Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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स्थिति के अनुरूप साधनों की भिन्नता
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क्या एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी को एक जैसी साधनाएँ बताई या कराई जा सकती हैं। इसका उत्तर ‘न’ में देना पड़ेगा। लम्बी तीर्थयात्रा में युवाओं के लिए लम्बी डगें भरते हुए जल्दी−जल्दी मार्ग तय कर सकना सरल है। पर यदि साथ में कोई बालक या वृद्ध हो तो उसकी क्षमता को देखते हुए सवारी का प्रबन्ध करना होगा अन्यथा एक जैसी गति अपनाने में बेचारे दुर्बलों का कचूमर निकल जाएगा।
एक मर्ज के सब मरीजों को एक जैसी दवा नहीं दी जा सकती। ज्वर आने पर दवा देते समय यह भी देखना होता है कि वह लू लगने से आया है अथवा ठण्ड लगने से निमोनिया जैसा है। बच्चों को, गर्भिणी को युवाओं को वृद्धों को उनकी क्षमता एवं स्थिति का ध्यान रखते हुए भिन्न औषधियों और भिन्न उपचारों का समावेश करता होता है। इसी सबके निरीक्षण परीक्षण के लिए चिकित्सक के परामर्श की आवश्यकता पड़ती है। यदि ऐसा न होता तो कोई भी मरीज किसी पुस्तक का पन्ना खोलकर ज्वर प्रकरण में से अपने लिए दवा चुन लिया करता।
धनी सब बनना चाहते हैं। लक्ष्य भले ही एक हो पर विभिन्न व्यक्तियों की योग्यता, परिस्थिति अनुभव एवं पूँजी का ध्यान रखते हुए ही बुद्धिमान यह परामर्श देते हैं कि किसे क्या व्यवसाय अपनाना चाहिए और उसका आरम्भ कहाँ से करके उसका विस्तार किन बातों का ध्यान रखते हुए करना चाहिए।
एक लाठी से जानवर तो हाँके जा सकते हैं। पर सब धान बाईस पसेरी के हिसाब से नहीं बिक सकते। कौन कितना पैसा लाया है और किसे किस स्तर के चावल चाहिए यह पूछताछ करने के हिसाब से तराजू पर बाट रखने और बोरियों के मुँह खोलने पड़ते हैं। बच्चों को खेलने के लिए हलके−फुलके खिलौने दिये जाते हैं ताकि वे उनकी भूल में कोई बड़ी जोखिम खड़ी न करें पर मजबूत पहलवानों के खेल के उपकरण भरी भरकम दिये जाते हैं ताकि उन्हें अपने पुरुषार्थ का काम सौंपा जा सके। घर के सभी सदस्यों को परिवार का अधिकार और कर्त्तव्य का निर्वाह आवश्यक बताया जाता है। पर काम सबको एक जैसे नहीं सौंपे जाते। उनके अनुभव और अभ्यास को ध्यान में रखते हुए इस सुपुर्दगी में अन्तर रखना पड़ता है।
ठीक यही बात साधना के सम्बन्ध में भी है। वह हर किसी के लिए एक जैसी नहीं हो सकती। जिसे आहार समय तक का अभ्यास नहीं, जो समय का अनुशासन का पाल नहीं सकता उसे सुलभ और हलकी−फुलकी साधना ही बताई जाती है। जिसमें लाभ भले ही अधिक न मिले पर हानि का खतरा तो नहीं। इसके विपरीत जिनने प्रारम्भिक साधना की कई कक्षाएँ उत्तीर्ण कर ली हैं उनके लिए अगले क्लास की बड़ी किताबें लानी पड़ती हैं। स्कूल भर की सभी कक्षाओं में छात्रों के स्तर का ध्यान न रखते हुए एक ही पुस्तक पढ़ाई जाने लगे तो इस व्यवस्था को−उपहासास्पद ही कहा जाएगा। अखाड़ों के उस्ताद अपने शागिर्दों को मौसम के अनुसार कसरतों में परिवर्तन करते रहते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन या भेदभाव को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साधक तो बालकों की तरह हठ करके एम. ए. की सुन्दर जिल्द वाली पुस्तक पढ़ने का भी आग्रह कर सकते हैं। पर उनका वह आग्रह जिस−जिस बहाने टालना ही पड़ता है। जो जितना वजन नहीं उठा सकता उसके ऊपर उतना कैसे लादा जाय। हाथी की अम्बारी गधे की पीठ पर लाद देना उसकी रीढ़ तोड़ देना है। इसी प्रकार हाथी के ऊपर गधे का पलान बाँधा जाय तो उसमें, हाथी, महावत और मालिक का उपहास ही उपहास है।
यह चर्चा यहाँ इसलिए की जा रही है कि देखा−देखी किसी की भी नकल के रूप में कुछ भी साधन अपनाने के लिए आग्रह नहीं करना चाहिए। अपनी दिशाधारा, मनःस्थिति का निरीक्षण परीक्षण किसी अनुभवी से कराने के उपरान्त ऐसा साधना पथ अपनाना चाहिए, जिस पर चलते हुए सुविधापूर्वक लक्ष तक पहुँचा जा सके।
अभी कुछ ही दिन की बात है बिजनौर नैनीताल सीमा पर बसे आसपुर गाँव का एक 22 वर्षीय युवक हंसराज, साधु महात्माओं की संगति में रहा करता था। उससे किसी योगी से प्राण ब्रह्माण्ड में चढ़ाने की क्रिया सीखी पर उतारने की बात भूल गया। फलतः उसकी मृत्यु हो गई। वह कह गया था कि घर वाले चिन्ता न करें मैं जल्दी ही जी पड़ूंगा। कई दिन लाश प्रतीक्षा में रखी रही पर जब शरीर सड़ने लगा तो उसकी अंत्येष्टि किया करनी पड़ी।
यह एक उदाहरण है। योगाभ्यास में मात्र लाभ ही लाभ नहीं है उसकी विलक्षण क्रियाओं में खतरे भी कम नहीं हैं। इसलिए खतरे वाले आपरेशन अस्पताल में भर्ती करने और उसकी शारीरिक स्थिति का कई प्रकार पर्यवेक्षण करने के उपरान्त ही शल्य चिकित्सा का प्रबन्ध किया जाता है। इसमें रोगी की इच्छा प्रमुख नहीं, चिकित्सा के निर्धारण की उपयोगिता है। उपासना में साधक की इच्छा, उत्सुकता, लालसा का उतना महत्व नहीं जितना अनुभवी मार्गदर्शक के निरीक्षण परीक्षण का।
इस क्षेत्र में भी पूरा अन्धेर चलता है। प्रवचन हजारों लाखों को एक जैसे दिये जाते हैं। यह मोटी जानकारी भर तक उपयोगी हो सकते हैं पर उपस्थित जन समुदाय में से किसे क्या करना चाहिए इसका निर्णय उसकी मनःस्थितियों एवं परिस्थितियों का अनुमान लगाते हुए पृथक−पृथक गोष्ठियों में मार्गदर्शन होना चाहिए। ऐसा करने पर ही उसका प्रतिफल सन्तोषजनक निकलता है। यही बात साधना के सम्बन्ध में भी है। उसे साधक की इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता। छोटे बच्चे जब बाजार जाते हैं तो हर चमकदार वस्तु को देखते ही पाने के लिए मचलते हैं। भले ही वह उनके काम की तनिक भी न हो। इसी प्रकार हो सकता है कि कोई मनचला साधक किसी भी देखे सुने कौतूहल के अनुरूप अपनी उत्सुकता बताने लगे और उसका तरीका सीखने के लिए मचलने लगे। ऐसी स्थिति में साधक के कथन पर ध्यान न देकर अनुभवी सिद्ध पुरुष को अपना दूरदर्शी परामर्श ही देना चाहिए। रोगी को वैद्य का बताया हुआ क्वाथ एवं पथ्य लेना पड़ता है। रोगी का आग्रह मिष्ठान्न पकवान्न खाने का हो और उसी अनुरूप चिकित्सक हाँ में हाँ मिलाने लगे तो समझना चाहिए कि अनर्थ ही होने जा रहा है।
पुरातन काल की परिपाटी यही थी पर अब न विज्ञ साधक रहे न अनुभवी मार्गदर्शक इसलिए सब घोड़े गधों को एक ही लाठी से हाँका जाता है। जितने भी संपर्क में आते हैं उन्हें एक ही रास्ता बताया जाता है। युवकों को संन्यास देने और वृद्धों को विवाह करने का परामर्श देने में कोई बुद्धिमानी नहीं। स्थिति को देखकर ही जीवन दर्शन और साधन उपक्रम में ही हेर−फेर होना चाहिए। जो इस तथ्य से अवगत हैं समझना चाहिए कि उन्हें अध्यात्म की पृष्ठभूमि का परिचय है।
शान्तिकुँज गायत्री तीर्थ हरिद्वार से आकर साधना करने वालों को इस निरीक्षण परीक्षण में होकर सर्वप्रथम गुजरना पड़ता है। उनकी शारीरिक स्थिति को बहुमूल्य यन्त्र उपकरणों में इस प्रकार जाँचा जा सकता है मानो उसे किसी भयंकर रोग से मुक्ति दिलाने का कार्य परिपूर्ण उत्तरदायित्व के साथ होने जा रहा है। इसी प्रकार मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण के लिए इतने प्रकार के उपकरणों में उसकी आन्तरिक स्थिति जाँची जाती है मानो उसे पुरातन काल की ‘काया−कल्प’ जैसी स्थिति के लिए तैयार किया जा रहा है। इस प्रयोजन के लिए शरीर शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट बहुमूल्य ऐसे यन्त्र उपकरणों का प्रयोग यहाँ करते हैं जिनका आविष्कार अभी कुछ ही दिन पूर्व कंप्यूटर आदि के आने के बाद हुआ है।
साधक की इच्छा आवश्यक स्थिति को जानने का प्रयत्न किया जाता है पर यह आवश्यक नहीं कि साधक की इच्छा एवं आतुरता का ही सब कुछ मानकर तद्नुरूप मार्गदर्शन किया जाय। यही पुरातन काल के अध्यात्म मार्गदर्शकों की कार्य शैली थी और अगले समझदारी के युग में इसी का प्रयोग भी होगा।