Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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बाहर और भीतर की समृद्धियाँ
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समृद्धि का एक पक्ष है धन, बल, यश, पद आदि बड़प्पन सूचक वैभव, जो परिस्थितिवश हस्तगत होते हैं। यह सभी ऐसे हैं जिनमें संयोग या सुयोग मुख्य है। यह किसे मिले किसे न मिले, इसका सुयोग पूर्णतया अपने हाथ नहीं है। ये हर प्रकार की सफलता, योग्यता, परिश्रम और चतुरता से सम्बन्धित है। किन्तु बहुत बार ऐसा भी होते देखा गया है कि गुणों के अभाव में भी वंश परम्परा के कारण लोग इन्हें हस्तगत कर लेते हैं। उत्तराधिकार में कइयों को बिना परिश्रम किये भी वैभव हस्तगत हो जाता है। लाटरी खुलने, दबा खजाना हाथ लगने, दहेज जैसे संयोगों से गरीबी−अमीरी में बदल जाती है। साथियों का श्रेय अपने पल्ले बँध जाता है।
किन्तु एक समृद्धि ऐसी है जो धनवान न होने पर भी अपने हाथ लग सकती है और इतनी कीमती होती है जिसे अमारी से किसी प्रकार कम नहीं आँका जा सकता। यह है गुण, कर्म, स्वभाव की स्व उपार्जित सम्पदा।
शिष्टाचार, मधुर व्यवहार, मीठी वाणी मनुष्य का स्व उपार्जित गुण है। इसके सहारे दूसरे अपने बन जाते हैं। कटुता के प्रसंग सामने होने पर भी नम्रता के सहारे जलती आग को ठण्डा किया जा सकता है। विरोधियों का काम नरम हो सकता है। विरोधी सहयोगी बन सकते हैं। यह विनयशीलता का दबाव ऐसा है जिसका प्रहार सहन करने में प्रतिपक्षी में भी ताकत नहीं होती। यह गुण दैवी गुण है। निजी सुसंस्कारिता के सहारे निरन्तर की साधना से ही अर्जित किया जा सकता है। सिद्धियों का यह एक बड़ा पक्ष है।
स्वभाव में सादगी एवं सज्जनता का समावेश ऐसी विशेषता है जिस एक पूँजी से राजा, सेठों से बढ़कर सम्मान मिल सकता है। गाँधी जी आधी धोती और आधा दुपट्टा पहनते थे पर उतने भर से जो बड़प्पन उन्हें मिलता था वह रेशमी मखमली पोशाक पहनने पर भी नहीं मिल सकता। बिछाने को चटाई, लिखने को सरकंडे की कलम आदि सस्ते और स्वल्प उपकरण जहाँ मितव्ययिता का लाभ देते थे वहाँ आन्तरिक बड़प्पन का भी प्रकटीकरण करते थे।
कर्मचारियों की कमी न होने पर भी आध्यात्मिक कर्मशील निजी कर्म को अपने हाथ से ही करते हैं। इससे समय अधिक खर्च होने या श्रेय लगने की हानि दिखाई पड़ती है वहाँ यह प्रतीत भी होता है कि व्यक्ति कितना नम्र और स्वावलम्बी है। ऐसी आदतें मनुष्य को जहाँ अनेकों बुराइयों से बचा लेती है वहाँ जन साधारण की दृष्टि में उच्चस्तरीय सम्मान भी प्रदान करती है। छोटे लोग अपना बड़प्पन दिखाने के लिए ठाठ−बाट बनाते हैं। इस पर भी अपने से अधिक ठाठ−बाट वाले के सामने अपनी हेटी अनुभव करते हैं। जबकि विनयशील व्यक्ति अनायास ही बड़प्पन अर्जित कर लेते हैं।
महामानवों द्वारा जो भी परिश्रम किया जाता है वह परमार्थ के लिए होता है। उस परमार्थ में कितनों का ही भला होता है और साथ ही एक परम्परा बनती है जिसे उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए अनेकों बार अनेकों के सामने प्रस्तुत किया जाता रहता है। उन उदाहरणों से भी कितनों को ही अपने लिए परमार्थ पथ पर चलने का मार्ग मिलता है।
साँसारिक सफलताएँ प्राप्त करने पर उनकी रखवाली का नया भार आता है जो बड़ा कष्टसाध्य होता है इसके अतिरिक्त अनेकों ईर्ष्यालु उत्पन्न हो जाते हैं और यश को अपयश में बदलने में कुछ उठा नहीं रखते। इसके विपरीत जिनके भीतर सज्जनता है उनके ईर्ष्यालु कोई होते नहीं। होते हैं तो भी प्रशंसक बन जाते हैं। आन्तरिक सिद्धियाँ कितनी बहुमूल्य हैं इसे अनुभव से ही जाना जा सकता है।