Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मारण प्रयोग
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मारण प्रयोग तत्र ग्रन्थों में मारण, मोहन, उच्चाटन आदि के कितने ही प्रयोग मिलते हैं। शत्रु नाश के लिये मारण प्रयोगों को काम में लाया जाता है। मारण कितने ही प्रकार का होता है। एक तो ऐसा है जिससे किसी मनुष्य की तुरन्त मृत्यु हो जाए। ऐसे प्रयोगों में ‘‘घात’’ या ‘‘कृत्या’’ प्रसिद्ध है। यह शक्तिशाली तान्त्रिक अग्नि अस्त्र है, जो प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं पड़ता, तो भी बन्दूक की गोली की तरह निशाने पर पहुंचता है और शत्रु को गिरा देता है। दूसरे प्रकार के मारण, मन्द-मरण कहे जाते हैं। इनके प्रयोग से किसी व्यक्ति को रोगी बनाया जा सकता है। ज्वर, दस्त, दर्द, लकवा, उन्माद, मतिभ्रम आदि रोगों का आक्रमण किसी व्यक्ति पर उसी प्रकार हो सकता है, जिस प्रकार कीटाणु बमों से प्लेग, हैजा आदि महामारियों को फैलाया जा सकता है। इस प्रकार के प्रयोग नैतिक दृष्टि से उचित हैं या अनुचित यह प्रश्न दूसरा है, पर इतना निश्चित है कि यह असम्भव नहीं, सम्भव है। जिस प्रकार विष खिलाकर या शस्त्र चलाकर किसी मनुष्य को मार डाला जा सकता है, वैसे ही ऐसे अदृश्य उपकरण भी हो सकते हैं, जिनको प्रेरित करने से प्रकृति के घातक परमाणु एकत्रित होकर अभीष्ट लक्ष्य की ओर दौड़ पड़ते हैं और उस पर भयंकर आक्रमण करके ऊपर चढ़ बैठते हैं और परास्त करके प्राण संकट में डाल देते हैं। इसी प्रकार प्रकृति के गर्भ में विचरण करते हुए रोग विशेष के कीटाणुओं को किसी व्यक्ति विशेष की ओर विशेष रूप से प्रेरित किया जा सकता है। ‘मृत्यु किरण’ आज का ऐसा ही वैज्ञानिक आविष्कार है। किसी प्राणी पर इन किरणों को डाला जाए, तो उसकी मृत्यु हो जाती है। प्रत्यक्ष देखने में उस व्यक्ति को किसी प्रकार का घाव आदि नहीं होता, पर अदृश्य मार्ग से उसके भीतर अवयवों पर ऐसा सूक्ष्म प्रभाव होता है कि उस प्रहार से उसका प्राणान्त हो जाता है। यदि वह आघात हलके दर्जे का हुआ, तो उससे मृत्यु तो नहीं होती, पर मृत्यु तुल्य कष्ट देने वाले या घुला-घुलाकर मार डालने वाले रोग पैदा हो जाते हैं। शाप देने की विद्या प्राचीनकाल में अनेक लोगों को ज्ञात थी। जिसे शाप दिया जाता था, उसका बड़ा अनिष्ट होता था। शाप देने वाला अपनी आत्मिक शक्तियों को एकत्रित करके एक विशेष विधि व्यवस्था के साथ जिसके ऊपर उनका प्रहार करता था, उसका वैसा ही अनिष्ट हो जाता था, जैसा कि शाप देने वाला चाहता था। तान्त्रिक अभिचारों द्वारा भी इस प्रकार से दूसरों का अनिष्ट हो सकता है। परन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि इस प्रकार के प्रयोगों के प्रयोगकर्ता की शक्ति भी कम नष्ट नहीं होती। बालक के प्रसव करने के उपरांत माता बिल्कुल निर्बल, निःसत्त्व हो जाती है, किसी को काटने के बाद सांप निस्तेज, हतवीर्य और शक्ति रहित हो जाता है। मारण, उच्चाटन के अभिचार करने वाले लोगों की शक्तियां भी काफी परिमाण में व्यय हो जाती हैं और उसकी क्षतिपूर्ति के लिये उन्हें असाधारण प्रयोग करने होते हैं। जिस प्रकार मन्त्र द्वारा दूसरों का मारण, मोहन, उच्चाटन आदि अनिष्ट हो सकता है, उसी प्रकार कोई कुशल तांत्रिक इस प्रकार के अभिचारों को रोक भी सकता है। यहां तक कि उस आक्रमण को इस प्रकार उलट सकता है कि वह प्रयोगकर्ता पर उलटा पड़े और उसी का अनिष्ट कर दे। घात, कृत्या, चोरी आदि को कोई अन्य तांत्रिक पलट दे, तो उसके प्रेरक प्रयोक्ता पर विपत्ति का पहाड़ टूटा हुआ ही समझिये। उपर्युक्त अनिष्टकर प्रयोग अक्सर होते हैं—तन्त्र-विद्या द्वारा हो सकते हैं। पर नीति, धर्म, मनुष्यता और ईश्वरीय विधान की सुस्थिरता की दृष्टि से ऐसे प्रयोगों का किया जाना नितान्त अनुचित, अवांछनीय है। यदि इस प्रकार की गुप्त हत्याओं का तांता चल पड़े, तो उससे लोक व्यवस्था में भारी गड़बड़ी उपस्थित हो जाए और परस्पर के सद्भाव एवं विश्वास का नाश हो जाए। हर व्यक्ति दूसरों को आशंका, सन्देह एवं अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे। इसलिये तन्त्र विद्या के भारतीय ज्ञाताओं ने इन क्रियाओं को निषिद्ध घोषित करके उन विधियों को गोपनीय रखा है। आजकल परमाणु बम बनाने के रहस्यों को बड़ी सावधानी से गुप्त रखा जा रहा है, ताकि उनकी जानकारी सर्वसुलभ हो जाने से कहीं उनका दुरुपयोग न होने लगे। उसी प्रकार इन अभिचारों को भी सर्वथा गोपनीय रखने का ही नियम बनाया गया है। शारदा तिलक तन्त्र के गायत्री-पटल में इस प्रकार के अभिचारों का वर्णन है। इसमें संकेत रूप से उन विस्तृत क्रियाओं का थोड़ा-थोड़ा आभास कराया गया है। वह संकेत सर्वथा अपूर्ण एवं असम्बद्ध है, तो भी उस सूत्र के आधार पर यह जाना जा सकता है कि कार्य को पूरा करने के लिये किस प्रणाली का अवलम्बन करना होगा, किन वस्तुओं की प्रधान रूप से आवश्यकता होगी। इन संकेतों के द्वारा मार्ग पर चलने वाले को किसी न किसी प्रकार उन गुप्त रहस्यों की जानकारी हो ही जायेगी। नीचे शारदा तिलक मन्त्र के कुछ ऐसे अभिचार सूत्र दिये गये हैं, जिनसे इस प्रकार की विधियों पर कुछ प्रकाश पड़ता है और यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार गायत्री से सात्विक लाभ उठाये जाते हैं, उसी प्रकार उससे तामसिक कार्य भी किये जा सकते हैं। परन्तु ऐसा उपयोग करना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। इसलिये उन विधानों को गुप्त भी रखा जा रहा है। नीचे कुछ अभिचार संकेतों के श्लोक दिये जा रहे हैं। धत्तूर विषवृक्षार्कभूरुहोत्थान्समिद्वरान् । राजीतैलेन संलिप्तान् पृथक्सप्त सहस्रकम् ।। जुहुयात संयतो मन्त्री, रिपुर्यमपुरं व्रजेत् । धतूरा, कुचिला तथा राई के तेल से युक्त श्रेष्ठ समिधाओं से पृथक् सात हजार आहुति जितेन्द्रिय होकर दे, तो शत्रु यमपुर को जाए। सप्तरात्रं प्रजुहुयात् सर्षपैःस्नेहमिश्रितैः । आर्द्रवस्त्रो वृष्टिकाले मरीचैर्मनुनामुना ।। सात रात तक सरसों के तेल से युक्त मिर्चों द्वारा हवन करे, गीला वस्त्र धारण कर वर्षाकाल में यह प्रयोग करे। निगृह्यते ज्वरेणारिः प्रलयाग्नि समेन सः । तालपत्रे समालिख्य, शत्रुनाम यथाविधि ।। आग्नेयास्त्रेण संवेष्ट्य कुण्डमध्ये निखन्यते । जुहुयान्मरिचैः क्रुद्धो, ज्वराक्रान्तः स जायते ।। ऐसा करने पर शत्रु प्रलयाग्नि के सदृश ज्वर से युक्त हो जाता है। ताड़ के पत्ते पर शत्रु के नाम को यथोक्त विधिपूर्वक लिखकर आग्नेयास्त्र से अभिमन्त्रित कर कुण्ड के मध्य गाड़ दे और क्रोधित होकर मिर्ची का हवन करे, तो वैरी ज्वर से युक्त हो जाता है। तदादाय क्षिपेत्तोये, शीतले स वशी भवेत् । पिष्टापामार्गबीजानि, मरीचं मधुसंयुतम् ।। अत्युष्ण लवणे तोये, निक्षिप्य क्वाथयेत्ततः । ऋक्षवृक्ष प्रतिकृतौ हृदये वदने नसि ।। पुनः कुण्ड में से उखाड़कर उसको शीतल जल में डाल दे और अपामार्ग (चिड़चिड़ा) के बीजों को पीस, शहद से युक्त मिर्चों को नमक के जल में डाल, अग्नि पर रखकर क्वाथ सदृश पकाए। पुनः ऋक्ष और वृक्ष से रचित प्रतिकृति के हृदय, वदन और नासा बनाए। किंचित्किंचित्क्षिपेत्तोये, दर्व्या संचालयेत्तथा । आग्नेयमुच्चरन्मन्त्रं, सोऽचिराज्जवरितो भवेत् ।। और साथ में थोड़ा-थोड़ा जल डालते हुए मन्त्र का उच्चारण कर दर्वी (करछुली) से चलाये, तो शीघ्र ही शत्रु ज्वरयुक्त हो जाए। क्वथितेऽम्भसि तां क्षिप्त्वा हन्याच्छत्रून्प्रयत्नतः । तीक्ष्ण स्नेहेन संलिप्तां, शत्रोः प्रतिकृतिं निशि ।। तापयेदेधिते वह्नौ प्रतिलोममनुं जपन् । ज्वरेण बाध्यते सद्यो होमादस्य मृतिर्भवेत् ।। क्वाथ बन जाने पर उसको जल में डालकर कूटे। पुनः तेल से उस कुटे हुए क्वाथ को रात्रि में प्रतिलोमतापूर्वक मन्त्र जपता हुआ प्रज्वलित अग्नि में तपाये। इससे शीघ्र ही शत्रु ज्वर से आक्रान्त हो जाता है और होम से उसकी मृत्यु हो जाती है। सामुद्रे सलिले हिंगु बीजजीरकलोलिते । क्वथितेन पुत्तलिकां नक्षत्र तरुनिर्मिताम् ।। अधोवक्त्रां विनिःक्षिप्य, यष्ट्या विपद्रुमस्य वै । तच्छिरः स्फोटनं कुर्वन् जपेन्मन्त्रं विलोमतः । नमक युक्त जल में हींग, जीरा मिलाकर क्वाथ बनाकर ऋक्ष-वृक्ष से उसकी मूर्ति बनाए और उसको अधोमुख पृथ्वी पर डालकर विष वृक्ष की लाठी से उसका सिर फोड़े और मन्त्र पढ़ता जाए। सप्ताहान्मरणं यातिं शत्रुर्ज्वरविमोहितः । आदित्य रथ नागेन्द्र ग्रस्तांघ्रिस्तद्विषा हतम् ।। इस प्रकार करने पर, शत्रु ज्वर से युक्त हो जाता है और उसकी सप्ताह में मृत्यु हो जाती है। उसको सर्प पैर में काट लेता है। तत्तैलेन सुलिप्तांगं दग्धं रक्तमरीचिभिः । अधोमुखं निज-रिपुं दग्ध्वा क्वथित-वारिणा ।। तर्पयेद्भानुमालोक्य शत्रुर्मृत्यु-मुखे भवेत् ।। दूसरी विधि यह है कि मूर्ति को तेल से चुपड़ कर मिर्चों के साथ जलाकर उसका नीचे को मुख कर उष्ण जल से सूर्य का तर्पण करे, तो शत्रु की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। प्रांगणे स्थण्डिलं कृत्वा, सुगन्धिकुसुमादिभिः । देवीमभ्यर्चयेन्नित्यं, प्राणुक्तेनैव वर्त्मना ।। आहरेद्रात्रिषु बलिं, चरुणा सर्वसिद्धिदम् । भूतरोग द्रोह भयं, प्रभवेन्नात्र संशयः ।। आंगन में वेदी बनाकर सुगंधित पुष्प आदि से नित्य देवी की विधानपूर्वक अर्चना करे और रात्रि में समस्त सिद्धिदायक चरु द्वारा बलिदान दे, इस प्रकार करने पर रोग, भय, द्रोह तथा भूतादि का भय नहीं रहता। यथावदग्निमाराध्य, गन्धैः पुष्पैः मनोरमैः । स्थित्वा तस्याग्रतो मन्त्री जपेन्मन्त्रमनन्यधीः ।। मनोहर सुगन्धित पुष्पों द्वारा अग्नि की पूजा कर अग्नि के समक्ष अनन्य बुद्धि द्वारा मन्त्र जाप करे। जपोऽयं सर्व सिद्ध्यै स्यान्नात्र कार्या विचारणा । लवणैर्मधुरासिक्तैः जुहुयात्पश्चिमोन्मुखः ।। यह जप समस्त सिद्धि प्रदायक है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये। पश्चिम की ओर मुख करके नमकीन अन्न तथा मिष्ठान्न द्वारा हवन करे। मन्त्रार्थ संख्यया मंत्री, रिपुमात्मवशं नयेत् । शालीन्प्रक्षाल्य संशोध्य, शुद्धान्कुर्वीत तण्डुलान् ।। जपित्वा पंचगव्येषु संस्कृते हव्यवाहने । संपचेज्जपन्मंत्रं च व्रीहीन्तत्र पुनः सुधीः ।। चवालीस हजार मन्त्र जप करने पर, जपने वाला शत्रु को अपने वश में कर लेता है। शाठी चावलों को धोकर शुद्ध करे और शोधित चावलों को पंचगव्य में शुद्ध करके विद्वान् पुनः मन्त्र का जप करे। अर्चयितृवा विशदधीर्देवीमग्नौ यथा पुरा । जुहुयाच्चरुणानेन साज्येनाष्ट सहस्रकम् ।। पुनः पूर्ववत् देवी को पूजकर अग्नि में घृतयुक्त इस चरु के द्वारा आठ हजार आहुति दे। पात्रे सम्पातनं कुर्वन्साध्यं भक्षयेत्सुधीः । शेषं तं निखनेद्वारि सम्पातं प्रांगणांतरे ।। पुनः कुछ पात्र में रखकर स्वयं भक्षण करे और शेष आंगन में गाड़ दे अथवा द्वार पर फेंक दें। कृत्यारोगा विनश्यन्ति सह भूत ग्रहामयैः । परैरुत्पादिता कृत्या, पुनस्तानेव भक्षयेत् ।। कृत्या से उत्पन्न रोग भूत ग्रहों के साथ-साथ नष्ट हो जाते हैं। दूसरों के द्वारा भेजी गयी कृत्या (घात) उन्हीं को नष्ट करती है। चौबीस गायत्री गायत्री के 24 अक्षण यथार्थ में 24 शक्ति-बीज हैं। पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश यह पांच तत्त्व तो प्रधान हैं ही, इनके अतिरिक्त 24 तत्त्व हैं, जिनका वर्णन सांख्य दर्शन में किया गया है। सृष्टि के इन 24 तत्त्वों को गुम्फन करके एक सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति का आविर्भाव किया, जिसका नाम गायत्री रखा गया। गायत्री के 24 अक्षर चौबीस मातृकाओं की महाशक्तियों के प्रतीक हैं। उनका पारस्परिक गुन्थन ऐसे वैज्ञानिक क्रम से हुआ है कि इस महामन्त्र का उच्चारण करने मात्र से शरीर के विभिन्न भागों में अवस्थित चौबीस बड़ी ही महत्त्वपूर्ण शक्तियां जाग्रत होती हैं। मार्कण्डेय पुराण में शक्ति के अवतार की कथा इस प्रकार है कि सब देवताओं ने अपना-अपना तेज एकत्रित किया और वह एकत्रित तेज-केन्द्र ‘शक्ति’ के रूप में अवतीर्ण हुआ। देवता उन तत्त्व शक्तियों का नाम है, जो सृष्टि के निर्माण, पोषण एवं संसार के मूल कारण हैं। रसायन विज्ञान का नियम है, क्रियाशील पदार्थों के सम्मिलन से नये पदार्थ बनते हैं। रज और वीर्य के सजीव परमाणु जब मिलते हैं, तो एक-मूर्तिमान् गर्भ का आविर्भाव होता है। गन्धक और पारा मिलकर कजली बन जाती है, दूध और खटाई मिलकर दही बनता है। ऋण और धन परमाणु मिलकर बिजली की शक्तिशाली धारा के रूप में परिणत हो जाते हैं। 24 सूक्ष्म तत्त्वों के—24 सूक्ष्म शक्तियों के सम्मिलन से एक ऐसी अद्भुत धारा उत्पन्न होती है, जिसकी सामर्थ्यों का वर्णन करना कठिन है। मार्कण्डेय पुराण का शक्ति अवतार और उस अवतार की आश्चर्यजनक क्रियाशीलता इसी तथ्य पर प्रकाश डालती है। एक विशेष पर्वतीय प्रदेश की भूमि, वहां की वायु, वहां की वनस्पतियों व रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण के कारण गंगोत्री से आरंभ होने वाला जल एक विशेष प्रकार के अद्भुत गुणों वाला बन गया। इसी प्रकार चौबीस अक्षरों से, उपयोगी तत्त्वों का कारणवश सम्मिश्रण हो जाने से अन्तरिक्ष आकाश में एक विद्युन्मयी सूक्ष्म सरिता बह निकली। इस अध्यात्म गंगा का नाम ‘गायत्री’ रखा गया। जिस प्रकार गंगा नदी में स्नान करने से शारीरिक व मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है, उसी प्रकार उस आकाशवाहिनी विद्युन्मयी गायत्री शक्ति की समीपता से आन्तरिक एवं बाह्य बल तथा वैभवों की उपलब्धि होती है। सृष्टि के उत्पादक तत्त्व चैतन्य-रहित कहे जाते हैं, यह अचैतन्य उसका स्थूल रूप है। पर अचेतना के पीछे भी एक प्रेरणा रहती है, मोटर, जहाज, तार, बम, तोप आदि को चलाने वाला कोई न कोई होता है। ये इतने शक्तिशाली होते हुए भी कुछ कार्य स्वयं नहीं कर सकते। इन यन्त्रों को चलाने के लिये यह आवश्यक है कि कोई चैतन्य प्राणी इनका संचालन करे। इसी प्रकार तत्त्वों को क्रियाशील होने के लिये यह आवश्यक है कि उनके पीछे कोई चैतन्य शक्ति कार्य करती हो। अध्यात्म विद्या को भारतीय वैज्ञानिक सदा से यह मानते आये हैं कि प्रत्येक तत्त्व के पीछे एक चैतन्य शक्ति प्रेरक सत्ता के रूप में विद्यमान है। उस प्रेरक शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके उन पदार्थों का लाभ उठाया जा सकता है जिन पर उस शक्ति का आधिपत्य है। इन प्रेरक शक्तियों को भारतीय विज्ञानवेत्ताओं ने देवता नाम दिया है। पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल आदि पूजा के लिये वेदोक्त और पुराणोक्त प्रक्रियायें मिलती हैं। क्या यह लोहा-लकड़ी, पानी, आग, हवा आदि की पूजा है? क्या हमारे ऋषि-मुनि इतने मूर्ख थे, जो यह भी नहीं जानते थे कि इन निर्जीव वस्तुओं के पूजने से लाभ होना असम्भव है? ऐसा सोचने से काम न चलेगा। भारतीय वैज्ञानिकों ने बहुत ऊंची शोध की थी। आज के भौतिक विज्ञानी जहां अपने विज्ञान की अन्तिम सीमा समझते हैं, वहां से भारतीय ऋषियों की शोधों का आरंभ होता है, उनको मिट्टी पूजने वाला मूर्ख समझने की भूल हमें न करनी चाहिये। वस्तुस्थिति यह है कि एक प्रकार के गुण, शक्ति, स्वभाव, प्रवृत्ति एवं स्थिति के परमाणु समूह तत्त्वों में रहते हैं और तत्त्व के पीछे एक प्रेरक शक्ति काम करती है, जो ईश्वरीय अनुशासन के नाम से भी पुकारी जाती है। यह प्रेरक नियामक, उत्पादक, संचालक एवं विध्वंसक सत्ता अपने क्षेत्र की अधिपति है। उसका आधिपत्य अपने क्षेत्र में अक्षुण्ण है। उसी का नाम देवता है। इन देवताओं की अपनी-अपनी कार्य-प्रणाली, अपनी-अपनी मर्यादा होती है। जहां उनके पदार्थ एवं परमाणुओं सम्बंधी क्रियायें होती हैं, वहां गुण और स्वभाव संबंधी शक्तियां भी हैं। जिस देवता से उपासना विधि द्वारा सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, उसके गुण और स्वभाव के साथ भी सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इस प्रकार वह देव-उपासक, अपने उपास्य देव के गुण और स्वभाव को प्राप्त करता है। साथ ही जिन पदार्थों पर उस देव-शक्ति का आधिपत्य है, वे भी उसे किसी न किसी मार्ग से अधिक मात्रा में उपलब्ध होने लगते हैं। इन देव-शक्तियों तक पहुंचने के लिये, उन्हें पकड़ने के लिये, उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिये साधना-विज्ञान के आचार्यों ने समाधि अवस्था में पहुंचकर अपनी ध्यान चेतना को अन्तरिक्ष लोकों में फेंका। उनकी अन्तःचेतना ने देव शक्तियों से सम्बन्ध होते हुए जो अनुभव किये उन अनुभवों को योगीजनों ने देवता का रूप घोषित कर दिया। मनुष्य के मस्तिष्क का निर्माण इस प्रकार हुआ है कि उससे कोई भी वस्तु टकराये, तो उसका रूप अवश्य ध्यान में आएगा। कोई वस्तु साकार हो या निराकार पर यदि मस्तिष्क से उसके सम्बन्ध में कुछ सोचना पड़ा, तो वह उसका कोई न कोई रूप निर्धारित करेगा। बिना रूप की स्थापना हुए मस्तिष्क उसके सम्बंध में किसी प्रकार के विचार या धारणा करने में असमर्थ होता है। साकार वस्तुओं को देखने या सुनने के आधार पर उनका कोई रूप मस्तिष्क में बन जाता है। वह निराकार वस्तुओं का आकार अपनी कल्पना के आधार पर गढ़ता है। परन्तु वह कल्पना भी किसी न किसी आधार पर चलती है। देवताओं का आकार निर्धारित करने का कार्य योग के आचार्यों ने किया है। उनके मस्तिष्क ने अन्तरिक्ष लोक में फैली हुई देव शक्तियों से सम्बद्ध होते समय जो रूप बनते देखा उसे ही देव रूप माना। यह देव रूप एक माध्यम है जिसको पकड़कर आसानी के साथ उन देव शक्तियों से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। देव शक्तियों से सम्बन्ध होने पर जो चित्र मन में आता है यदि आरम्भ में ही उस चित्र को मन में धारण कर लिया जाय तो उस शक्ति से सम्बद्ध होने का कार्य भी सुविधापूर्वक पूरा किया जा सकता है। देवताओं के रूप का ध्यान करना इस दिशा में प्रधान साधन है। इसलिये आचार्यों ने प्रत्येक देवता का रूप अपनी अनुभव साधना के आधार पर निर्धारित कर दिया है। यहां हमें भली-भांति ध्यान रखना चाहिये कि यह देवता कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। एक ही परमात्मा की विविध शक्तियों का नाम ही देवता है। जैसे सूर्य की विविध गुणों वाली किरणें अल्ट्रा वायलेट, अल्फा, पारदर्शी, मृत्यु किरण आदि अनेक नामों से पुकारी जाती हैं, उसी प्रकार अनेक कार्य और गुणों के कारण ईश्वरीय शक्तियां भी देव नामों से पुकारी जाती हैं। सूर्य की प्रातःकालीन, मध्याह्न कालीन, संध्याकालीन किरणों के गुण भिन्न-भिन्न हैं। इसी प्रकार गर्मी, वर्षा और शीतकाल में किरणों के गुण में अन्तर पड़ जाता है। सूर्य एक ही है पर प्रदेश, ऋतु और काल के भेद से उसका गुण भिन्न-भिन्न हो जाता है। ईश्वर की शक्तियों में इसी प्रकार की विभिन्नताओं के होने के कारण उनके नाम विभिन्न प्रकार के रखे गये हैं। गायत्री में 24 शक्तियां गुम्फित हैं। साधारणतः गायत्री की उपासना करने से उन 24 शक्तियों का यथोचित मात्रा में लाभ मिलता है। दूध में सभी पोषक तत्त्व होते हैं, दूध पीने वाले को उन सभी तत्वों का यथोचित मात्रा में लाभ मिल जाता है, परन्तु यदि किसी को किसी विशेष तत्त्व की आवश्यकता होती है तो वह उसके किसी विशेष भाग का ही खासतौर से सेवन करता है। किसी को दूध के चिकनाई वाले भाग की आवश्यकता होती है तो वह ‘घी’ निकाल कर उसका सेवन करता है और बाकी अंश को छोड़ देता है। किसी को छाछ की अधिक आवश्यकता है तो वह दूध के छाछ वाले अंश को लेकर अन्य भागों को छोड़ देता है। रोगियों को दूध फाड़ कर उसका पानी मात्र देते हैं। इसी प्रकार किसी विशेष शक्ति की आवश्यकता होती है, तो वह उसी की आराधना करता है। अपनी प्रमुख आवश्यकता की वस्तु के लिये अधिक श्रम करता है। इस दृष्टि से काम करने के लिये पृथक्-पृथक साधनायें बताई गयी हैं। इन पद्धतियों को ‘चौबीस गायत्री साधना’ कहते हैं। गायत्री के मन्त्र-ग्रन्थों में चौबीस देवताओं की चौबीस गायत्री लिखी हुई हैं। उनका संक्षिप्त-सा साधन-विधान भी है। उन सबका सूक्ष्म अवलोकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि विविध कामनाओं की पूर्ति के लिये सृष्टि के प्रधान चौबीस तत्त्वों की प्रेरक शक्तियों का उपयोग करने का विधि-विधान है। भारतीय योग विज्ञान की क्रिया पद्धति यह है कि वह परमाणुओं एवं तत्त्वों का ऊहापोह उस तरह नहीं करती, जिस प्रकार वर्तमान काल के भौतिक विज्ञानी करते हैं। वैज्ञानिक अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिये तत्त्वों और परमाणुओं को पकड़ते हैं। इस पकड़ के लिये उन्हें बहुत श्रम और धन से बनने वाली, बार-बार टूटने-फूटने वाली मशीनों की आवश्यकता होती है। योग-विज्ञान इस सतह से कहीं ऊंची सतह पर काम करता है। वह तत्त्वों और परमाणुओं की पीठ पर काम करने वाली प्रेरक एवं चैतन्य देव-शक्ति को पकड़ता है और उससे अपना मनोरथ पूरा करता है। इस पकड़ के लिये उसे लोहे की मशीनों की आवश्यकता नहीं होती वरन् यह मानव शरीर, मस्तिष्क एवं अन्तःकरण की अद्भुत अलौकिक, असाधारण एवं अनन्त शक्तिशाली मशीन का उपयोग करता है। ईश्वर ने जितनी सर्वांगपूर्ण मशीन ‘‘मनुष्य देह’’ बनाई है उतनी सम्पूर्ण सामर्थ्यों वाली, सम्पूर्ण प्रयोजनों में प्रयुक्त हो सकने वाली मशीनें आज तक किसी भी वैज्ञानिक द्वारा नहीं बनाई जा सकी है और न भविष्य में इस प्रकार की कोई सम्भावना ही है। भारतीय वैज्ञानिकों ने नई-नई मशीनें बनाने के झंझट से बचकर इस एक ही मशीन से सब सूक्ष्म प्रयोजनों को पूरा करने की क्रिया निकाली थी। रेडियो यन्त्र की सुई घुमाने से उन विविध स्थानों की ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, जो आपस में बहुत दूर और बहुत भिन्न हैं। सुई के घुमाने से यन्त्र के भीतर ऐसा परिवर्तन हो जाता है कि पहले उसके भीतर जो गतिविधि काम कर रही थी, वह बन्द हो जाती है और नये प्रकार की गतिविधि आरम्भ हो जाती है, जिससे पहले जिस स्टेशन की ध्वनियां सुनाई पड़ रही थीं, वे बन्द होकर नया स्टेशन सुनाई पड़ने लगता है। मनुष्य शरीर की स्थिति को भी साधनात्मक कर्मकाण्डों द्वारा इसी प्रकार परिवर्तित कर दिया जाता है कि वह कभी किसी देव-शक्ति के और कभी अन्य देव-शक्ति के अनुकूल बन जाती है। साधनाकाल में साधक के रहन-सहन, आहार-विहार, दिनचर्या, विचार, चिन्तन, धन, संयम, कर्मकाण्ड आदि के ऐसे प्रबंध एवं नियंत्रण कायम किये जाते हैं, जिनके कारण उसकी मनोभूमि एक विशेष दिशा में काम करने योग्य बन जाती है। साधना काल के नियमोपनियमों, प्रतिबन्धों या नियन्त्रणों को कोई साधक पूरी तरह पालन करे, तो उसकी मशीन इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि इच्छित देव-शक्ति से सम्बन्ध स्थापित कर सके। इसलिये अध्यात्म विद्या के पथ-प्रदर्शक अपने शिष्यों को साधना-काल में आवश्यक संयम-प्रतिबंधों का पालन करने के लिये विशेष रूप से सावधान करते रहते हैं। स्थूल शरीर में दोनों हाथ इस प्रकार के अवयव हैं, जिनकी सहायता से वस्तुओं को पकड़ा जाता है। सूक्ष्म शरीर के भी इसी प्रकार के दो हाथ हैं, जिनके द्वारा परमाणु तत्त्वों की ऊपरी सतह पर परब्रह्म-लोक में भ्रमण करने वाली देव-शक्तियों को पकड़ा जाता है। इन सूक्ष्म हाथों का नाम है—श्रद्धा और विश्वास। श्रद्धा और विश्वास के कारण मानव अन्तःकरण की बिखरी हुई शक्तियां एक स्थान पर एकत्रित हो जाती हैं। इसी एकीकरण को जिस दिशा में प्रेरित किया जाता है, उसी में वह बड़ी द्रुत गति से दौड़ता है। थोड़ी-सी बारूद और शीशे की गोलियों की पुड़ियों (कारतूस) को बंदूक की नाल में भरते हैं, इस पुड़िया को चिंगारी लगाकर एक बन्दूक की सहायता से एक विशेष दिशा में उड़ाते हैं। निशाना सीधा होने पर वह गोली अभीष्ट स्थान पर प्रहार करती है और लक्ष्य को वेध देती है। योग-साधना में भी यही होता है। आहार-विहार का, दिनचर्या का प्रतिबन्ध बन्दूक बनाना है, उसमें श्रद्धा और विश्वास का होना गोली व बारूद डाला जाना है। साधन-विधि उसमें चिंगारी लगाना है। इस प्रकार जो लक्ष्य वेध किया जाता है, वह मनोवांछित परिणाम उपस्थित करता है। चन्द्रलोक और मंगल ग्रह की यात्री करने की तैयारी में जो वैज्ञानिक लगे हुए हैं, वे ऐसी तोप तैयार कर रहे हैं, जो अत्यन्त दूरी पर निशाना फेंक सके। उस तोप में ऐसा गोला रखा जायेगा, जिसमें यात्री लोग बैठ सकें। यह गोला चन्द्र या मंगल तक उन्हें पहुंचा देगा ऐसी उनकी मान्यता है। वह प्रयोग कहां तक सफल होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा, पर भूतकाल में यह भली प्रकार साबित हो चुका है कि योग साधना रूपी लक्ष्य वेध उपर्युक्त विधि-विधान के आधार पर देव शक्तियों के साथ टकराता है, उन्हें पकड़ता है और उन्हें मनुष्य के लाभ के लिये उसी प्रकार प्रस्तुत करता है, जिस प्रकार आज के वैज्ञानिकों ने बिजली, भाप आदि की शक्तियों को मनुष्य की सुख-साधना के लिये लगा दिया है। योग साधक अपनी देह की शक्ति को सुसंचालित करके देवशक्तियों तक पहुंचते हैं और उनसे वे लाभ, वरदान प्राप्त करते हैं, जिनकी उन्हें आवश्यकता होती है। हमारे इतिहास, पुराण पग-पग पर इस महा सत्य की साक्षी देते हैं। विज्ञान का मार्ग एक होते हुए भी उसके साधन-मार्गों में अन्तर होता है तथा हो सकता है। रेडियो का विज्ञान एक है, पर रेडियो यन्त्रों की बनावट, हर बनाने वाला अलग-अलग रखता है। घड़ियों और मोटर के पुर्जों में भी इसी प्रकार का हेर-फेर हुआ करता है। इस प्रकार के अन्तर होते हुए भी इन विविध आकृति के यन्त्रों से लाभ एक-सा ही मिलता है। योग-साधना के अनेक मार्ग हैं, उनमें से एक मार्ग ‘गायत्री-मार्ग’ भी है। गायत्री की साधना-पद्धति द्वारा भी उन सूक्ष्म शक्तियों से साधक अपने को सम्बद्ध कर सकता है और अभीष्ट लाभ उठा सकता है। गायत्री के तन्त्र-ग्रन्थों में 24 गायत्रियों का वर्णन है। चौबीस देवताओं के लिये एक-एक गायत्री है। इस प्रकार 24 गायत्रियों द्वारा 24 देवताओं से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में से प्रत्येक के देवता क्रमशः (1) गणेश (2) नृसिंह (3) विष्णु (4) शिव (5) कृष्ण (6) राधा (7) लक्ष्मी (8) अग्नि (9) इन्द्र (10) सरस्वती (11) दुर्गा (12) हनुमान् (13) पृथ्वी (14) सूर्य (15) राम (16) सीता (11) चन्द्रमा (18) यम (19) ब्रह्मा (20) वरुण (21) नारायण (22) हयग्रीव (23) हंस (24) तुलसी हैं। यद्यपि इनमें से कई नामों के मनुष्य अवतार, ग्रह, नक्षत्र, तत्त्व, पक्षी, वृक्ष आदि भी हुए और चरित्र भी उपलब्ध होते हैं, पर यहां स्मरण रखना चाहिये कि ऊपर जिन नामों का उल्लेख है उनका प्रयोग तन्त्र विज्ञान में विशुद्ध देव-शक्तियों की छाया लेकर मनुष्य, ग्रह, तत्त्व, पक्षी, वृक्ष आदि जो हुए हैं, वे इन शक्तियों के या तो स्थूल प्रतीक हैं या आलंकारिक विवेचनाहंस पक्षी, तुलसी का पौधा, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, अग्नि, वरुण आदि तत्त्व; राम, कृष्ण, सीता, राधा, हनुमान् आदि अवतारी पुरुष उन देव शक्तियों के स्थूल प्रस्फुरण हैं। वस्तुतः वे शक्तियां अत्यंत सूक्ष्म और ईश्वरीय सूर्य की किरणें हैं। 24 गायत्री द्वारा उन 24 किरणों से ही सान्निध्य स्थापित किया जाता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि देव-शक्तियां स्वचैतन्य हैं और अपनी मर्यादा में परमाणुओं, तत्त्वों, पदार्थों पर शासन करती हैं। इसलिये वे भौतिक और आत्मिक दोनों ही सत्ताओं से सम्पन्न हैं। देव-उपासना से मनुष्य को उस प्रकार के गुण प्राप्त होते हैं। साथ ही उनके शासन में रहने वाले पदार्थ भी उसी ओर खिंच-खिंच कर जमा हो जाते हैं। मधु-मक्खियों के छत्ते में एक शासक मक्खी होती है, वह जिधर चलती है, उधर ही छत्ते की अन्य मक्खियां चल देती हैं। जहां चुम्बक होता है, वहां लोहे के कण स्वयमेव खिंच आते हैं। शक्ति अपने आधार को अपनी ओर खींचती रहती है। जिस मनुष्य ने देव शक्ति की जितनी धारणा अपनी मनोभूमि में कर ली है, उसी अनुपात से उस शक्ति से सम्बंधित परिस्थितियां एवं वस्तुयें उसकी ओर खिंचती चली आयेंगी और वह उपासना का समुचित लाभ प्राप्त करेगा। गायत्री के चौबीस देवताओं की चैतन्य शक्तियां क्या हैं? और उन शक्तियों के द्वारा क्या-क्या लाभ मिल सकते हैं? इसका विवरण नीचे दिया जाता है— 1— गणेश- सफलता शक्ति। फल- कठिन कामों में सफलता, विघ्नों का नाश, बुद्धि-वृद्धि। 2— नृसिंह- पराक्रम शक्ति। फल- पुरुषार्थ, पराक्रम, वीरता, शत्रुनाश, आतंक, आक्रमण से रक्षा। 3— विष्णु- पालन-शक्ति। फल- प्राणियों का पालन, आश्रितों की रक्षा, योग्यताओं की वृद्धि, रक्षा। 4— शिव- कल्याण-शक्ति। फल- अनिष्ट का विनाश, कल्याण की वृद्धि, निश्चयता, आत्मपरायणता। 5— कृष्ण- योग-शक्ति। फल- क्रियाशीलता, आत्म-निष्ठा, अनासक्ति, कर्मयोग, सौन्दर्य, सरसता। 6— राधा- प्रेम-शक्ति। फल- प्रेम-दृष्टि, द्वेष-भाव की समाप्ति। 7— लक्ष्मी- धन-शक्ति। फल- धन, पद, यश और भोग्य पदार्थों की प्राप्ति। 8— अग्नि- तेज-शक्ति। फल- उष्णता, प्रकाश, शक्ति और सामर्थ्य की वृद्धि, प्रभावशाली, प्रतिभाशाली, तेजस्वी होना। 9— इन्द्र- रक्षा-शक्ति। फल- रोग, हिंसक, चोर, शत्रु, भूत-प्रेत, अनिष्ट आदि के आक्रमणों से रक्षा। 10— सरस्वती- बुद्धि-शक्ति। फल- मेधा की वृद्धि, बुद्धि की पवित्रता, चतुरता, दूरदर्शिता, विवेकशीलता। 11— दुर्गा- दमन-शक्ति। फल- विघ्नों पर विजय, दुष्टों का दमन, शत्रुओं का संहार, दर्प की प्रचण्डता। 12— हनुमान्- निष्ठा-शक्ति। फल- कर्त्तव्य परायणता, निष्ठावान्, विश्वासी, ब्रह्मचारी एवं निर्भय होना। 13— पृथ्वी- धारण-शक्ति। फल- गम्भीरता, क्षमाशीलता, सहिष्णुता, दृढ़ता, धैर्य, भार-वहन करने की क्षमता। 14— सूर्य- प्राण-शक्ति। फल- नीरोगता, दीर्घ जीवन, विकास, वृद्धि, उष्णता, विकारों का शोधन। 15— राम- मर्यादा-शक्ति। फल- तितिक्षा, कष्ट में विचलित न होना, धर्म, मर्यादा, सौम्यता, संयम, मैत्री। 16— सीता- तप-शक्ति। फल- निर्विकार, पवित्रता, मधुरता, सात्त्विकता, शील, नम्रता। 17— चन्द्र- शान्ति-शक्ति। फल-उद्विग्नताओं की शान्ति, शोक, क्रोध, चिन्ता, प्रतिहिंसा आदि विक्षोभों का शमन, काम, लोभ, मोह एवं तृणा निवारण, निराशा के स्थान पर आशा का संचार। 18— यम- काल-शक्ति। फल- समय का सदुपयोग, मृत्यु से निर्भयता, निरालस्यता, स्फूर्ति, जागरूकता। 19— ब्रह्मा- उत्पादक-शक्ति। फल- उत्पादन शक्ति की वृद्धि। वस्तुओं का उत्पादन बढ़ना, सन्तान बढ़ना, पशु, कृषि, वृक्ष, वनस्पति आदि में उत्पादन की मात्रा बढ़ना। 20— वरुण- रस-शक्ति। फल- भावुकता, सरलता, कलाप्रियता, कवित्व, आर्द्रता, दया, दूसरों के लिये द्रवित होना, कोमलता, प्रसन्नता, माधुर्य, सौन्दर्य। 21— नारायण- आदर्श-शक्ति। फल- महत्त्वाकांक्षा, श्रेष्ठता, उच्च आकांक्षा, दिव्य गुण, दिव्य स्वभाव, उज्ज्वल चरित्र, पथ-प्रदर्शक कार्य-शैली। 22— हयग्रीव- साहस-शक्ति। फल- उत्साह, साहस, वीरता, शूरता, निर्भयता, कठिनाइयों से लड़ने की अभिलाषा, पुरुषार्थ। 23— हंस- विवेक-शक्ति। फल- उज्ज्वल कीर्ति, आत्म-सन्तोष, सत्-असत् निर्णय, दूरदर्शिता, सत् संगति, उत्तम आहार-विहार। 24— तुलसी- सेवा-शक्ति। फल- लोक सेवा में प्रवृत्ति, सत्य प्रधानता, पतिव्रत, पत्नीव्रत, आत्म-शान्ति, परदुःख निवारण। जिसे अपने में जिस शक्ति की, जिस गुण, कर्म, स्वभाव की कमी या विकृति दिखाई पड़ती हो, उसे उस शक्ति वाले देवता की उपासना विशेष रूप से करनी चाहिये। जिस देवता की जो गायत्री है, उसका दशांश जप गायत्री साधना के साथ-साथ करना चाहिये। जैसे कोई व्यक्ति संतानहीन है, सन्तान की कामना करनी चाहिये। यदि गायत्री की दस मालायें नित्य जपी जायें, तो एक माला ब्रह्म गायत्री की भी जपनी चाहिये। केवल मात्र ब्रह्म गायत्री को भी जपने से काम न चलेगा, क्योंकि ब्रह्म गायत्री की स्वतंत्र सत्ता उतनी बलवती नहीं है। देव गायत्रियां, उस महान् वेद-मादा गायत्री की छोटी-छोटी शाखायें तभी तक हरी-भरी रहती हैं, जब तक वे मूल वृक्ष के साथ जुड़ी हुई हैं। वृक्ष से अलग कट जाने पर शाखा निष्प्राण हो जाती है, उसी प्रकार अकेली देवी गायत्री भी निष्प्राण होती है उनका जप महागायत्री के साथ ही करना चाहिये। आरम्भ में देव-गायत्री का जप करना चाहिये। साथ ही उस देवता का ध्यान करते जाना चाहिये और ऐसी भावना करनी चाहिये कि वह देवता हमारे अभीष्ट परिणाम को प्रदान करेंगे। नीचे चौबीसों देवताओं की गायत्रियां दी जाती हैं, इनके जप से उन देवताओं के साथ विशेष रूप से सम्बन्ध स्थापित होता है और उनसे सम्बन्ध रखने वाले गुण, पदार्थ एवं अवसर साधक प्राप्त कर सकते हैं। 1 - गणेश गायत्री - ॐ एक दंष्ट्राय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो बुद्धिः प्रचोदयात् ।2 - नृसिंह गायत्री - ॐ उग्रनृसिंहाय विद्महे, वज्र नखाय धीमहि । तन्नो नृसिंहः प्रचोदयात् ।3 - विष्णु गायत्री - ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि । तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् । 4 - शिव गायत्री - ॐ पञ्चवक्त्राय विद्महे, महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् । 5 - कृष्ण गायत्री - ॐ देवकी नन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि । तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् । 6 - राधा गायत्री - ॐ वृषभानुजायै विद्महे, कृष्ण प्रियायै धीमहि । तन्नो राधा प्रचोदयात् । 7 - लक्ष्मी गायत्री - ॐ महालक्ष्म्यै विद्महे, विष्णु प्रियायै धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् । 8 - अग्नि गायत्री- ॐ महाज्वालाय विद्महे, अग्निदेवाय धीमहि । तन्नो अग्निः प्रचोदयात् । 9 - इन्द्र गायत्री - ॐ सहस्रनेत्राय विद्महे, वज्र हस्ताय धीमहि । तन्न इन्द्रः प्रचोदयात् । 10 - सरस्वती गायत्री - ॐ सरस्वत्यै विद्महे, ब्रह्मपुत्र्यै धीमहि । तन्नो देवी प्रचोदयात् । 11 - दुर्गा गायत्री - ॐ गिरिजायै विद्महे, शिव प्रियायै धीमहि । तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् । 12 - हनुमान् गायत्री - ॐ अञ्जनीसुताय विद्महे, वायुपुत्राय धीमहि । तन्नो मारुतिः प्रचोदयात् । 13 - पृथ्वी गायत्री - ॐ पृथ्वी देव्यै विद्महे, सहस्र मूर्त्यै धीमहि । तन्नः पृथ्वी प्रचोदयात् । 14 - सूर्य गायत्री - ॐ भास्कराय विद्महे, दिवाकराय धीमहि । तन्नः सूर्य्यः प्रचोदयात् । 15 - राम गायत्री - ॐ दाशरथये विद्महे, सीता वल्लभाय धीमहि । तन्नो रामः प्रचोदयात् । 16 - सीता गायत्री - ॐ जनकनन्दिन्यै विद्महे, भूमिजायै धीमहि । तन्नः सीता प्रचोदयात् । 17 - चन्द्र गायत्री - ॐ क्षीर पुत्राय विद्महे, अमृत-तत्त्वाय धीमहि । तन्नः चन्द्रः प्रचोदयात् । 18 - यम गायत्री - ॐ सूर्य पुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि । तन्नो यमः प्रचोदयात् । 19 - ब्रह्मा गायत्री - ॐ चतुर्मुखाय विद्महे, हंसारूढाय धीमहि । तन्नो ब्रह्मा प्रचोदयात् । 20 - वरुण गायत्री - ॐ जलबिम्बाय विद्महे, नील-पुरुषाय धीमहि । तन्नो वरुणः प्रचोदयात् । 21 - नारायण गायत्री - ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि । तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् 22 - हयग्रीव गायत्री - ॐ वाणीश्वराय विद्महे, हयग्रीवाय धीमहि । तन्नो हयग्रीवः प्रचोदयात् । 23 - हंस गायत्री - ॐ परमहंसाय विद्महे, महाहंसाय धीमहि । तन्नो हंसः प्रचोदयात् । 24 - तुलसी गायत्री - ॐ श्री तुलस्यै विद्महे, विष्णु प्रियायै धीमहि । तन्नो वृन्दा प्रचोदयात् । इन देव गायत्रियों के साथ व्याहृतियां लगाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये वेदोक्त नहीं तन्त्रोक्त हैं। यों तो उपर्युक्त देव-शक्तियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के स्वतंत्र एवं विशिष्ट विज्ञान हैं, जो साधना ग्रन्थों में सविस्तार वर्णित हैं। उन साधनाओं से सम्पूर्ण प्रगति उसी दिशा में होती है। यहां उस विस्तृत विज्ञान का वर्णन करना आवश्यक नहीं। यहां तो इन देव-शक्तियों एवं गायत्रियों का वर्णन इसलिये किया गया है कि वेदमाता की सर्व फलदायिनी साधना में भी किसी विशेष तत्त्व को बढ़ाकर किसी विशेष उद्देश्य के लिये अतिरिक्त प्रयत्न भी साथ में जोड़ा जा सकता है। गायत्री पुरश्चरण पुरः कहते हैं पूर्व को (अर्थात् आगे की ओर) और चरण कहते हैं चलने को। चलने से पूर्व की जो स्थिति है, तैयारी है, उसे पुरश्चरण कहा जाता है, चलने के तीन भाग हैं (1) गति, (2) अगति, (3) स्थिति। गति कहते हैं बढ़ने को, आगति कहते हैं लौटने को और स्थिति कहते हैं—ठहरने को। पुरश्चरण में यह तीनों ही क्रियायें होती हैं। किसी विशेष अभीष्ट को प्राप्त करने के लिये जो साधना की जाती है, तो उसके साथ-साथ उन दोषों को लौटाया भी जाता है, जो प्रगति के मार्ग में विशेष रूप से बाधक होते हैं। इस गति-आगति से पूर्व शक्ति को प्रस्फुटित करने के लिये जिस स्थिति को अपनाना होता है, वही पुरश्चरण है। सिंह जब शिकार पर आक्रमण करता है, तो एक क्षण ठहरकर हमला करता है। धनुष पर बाढ़ को चढ़ा कर जब छोड़ा जाता है, तो यत्किंचित् रुककर तब बाण छोड़ा जाता है। बन्दूक का घोड़ा दबाने से पहले जरासी देर शरीर को साध कर स्थिर कर लिया जाता है ताकि निशाना ठीक बैठे। इसी प्रकार अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिये पर्याप्त मात्रा में आत्मिक बल एकत्रित करने के लिये कुछ समय आन्तरिक शक्तियों को फुलाया और विकसित किया जाता है, इस प्रक्रिया का नाम पुरश्चरण है। सवा लक्ष या न्यूनाधिक मन्त्रों का अनुष्ठान एक सर्वसुलभ, सर्व-जनोपयोगी साधना है। पुरश्चरण किसी कार्य विशेष के लिये किया जाता है। इसका विधान बहुत विस्तृत है। यह पुरोहित की अध्यक्षता में किया जाता है। अनुष्ठान को अकेला मनुष्य बिना किसी सहायता के कर सकता है। पुरश्चरण के लिये अनेक कर्मकाण्डी पण्डितों का सहयोग आवश्यक होता है। किसी विशेष पाप के प्रायश्चित्त के लिये, किसी विशेष लाभ की प्राप्ति के लिये पुरश्चरण किये जाते हैं। इससे अपने अन्दर ऐसी शक्ति का उद्भव होता है, जिससे अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करना सरल हो जाता है। गायत्री पुरश्चरण किस मुहूर्त में करना चाहिये और किस आहार-विहार के साथ करना चाहिये, इसका वर्णन इसी प्रकरण में अन्यत्र दिया हुआ है। समय और नियम का पालन करते हुए इस पुरश्चरण की महासाधना को किसी विज्ञ कर्मकाण्डी पुरोहित की अध्यक्षता में आरंभ करना चाहिये। उत्तम स्थान चुनकर वहां पूजा की वेदी बनानी चाहिये। (आटा, रोली, हल्दी, मेंहदी, पीली मिट्टी, पेवड़ी आदि) मांगलिक वस्तुओं की सहायता से चौक पूरे। बीच में हवन की वेदी बनावे, वेदी भूमि से चार अंगुल ऊंची एवं चौबीस-चौबीस अंगुल लम्बी-चौड़ी होनी चाहिये। ईशान कोण में कलश स्थापित करें। एक चौकी पर देव-स्थापन एवं गायत्री मन्त्र की स्थापना करे। चौकी के निकट घी का दीपक जलता रहना चाहिये। गायत्री-पूजा का विधान आगे दिया हुआ है, उस पूजा को करने के उपरान्त अन्य कार्य आरम्भ करे। जप से दशांश होम, होम से दशांश तर्पण और तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्राह्मण भोजन कराने का पुरश्चरण का नियम है। इस नियम को ध्यान में रखते हुए पहले यह निश्चय करना चाहिये कि हमें कितने जप का पुरश्चरण करना है, क्योंकि उनका आर्थिक स्थिति से सम्बन्ध है। सवा लक्ष मन्त्रों का पुरश्चरण करना हो तो 12,500 आहुतियों का हवन करना होगा। 1250 तर्पण होगा। 125 मार्जन करने होंगे और 12 से अधिक ब्राह्मण भोजन करना होगा। इससे व्यय का अन्दाजा लगा लेना चाहिये। जप-तप की संख्या न्यूनाधिक की जा सकती है। पुरश्चरण का कार्य विभाजन इस प्रकार है—(1) नित्य कर्म-स्थान आदि। (2) सन्ध्या (3) गायत्री-पूजन जिसके प्रधान अंग पूजा, कवच, न्यास, ध्यान एवं स्तोत्र हैं। (4) शापमोचन (5) हवन (6) तर्पण (17) मार्जन (8) मुद्रा (9) विसर्जन (10) ब्राह्मण भोजन। यह क्रम नित्य चलना चाहिये। इतने बड़े कार्यक्रम के साथ अधिक जप अपने आप नहीं किया जा सकता। इसलिये ब्राह्मणों को वरण करके उनके लिये केवल जप नियत कर दिया जाता है। पुरोहित, यजमान से पूजन, ध्यान, होम-तर्पण आदि कराता है। होम-तर्पण के लिये भी कई व्यक्तियों की सहायता ली जा सकती है, जिससे समय की बचत हो सके। पुरश्चरण सवा लक्ष, चौबीस लक्ष, एक करोड़, सवा करोड़ अथवा न्यून से न्यून चौबीस हजार होता है। प्रायः 24 दिन में उसे पूरा करना पड़ता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर जप करने वाले तथा हवन-तर्पण में सहयोग देने वाले ब्राह्मणों की नियुक्ति करनी होती है। नियुक्त ब्राह्मणों का भोजन, उनके लिये नये वस्त्र, पात्र तथा दक्षिणा की समुचित व्यवस्था की जाती है। पुरश्चरण पूरा हो जाने पर ब्रह्म-भोज, प्रीति-भोज, बड़ा यज्ञ, कथा-कीर्तन, प्रसाद-वितरण आदि का समारोह उत्सव मनाना चाहिये और मंगल-कामना के साथ पूजा-सामग्री को किसी शुद्ध स्थान पर विसर्जित करते हुए कार्यक्रम समाप्त करना चाहिये। अब पुरश्चरण के दस अंगों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया जाता है।