Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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भय से पूरी तरह छुटकारा (Kahani)
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अरस्तू गुरु और उनका शिष्य सिकन्दर। एक दिन दोनों साथ-साथ जा रहे थे। रास्ते में नदी पड़ी। पानी की थाह लेने पहले कौन उतरे? यह विचार चल रह था।
अरस्तू आगे चलने लगे। वे पहले नदी पार करना चाहते थे। सिकन्दर ने उन्हें रोका और कहाँ पहले मुझे जाने दीजिए। एक सिकंदर डूब गया तो जीवित सिकन्दर भी मृत तुल्य हो जाएगा।
सचमुच निर्माता का मूल्य निर्मित की तुलना में अत्यधिक है।
राजा अजातशत्रु पुत्र शोक में विह्वल हो रहे थे। समाधान के लिए सामने विराजमान विद्रुध मुनि ने का-राजन् जन्म की तरह मरण भी मनुष्यों के कर्मानुसार निर्धारित समय पर होता है। उपचार करने पर भी कोई बच सके तो फिर विधि का विधान मानकर संतोष करना चाहिए। इस प्रसंग में विद्रुध ने अजातशत्रु को एक कथा सुनाई।
एक दिन गरुड़ उड़ते हुए शभीक आरण्यक पर से गुजरे। देखा शिला पर बैठा एक कपोत काँप रहा है। गरुड़ नीचे उतर और दयार्द्र होकर पूछा, भला बताओ तो तुम्हें क्या कष्ट है? किसका भय है?
कपोत ने स्तनस्तक होकर कहा-देव कुछ समय पूर्व ही यमराज इधर से गुजरे थे। मुझे देखकर अकारण ही हँस पड़े। मैंने काण पूछा, तो उनने कहा-”आज यह इस प्रकार उदक -फुदक रहा है। कल प्रातःकाल सबेरे इसे सर्प उदरस्थ कर लेगा। एक दिन भी तो उसके जीवन का शेष नहीं है। सो मैं मृत्यु के भय से काँप रहा हूँ।”
गरुड़ को दया आई। उनने यमराज की चुनौती स्वीकार की। कपोत को पंजे में दबाकर गंधमादन पर्वत की ओर उड़ चले। सहस्रों मील की उड़ान भरने के उपरान्त गरुड़ ने कपोत को सरोवर तट पर बिठाया और निश्चिंत हो जाने का आश्वासन दिया।
इतना करने के बाद गरुड़ यमलोक पहुँचे और यमराज का उपवास उड़ाते हुए बोले-आपके विधान को मैंने पलट दिया। कपोत अब अपने घोंसले से सहस्रों योजन दूर सुरक्षित स्थान पर है। सर्प वहां है ही नहीं, उदरस्थ कौन करेगा?
यमराज ने गरुड को सत्कार पूर्वक बिठाया और चित्रगुप्त को कपोत संबंधी जानकारी देने को कहा। चित्रगुप्त ने लेखा पुस्तक ढूँढ़ और कहाँ देव! डस कपोत को अपने घर से सहस्रों योजन दूर गंधमादन पर्वत के सरोवर तट पर आज प्रातःकाल सर्प द्वारा उदरस्थ किये जाने का विधान लिखा था। सो वह यथा समय पूरा हो चुका।
गरुड़ को आश्चर्य चकित देखकर यमराज ने कहा-”भवितव्यता ने आपकी अनुकम्पा बनकर कपोत को वहाँ पहुँचा दिया जहाँ उसका मरण निर्धारित था। इसके बिना घोंसले में ही बैठे रहने पर उसका भाग्य विधान सही न बैठता। आपकी दया उस भवितव्यता का निमित्त कारण बन गई।”
राजा को इस दृश्य से बोध मिला। उनने कथा के घटनाक्रम से अपनी संगति बिठाई और आये दिन सामने आने वाले मानसिक उद्वेगों का वास्तविक कारण जाना।
दूसरे दिन से उन्होंने व्यवस्था बदली। शासन का स्वामित्व प्रज्ञा परिषद को सौंपा और स्वयं उसके एक सामान्य से व्यवस्थापक बनकर काम करने लगे। चिन्ता और भय से पूरी तरह छुटकारा मिल गया।