करके अधिक समय अपना कलेवर स्थिर रख पाते हों पर मनुष्य के लिए शतायु का व्यतिक्रम करके सैकड़ों हजारों वर्ष भी जीवित रहना सम्भव है।
प्राचीन काल में सैकड़ों वर्ष जीने वालों की बड़ी संख्या थी। वे प्रायः अध्यात्म क्षेत्र के प्रयोक्ता थे। दो सौ वर्ष के लगभग तक जा पहुँचने वाले और डेढ़ सौ वर्ष तक अक्षम यौवन का आनन्द लेने वाले तो इन दिनों भी जहाँ तहाँ सामान्य लोगों के बीच ही मिल जाते हैं। योगियों के समुदाय में अन्वेषण करने पर सैकड़ों वर्ष तक जीवित रहने वालों को भी खोजा जा सकता है। उत्तर प्रदेश देवरिया क्षेत्र का उदाहरण बाबा के सम्बन्ध में अभी भी बहुतों के मुँह सुना जाता है कि वे दो सौ की आयु पार कर चुके। इसी प्रकार गंगोत्री निवासी स्वामी कृष्णाश्रम तो अवधूत की आयु दो सौ वर्ष से अधिक आँकी जाती थी। वे हिन्दू विश्वविद्यालय की शिला रखने गये थे। तीन वर्ष पूर्व ही उनका देहावसान हुआ है। सर्वसाधारण की पहुँच से बाहर के सिद्ध पुरुषों में कितने ही अभी भी ऐसे हो सकते हैं जिनने शरीर की आवश्यकतानुसार आश्चर्यजनक अवधि तक मरण से बचाये रखा हो।
पुराणों में ऐसे पाँच चिरंजीवियों का उल्लेख है जो मृत्यु की पकड़ से आगे चले गये हैं और जो सर्वसाधारण के संपर्क में न आने पर भी अभी भी जीवित रह रहे हैं। ऐसे दिव्य मानवों में मारकण्डेय, हनुमान, परशुराम, विभीषण और अश्वत्थामा की गणना होती है।
जामवन्त के सम्बन्ध में ऐसे कथानक हैं कि वे वामन अवतार के समय उपस्थिति थे और कृष्णावतार तक बने रहे। लंकाकाण्ड में उनके द्वारा हनुमान को प्रोत्साहन करने वाली भूमिका प्रख्यात है। गुरु वशिष्ठ के सम्बन्ध में भी ऐसे ही उल्लेख मिलते हैं। वे राम से पहले की सात पीढ़ियों के भी गुरु रहे और उनका यथावत् मार्ग दर्शन करते रहे। व्यास को भी अठारह पुराण लिखने में लम्बा समय लगा। मत्स्य गंधा के गर्भ से उत्पन्न होने से लेकर पाण्डु, धृतराष्ट्र, विदुर के जन्मदाता बनने तक की अवधि की काल गणना की जाय तो वह हजारों सैकड़ों वर्षों की बैठती है। दुर्वासा का यों शाप देते रहने का ही कीर्तिमान है, पर जिन−जिन को उनने शाप दिये उनका समय सतयुग से लेकर द्वापर तक का रहा है। इस अवधि को भी अप्रत्याशित रूप से लम्बी माना जाएगा। यह बात विश्वमित्र के साथ जुड़े हुए कथानकों के सम्बन्ध में भी है। न केवल विश्वमित्र वरन् सप्त ऋषियों में भी सभी ऐसे रहे हैं जिनका अस्तित्व युग−युगान्तरों तक स्थिर बना रहा। जटायु के बड़े भाई सम्पाति ने डडडड अपने संस्करण सुनाते हुए जो घटनाएँ सुनाई हैं इससे डडडड यह मानना पड़ता है कि उनने हजारों वर्ष की आयु पाई होगी।
दीर्घायुष्य के दो माप दण्ड हैं−एक अवधि परक, दूसरा क्षमता परक। कौन कब जन्मा, और कब मरा। इस काल गणना के अनुसार ही आमतौर से किसी के जीवन काल की गणना होती है। किन्तु एक दूसरा माप−दण्ड भी है कि किस में कितनी कार्य क्षमता, स्फूर्ति, जीवनी शक्ति एवं योजनाबद्ध कार्य पद्धति अपनाकर कोई कितने महत्व का कितना काम कर सका? यह पर्यवेक्षण के कम महत्व का नहीं है। एक डेरी में बीस दुबली गायें, तीस बीघे जमीन कर तीस किलों दूध दें। इसकी तुलना में तीन मजबूत गायें पाँच बीघे जमीन घेरे और पैंतीस किलो दूध दें तो बुद्धिमत्ता की कसौटी पर तीन गाय वाली डेरी के संचालक नफे में रहते दिखेंगे। इसी प्रकार कोई घुट−घुट कर आलसी−प्रमादी की तरह चींटी की चाल चले और कार्य परिणाम की दृष्टि से उपहासास्पद और स्तर की दृष्टि से गया−गुजरा काम कर सके तो अस्सी वर्ष जीकर भी उसने कुछ नहीं पाया, कुछ नहीं दिया और कुछ नहीं किया। जबकि चालीस वर्ष तक जीने वाले किसी पुरुषार्थी ने गजब का काम कर दिखाया। दोनों की तुलना में चालीस वर्ष वाले को दीर्घजीवी और अस्सी वर्ष वाले को अल्प जीवी भी ठहराया जा सकता है। यह माप दण्ड भी अपने स्थान पर सही है। यदि इस आधार पर मूल्याँकन किया जाय तो असंख्यों ऐसे लोग भी शतायु, सहस्रायु कहाये जा सकेंगे। जो अवधि की दृष्टि से पचास−चालीस जितनी तुच्छ अवधि तक ही जीवित रहे।
आद्य शंकराचार्य मात्र बत्तीस वर्ष जिये और विवेकानन्द ने छत्तीस वर्ष जितना अल्पायु जीवन पाया। इतने पर भी इन महा योगियों ने थोड़े−थोड़े ही समय में जो कर दिखाया, उसकी सराहना युग−युगान्तरों तक होती रहेगी। चार धामों की स्थापना, उच्चस्तरीय साहित्य सृजन, शास्त्र दिग्विजय जैसे अविस्मरणीय कार्यों को देखते हुए शंकर की अल्पायु पर हजारों नर पामरों की लम्बी−लम्बी जिन्दगियाँ निछावर की जा सकती हैं लम्बी अवधि जीने की सार्थकता तब है जब उसमें महत्वपूर्ण और उच्चस्तरीय क्रिया−कलापों की श्रृंखला भी जुड़ी हुई हो। वेद वेत्ता सातवलंकर, महर्षि महामना मालवीय, गान्धी जी, बिनोवा, नेहरू, प्रायः अस्सी पार गये हैं। सातवलंकर और कर्वे तो सौ का अंक छूने लगे थे। उनकी सराहना लम्बी आयु पाने की दृष्टि से उतनी नहीं होती, जितनी कि उनका महान कार्यों का मूल्याँकन करने पर होती है। इतनी हो या इनसे भी अधिक कुछ लुञ्ज−पुञ्ज कुछ कड़कदार बनकर दिन गुजारते रहे हैं, पर मात्र इतने भर से इनका कोई मान गौरव नहीं बढ़ता। कुछ को तो ऐसा सुयोग अनायास ही मिल जाता है, किन्तु उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्होंने कुछ समय नियम निभाये और दीर्घ जीवी बने। कौतूहल बस उनसे लोग ऐसे ही प्रसंगों पर चर्चा करते रहते हैं और ललचाते रहते हैं। कोई सस्ते नुस्खा पूछकर वे भी अधिक दिन जीने की तिकड़म भिड़ाते हैं। अधिक दिन जीना कईबार तो अपने लिए तथा घर वालों के लिए भारभूत भी हो जाता है।
डा. केनिव रासले की पर्यवेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य के गुर्दे 200 वर्ष तक, हृदय 300 वर्ष तक, चमड़ी 1000 वर्ष तक, फेफड़े 1500 वर्ष तक और हड्डियाँ 4000 वर्ष तक जीवित रह सकने योग्य मसाले से बनी है। यदि उन्हें सम्भाल कर रखा जाय तो वे इतने समय तक अपना अस्तित्व भली प्रकार बनाये रह सकती हैं। इनके जल्दी खराब होने का कारण यह ही है−उनसे लगातार काम किया जाना और बीच−बीच में मरम्मत का अवसर न मिलना। यदि इसी व्यवस्था बन पड़े तो निश्चित रूप से मनुष्य की वर्तमान जीवन अवधि में कई गुनी वृद्धि हो सकती है।
प्रकृति के हर कण में न केवल हलचल वरन् ऊर्जा का विपुल भण्डार भी भरा पड़ा है। चेतना की हर इकाई इससे भी अधिक समर्थ है। भाव सम्वेदनाओं, विचार तरंगों, संकल्प निश्चयों की भूमिका ही मानवी प्रगति का क्रम इतना आगे तक घसीट लाने में समर्थ हुई है। जीव कोश लगते भर नगण्य से हैं पर हैं वे भी विधाता के प्रतिनिधि। उनकी परतें उघाड़ कर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि वे अपने आप में पूर्ण एक छोटा ब्रह्माण्ड अंचल में समेटकर बैठे हैं। शक्ति की दृष्टि से उनमें से प्रत्येक नव सृष्टि की संरचना में कटिबद्ध होने वाले विश्वामित्र के समतुल्य हैं। इन्द्रियों की सामान्य गतिविधियाँ, जीवन निर्वाह में काम चलाऊ योगदान करते रहना भर प्रतीत होती हैं, किन्तु यदि तात्विक दृष्टि से देखा और पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि उनके अन्तराल में भी इतनी जादुई क्षमता भरी पड़ी है जिनका एक नगण्य-सा भाग ही निर्वाह क्रम में प्रयुक्त होता है। शेष तो सुरक्षित भाण्डागार की तरह जमा रहता है। उसमें ऐ ढेरों भाग अनावश्यक अपव्यय एवं हानिकारक दुरुपयोग में नष्ट होता रहता है। यदि इस अदूरदर्शी क्षरण को रोका जा सके तो उस बचत से भी इतना बड़ा भण्डार जमा हो ससता है जिसके बलबूते विपुल विभूतियों का अधिपति−ऋद्धि-सिद्धियों का अधिष्ठाता−देवमानव बन सकना सम्भव हो सके। संयम को ही तप कहते हैं। तप की शक्ति सर्वविदित है। तपाये जाने पर लोहा, सोना आदि धातुएँ परिशोधित होती और बहुमूल्य बनती हैं।
टूटे बर्तन में दूध दुहने पर, दुधारू गाय का खरीदना और पालना भी निरर्थक चला जाता है। दुहने वाले का श्रम निरर्थक नहीं जाता, छेदों में से टपके हुए दूध से उसके कपड़े भी खराब होते हैं और जिस जमीन पर वह फैलता है वहाँ मक्खियाँ भिनकने वाली गन्दगी भी पैदा होती है। असंयम के सम्बन्ध में भी यही बात है। इन्द्रिय असंयम के फलस्वरूप मनुष्य अपनी पूर्व संचित तथा अब की उपार्जित क्षमताओं को गवाँ ही नहीं बैठता, उसे दुरुपयोग का दुष्परिणाम भी भोगना है। जिह्वा इन्द्रिय को चटोरी बनाकर अनावश्यक मात्रा में अभक्ष्य−भक्षण करते रहने वाले अपना पाचन तन्त्र बिगाड़ लेते और रोगों से आक्रान्त होते देखे गये हैं। जननेन्द्रिय मार्ग से बहुमूल्य जीवन रस नालियों में बहाते रहने वाले किस प्रकार अपनी जीवन शक्ति और बौद्धिक क्षमता गवाँ बैठते हैं यह किसी से छिपा नहीं। अन्यान्य इन्द्रियों के दुरुपयोग के सम्बन्ध में भी यही बात है। इन्द्रिय संयमी किस प्रकार दीर्घायुषी होते और बलिष्ठता का आनन्द लेते हैं यह किसी से छिपा नहीं। मनोनिग्रह के आधार पर एकाग्रता, तन्मयता उपलब्ध कर लेने वाले योग सिद्धियों के अधिष्ठाता बनते हैं। योग का केन्द्र बिन्दु ही मनोनिग्रह है। पातञ्जलि ने ‘‘योगाश्चित्र वृत्ति निरोध” सूत्र में इस रहस्य का सार्वजनिक उद्घाटन किया है कि यदि मन को पतनोन्मुख प्रवाह में बहते रहने से रोका और उच्चस्तरीय रचनात्मक प्रयोजनों में लगाया जा सके तो उसके परिणाम आश्चर्यचकित कर देने वाले अत्यन्त चमत्कारी होंगे।
भौतिक जीवन को शानदार सुव्यवस्थित बनाने में क्षमताओं के संयम को ही दूरदर्शिता पूर्ण माना गया है। अपव्यय में कटौती करने से जो बचत होती है उतने भर से कोई विपुल वर्चस्व का धनी हो सकता हैं। “सादा जीवन उच्च विचार” सूत्र में आत्मिक प्रगति का सार संक्षेप सन्निहित है। अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम की तप साधना जिसने कर ली, समझना चाहिए उसने अभाव, दारिद्रय और पिछड़ेपन से आत्यंतिक छुटकारा प्राप्त कर लिया। असंयमी कितना ही पूर्व संचित संप्रदायों का धनी हो, उसका वर्तमान उपार्जन कितना ही बढ़ा−चढ़ा क्यों न हो क्रमशः खोखला ही बनता चला जायेगा। अनाज को घुन और कपड़ों को दीमक जैसे छोटे कीड़े निगल जाते हैं। अदृश्य विषाणु शरीर में घुस पड़ते हैं तो अच्छी खासी काया को जर्जर बनाते और प्राण हरण का कारण बनते हैं। असंयम की गणना उस आग, तेजाब से की गई है जो जहाँ भी ठहरेंगे उसे जलाने−गलाने के उपरान्त ही चैन लेंगे। इसलिए आत्मिक प्रगति के लिए हर किसी को संयमी बनना पड़ता है। तपश्चर्या वस्तुतः संयम साधना का ही दूसरा नाम है।