Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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बढ़ते हुए मनोरोग−कारण और निवारण
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शारीरिक रोगों के लक्षण प्रकट दिखते हैं और रोगी अपनी स्थिति का वर्णन स्वयं भी कर देता है तदनुसार चिकित्सकों के लिए उनका उपचार करना बहुत कठिन नहीं रहता।
कठिनाई उन मानसिक रोगों की है जो विशेषतया शिक्षित और सम्पन्न देशों में आँधी तूफान की तरह बढ़ रहे हैं। कठिनाई यह है कि व्यथा ग्रस्त अपने को रोगी नहीं मानता और जिस विपन्नता से घिरा होता है, उसका पता पारिवारिक तथा सम्बद्ध लोगों द्वारा बताये हुए लक्षणों में चलता है। जो लोग उन्मादी या विक्षिप्त होते हैं उनकी अस्त−व्यस्त हरकतें तो प्रकट होती हैं। उससे सम्बद्ध लोग परेशान रहते हैं और वह स्वयं दूसरों से नहीं अपने आप से भी परेशान रहता है। इस स्थिति में आवेश छाया रहता है और दोषारोपण से लेकर अपशब्द कहने, सन्देहग्रस्त एवं आशंकाओं से घिरा रहता है। वस्तुस्थिति की अपेक्षा ऐसी कल्पनाएँ गढ़ लेता है जो उसे इस प्रकार हैरान करती है मानो उसे सचमुच ही किसी शत्रु ने या विपत्ति ने घेर रखा हो। ऐसे व्यक्ति अपने सामान्य काम−काज ठीक तरह नहीं कर पाते फलतः आर्थिक कठिनाई भी घेर लेती है। साथी सहचर उसे विक्षिप्त समझकर आरम्भ में कुछ उपाय भी सोचते हैं पर पीछे कुछ परिणाम न निकलते देखकर उपेक्षा करने लगते हैं। ऐसी दशा में वह अपने को तिरस्कृत भी अनुभव करता है और दोष अपना न देखकर दूसरों के ही सिर मढ़ता है। इस स्थिति में विग्रह का एक नया सिलसिला चल पड़ता है।
जिनमें उन्माद के लक्षण प्रत्यक्ष दिख पड़ते हैं उन्हें मनोरोग चिकित्सालयों में या तो स्वयं जाना पड़ता है या उन्हें वहाँ अपनों द्वारा ही धकेला खदेड़ा जाता है। जो अपने को सर्वथा एकाकी अनुभव करते हैं और अपने तथा समाज के लिए अभिशाप बन जाते हैं उन्हें सरकारी नियन्त्रण में लेकर कोई दुर्घटना खड़ी न कर देने से रोका जाता है।
नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार संसार के समृद्ध देशों में पगलाने की यह व्यथा तेजी से बढ़ रही है। उदाहरण के लिए अमेरिका का एक पर्यवेक्षण सामने है। मनोरोग चिकित्सालयों के आधार पर उस देश के वयस्कों में 20 प्रतिशत व्यक्ति विभिन्न जाति के मनोरोगों से ग्रसित हैं। इनमें से 15 प्रकार के रोगों का बाहुल्य है। ऐसे रोगियों की संख्या वहाँ 4 करोड़ तक जा पहुँची है। इसके अतिरिक्त 1 करोड़ 31 लाख वे हैं जिन्हें विक्षिप्त तो नहीं कहा जा सकता पर सनकी अवश्य हैं। सनकी का तात्पर्य है जन−साधारण की रीति−नीति छोड़कर चिन्तन एवं स्वभाव व्यवहार की ऐसी लकीर पकड़ लेना जो अटपटी मालूम होती है और उनसे संपर्क रखने में कोई भी कतराने लगता है। वे कर्मचारी हैं तो बॉस और बॉस हैं तो कर्मचारी भीतर ही भीतर कुढ़ते रहते हैं और पारस्परिक व्यवहार में कई बार खीज प्रकट करने लगते हैं, अवज्ञा भी।
इससे भी आगे बढ़कर स्त्री−बच्चों के साथ भी पटरी न खाने की बात है। घर को छोड़कर कहीं जंगल में तो नहीं बस सकते पर जिनके साथ रहते उन्हें निरन्तर शिकायतें करते, उलाहना देते या चें−चें करते देखा जाता है। जहाँ प्रेम और सहयोग न हो, एक−दूसरे का सम्मान न करें−कृतज्ञता प्रकट न करें एवं उपयोगिता अनुभव न करें वहाँ साथ रहते हुए भी सराय, प्लेट फार्म या जेल जैसा वातावरण रहता है। ज्यों−त्यों करके मजबूरी में गाड़ी धकेली जाती रहती है। एक खण्डित व्यक्तित्व समूचे परिवार की ही नहीं, साथियों एवं पड़ौसियों की भी नाक में दम कर देता है। ऐसे सनकी समुदाय की गणना तो ठीक तरह नहीं हो सकी है, पर समझा जाता है कि वे अस्पतालों में भर्ती होने वालों की तुलना में कम नहीं अधिक ही होंगे।
इसके बाद नशेबाजों का नम्बर आता है। ऐसे नशेबाज जो खुमारी में ढेरों समय तथा पैसा बर्बाद करते हैं। हलके नशेबाज वे हैं जो बीयर सिगरेट जैसे बहुप्रचलित नशे के आदी हैं। पर जो होश−हवास खो बैठते हैं और खुमारी की स्थिति में कुछ भी करने लगते हैं असल में उन्हीं को आपे से बाहर नशेबाज कहा जाता है। उनकी सूझ−बूझ एवं क्रिया शक्ति कुँठित हो जाती है। खुमारी उतरने के बाद वे अपने को बेहद थके एवं निराश असहाय अनुभव करते हैं। तब उन्हें नया और बड़ा डोज लेने की आवश्यकता पड़ती है। इन सभी वर्ग के अस्त-व्यस्त लोगों की क्षमता एवं उपयोगिता बेतरह कम हो जाती है यों गुजारे भर की का चलाऊ स्थिति में तो वे किसी प्रकार बने रहते हैं। बड़ी बात यह है कि एक खण्डित व्यक्तित्व का मनुष्य अनेक अन्यों को भी अपनी चपेट में ले लेता है और भले चंगों को अपने से मिलता−जुलता बना लेता है। यह स्थिति अमेरिका की ही नहीं फ्राँस, ब्रिटेन, इटली आदि की भी है। एशिया और अफ्रीका के देशों में भी अनेक लोग ऐसे हैं, पर उन्हें गरीबी, बेकारी आदि प्रत्यक्ष कारणों का शिकार कहकर क्षम्य भी ठहरा सकते हैं।
बढ़ते हुए मस्तिष्कीय विकृतियों के सम्बन्ध में कामुकता और सामाजिक वर्जनाओं का व्यतिरेक प्रमुख कारण है। मनोरंजनों की अनेक धाराएँ सिमट कर कामुकता के इर्द−गिर्द एकत्रित होती जाती हैं। मर्यादाएँ तोड़ने वाला एक व्यक्ति अनेकों को अपनी छूत लगा देता है। चरित्रवान लोग अपने जैसे चरित्रवान कितने बना सकते हैं यह कहना कठिन है, पर यह निश्चय है कि उच्छृंखलता के आदी लोग वैसा ही चस्का अपने संपर्क में आने वाले अनेकों को लगा देते हैं।
पारस्परिक सद्भाव के स्थान पर छल कपट की परिपाटी जब अपनाई जाती है। तो दुहरे व्यक्तित्व का सृजन होता है। कहना कुछ करना कुछ जैसे स्वभाव वाले दूसरों के लिए जितने हानिकारक होते हैं उससे कहीं अधिक अपना नुकसान करते हैं। अन्तर्द्वन्द की स्थिति में मनुष्य सही सोचने और सही नतीजे पर पहुँचने की स्थिति में नहीं रहता।
अपराधी स्तर के कुकृत्य करने में कुछ समय पूर्व आत्मा−परमात्मा से डरते थे। अपयश एवं सामाजिक भर्त्सना का भय खाते और इस कारण जो तिरस्कार असहयोग उपलब्ध होता था उससे डरते थे। पर अब उच्छृंखलता साहसिकता का पर्यायवाचक बनती जा रही है। इस मार्ग पर चल पड़ने वाले आरम्भ में मानसिक स्वास्थ्य गँवाते हैं और फिर शारीरिक दुर्बलता रुग्णता के शिकार भी बनते जाते हैं। अपराधी एकाकी रह जाता है। उसका सच्चा मित्र सहयोगी कोई नहीं रहता। अवसर पड़ने पर तथा कथित अपनों का आँखें फेर लेना, अक्सर ऐसे ही लोगों के सामने आता रहता है। जिसका अपने ऊपर से विश्वास उठ जाता है उसे अपना कोई सगा नहीं दिखता। हर घड़ी धोखा होने की आशंका बनी रहती है। इन्हीं सब बातों को मिलकर वह स्थिति बनती है जिसे तनाव कहते हैं। यह ऐसा कुचक्र है जिसमें फँस जाने पर निकलना कठिन होता है। आन्तरिक दृष्टि से अशान्त व्यक्ति के व्यवहार में ऐसी अवाँछनीयताएँ घुस पड़ती हैं जिनके कारण निरन्तर खीज रहने लगती है और वह प्रकारांतर से विक्षिप्तता के रूप में प्रकट होती है।
इस स्थिति में मनोरोग चिकित्सक कोई कारगर सहायता नहीं कर सकते। कारण एक ही है मानवी मर्यादाओं का उल्लंघन। इसलिए उपचार भी एक ही हो सकता है सज्जनता, शिष्टता एवं आदर्शवादिता का समुचित मात्रा में अवलम्बन।