Magazine - Year 1985 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
व्यक्तित्व का अधःपतन और उसकी परिणति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
उच्च शिक्षा, चतुरता या शरीर सौष्ठव भर से कोई व्यक्ति न तो आत्म सन्तोष पा सकता है और न लोक सम्मान। इन सबसे महत्वपूर्ण है परिष्कृत व्यक्तित्व। प्रतिभाशाली और उन्नतिशील बनने का अवसर इसी आधार पर मिलता है।
समग्र व्यक्तित्व के विकास को विज्ञान की भाषा में “बौड़ी इमेज” कहा जाता है। जिनने इस दिशा में अपने को विकसित कर लिया उनने दूसरों को प्रभावित करने की विशिष्टता को उपलब्ध कर लिया। ऐसे ही व्यक्ति प्रामाणिक और क्रिया कुशल माने जाते हैं। उनकी माँग सर्वत्र रहती है। वे न तो हीन समझे जाते हैं और न अपने कामों में असफल रहते हैं। “बौड़ी इमेज” से तात्पर्य− सौंदर्य, सज्जा या चतुरता से नहीं वरन् व्यक्तित्व की उस विशिष्टता से है जिसके आधार पर किसी की वरिष्ठता एवं विशिष्टता को स्वीकार किया जाता है। यह किसी के विश्वस्त, प्रामाणिक एवं क्रिया कुशल होने की स्थिति है। जिसके पास यह संचय है, समझना चाहिए उसके पास बहुत कुछ है। जो इस क्षेत्र में पिछड़ गया समझना चाहिए कि उसे तिरस्कार का भाजन बनना पड़ेगा।
यह विशिष्टता, सज्जनता, विनम्रता एवं आत्म−संयम के आधार पर विकसित होती है। ऐसे व्यक्ति उन दुर्गुणों से बचे रहते हैं जिनके कारण क्रिया−कुशल एवं स्वस्थ सौंदर्यवान होते हुए भी मनुष्य ऐसे कुकृत्य करने लगता है जिसे चरित्रहीनता एवं अप्रामाणिक की संज्ञा दी जा सके। कितने ही चतुर व्यक्ति अपने को हेय स्थिति में फँसा लेते हैं।
ऐसे व्यक्ति शारीरिक ही नहीं मानसिक एवं चारित्रिक रोगों से ग्रसित पाये जाते हैं। जिनने अपने व्यक्तित्व की साधना नहीं की आदर्श एवं संयम को महत्व नहीं दिया वे कुकर्मों से धन या दर्प का लाभ भले ही उठालें, अन्य क्षेत्रों में उन्हें घाटा त्रास एवं तिरस्कार ही सहना पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि के आधार पर अपने शरीर के बारे में एक निश्चित धारणा या कल्पना होती है। मानव शरीर के सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अध्ययन करने वाले समाज विज्ञानियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने प्रत्येक व्यक्ति की अपने स्वयं के बारे में बनी इस निश्चित धारणा या प्रतिबिम्ब को− ‘बौडी इमेज’ या ‘बौडी कान्सेप्ट’, ‘बौडी स्कीम’ जैसे नाम दिए हैं। ‘बौडी इमेज’ न केवल व्यक्ति की अपनी पूर्णतया जागृत अवस्था में अपने बारे में बनी धारणा है बल्कि अचेतन या अर्धचेतन अवस्था में भी व्यक्ति का अपने स्वयं के बारे में दृष्टिकोण उसकी अनुभूतियाँ, अनुभव तथा उसके मनोकल्पनाएँ आदि भी इसमें सम्मिलित हैं। व्यक्ति की स्वयं के प्रति बनी इन धारणाओं अनुभवों का स्पष्ट अथवा साँकेतिक दर्शन इस आधार पर किया जा सकता है कि वह अपने प्रत्येक कार्य व्यवहार की व्यवस्था व समायोजन कैसे करता है? क्योंकि व्यक्ति के प्रत्येक क्रिया−कलाप, हाव−भाव, कार्य व्यवहार में व्यक्ति स्वयं की ‘बौडी इमेज’ का बहुत गहरा प्रभाव होता है।
आप किसी वर्ग के रोगी नर−नारियों को इकट्ठा कीजिए जिन लोगों ने औसत जीवन जिया है। उनके रोग सम्बन्धी जीवन का अध्ययन करें। बहुतों को विभिन्न रोगों के दौरान गुजरना पड़ा है। इस प्रकार की बीमारियाँ प्रायः उन दिनों उन्हें हुई हैं जब उन्हें विभिन्न चढ़ाव−उतार वाले मनःस्थितियों में गुजरना पड़ा तभी पेचिश, अल्सर, हाई ब्लडप्रेशर और हार्ट अटैक के दौरे पड़े होंगे। अनुसन्धान में पाया गया है कि लगभग सभी बीमारियां जब मानसिक दबाव की अधिकता पड़ती है तभी उग्रतम होती जाती हैं। ‘साइकोलॉजी टू डे’ पत्रिका में (सितम्बर 1984) डॉ. स्टाव हैनरी का कहना है कि हजार पीछे 75 प्रतिशत से अधिक रोगी उक्त कथन की सत्यता प्रतिपादित करते हैं। कुछ लोगों को अन्यों की अपेक्षा मानसिक तनाव आदि अत्यधिक उग्र होते जाते हैं।
हमारे शरीर की विभिन्न क्रियायें जैसे गुर्दे का रक्त में से अशुद्धि को छान लेना, आँतों का पोषक आहार का सोखना आदि अनेकानेक अजूबी क्रियाएँ, मस्तिष्क एवं स्नायु तन्त्र और पिट्यूटरी जैसी हारमोन ग्रन्थियों के उचित स्वरूप में क्रियाशील होने पर निर्भर है। अपराधी प्रवृत्ति इन सभी गतिविधियों को अस्त−व्यस्त कर देती है।
अनैतिक गतिविधियाँ अपनाते समय अथवा उसके पश्चात उनका मुँह सूखने लगता है जो इस बात का प्रतीक है कि पाचन क्रिया सम्पूर्णता बन्द कर दी गई है। शक्ति परिवर्तित तथा प्रगति के कारण सांसें तीव्र हो जाती हैं, छलांगें तेज होती जाती हैं। साथ ही रक्त में इन्डोराफिन जैसी नशीली स्राव का मिश्रण हो जाता है जिससे कोई भी चोट मोच आने पर शरीर को भास नहीं होता। साथ ही साथ ए. सी. टी. एच. (एड्रीनी कार्टिको, ट्राफिक हारमोन) का स्राव मस्तिष्क से होने लगता है जिससे स्मरण शक्ति तेज हो जाती है और मस्तिष्क की बुद्धि कुशाग्र हो उठती है।
केन्या में मसाई मार गेम रिजर्व अभयारण्य में रहने वाले 60 से अधिक बबून बन्दरों में स्ट्रेप्स रिस्पान्स के बारे में कई प्रयोग किये गए हैं। इन बबूनों की शरीर संरचना मनुष्यों से कई प्रकार मिलती−जुलती है। इन वानरों की यह विशेषता होती है कि नायक और नायक के कुछ सहचर विशिष्ट विशेषाधिकार जताते हैं जैसे उत्तम आहार ग्रहण करने में, सुरक्षित स्थान पर कब्जा करने में तथा बंदरियों से सेवा लेने में, जूँ निकलवाने में इत्यादि। यह सब विशिष्टता उन्हें प्रतिभा सज्जनता के आधार पर मिली होती है।
सुप्रसिद्ध दार्शनिक इमरसन ने कहा है− ‘‘उद्वेग एवं भय को मन में अंकुरित ही न होने दो।” उन्होंने यह भी बताया है कि यदि मानवी मस्तिष्क में से उद्वेग एवं भय को निकाल दिया जाय तो उसकी पूरी क्षमता का सदुपयोग किया जा सकता है।
तनाव से मुक्ति पाने के लिए जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। यदि वस्तुस्थिति का सही ढंग से विश्लेषण कर लिया जाय तो भय से सुगमतापूर्वक छुटकारा पाया जा सकता है।
कल्पनाओं के उत्पादन का एक मात्र केन्द्र मानवी मस्तिष्क को ही समझा जाता है। कुकल्पनायें भी यहीं विकसित होतीं और अपना कुप्रभाव छोड़ती हैं। व्यक्ति इनके उत्पादन को पूरी तरह रोक सकता है।
संसार में भय का अस्तित्व तो है पर इसे जीवन क्रम में अपनाना कोई जरूरी नहीं है। व्यक्ति को इन कुकल्पनाओं को मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए। पूर्णतः भौतिकवादी विचारधारा के लोगों को भी इस तथ्य से भली−भाँति परिचित होना होगा कि फिटैस्ट व्यक्ति (प्रवीणतम) भी भयमुक्त होकर अपने जीवन संघर्ष में सफल रहा।
जब व्यक्ति अपनी पूरी साहसिकता का परिचय देने लगे तो शेर जैसे नर भक्षी से भी भयभीत नहीं होता। मामूली-सी कायरता आ जाने पर चूहे जैसे नगण्य प्राणी से भी डरने लगता है। उदाहरण के लिए चिड़ियों को देख सकते है। डरपोक चिड़िया किसान द्वारा बनाये गये कृत्रिम पुतले (बिजूका) से डरकर भाग जाती हैं जबकि साहसी अपना पेट भरकर ही हटती हैं।
अनीतियुक्त आचरण में यह विशेषता है कि उच्छृंखलताजन्य दर्प प्रकट करते हुए भी उसके अन्तराल में असमंजस बना रहता है और वह समस्त व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। शरीर में रोग, मन में खेद दोनों मिलकर व्यक्ति ऐसा बन जाता है जिससे किसी भी विषय में सही निर्णय करते नहीं बन पड़ता। अभ्यस्त चरित्र हीनता दिन−दिन बढ़ती जाती है और फिर वह व्यक्ति सभ्य समाज में अपना स्थान बनाने तथा प्रगतिशील कदम उठाने की स्थिति में नहीं रहता।