Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - प्रज्ञापीठें सजीव रहें-सक्रिय बनें
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जिन दिनों गायत्री प्रज्ञापीठों की स्थापना का प्रचण्ड प्रवाह चला था, उन दिनों भावनाशील और विचारशील लोगों में अत्यधिक उत्साह था। इन निर्माणों के उद्देश्यों को जिनने भी पढ़ा, सुना, समझा, वे सभी भाव विभोर और रोमांचित हो उठ। आशा की गयी थी कि इन देवालयों के माध्यम से धर्म तंत्र का पुनर्जीवन होगा। नव निर्माण का माहौल बनेगा। लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन की सभी योजनाएँ इन स्थापनाओं में सन्निहित समझी गई। अनुमान लगाया गया था कि यह मात्र प्रतिमा पूजन की परम्परा का निर्वाह भर नहीं है। वरन् ये निर्माण व्यक्ति-परिवार और समाज के नवोत्थान का उद्देश्य लेकर नवयुग के प्रतीक प्रतिनिधि के रूप में अवतरित हो रहे है। इन्हें संभावनाओं को ध्यान में रखकर निर्माणकर्ताओं ने भारी दौड़−धूप की थी। लोगों ने अपनी श्रद्धा और शक्ति के अनुरूप सहयोग भी दिया था। अमीरों के पैसे से नहीं, गरीब एवं मध्यमवर्ग के भावनाशीलों के के अंशदान की बूँद-बूँद से यह पीठें बनी थी। कहा यही गया कि इन्हें ईसाई गिरजाघरों की पीठें अनुकृति बनाया जा रहा है, जिनमें पूजा-अर्चा का सीमित और विचार परिवर्तन का सेवा प्रयोजनों का कार्य प्रमुखता-पूर्वक किया जाता है। संसार की एक तिहाई जनता को पिछली कुछ शताब्दियों में ईसाई बना लेने का श्रेय इस गिरजाघर प्रक्रिया और उसके साथ जुड़े हुए पादरियों की समर्पण भावना को ही जाता है।
समर्थ गुरु रामदास ने गाँव–गाँव महावीर मन्दिर इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाये थे। महामना मालवीय जी ने ग्राम प्रधान भारत के नवनिर्माण के लिए यही योजना बनाई थी। गाँधी के सर्वोदय आश्रमों के पीछे भी यही स्वप्न था। ऐसे-ऐसे अनेक मनोरथों का समन्वय करके प्रज्ञापीठों की योजना बनी थी। इस कार्य को हाथ में लेने वालों को यह तथ्य भली प्रकार समझा भी दिया गया था। जब यह देवालय बने तो उनका उद्घाटन करने गुरुदेव प्रायः’ इन सभी आश्रमों में गये थे और समारोहों में उपस्थित जनता को बताया था कि अभी इमारत भर बनी है। प्रतिमा की स्थापना भर हुई है। महत्वपूर्ण कार्य वह है जो आगे करना है। प्राण प्रतिष्ठा तभी हुई कहाई जाएगाभ् अन्यथा यह निजी इमारतें एक और नया मखौल बनकर रह जायेगी। अपने देश में मंदिर तने अधिक बन चुके है कि उनकी सफाई और नित्य पूजा का क्रम तक नहीं निभ पाता। अनुपयोगिता के कारण उपेक्षा बढ़ना स्वाभाविक है। उपेक्षा इस बात का प्रतीक है कि उपयोगिता का प्राण विद्यमान नहीं है।
इन कुछ ही वर्षों में स्थित यह बन चुकी है कि कितनी ही प्रज्ञा पीठें जन संपर्क और सहयोग से वंचित रहने लगी है और निष्प्राण बनती जा रही है। इस दुखद स्थित का मात्र एक ही कारण है कि इन देवालयों की साज–संभाल कर दायित्व जिन कंधों पर है, वे उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वैसा पुरुषार्थ नहीं कर पा रहे है जैसा कि निर्माण के उद्घाटन के दिनों दिखाया गया था। यिस्थित जहाँ भी रह रही होगा, वहाँ आरोपों, आक्षेपों, भर्त्सनाओं का ढेर लगेगा, यश के स्थान पर अपयश मिलेगा, संतोष के स्थान पर असंतोष और पश्चाताप का भाजन बनाना पड़ेगा।
शिथिलता जहाँ भी हो, उसे अविलम्ब दूर किया जाय। धीमी गति में फिर से उत्साह और साहस का संचार किया जाय। इस पुनर्जीवन के लिए नये सिरे से नया संस्कार किया जाय, वैसा ही जैसा कि लक्ष्मण की मूर्च्छा जगाने के लिए संजीवनी बूटी प्रयोग द्वारा किया गया था। प्रज्ञा संस्थानों प्रज्ञा पीठों की मूर्च्छा जगाने का ठीक यही समय है। इसे चूका नहीं जाना चाहिए।
इस वर्ष “दीपयज्ञ” आयोजनों का तूफानी प्रयोग चल रहा है। गतवर्ष जहाँ भी प्रज्ञा आन्दोलन की जड़े हरी थी वहाँ सभी जगह हजार वेदी दीप यज्ञ संपन्न हुए है। उत्सवों में असाधारण सफलता मिली है। दैवी प्रेरणा जिन भी संकल्पों के पीछे रहती है, उनमें असफलता का मुह कदाचित ही देखना पड़ता है। देखना भी नहीं पड़ा है। इनका प्रधान उद्देश्य वातावरण में ऐसी प्राण-चेतना भर देना था, जिसके कारण वे प्रयास द्रुतगामी हो उइ, जिन्हें प्रज्ञापीठों के साथ-प्रज्ञा आन्दोलनों के साथ अविच्छिन्न यप् से जोड़ कर रखा गया है। यही कारण है कि जहां भी दीपयज्ञ हुए है, वहाँ से निष्क्रियता, उदासी और उपेक्षा का असमंजस समाप्त हुआ हैं।
इस बार सभी प्रज्ञा संस्थानों से कहा जा रहा है कि वे इस बार फिर एक दीपयज्ञ आयोजन की योजना बनाये। प्रज्ञापीठों को जीवन्त बनाने की नई योजना उसके साथ जोड़े। यहाँ नई इमारत नहीं बन पाई है, वहाँ माँगे या किराये के किसी स्थान में प्रज्ञा केन्द्र का नये सिरे से सूत्र संचालन करे। दीपयज्ञ आयोजन में उपस्थित सभी लोगों में स्थानीय प्रज्ञा केन्द्र से जुड़ने की प्राण प्रेरणा इस प्रकार भरे कि वह भविष्य में स्थित ही बना रहे।
दूसरा कार्य इन्हीं दिनों प्रत्येक प्रज्ञा संस्थान में यह किया जाना है कि पाँच-पाँच शिक्षित महिलाओं की मण्डलियाँ “नारी जागरण अभियान” नाम से गठित की जाय। वे पाँचों अपने संपर्क की पाँच नई अन्य महिलाओं को इस संगठन के साथ जोड़े। इस प्रकार “पाँ से पच्चीस” की शृंखला चल पड़े। पच्चीस महिलाओं की ये नारी जागरण मढदलिसरँ अपने साप्ताहिक सत्संग नियमित रूप से करती रहे और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में व्यक्ति निर्माण, परिवार निमार्ण और समाज निर्माण की बहुमुखी कार्य पद्धति को गतिशील बनाये रखने में कुछ उठा न रखे।
आत्मशक्ति का अभिनव जागरण उपासना, साधना और आराधना का खाद पानी चाहता है। तीसरा कार्य यही है कि वातावरण परिशोधन के लिए, उसमें अध्यात्म तत्वों का अभिवर्धन करने के लिए साधना को अनिवार्य कर्तव्य मानें। स्वयं करे और अपने प्रभाव क्षेत्र में अन्यान्यों को उसके लिए प्रोत्साहित करे। एक माला गायत्री जप का भी यदि नियमित क्रम चल पड़े तो अपने चौबीस लाख सदस्य हर दिन चौबीस करोड़ जप का दैनिक अनुष्ठान करते रह सकते है। इससे वातावरण में देव-तत्वों की समर्थता बढ़ेगी और नवयुग के अनुरूप वातावरण बनेगा।
कुछ कार्य ऐसे है, जिन्हें ज्ञान यज्ञ का, जनमानस के परिष्कार का प्रमुख अंग माना जाय और उन्हें प्रत्येक प्रज्ञापीठ की कार्य पद्धति में अनिवार्य रूप से जोड़ा जाय। वे कार्य इस प्रकार है-
(1) मिशन से प्रभावित परिचित परिजन को एक घण्टा समय और बीस पैसा न्यूनतम योगदान देते रहने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध किया जाय। इसी के आधार पर नवजागरण प्रयासों का सूत्र संचालन सरलतापूर्वक होता रहे।
(2) हर शिक्षित तक युग साहित्य बिना मूल्य निरन्तर पढ़ने के लिए पहुँचाने और वापस लाने का क्रम चलाया जाय। जो पढ़े, वे अपने संपर्क के पाँच अन्यों को पढ़ाने, अनपढ़ों को पढ़कर सुनाते रहने की शृंखला चलाये।
(3) जो परिवार मिशन के संपर्क में है, उनके यहाँ आदर्श वाक्यों के स्टीकर्स चिपकाने की प्रक्रिया चलाई जाय। इन प्रेरणाप्रद सूत्रों पर परिचय क्षेत्र के प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि बार-बार पड़ती है और स्थापित प्रेरणा मनःक्षेत्र में सतत् उतरती रहती है।
(4) अपने नगर कार्य क्षेत्र में “ज्ञानरथ” चलती फिरती साहित्य गाड़ी चलाने का प्रबन्ध या जाय। उसमें युग साहित्य पढ़ने देने, वापस लेने के अतिरिक्त विक्रय का भी प्रबन्ध हो। ज्ञानरथों में टेपरिकार्डर एवं एम्पलीस्पीकर भी लगे हो। ये जिस भी मार्ग से निकले, उस पर युग संगीत सुनाते चले और युग चेतना से जन-जन को अनुप्राणित करते चलें। साथ में अखण्ड-ज्योति पत्रिका एवं युग निर्माण योजना, युग शक्ति गायत्री भी कम मूल्य पर वितरण हेतु रखें। साथ-साथ इस प्रकार अन्य साहित्य भी बिकता रहता है।
(5) स्लाइड प्रोजेक्टर यंत्र से घर-घर रात्रि के समय ऐसे आयोजन होते रहे जिसमें पड़ोसी भी सम्मिलित हो लोक रंजन के साथ लोक मंगल का क्रम चलता रहें। चित्रों की व्याख्या करने वालों को कुछ ही दिनों में भाषण कला का अच्छा अभ्यास हो जाता है।
(6)टेपरिकार्डर के साथ एम्पलीस्पीकर लगाकर जगह-जगह ज्ञान गोष्ठियाँ आयोजित की जाती रहे। इन टेपों में युग, संगी प्रवचन, प्रज्ञापुराण कथा, मिशन के आँदोलनों की रूपरेखा समझाई जाती रह सकती है और युग चेतना का आलोक वितरण होता रहता है।
(7) जहाँ भी निजी इमारत की अथवा माँगे के मकानों में स्थापित प्रज्ञापीठ है, वहाँ प्रातः सायं पूजा आरती के टेप बजाये जाते रहे। यह कार्य लाउडस्पीकर एवं टेपरिकार्डर्स की सहायता से भली प्रकार सम्पन्न होता रह सकता है। उपस्थिति कम हो तो भी उस क्षेत्र में सामूहिक उच्चारण की ध्वनि विस्तृत होती रहती है।
(8) साप्ताहिक सत्संगों क्रम अपने संपर्क क्षेत्र में नियमित रूप से चलाया जाता रहे, ताकि मिशन की प्रेरणाएँ व्यापक बनती रहे। इन सत्संगों में विगत सप्ताह भर में जिन परिजनों के जन्म दिन हुए हो, उन्हें भी सामूहिक रूप में मनाया जा सकता है। अवकाश निकालकर जन्म दिन संस्कार के रूप में प्रेरक गोष्ठी घरों में भी आयोजित होती रहे तो और भी उत्तम है।
(9) प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कारशाला, व्यायामशाला, शाकवाटिका एवं वृक्षारोपण की रचनात्मक प्रवृत्तियां बढ़ाई जाय एवं नशा निवारण, दहेज, जेवर बहिष्कार, जाति लिंग भेद के आधार पर चल रही असमानता को हटाने के लिए हर आयोजन में प्रचार करते रहा जाय।
(10) शांतिकुंज हरिद्वार में वर्ष भर हर माह एक महीने के युग शिल्पी सत्र तथा नौ-नौ दिन के जीवन साधना सत्र चलते रहते है- तारीख 1 से 19। 11 से 19। 21 से 29 तक। इनमें से जिनमें भी सुविधा हो, सम्मिलित होने तथा मिशन से परिचित प्रभावित उत्साही नर नारियों को सम्मिलित होने के लिए भेजते रहे।
उपरोक्त तीन प्रमुख तथा दस प्रज्ञा आंदोलन से संबंधित कार्यक्रम कुल 13 प्रवृत्तियाँ ऐसी है जिन्हें आसानी से हर जगह चलाया जा सकता है। ये चल पड़े तो आगे अन्य कार्य भी हाथ में लिये जा सकते है और नवनिर्माण की की पृष्ठभूमि बनाने में देखने में छोटा किन्तु प्रभाव में अतिमहत्वपूर्ण कार्य निरन्तर होता रह सकता है। जहाँ यह प्रवृत्तियाँ चलेगी, वहाँ स्थापित प्रज्ञापीठें सफलता पूर्वक चलने लगेगी और अपना निर्धारित लक्ष्य पूरा करने लगेगी।
उपरोक्त प्रवृत्तियों के संचालन हेतु स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर, ज्ञानरथ, आदि उपकरणों की आवश्यकता पड़ेगी। जिनके पास जिनकी कमी हो वह शाँतिकुँज हरिद्वार में मंगा सकते है। कीमतें वस्तुओं के दामों में उतार–चढ़ाव आने के अनुपात से घटती-बढ़ती रहती है। इसलिए जो उपकरण लेने हो, उनकी कीमतें पूछकर मालूम कर लेना चाहिए।
प्रज्ञापीठें जहाँ भी बनी है, वहाँ उन्हें जाग्रत जीवन्त बने रहना चाहिए। इसके लिए वहां उपरोक्त कार्य सम्पन्न होना ही चाहिए। नये सिरे से नये उत्साह के साथ दीपयज्ञ आयोजनों के साथ यह पुनर्जीवन का कार्य आरंभ कर ही देना चाहिए। जहाँ उत्साही परिजनों का मण्डल क्रियाशील हो, वह भी एक प्रकार का प्रज्ञापीठ है। उन्हें भी क्रमबद्ध रूप से ये गतिविधियाँ
आरम्भ कर देना चाहिए। जहाँ उत्साह जागेगा, श्रद्धा जोर मारेगी, साहस और पराक्रम उभरेगा। वहाँ प्रज्ञा पीठों में नवजीवन का संचार निश्चित रूप में होगा। अपनी और अपने समीपवर्ती क्षेत्र की अन्य प्रज्ञा पीठों को सजीव, सक्रिय बनाने हेतु प्रत्येक प्रज्ञापुत्र को प्राणपण से प्रयत्न करना चाहिए।