Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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शून्य में समाया अनन्त का वैभव
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यह विशाल आकाश जिसे हम प्रायः शून्य समझते हैं, वह वस्तुतः ऐसा है नहीं। भौतिक जगत् जिन पदार्थों से विनिर्मित है, वह सारे तत्व सूक्ष्म रूप से यहाँ भी विद्यमान है। स्वामी अभेदानन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि संसार में जितने भी पदार्थ हैं, उन सबके थोड़े-थोड़े अंश ठोस रूप में होता हे, पर उसका कुछ भाग तरल रूप में जल में घुला होता है, जबकि वायु रूप में उसका भाग आकाश में उड़ता फिरता है। हवा में उड़ने वाले पदार्थ के इस सूक्ष्म भाग को हम चाहे तो ग्रहण भी कर सकते हैं, किन्तु इसके लिए सूक्ष्म इन्द्रियों को विकसित करना पड़ता है, जो साधना द्वारा ही संभव है।
एसाँ एडमण्ड्स ने अपनी पुस्तक “हिप्नोटिज्म एण्ड दि सुपरनाँरमल” में प्रख्यात अँग्रेज भौतिकीविद् विलियम बैरेट के एक प्रयोग का उल्लेख किया है। श्री बैरेट ने एक बार एक लड़की के साथ मिल कर प्रयोगों की एक शृंखला आरंभ की। लड़की के बारे में कहा जाता था कि वह किसी छिपे खाद्य पदार्थ का स्वाद ऐसे बता देती थी, मानों उसने स्वयं चख कर देखा हो। प्रयोग आरंभ करने से पूर्व करने से पूर्व उसकी आँखों में अनेक परतों वाली मोटी पट्टी बाँधी गई। इसके बाद प्रयोग आरंभ किया गया। वहाँ उपस्थित एक अजनबी से कुछ खाद्य पदार्थ लाने को कहा गया। उसने एक बन्द पैकेट में कुछ लाकर श्री बैरेट को दिया। बन्द पैकेट को लड़की से दूर उसे पीछे रखा गया, ताकि वस्तु के दिखाई पड़ने की रही-सही संभावना भी समाप्त हो जाय। अब उससे पैकेट की वस्तु के स्वाद के बारे में पूछा गया। पूछते ही वह बुरी तरह थूकने और चिल्लाने लगी। जब कारण पूछा गया, तो बताया कि “आप लोग क्यों मुझे नमक खिलाना चाह रहे है?” देखा गया उस पुड़िया में सचमुच नमक निकला।
दूसरी बार एक अन्य पुड़िया को डिब्बे में बन्द कर उसे एक कमरे में टेबुल पर रखा गया। लड़की को कमरे से बाहर करीब 5 फुट की दूरी पर खड़ा किया गया और पुनः स्वाद पूछा गया। कुछ क्षण पश्चात् उसने प्रसन्नता जाहिर करते हुए ऐसी भाव भंगिमा प्रकट की जैसे जीभ चला-चलाकर वह खुद उसका रसास्वादन कर रही हो। स्वाद पूछे जाने पर मीठा बताया। बाद में जब कमरे के अन्दर डिब्बे में बन्द पैकेट को खोला गया, तो सचमुच उसमें शक्कर रखी गयी थी।
देखा जाय तो इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। दुनिया का हर पदार्थ पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। इन पाँच तत्वों से बना है। इनमें से प्रत्येक तत्व की अपनी सूक्ष्म शक्ति होती है, जिसे ‘तन्मात्रा’ कहते हैं। इन तन्मात्राओं की यदि किसी तरह अनुभूति की जा सके, तो स्थूल पदार्थ की अनुपस्थिति में भी हम उनका आनन्द-लाभ ले सकते हैं।
आकाश तत्व की तन्मात्रा शब्द है। कान द्वारा उसे हम अनुभव करते हैं। कान ही उस शक्ति को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय है। संसार में जितने मनुष्य अब तक हो चुके हैं, उन सब की विचार तरंगें इस शून्याकाश में घूम रही हैं। इनमें सत्पुरुषों, संत, महात्माओं, ऋषियों द्वारा छोड़ी उत्कृष्ट भाव तरंगें भी हैं और दुष्ट -दुराचारियों द्वारा उत्सर्जित निकृष्ट विचार-प्रवाह भी। जो इनमें से जिस तरंग को पकड़ने की क्षमता विकसित कर लेता है, उसमें वही भाव-धारा प्रवाहित होने लगती है। उसकी चिन्तन प्रक्रिया उसी के अनुरूप बन जाती है।
अग्नि तत्व की सूक्ष्म शक्ति “रूप” हैं। इसे ग्रहण करने की इन्द्रिय आँखें हैं। स्थूल वस्तु और उसके रूप को तो हम स्थूल आँखों से देखते हैं, पर इनकी दृश्य सामर्थ्य सीमित है। अनेक छोटे जीव-बैक्टीरिया, वाइरस आदि हमारे इर्द-गिर्द उड़ते-फिरते रहते हैं, फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते। विशेष प्रकार के यंत्र-उपकरण का प्रयोग करने के बाद ही उनके अस्तित्व का पता चलता है। इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इन दृश्येन्द्रियों की क्षमता कितनी अल्प है। विज्ञान के अनुसार हम उन्हीं को देख सकते हैं, जिनकी तरंग दैर्ध्य मिली माइक्रोन के बीच हो, जबकि अध्यात्मवादियों के अनुसार ऐसा प्राण-कम्पन के कारण होता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि वस्तुओं का दीखना, न दीखना वस्तुतः प्राण के कम्पन पर निर्भर करता है। हम अपने समतुल्य प्राण-कम्पन वाले पदार्थों और प्राणियों को ही देख सकते हैं, इससे कम या अधिक वालों को नहीं उनका कहना है कि योगीजन अपने प्राण के कम्पन को
इच्छानुरूप घटा-बढ़ा सकते हैं, फलतः दृश्य-अदृश्य होने की सामर्थ्य रखते हैं। वे कहते हैं कि हमारे चारों ओर कितनी ही सूक्ष्म सत्ताएँ मँडराती रहती हैं, पर हम उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं देख पाते हैं, क्योंकि हमारे प्राण का कम्पन उस आयाम का नहीं होता।
पृथ्वी तत्व की तन्मात्रा को ‘गंध’ कहा गया है। इसे अनुभव करने का मुख्य अंग पृथ्वी गुण प्रधान नासिका है, जबकि जल तत्व की सूक्ष्म शक्ति ‘रस’ कहलाती है, जिसे ग्रहण करने के लिए मनुष्य को जिह्वा मिली हुई है। संसार में जितने प्रकार के रस और गंध हैं, उनका कुछ अंश वायुभूत रूप में विद्यमान होने के कारण व्यक्ति उन्हें प्रयास पूर्वक ग्रहण कर उनकी कमी पूरी कर सकता है।
वायु तत्व की अनुभूति जिस माध्यम से होती है, वह ‘स्पर्श’ कहलाता है। मनुष्यों में इसे अनुभव करने के लिए त्वचा बनाई है। इसके माध्यम से व्यक्ति को वस्तु की आकृति, यथा-मोटी-पतली, ठण्डी-गर्म, भारी-हल्की आदि का ज्ञान प्राप्त होता है। इस शक्ति को प्राप्त कर लेने से चित्त वृत्तियां शान्त हो जाती हैं और व्यक्ति में तितीक्षा की सिद्धि आ जाती है। फिर वह सर्दी, गर्मी, वर्षा, पीड़ा, चोट आदि को हँसते-हँसते झेल सकता है वस्तुतः विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं की जानकारी मस्तिष्क को शरीर में फैले ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से ही मिलती है, और इस प्रकार हम उन्हें अनुभव करने लगते हैं। भौतिक जगत में कष्टकारी संवेदनाओं से बचने के लिए तरह-तरह की युक्तियाँ काम में लायी जाती हैं, जैसे- सर्दी-गर्मी से बचने के लिए अनुकूल वस्त्र एवं उपकरण-फोड़े-फुन्सी पीड़ा से बचाव के लिए दर्द निवारक औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, पर अध्यात्म जगत में इसके लिए स्पर्श-साधना अपनायी जाती है। इस माध्यम से स्पर्श शक्ति विकसित कर लेने से दुःख-दर्दों से राहत पाने के लिए किसी बाह्य माध्यम की आवश्यकता नहीं रह जाती।
इन शक्तियों को सामान्यतः प्रयास पूर्वक विकसित करना पड़ता है, पर किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में यदा-कदा इंद्रियातीत सामर्थ्य के रूप में उद्भूत होते इन्हें देखा जाता है। उपरोक्त प्रयोग में विलियम बैरेट ने उक्त लड़की की इसी शक्ति की विभिन्न प्रयोग-परीक्षणों के माध्यम से पुष्टि की थी। यह उसकी जल तत्व संबंधी ‘रस’ शक्ति थी, जिसके माध्यम से वह पदार्थों का सूक्ष्म स्वाद ग्रहण करने में समर्थ होती थी।
प्राचीन ऋषियों के बारे में कहा जाता है कि वे लम्बे काल तक बिना अन्न-जल के तपस्याएँ किया करते थे। इस मध्य शून्याकाश में विद्यमान सूक्ष्म पौष्टिक आहार से ही उनका काम चलता रहता था। तथा कभी-कभी दूसरों के लिए उन्हें शून्य से स्थूल में इस प्रकार प्रकट कर देते थे जैसे किसी ने कहीं से लाकर दिया हो। हिमालय में आज भी ऐसे अनेक योगी हैं, जो लौकिक दृष्टि से निराहार रहते हुए भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। पाँल ब्रण्टन ने ऐसे अनेक योगियों का “द हर्मिट्स ऑफ हिमालयाज” तथा स्वामी योगानन्द जी ने “आँटोबायो ग्राफी ऑफ योगी” में इनका उल्लेख किया है।
जिस व्यक्ति का आकाश तत्व पर अधिकार हो जाता है, वह अन्तरिक्ष में प्रवाहमान सूक्ष्म विचार तरंगों को सफलतापूर्वक पकड़ने लगता है। आज संसार विनाश की ओर अग्रसर हो रहा है, व्यक्ति का प्रवाह पतनोन्मुख होता जा रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि व्यक्ति का चिन्तनतंत्र विकृत हो जाने के कारण वैसे ही विचार-परमाणु अनायास उसकी ओर आकर्षित होते चले जा रहे हैं। आध्यात्मिक पुरुष अपनी चिन्तन-चेतना में परिष्कृति लाकर न सिर्फ उच्चस्तरीय भाव-तरंगों को पकड़ने में सफल होते हैं, वरन् ब्राह्मी चेतना से भी संपर्क साधने में समर्थ होते हैं।
वस्तुतः यह अनन्त अन्तरिक्ष शून्य नहीं है। हम चाहें तो यहाँ से कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी ‘राजयोग’ पुस्तक में कहा है कि संसार में जितने भी पदार्थ हैं, सभी कल्प के आदि में आकाश तत्व से उत्पन्न होते और अन्ततः उसी में विलीन हो जाते हैं। इसी का समर्थन करते हुए गीताकार ने “ऊर्ध्वमूलअधःषाखः” कह कर इस सृष्टि-संरचना का उद्गम-स्रोत इस महाकाष को बताया है। जब सृष्टि का आरंभ ही शून्याकाश से हुआ है, तो निश्चय ही उसके सूक्ष्म बीज भी उसमें मौजूद होंगे। जब हर पदार्थ की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान है, तो उन्हें प्राप्त करना, उनकी अनुभूति करना भी संभव है। विज्ञान कहता है कि हमें शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि की अनुभूति उससे सम्बद्ध मस्तिष्कीय भाग के उद्दीपन से प्राप्त होती है पर सूक्ष्म तन्मात्राओं को अनुभव करने के लिए मस्तिष्क को उद्दीप्त कैसे किया जाय? इस बात पर वह मौन साध लेता है। इसका उत्तर अध्यात्म के साधना विज्ञान द्वारा मिलता है, जिसमें इसके लिए विभिन्न प्रकार की साधनाओं का निर्धारण है।