Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2
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Language: HINDI
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गायत्री हृदयम्
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इस ‘गायत्री हृदय’ को कई ग्रन्थों में गायत्री उपनिषद् भी बताया गया है। उपनिषदों में ब्रह्मज्ञान की-तत्त्वज्ञान की चर्चा होती है। आत्म-विवेचना और आत्म-तत्व की प्राप्ति का उसमें विवेचन किया जाता है। इसमें भी वे ही सब विषय हैं, इसलिये इसको उपनिषद् ठीक ही कहा गया है। परन्तु ‘गोपथ-ब्राह्मण’ की कुछ कण्डिकाओं को लेकर भी एक उपनिषद् प्रचलित है। इस प्रकार एक ही नाम की दो पुस्तकें हो जाने से भ्रम में पड़ने की बहुत सम्भावना थी। इस असुविधा को ध्यान में रखते हुए इस उपनिषद् को कई प्राचीन ग्रन्थों ने ‘गायत्री-हृदयम्’ नाम दिया है। हमने भी इसका अनुसरण किया है। इसे हम, ‘गायत्री-हृदयम्’ और गोपथ ब्राह्मण में वर्णित कण्डिकाओं का ‘गायत्री-उपनिषद्’ नाम से उल्लेख करेंगे। फिर भी यह ‘गायत्री-हृदयम् उपनिषद् ही है। इसमें बड़े महत्त्वपूर्ण तत्त्वों की चर्चा की गयी है—ॐ नमस्कृत्य भगवान् याज्ञवल्क्यः स्वयंभुवं परिपृच्छति । त्वं नो ब्रूहि ब्रह्मन् गायत्र्युत्पत्तिं-तुरीयां श्रोतुमिच्छामि । ब्रह्मज्ञानोत्पत्तिं प्रकृतिं परिपृच्छामि ।।1।।
याज्ञवल्क्यजी ब्रह्माजी से पूछते हैं कि गायत्री की उत्पत्ति कैसे हुई यह सुनाइये? यह सुनने की इच्छा उन्हें इसलिये हुई कि उस उत्पत्ति विज्ञान को जान लेने से ब्रह्म-ज्ञान की भी उत्पत्ति होती है। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह हुआ कि गायत्री की उत्पत्ति का जो कारण है, वही कारण ब्रह्म-ज्ञान की उत्पत्ति का है। एक ही वस्तु के यह दो नाम हैं। इन दोनों में से एक को जान लेने से दूसरे की जानकारी स्वयमेव हो जाती है। श्री भगवानुवाच— प्रणवेन व्याहृतयः प्रवर्तन्ते तमसस्तु परं ज्योतिः । कः पुरुषः ? स्वयम्भूर्विष्णुरिति । अथ ताःस्वांगुल्या मथ्नाति । मथ्यमानात् फेनो भवति । फेनाद् बुदबुदो भवति । बुदबुदादण्डं भवति । अण्डात् आत्मा भवति । आत्मन आकाशो भवति । आकाशाद्वायुर्भवति । वायोरग्निर्भवति । अग्नेरोङ्कारो भवति । ओंकाराद् व्याहतिर्भवति । व्याहृत्या गायत्री भवति । गायत्र्याः सावित्री भवति । सावित्र्याः सरस्वती भवति । सरस्वत्या वेदाः भवन्ति । वेदेभ्यो ब्रह्मा भवति । ब्रह्मणो लोका भवन्ति । तस्माल्लोकाः प्रवर्तन्ते । चत्वारो वेदाः सांगा; सोपनिषदः सेतिहासास्ते सर्वे गायत्र्याः प्रवर्तन्ते । यथाग्निर्देवानां, ब्राह्मणो मनुष्याणां, मेरुः शिखरिणां, गंगा नदीनां, वसन्त ऋतुणां, ब्रह्मा प्रजापतीनां, एवमसौ मुख्यः । गायत्र्या गायत्रीछन्दो भवति ।।2।।
भगवान् बताते हैं कि ॐकार और भूर्भुवः स्वः के साथ उस परम ज्योति का सम्बन्ध है, जो प्रकृति के सत् और रजोगुण का स्पर्श तो करती है, परन्तु तमोगुण से सर्वथा दूर है। प्रथम सतोगुण है, उसकी उपासना करने वालों में सतोगुणी प्रवृत्तियां बढ़ती हैं, साथ ही रजोगुणी वैभव भी मिलते हैं। जिनके हृदय में आत्म-ज्ञान, संयम, आदर्श, धर्म, सुकर्म, सेवा, उदारता, प्रेम एवं आत्मीयता के सात्त्विक भाव प्रस्तुत होते हैं, उनके बाह्य जीवन में यज्ञ, ऐश्वर्य, सुख, वैभव, प्रतिष्ठा, स्वस्थता आदि राजस समृद्धियों का होना स्वाभाविक है। प्रणव और व्याहृतियों का जोड़ा ऐसा ही है, जैसा आत्म-ज्ञान और सुख-शान्ति का जोड़ा। जहां यह दो बातें हैं, वहां दुःख, दारिद्र्य, क्लेश, असन्तोष, दीनता, क्रूरता, पाप, पतन का तम नहीं ठहर सकता। जहां प्रकाश की परम ज्योति मौजूद है, वहां बेचारा तम-अन्धकार अपना किस प्रकार अस्तित्व रख सकेगा? जिस ज्योतिर्मय पुरुष का—अखण्ड-ज्योति का ऊपर वर्णन है, वह कौन है? वह अजन्मा परमात्मा है। परमात्मा प्रकाश स्वरूप है, जहां परमात्मा का निवास होगा वहीं अज्ञान का, पाप का अन्धकार रह नहीं सकता। परमात्मा के भक्त का अन्तःकरण सदा ज्ञान-ज्योति से प्रकाशवान् रहता है। सृष्टि का निर्माण किस प्रकार हुआ? अब इस प्रश्न पर विचार किया जाता है। उस ज्योति पुरुष परमात्मा ने सबसे प्रथम जल की रचना की। उस जल का उंगलियों से मन्थन किया, जिससे फेन उत्पन्न हुआ, फेन से बबूले हुए, बबूलों से अण्ड, अण्ड से आत्मा, आत्मा से आकाश और आकाश से वायु उत्पन्न हुई। वायु के चलने से परमाणुओं में संघर्ष हुआ, जिसकी गर्मी से अग्नि पैदा हुई। अग्नि से ओंकार अर्थात् शब्द उत्पन्न हुआ। शब्द को आकाश भी कह सकते हैं। इस प्रकार ईश्वर की इच्छा से एक-एक करके पांचों तत्व बने। जिस प्रकार स्थल सृष्टि के पांच तत्त्व हुए, उसी प्रकार सूक्ष्म चैतन्य के भी पांच कोष बने। जल कहते हैं रस को। रस का गुण है स्वाद, अनुभूति। सबसे पहले प्राणी का वह भाग बढ़ा, जिससे वह रसास्वादन करता है, जिससे अनुभूति होती है, रस आता है। यदि विविध प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म प्रकार के स्वादों का अनुभव करने की शक्ति न होती, तो उसकी चैतन्यता का विकास होना असम्भव था। सबसे प्रथम प्राणी-जल-परिधान—इस आवरण का बनाया गया, इसे ही आनन्दमय कोष कहते हैं। इसका मन्थन किया गया। मन्थन से फेन उत्पन्न हुआ। फेन से बुद्बुदे पैदा हुए और बुद्बुदों से पार्थिव परमाणु बने अर्थात् इसकी अनुभूति से अपनी अभीष्ट वस्तु की खोज की, मन्थन हुआ, प्राप्त पदार्थ की इच्छा हुई, यह फेन कहलाया। इच्छा ने पदार्थों की कल्पना की, जिन्हें बुद्बुदा कहा गया। इस खोज और कल्पना के साथ जिस पार्थिव आवरण की रचना हुई, उसे चैतन्य सृष्टि में विज्ञानमय कोष कहा जाता है। आकाश से वायु हुई। वायु का अर्थ है—गति।
विज्ञानमय कोष की सूक्ष्मता को अधिक स्थूल और सफल बनाने के लिये गति की आवश्यकता होती है, यह गतिमय है। परमाणु से वायु बनी। विज्ञानमय कोष से मनोमय कोष बना। वायु के संघर्ष से अग्नि उत्पन्न हुई, मन की घुड़दौड़ मची। सूक्ष्म को स्थूल में लाने के लिये, अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष में अनुभव करने के लिये ऐसी साधन सामग्रियों की, इन्द्रियों की आवश्यकता हुई, जिनके द्वारा प्रकृति के स्थूल परमाणुओं के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। इस आवश्यकता ने आविष्कार उत्पन्न कर दिया। एक उष्णता गुण वाला विकासोन्मुख क्रियाशील शरीर पैदा हुआ, जिसे सूक्ष्म शरीर या प्राणमय कोष कहते हैं। मन, बुद्धि, अहंकार के साथ-साथ दसों इन्द्रियां इस अग्नि गुण वाले प्राणमय कोष में विनिर्मित हुई। अग्नि से ओंकार ‘शब्द’ आकाश हुआ। यह ईश्वर का प्रत्यक्ष निवास स्थान ब्रह्माण्ड का बीज रूप पिण्ड कहलाया। इसे ही स्थूल शरीर कहते हैं। यह अन्नमय कोष ध्यानावस्थित अवस्था में प्रकृति के अन्तराल में प्रतिक्षण होने वाले ‘ॐ’ ध्वनि के शब्द गुंजन को सुनता है, ‘ॐ’ इस पर प्रकट होता है। इसलिये इस शरीर को अन्नमय कोष (ओंकार) भी कहा है। पंच-तत्त्व पंच-कोष बन जाने पर उसकी मर्यादा नियत की गयी। यह पंच-तत्त्व कहां तक काम करेंगे, यह पंच-कोष वाला शरीर, कितने क्षेत्र में अपनी गति-विधि जारी रखेगा, इस सीमा का निर्धारण भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक है। शरीर भूः लोक है, मस्तिष्क भुवः लोक है, अन्तःकरण स्वः लोक है। आकाश, पाताल और पृथ्वी यह तीन स्थूल लोक कहे जाते हैं। साथ ही चैतन्य प्राणी के लिये तीन व्याहृतियां उन अपनत्व में भी निवास करती हैं। शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण व्याहृतिमय हैं। व्याहृति से गायत्री उत्पन्न हुई। तीन लोकों में काम करने वाली त्रिविध शक्तियां उत्पन्न हुईं। गायत्री कारण शक्ति, सावित्री सूक्ष्म शक्ति, सरस्वती स्थूल शक्ति। यह एक ही ईश्वरीय शक्ति जब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होती है, तब भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है। ज्ञान की स्थूल शक्ति का नाम वेद है। यह वेद-शक्ति ब्रह्मा के रूप में अवतीर्ण हुई। ब्रह्मा ने उस शक्ति को व्यवस्थित रूप देकर सर्वसाधारण के लिए उपयोगी, सुसम्पादित बनाकर चार भागों में विभक्त कर दिया। उस ब्रह्मा ने वेदों के साथ लोक भी बनाये अर्थात् लोकों को वेद ज्ञान से सुसज्जित कर दिया। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुष्टय को भी ज्ञानमय बताया है। वेद के तथ्य का विस्तार उपनिषदों और इतिहास में भी है। यह सब भी गायत्रीमय है। प्रत्येक जाति में, श्रेणी में जो विशेषता होती है, वह प्रशंसनीय होती है। उसी का वैभव होता है, उसी की महत्ता से उस वर्ग का गौरव होता है। देवताओं में अग्नि, मनुष्यों में ब्राह्मण, पर्वतों में सुमेरु, नदियों में गंगा, ऋतुओं में वसन्त, प्रजातियों में ब्रह्मा श्रेष्ठ हैं, विशेष हैं, असाधारण हैं, महत्त्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण छन्दों में, सम्पूर्ण ज्ञानों में, सम्पूर्ण शक्तियों में गायत्री श्रेष्ठ है—विशेष है।
किं भूः ? किं भुवः ? किं स्वः ? किं महः ? किं जनः ? किं तपः ? किं सत्यं ? किं तत् ? किं सवितुः ? किं वरेण्यं ? किं भर्गः ? किं देवस्य ? किं धीमहि ? किं धियः ? किं यः ? किं नः ? किं प्रचोदयात् ? ।।3।।
भूरिति भूर्लोको, भुव इत्यन्तरिक्षलोकः, स्वरिति स्वर्लोको, महरिति महर्लोको, जन इति जनो लोकः, तप इति तपो लोकः, सत्यमिति सत्यलोकः, भूर्भुवः स्वरिति त्रैलोक्यम् तदिति तेजो यत्तेजसोऽग्निर्देवता सवितुरित्यादित्यस्य वरेण्यमित्यन्नम् अन्नमेव प्रजापतिः । भर्ग इत्यापः, आयो वै भर्गः । यदापस्तत् सर्वा देवताः । देवस्य सवितुर्देवो वा यः पुरुषः स विष्णुः । धीमहीत्यैश्वर्यं, यदैश्वर्यं स प्राण इत्यध्यात्मं, तदध्यात्मम् । तत् परमं पदं, तन्महेश्वरः, धिय इति महीति । पृथिवी मही । यो नः प्रचोदयादिति कामः । काम इमान् लोकान् प्रच्यावयते । यो नृशंसः । योऽनृशंसोऽस्या से परो धर्म इत्येषा वै गायत्री ।।4।। गायत्री का प्रत्येक शब्द क्या है? इसे भलीभांति समझने की आवश्यकता है। एक सपाटे में सबका विहंगावलोकन कर जाने से काम न चलेगा वरन् एक-एक शब्द पर गंभीर दृष्टि डालकर उसके गर्भ में छिपे हुए अर्थ, रहस्य और सन्देश पर विचार करना होगा। यह बताने के लिये उपर्युक्त पंक्तियों में हर शब्द के लिये अलग-अलग प्रश्न करके यह प्रयत्न किया गया है कि हर पद के सम्बन्ध में अलग-अलग विचार किया जाये। गायत्री की सात व्याहृतियों को और उसके अन्य शब्दों को स्पष्ट किया गया है। उनका क्या तात्पर्य है? यह इस प्रकार समझना चाहिये। भूः—पृथ्वी लोक। भुवः—आकाश लोक। स्वः—स्वर्ग लोक। महः—महलोक। जनः—जन लोक। तपः—तप लोक । सत्यं —सत्य लोक । तत्—अर्थात् तेज, तेज का तात्पर्य है अग्नि। सविता—अर्थात् सूर्य। वरेण्यं—अर्थात् अन्न, अन्न का तात्पर्य है—प्रजापालिनी शक्ति। भर्ग अर्थात् आपः, आपः का तात्पर्य है देव—शक्तियों का समूह। देवस्य—अर्थात् सविता देव, सविता देव पुरुष। इसका तात्पर्य है—विष्णु। धीमहि—अर्थात् ऐश्वर्य का ध्यान करते हैं। ऐश्वर्य का अर्थ है, प्राण, अध्यात्म, परम पद, महेश्वर। योनः प्रचोदयात्—अर्थात् काम, काम वह जिसके कारण लोक का संचालन होता है।असत् अर्थात् बुरे कर्मों का संहार करने वाली कामना। नृशंस अर्थात् गर्हित है। जो कामनायें सत्कर्मों की प्रेरणा करती हैं, वह अनृशंस अर्थात् ग्राह्य हैं। इस प्रणाली का परिचालन करना गायत्री का विशेष धर्म है, यह गायत्री का स्वरूप है। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्—’यह सात लोक हैं। सातों लोकों को बार-बार स्मरण करना इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य अपनी समस्याओं, कठिनाइयों, स्वार्थों और लाभों की ओर देखते रहने की संकुचितता से ऊंचा उठकर विश्व ब्रह्माण्ड की ओर देखे, उसकी समस्याओं को अपनी समस्या समझते हुए विश्व-मानव का एक घटक अपने को समझते हुए सोचे और उसी दृष्टि से काम करे। तत्, सविता, वरेण्यं, भर्ग, देव—इन पांच शब्दों द्वारा तेज, उष्णता, अन्न, दिव्यता और परमात्मा—इन पांच महान् आवश्यकताओं की ओर ध्यान केन्द्रित किया गया है। यह पांचों पदार्थ जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं, इन्हें अधिकाधिक मात्रा में संचित करना आवश्यक है। तेजस्विता, प्रतिभा, शालीनता, पुरुषार्थ, पराक्रम—यह तत् शब्द के अंतर्गत हैं। उष्णता, स्फूर्ति, पाचन-शक्ति, नीरोगता, सुदृढ़ता—यह सब सविता से सम्बन्धित हैं। अन्न, वस्त्र, दुधारू पशु, गृहिणी, सन्तति एवं अन्य समस्त जीवनोपयोगी वस्तुयें वरेण्यं शब्द के अंतर्गत हैं। दिव्यता अनेक सद्गुण, योग्यतायें, शक्तियां, सामर्थ्य भर्ग शब्द से सम्बन्धित हैं। गायत्री को पहचानने वाला इन पांचों की आवश्यकता का अनुभव करता है और अपने पुरुषार्थ एवं दैवी सहायता से उन्हें प्राप्त करता है। ‘धीमहि’ कहते हैं—ध्यान को। किसका ध्यान? उस मंगलमय परमात्मा का ध्यान जिसको हृदय में धारण कर लेने से उसके नियमों पर चलने से सब प्रकार की सुख-शान्ति मिलती है। ऐश्वर्य, प्राण-शक्ति, आत्म-दर्शन तथा परम पद की प्राप्ति होती है। ईश्वर की यह धारणा ऐसी निश्चित होनी चाहिये जैसे कि पृथ्वी की धारणा होती है। ‘योनः प्रचोदयात्’ में कामनाओं की ओर संकेत किया गया है। मनुष्य कामनाओं से बना हुआ है, बिना कामना के वह रह नहीं सकता। काम उसका स्वभाव है, क्योंकि कामना के कारण-इच्छा के कारण यह संसार चल रहा है, पर हमारी कामना नृशंस नहीं होनी चाहिये। स्वार्थ, लोलुपता, निर्दयता, भोग आदि की नृशंसता से बचते हुए ऐसे काम का सेवन करें, ऐसी कामनायें करें जो धर्ममूलक हों, सबके लिये श्रेयस्कर हों, यही गायत्री का स्वरूप है। इस लक्षण को स्थित करना, इस मार्ग पर चलना यही गायत्री की असाधारण उपासना है।
किं गोत्रा ? कत्यक्षरा ? कति पादा ? कति कुक्षिः ? कति शीर्षा ? 5।।
सांख्यायनगोत्रा, चतुर्विंशत्यक्षरा वै गायत्री, त्रिपदा, षट्कुक्षिः, पञ्च शीर्षा ।।6।।
केऽस्यास्त्रयः पादा भवन्ति ? का अस्या षट् कुक्षयः ? कानि च पञ्च शीर्षाणि ।।7।।
ऋग्वेदोऽस्याः प्रथमः पादो भवति, यजुर्वेदो द्वितीयः, सामवेदस्तृतीयः । पूर्वा दिक् प्रथमा कुक्षिर्भवति । दक्षिणा द्वितीया, पश्चिमा तृतीया, उत्तरा चतुर्थी, ऊर्ध्वा पञ्चमी, अधोऽस्याः षष्ठी । व्याकरणमस्याः प्रथमं शीर्ष भवति, शिक्षा द्वितीयं, कल्पस्तृतीयं, निरुक्तं चतुर्थं ज्योतिषामयनमिति पञ्चमम् ।।8।।
किं लक्षणम् ? किं विचेष्टितं ? किमुदाहतम् ? ।।9।।
लक्षणं मीमांसा, अथर्ववेदो विचेष्टितं, छन्दो विचितिरुदाहृतम् ।।10।।
को वर्णः ? कः स्वरः ? श्वेतो वर्णः षट् स्वराः ।।11।।
अब प्रश्न यह उठता है कि गायत्री का गोत्र क्या होता है? कितने अक्षर हैं? कितने पाद हैं? कितने कुक्षि हैं? कितने शीर्ष हैं? इनका उत्तर यह है कि गायत्री का सांख्यायन गोत्र है। आत्म-कल्याण के दो मार्ग हैं—एक योग, दूसरा सांख्य। गीता में इन दोनों को एक बताया है—‘‘सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः’’। योग कहते हैं अनासक्ति को, संसार के पदार्थों को त्याग कर—उनसे विमुख होकर आत्मा को प्राप्त करना यह योग मार्ग है। दूसरा मार्ग है, संसार के पदार्थों को उत्साहपूर्वक एकत्रित करना और उदारतापूर्वक उनका सन्मार्ग में व्यय करना। यह दूसरा मार्ग ही सांख्य मार्ग है। गायत्री को सांख्यायन अर्थात् सांख्य का घर कहा है। वह सांख्य, प्रधानता के साथ जीवन व्यतीत करने का संकेत करती है। यही गायत्री को गोत्र है। गायत्री में चौबीस अक्षर हैं, तीन पाद हैं, छः कुक्षि हैं, पांच शीर्ष हैं। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि यह तीन पाद क्या हैं? छः कुक्षियां क्या हैं? पांच शीर्ष क्या हैं? बताते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद—यह तीन वेद उसके पाद हैं। इनके ऊपर गायत्री खड़ी होती है। ये वेद उसकी आधारशिला हैं, चौथा अथर्ववेद तो इस वेदत्रयी की व्याख्या मात्र है। छः कुक्षियां छः दिशायें हैं, पूर्व पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः—इन छहों दिशाओं में अर्थात् सर्वत्र गायत्री-शक्ति व्याप्त है। वेद के षट् अंगों को शीर्ष कहा गया है। गायत्री का शरीर छन्द है, शेष पांच वेदांग उसके शीर्ष हैं। गायत्री छन्द के अन्य पांच वेदांग—व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष सिर हैं—मस्तिष्क हैं। इन वेदांगों के अन्तर्गत जो महान् भावनायें सन्निहित हैं, उन्हें ही गायत्री का सिर अर्थात् मस्तिष्क समझना चाहिये। गायत्री शक्ति में वही भावना विद्यमान है, जो वेदांगों में है। अब जानना है कि गायत्री का लक्षण क्या है? चेष्टा क्या है? उदाहरण क्या है? बताते हैं कि मीमांसा लक्षण है, अथर्ववेद चेष्टा है और छन्द प्रतीक हैं। मीमांसा का अर्थ है—विचार। गायत्री का लक्षण विचार है, इस महाशक्ति का आविर्भाव हुआ है या नहीं, यह परीक्षा किसी मनुष्य के विचारों को देखकर की जा सकती है। जिसके अन्तःकरण में गायत्री अवतीर्ण होगी, उसके विचारों में परिवर्तन दिखाई पड़ेगा। उसके विचार, विवेचना, निर्णय ऐसे होंगे, जो एक आत्म-शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के गौरव के अनुकूल हों। वह गायत्री का लक्षण है, लक्षण को देखकर ही किसी वस्तु का अस्तित्व पहचाना जाता है। गायत्री की उपस्थिति का लक्षण साधक की उच्च विचारधारा को ही समझना चाहिये। गायत्री की चेष्टा अथर्ववेद बताता है। अथर्ववेद में व्यावहारिक ज्ञान है। शिल्प-कला, रसायन, विज्ञान, चिकित्सा, काम-शास्त्र आदि व्यावहारिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली विद्याओं का वेद में वर्णन है। जहां गायत्री की स्थिति होगी, वहां अथर्व से सम्बन्ध रखने वाली चेष्टायें देखी जायेंगी। उद्योग, प्रयोग, उत्पादन, निर्माण, कला-कौशल, व्यवस्था, परिवर्तन, ग्रहण, विसर्जन आदि चेष्टायें प्रयत्न रूप में परिलक्षित होंगी। अभीष्ट की प्राप्ति के लिये जहां प्रचण्ड प्रयत्न हो रहा हो, समझना चाहिये कि गायत्री-शक्ति की चेष्टा है। गायत्री का उदाहरण है—छन्द। छन्द का अर्थ है—पदार्थ। लक्षण और चेष्टाओं के द्वारा विचार और कर्मों द्वारा निःसंदेह अभीष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं। उदाहरण कहते हैं—नमूने को। गायत्री की स्थिति कैसी होती है? इसका उदाहरण उत्तमोत्तम पदार्थों और परिस्थितियों को दिखाकर बताया गया है कि जहां जाने या अनजाने में गायत्री की कृपा होगी, वहां का बाह्य वातावरण श्रेष्ठता से परिपूर्ण होगा। अब मालूम करना है कि गायत्री का वर्ण क्या है? स्वर क्या है? वर्ण श्वेत है। श्वेत-सतोगुण का, शुभ्रता का, उज्ज्वलता का, पवित्रता का प्रतीक है। स्वर छः हैं—ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित। प्रत्येक स्वर का अपना-अपना विज्ञान एवं अपना महत्व है। शब्द की शक्ति अनन्त है, शब्दों द्वारा कम्पन होते हैं, उनके कारण सृष्टि में विविध प्रकार के वातावरण बनते हैं। यह छः स्वर ही ध्यान के छः भेद हैं, इन्हीं के द्वारा पंच-तत्त्वों और सूक्ष्म 24 तत्त्वों में गति संचार होता है। इसे गायत्री महाविज्ञान के तृतीय खण्ड में सविस्तार लिखा जायेगा। यहां तो इतना ही जान लेना चाहिये कि संसार की सम्पूर्ण गतिविधियों को प्रेरणा देने वाले सभी स्वर गायत्री में मौजूद हैं। जो इनका रहस्य जानता है, वह चाहे जिस राग की स्वर-लहरी बजा सकता है और मनचाहे परिणाम उपस्थित कर सकता है। पूर्वा भवति गायत्री, मध्यमा सावित्री, पश्चिमा सन्ध्या सरस्वती । रक्ता गायत्री, श्वेता सावित्री, कृष्णा सरस्वती ।12।।
प्रणवे नित्ययुक्ता स्याद् व्याहृतिषु च सप्तसु । सर्वेषामेव पापानां संकरे समुपस्थिते । शतसाहस्रमभ्यस्ता गायत्री पावनं महत् ।।13।।
उषः काले रक्ता, मध्याह्ने शेताऽपराह्ने कृष्णा । पूर्व सन्धि ब्राह्मी, मध्य सन्धि माहेश्वरी, परा सन्धि वैष्णवी । हंसवाहिनी ब्राह्मी, वृषवाहिनी माहेश्वरी, गरुडवाहिनी वैष्णवी ।।14।।
पूर्वाह्नकाले सन्ध्या गायत्री, कुमारी रक्तांगी रक्तवासास्त्रिनेत्रा पाशांकुशाक्षमाला कमंडलुकरा हंसारूढा ऋग्वेदसहिता, ब्रह्मदैवत्या भूर्लोक व्यवस्थितादित्यपथगामिनी ।।15।।
मध्याह्नकाले सन्ध्या सावित्री युवती श्वेतांगी श्वेतवासास्त्रिनेत्रा पाशांकुशत्रिशूलडमरुहस्ता वृषभारूढा यजुर्वेदसहिता, रुद्रदेवत्या भुवर्लोक व्यवस्थितादित्यपथगामिनी ।।16।।
सायाह्नकाले सन्ध्या सरस्वती वृद्धा कृष्णांगी, कृष्णवासास्त्रिनेत्रा शंख-गदा-चक्र-पद्महस्ता-गरुडारूढा सामवेद-संहिता विष्णु-दैवत्या स्वर्लोक व्यवस्थितादित्यपथगामिनी ।।17।।
गायत्री को तीन नामों से पुकारा जाता है। आरम्भिक अवस्था में गायत्री, मध्य अवस्था में सावित्री और अन्त अवस्था में सरस्वती। प्रारम्भ, तरुणाई और परिपक्वता, इन तीन भेदों के कारण एक ही शक्ति के तीन नाम रखे गये हैं। गायत्री की आभा अरुण है, सावित्री की श्वेत और सरस्वती की कृष्ण वर्ण-धुंधली है। जैसे सूर्य श्वेत वर्ण है पर प्रातःकाल में उसकी आभा लाल, मध्याह्न की शुभ्र और सन्ध्या में धुंधली हो जाती है। उसी प्रकार साधना काल में साधक को अपनी स्थिति के अनुसार यह तीनों वर्ण ध्यानावस्था में परिलक्षित होते हैं। गायत्री सदा प्रणव युक्त है। उसका उच्चारण सदा ॐकार समेत होता है। यद्यपि साधारण साधना में और विवेचना में तीन ही व्याहृतियों का प्रयोग होता है, पर ब्रह्म विवेचना के लिए—उपनिषद् विज्ञान के लिये सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। यदि सब पापों का समूह इकट्ठा हो जाए, तो भी उनका नाश शत-सहस्र गायत्री का अभ्यास करने से हो जाता है। यों मोटे अर्थ में शत सहस्र, एक लाख को और अभ्यास, जप को कहते हैं; परन्तु इस सूत्र का सूक्ष्म रहस्य इस प्रकार है—शत कहते हैं—निश्चित भाव से, सहस्रार कहते हैं—सहस्रार में—ब्रह्मरन्ध्र में गायत्री की धारणा का अभ्यास करने से पाप दूर होते हैं। निश्चित विधि से षट् चक्रों का वेधन कर ब्रह्मरंध्र तक गायत्री को पहुंचाने की विधि ‘‘गायत्री महाविज्ञान’’ के प्रथम भाग में वर्णित है। उस साधना से साधक अग्नि में तपे हुए स्वर्ण की भांति निष्पाप हो जाता है। ‘‘शत सहस्र अभ्यास’’ पद में उसी साधना की ओर संकेत है। पूर्व सन्ध्या को—प्रातःकाल की सन्ध्या को ब्राह्मी कहते हैं। यह हंसवाहिनी, कुमारी, रक्त अंगवाली, रक्त वस्त्र वाली, तीन नेत्र वाली, पाश, अंकुश, जप माला और कमण्डलु धारण करने वाली, ऋग्वेद सहित, ब्रह्म दैवत्या, भूः लोक में रहने वाली और सूर्य पथ से गमन करने वाली है। आइए, उपर्युक्त आलंकारिक वर्णन के गूढ़ रहस्य पर विचार करें। प्रातःकाल का समय ब्रह्म-मुहूर्त का कहलाता है। उस समय ब्रह्म-तत्त्व की विशेषता रहने के कारण गायत्री को ब्राह्मी कहते हैं। हंस कहते हैं प्राण को। हंसारूढ़ अर्थात् प्राण पर छायी हुई। ब्राह्मी गायत्री प्राण पर अपना विशेष प्रभाव प्रकट करती है। कुमारी का अर्थ है—बाल्य-वृत्तियों से—चंचलता से युक्त। रक्त, गतिशीलता का—विकास विद्युत् का प्रतीक है। प्रातःकालीन गायत्री में गतिशीलता का—विकास विद्युत् के संचार का गुण है, यही उसका रक्तांगी और रक्तवस्त्रा होना है। त्रिनयनी—तीन दृष्टियों वाली तीनों लोकों को दृष्टि में रखने वाली, शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण को देखने वाली है। तीनों ओर दृष्टि रखती है, इसलिये उसे त्रिनयनी कहते हैं। पाश—अर्थात् बन्धन, अंकुश—अर्थात् नियन्त्रण, अक्षमाला—शब्द मातृकाएं, कमण्डलु—अर्थात् धारणा, ऋग्वेद—अर्थात् ज्ञान, ब्रह्मदैवत्या—अर्थात् ब्रह्म की देव शक्ति। इन सब लक्षणों, गुणों और साधनों से सम्पन्न होने के कारण प्रातःकाल की गायत्री अपने साधक पर इन सब उपचारों का प्रयोग करती है। वह इन सब साधनों से ब्राह्मी गायत्री द्वारा तपाया जाता है और ब्रह्मभूत बनाया जाता है। ब्रह्म गायत्री भूर्लोक निवासिनी है। उसका इस भूर्लोक के प्राणियों द्वारा विशेष उपयोग होता है। भूः लोक शरीर को भी कहते हैं, ब्राह्मी शरीर को स्वस्थ रखती है। वह सूर्य गामिनी है। जिस प्रकार सूर्य की तेजस्वी किरणें मनुष्य को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं, वैसे ही गायत्री की शक्तियां भी काम करती हैं। सूर्य की किरणों और प्रातः गायत्री की शक्तियों की कार्य-विधि में बहुत कुछ समता है। अब मध्याह्न गायत्री के लक्षण देखिये। वह सावित्री नाम वाली युवती, श्वेतांगी, श्वेत वस्त्रा, त्रिनयना, पाश, अंकुश, त्रिशूल, डमरू लिये हुए है। वृषभ पर आरूढ़ है। यजुर्वेद सहित, रुद्र दैवत्या, भुवः लोक अवस्थित, सूर्य पथगामिनी है। इनमें से कुछ बातें तो ब्राह्मी के समान हैं—त्रिनयना, पाश, अंकुश, सूर्य पथगामिनी, इन चारों बातों की विवेचना पहले की जा चुकी है। अब शेष लक्षणों पर प्रकाश डालते हैं—युवती अर्थात् प्रौढ़, विकसित, परिपुष्ट, स्थिर, सुदृढ़। श्वेत वर्ण अर्थात् प्रकाशवती, विस्तृत फैली हुई आलोकमय। परिपुष्ट होकर अपनी पूर्णावस्था के तेज से झिलमिलाती हुई गायत्री को श्वेत वर्ण, श्वेतवस्त्रा कहा है। सविता सूर्य के समान तेजस्वी होने से उनका सावित्री नाम है। त्रिशूल कहते हैं तीन दुःखों को—अज्ञान, अभाव और अशक्ति इन तीनों को वह अपने हाथ में, अपनी मुट्ठी में लिये हुए है—अर्थात् यह तीनों शूल उसके नियंत्रण में हैं। डमरू—ध्वनि का—वाणी का प्रतीक है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। तरुण सावित्री धर्म पर आरूढ़ है। यजुर्वेद कर्मकाण्ड का प्रतीक है। वह कर्म की प्रेरणा करता है। रुद्र दैवत्या—अर्थात् भयंकर, उग्र, दिव्य शक्तियों वाली। भुवः लोक में निवास करने वाली, भुवः कहते हैं मानस लोक को। मस्तिष्क, विचार, तर्क, बुद्धि, सूझबूझ को परिमार्जित बनाने वाली है। अब सन्ध्याकाल की गायत्री के लक्षण देखिये। वह सावित्री के नाम वाली वृद्धा, कृष्णांगी, कृष्णवस्त्रा, तीन नेत्र वाली, शंख, चक्र, गदा, पद्म हाथ में लिये हुए गरुड़ पर आरूढ़-सामवेद सहित, विष्णु दैवत्या, स्वःलोकनिवासिनी, सूर्यपथगामिनी है। सूर्यपथगामिनी और त्रिनयनी का वर्णन पहले हो चुका है। इसलिये इन दो लक्षणों को छोड़कर अन्य लक्षणों पर विचार करेंगे। स + रस् + वती = सरस्वती। सरसता वाली, संगीत, कला, कवित्व तथा अन्य स्थूल सूक्ष्म रसों की निर्झरिणी होने के कारण परिपक्व—सन्ध्याकालीन गायत्री को सरस्वती कहा है। वृद्धा का अर्थ है—परिपक्व, पूर्ण विकसित, विकास की अंतिम मर्यादा तक पहुंची हुई है। कृष्ण वर्ण—धुंधलापन-मिश्रण का द्योतक है। ब्रह्म और प्रकृति के उभय रूपों का मिश्रण काला होता है। पारा श्वेत है, गन्धक पीली है, इसी प्रकार ब्रह्म शुभ है, प्रकृति पीत है, दोनों के मिश्रण से काला रंग बनता है। भगवान् राम और कृष्ण के काला होने का यही कारण था। सन्ध्याकालीन गायत्री में ब्रह्म और प्रकृति का सम्मिश्रण होने से वह कृष्ण वर्ण वाली, कृष्ण वस्त्र वाली कहलाती है। सरस्वती के हाथ में चार पदार्थ हैं। शंख अर्थात् वाणी, चक्र अर्थात् तेज, गदा—अर्थात् विनाश, पद्म अर्थात् वैभव। इन चारों शक्तियों पर सरस्वती का आधिपत्य है। गरुड़ कहते हैं—क्रिया को, गतिशीलता को। सरस्वती का क्षेत्र विचार तक ही सीमित नहीं है वरन् वह क्रियाशील भी है। सामवेद, संगीत का—बाह्य गायन का प्रतीक है। विष्णु की सेविका दिव्य शक्तियों को प्रतिनिधित्व करने के कारण वह विष्णु दैवत्या कहलाती है। स्वःलोक कहते हैं—हृदय को—अन्तःकरण को। सरस्वती वीणा के तारों को झंकृत करती है—अन्तःकरण में विवेक जाग्रत् करती है। ऊपर ब्राह्मी, सावित्री और सरस्वती का विवेचन किया गया है। अविकसित, विकसित और परिपुष्ट इन भेदों से तीन रूप कहे गये हैं। इनको प्रातः, मध्याह्न, सन्ध्या इन तीन कालों में भी विभक्त कर दिया गया है। इन तीन भेदों में से साधक को अपने लिये जिस शक्ति की उपयोगिता दृष्टिगोचर होती हो, उसे साधना के लिये चुन लेना चाहिये।
कान्यक्षर दैवतानि भवन्ति ? ।।18।।
प्रथममाग्नेयं, द्वितीयं प्राजापत्यं तृतीयं सौम्यं, चतुर्थमैशानं, पञ्चमादित्यं, षष्ठं बार्हस्पत्यं, सप्तमं भगदैवत्यम्, अष्टमं पितृदेवत्यं नवममर्यमणं, दशमं सावित्रं, एकादशं त्वाष्ट्रं, द्वादशं पौष्णं, त्रयोदशमैन्द्राग्नं, चतुर्दशं वायव्यं, पञ्चदशं वामदेव्यं, षोडशं मैत्रावरुण, सप्तदशं वाभ्रव्यं, अष्टादशं वैश्वदेव्यम्, एकोनविंशतिकं वैष्णव्यं, विंशतिकं वासवम्, एकविंशतिकं तौषितं, द्वाविंशतिक कौबेरं, त्रयोविंशतिकं आश्विनं, चतुर्विंशतिकं ब्राह्यं इत्यक्षरदैवतानि भवन्ति ।।19।।
गायत्री के चौबीस अक्षरों के देवता कौन-कौन हैं? इसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि ‘तत्’ का देवता अग्नि, ‘स’ का प्रजापति, ‘वि’ का सोम, ‘तुः’ का ईशान, ‘य’ का आदित्य, ‘रे’ का बृहस्पति, ‘णि’ का भग, ‘यम्’ का पितृ, ‘भ’ का अर्यमा, ‘गो’ का सविता, ‘दे’ का त्वष्टा, ‘व’ का पूषा, ‘स्य’ का इन्द्र और अग्नि, ‘धी’ का वायु, ‘म’ का वामदेव, ‘हि’ का मित्र और वरुण, ‘धि’ का वभु, ‘यो’ का विश्वदेव, ‘यो’ का विष्णु, ‘नः’ का वसु, ‘प्र’ का तुषित, ‘चो’ का कुबेर, ‘द’ का अश्विनी कुमार और ‘यात्’ का ब्रह्मा देवता है। ये देवता प्रत्येक अक्षर की शक्तियां हैं। इन शक्तियों का गायत्री के चौबीस अक्षर प्रतिनिधित्व करते हैं। इस महामन्त्र के साथ उन शक्तियों का साधना में आविर्भाव होता है।
द्यौ मूर्ध्निसंगतास्ते, ललाटे रुद्रः, भ्रुवोर्मेघः चक्षुषोश्चन्द्रादित्यौ, कर्णयोः शुक्रबृहस्पती नासिके वायुदैवत्ये दन्तौष्ठावुभयसन्ध्ये, मुखमग्निः, जिह्वा सरस्वती, ग्रीवासाध्यानुगृहीतिः, स्तनयोर्वसवः , बाह्वोर्मरुतः, हृदयं पर्जन्यमाकाशमुदरं, नाभिरंतरिक्षं कट्योरिन्द्राग्नी, जघनं प्राजापत्यं, कैलासमलयावूरु, विश्वेदेवा जानुनी, जह्नु-कुशिकौ जंघाद्वयं, खुराः पितराः, पादौ वनस्पतयः अंगुलयो रोमाणि, नखाश्च मुहूर्त्तास्तेऽपि ग्रहाः केतुर्मासा ऋतवः सन्ध्याकालस्तथाच्छादनं सम्वत्सरो निमिषमहोरात्र आदित्यश्चन्द्रमाः ।।20।।
गायत्री को यदि एक मनुष्याकृति देवी माना जाए, तो उसके अंग-प्रत्यंगों में विविध देव-शक्तियों की स्थापना माननी होगी। गायत्री का ध्यान जब मनुष्याकृति देवी रूप में करते हैं, तो उसके दिव्य होने की धारणा की जाती है। गायत्री के अंग-प्रत्यंगों में जो शक्तियां निवास करती हैं, उनका ध्यान भी साधक को करना होता है। जब साधक अपने को गायत्री-शक्ति से ओत-प्रोत अनुभव करे, तब भी उसे ऐसा ही ज्ञान होना चाहिये कि मैं स्वयं उन शक्तियों से ओत-प्रोत हो रहा हूं। मेरे अंग-प्रत्यंगों में वे ही देवतागण समाये हुए हैं, जो गायत्री के अंगों में हैं। इस भावना के कारण साधक अपने उपास्य देव की जाति में आ जाता है। कहा है कि—‘‘देव बनकर देवता की उपासना करनी चाहिये।’’ देव शक्तियां हमारे अंग-प्रत्यंगों में विराजमान हैं, यह भावना आत्म-श्रेष्ठता का संचार करती है और आत्म-स्थिति को देव-उपासना के योग्य बनाती है। अब गायत्री के अंगों में देव-शक्तियों की स्थापना का वर्णन देखिये। गायत्री के मस्तक में स्वर्ण, ललाट में रुद्र, भौंहों में मेघ, दोनों नेत्रों में चन्द्र-सूर्य, दोनों कानों में शुक्र और बृहस्पति, दोनों नथुनों में वायु, दन्त और ओष्ठों में दोनों सन्ध्याएं, मुख में अग्नि, जिह्वा में सरस्वती, ग्रीवा में साध्य-गण, स्तनों में वसु-गण, दोनों भुजाओं में मरुद्गण, हृदय में पर्जन्य, उदर में आकाश, कटि में इन्द्राग्नि, जघन में प्रजापति, उरु में कैलाश और मलय पर्वत, जंघा में जहनु और कुशिक, तलवों में पितृ-गण, चरण में वनस्पति-गण, अंगुलियों, रोम और नखों में मुहूर्त, ग्रह, धूमकेतु, मास, ऋतु और सन्ध्याएं, आच्छादन, सम्वत्सर, वर्ष, दिन-रात्रि, सूर्य और चन्द्र गायत्री के निमेष हैं।
सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम् । सहस्रनेत्रां गायत्रीं शरणमहं प्रपद्ये ।।21।।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्याय नमः । ॐ तत् पूर्व जयाय नमः । ॐ तत् प्रातरादित्य प्रतिष्ठाय नमः ।।22।।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । तत् सायं प्रातरधीयानो ऽपापो भवति ।।23।।
य इदं गायत्रीहृदयं ब्राह्मणः पठेत् अपेयपानात् पूतो भवति । अभक्ष्यभक्षणात् पूतो भवति । अज्ञानात् पूतो भवति । स्वर्ण स्तेयात् पूतो भवति । गुरु तल्यगमनात् पूतो भवति । अपंक्ति पावनात् पूतो भवति । ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति । अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवति । इत्यनेन हृदयेनाधीतेन क्रतु सहस्रेणेष्टो भवति । षष्टि शतसहस्राणि जप्यानि फलानि भवन्ति अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयेदर्थसिद्धिर्भवति ।।24।।
य इदं नित्यमधीयानो ब्राह्मण प्रयतः शुचिः सर्वपापैः प्रमुच्यते इति । ब्रह्मलोके महीयते इत्याह भगवान् याज्ञवल्क्यः ।।25।।
याज्ञवल्क्यजी ब्रह्माजी से पूछते हैं कि गायत्री की उत्पत्ति कैसे हुई यह सुनाइये? यह सुनने की इच्छा उन्हें इसलिये हुई कि उस उत्पत्ति विज्ञान को जान लेने से ब्रह्म-ज्ञान की भी उत्पत्ति होती है। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह हुआ कि गायत्री की उत्पत्ति का जो कारण है, वही कारण ब्रह्म-ज्ञान की उत्पत्ति का है। एक ही वस्तु के यह दो नाम हैं। इन दोनों में से एक को जान लेने से दूसरे की जानकारी स्वयमेव हो जाती है। श्री भगवानुवाच— प्रणवेन व्याहृतयः प्रवर्तन्ते तमसस्तु परं ज्योतिः । कः पुरुषः ? स्वयम्भूर्विष्णुरिति । अथ ताःस्वांगुल्या मथ्नाति । मथ्यमानात् फेनो भवति । फेनाद् बुदबुदो भवति । बुदबुदादण्डं भवति । अण्डात् आत्मा भवति । आत्मन आकाशो भवति । आकाशाद्वायुर्भवति । वायोरग्निर्भवति । अग्नेरोङ्कारो भवति । ओंकाराद् व्याहतिर्भवति । व्याहृत्या गायत्री भवति । गायत्र्याः सावित्री भवति । सावित्र्याः सरस्वती भवति । सरस्वत्या वेदाः भवन्ति । वेदेभ्यो ब्रह्मा भवति । ब्रह्मणो लोका भवन्ति । तस्माल्लोकाः प्रवर्तन्ते । चत्वारो वेदाः सांगा; सोपनिषदः सेतिहासास्ते सर्वे गायत्र्याः प्रवर्तन्ते । यथाग्निर्देवानां, ब्राह्मणो मनुष्याणां, मेरुः शिखरिणां, गंगा नदीनां, वसन्त ऋतुणां, ब्रह्मा प्रजापतीनां, एवमसौ मुख्यः । गायत्र्या गायत्रीछन्दो भवति ।।2।।
भगवान् बताते हैं कि ॐकार और भूर्भुवः स्वः के साथ उस परम ज्योति का सम्बन्ध है, जो प्रकृति के सत् और रजोगुण का स्पर्श तो करती है, परन्तु तमोगुण से सर्वथा दूर है। प्रथम सतोगुण है, उसकी उपासना करने वालों में सतोगुणी प्रवृत्तियां बढ़ती हैं, साथ ही रजोगुणी वैभव भी मिलते हैं। जिनके हृदय में आत्म-ज्ञान, संयम, आदर्श, धर्म, सुकर्म, सेवा, उदारता, प्रेम एवं आत्मीयता के सात्त्विक भाव प्रस्तुत होते हैं, उनके बाह्य जीवन में यज्ञ, ऐश्वर्य, सुख, वैभव, प्रतिष्ठा, स्वस्थता आदि राजस समृद्धियों का होना स्वाभाविक है। प्रणव और व्याहृतियों का जोड़ा ऐसा ही है, जैसा आत्म-ज्ञान और सुख-शान्ति का जोड़ा। जहां यह दो बातें हैं, वहां दुःख, दारिद्र्य, क्लेश, असन्तोष, दीनता, क्रूरता, पाप, पतन का तम नहीं ठहर सकता। जहां प्रकाश की परम ज्योति मौजूद है, वहां बेचारा तम-अन्धकार अपना किस प्रकार अस्तित्व रख सकेगा? जिस ज्योतिर्मय पुरुष का—अखण्ड-ज्योति का ऊपर वर्णन है, वह कौन है? वह अजन्मा परमात्मा है। परमात्मा प्रकाश स्वरूप है, जहां परमात्मा का निवास होगा वहीं अज्ञान का, पाप का अन्धकार रह नहीं सकता। परमात्मा के भक्त का अन्तःकरण सदा ज्ञान-ज्योति से प्रकाशवान् रहता है। सृष्टि का निर्माण किस प्रकार हुआ? अब इस प्रश्न पर विचार किया जाता है। उस ज्योति पुरुष परमात्मा ने सबसे प्रथम जल की रचना की। उस जल का उंगलियों से मन्थन किया, जिससे फेन उत्पन्न हुआ, फेन से बबूले हुए, बबूलों से अण्ड, अण्ड से आत्मा, आत्मा से आकाश और आकाश से वायु उत्पन्न हुई। वायु के चलने से परमाणुओं में संघर्ष हुआ, जिसकी गर्मी से अग्नि पैदा हुई। अग्नि से ओंकार अर्थात् शब्द उत्पन्न हुआ। शब्द को आकाश भी कह सकते हैं। इस प्रकार ईश्वर की इच्छा से एक-एक करके पांचों तत्व बने। जिस प्रकार स्थल सृष्टि के पांच तत्त्व हुए, उसी प्रकार सूक्ष्म चैतन्य के भी पांच कोष बने। जल कहते हैं रस को। रस का गुण है स्वाद, अनुभूति। सबसे पहले प्राणी का वह भाग बढ़ा, जिससे वह रसास्वादन करता है, जिससे अनुभूति होती है, रस आता है। यदि विविध प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म प्रकार के स्वादों का अनुभव करने की शक्ति न होती, तो उसकी चैतन्यता का विकास होना असम्भव था। सबसे प्रथम प्राणी-जल-परिधान—इस आवरण का बनाया गया, इसे ही आनन्दमय कोष कहते हैं। इसका मन्थन किया गया। मन्थन से फेन उत्पन्न हुआ। फेन से बुद्बुदे पैदा हुए और बुद्बुदों से पार्थिव परमाणु बने अर्थात् इसकी अनुभूति से अपनी अभीष्ट वस्तु की खोज की, मन्थन हुआ, प्राप्त पदार्थ की इच्छा हुई, यह फेन कहलाया। इच्छा ने पदार्थों की कल्पना की, जिन्हें बुद्बुदा कहा गया। इस खोज और कल्पना के साथ जिस पार्थिव आवरण की रचना हुई, उसे चैतन्य सृष्टि में विज्ञानमय कोष कहा जाता है। आकाश से वायु हुई। वायु का अर्थ है—गति।
विज्ञानमय कोष की सूक्ष्मता को अधिक स्थूल और सफल बनाने के लिये गति की आवश्यकता होती है, यह गतिमय है। परमाणु से वायु बनी। विज्ञानमय कोष से मनोमय कोष बना। वायु के संघर्ष से अग्नि उत्पन्न हुई, मन की घुड़दौड़ मची। सूक्ष्म को स्थूल में लाने के लिये, अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष में अनुभव करने के लिये ऐसी साधन सामग्रियों की, इन्द्रियों की आवश्यकता हुई, जिनके द्वारा प्रकृति के स्थूल परमाणुओं के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित किया जा सके। इस आवश्यकता ने आविष्कार उत्पन्न कर दिया। एक उष्णता गुण वाला विकासोन्मुख क्रियाशील शरीर पैदा हुआ, जिसे सूक्ष्म शरीर या प्राणमय कोष कहते हैं। मन, बुद्धि, अहंकार के साथ-साथ दसों इन्द्रियां इस अग्नि गुण वाले प्राणमय कोष में विनिर्मित हुई। अग्नि से ओंकार ‘शब्द’ आकाश हुआ। यह ईश्वर का प्रत्यक्ष निवास स्थान ब्रह्माण्ड का बीज रूप पिण्ड कहलाया। इसे ही स्थूल शरीर कहते हैं। यह अन्नमय कोष ध्यानावस्थित अवस्था में प्रकृति के अन्तराल में प्रतिक्षण होने वाले ‘ॐ’ ध्वनि के शब्द गुंजन को सुनता है, ‘ॐ’ इस पर प्रकट होता है। इसलिये इस शरीर को अन्नमय कोष (ओंकार) भी कहा है। पंच-तत्त्व पंच-कोष बन जाने पर उसकी मर्यादा नियत की गयी। यह पंच-तत्त्व कहां तक काम करेंगे, यह पंच-कोष वाला शरीर, कितने क्षेत्र में अपनी गति-विधि जारी रखेगा, इस सीमा का निर्धारण भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक है। शरीर भूः लोक है, मस्तिष्क भुवः लोक है, अन्तःकरण स्वः लोक है। आकाश, पाताल और पृथ्वी यह तीन स्थूल लोक कहे जाते हैं। साथ ही चैतन्य प्राणी के लिये तीन व्याहृतियां उन अपनत्व में भी निवास करती हैं। शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण व्याहृतिमय हैं। व्याहृति से गायत्री उत्पन्न हुई। तीन लोकों में काम करने वाली त्रिविध शक्तियां उत्पन्न हुईं। गायत्री कारण शक्ति, सावित्री सूक्ष्म शक्ति, सरस्वती स्थूल शक्ति। यह एक ही ईश्वरीय शक्ति जब भिन्न-भिन्न स्थितियों में होती है, तब भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी जाती है। ज्ञान की स्थूल शक्ति का नाम वेद है। यह वेद-शक्ति ब्रह्मा के रूप में अवतीर्ण हुई। ब्रह्मा ने उस शक्ति को व्यवस्थित रूप देकर सर्वसाधारण के लिए उपयोगी, सुसम्पादित बनाकर चार भागों में विभक्त कर दिया। उस ब्रह्मा ने वेदों के साथ लोक भी बनाये अर्थात् लोकों को वेद ज्ञान से सुसज्जित कर दिया। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुष्टय को भी ज्ञानमय बताया है। वेद के तथ्य का विस्तार उपनिषदों और इतिहास में भी है। यह सब भी गायत्रीमय है। प्रत्येक जाति में, श्रेणी में जो विशेषता होती है, वह प्रशंसनीय होती है। उसी का वैभव होता है, उसी की महत्ता से उस वर्ग का गौरव होता है। देवताओं में अग्नि, मनुष्यों में ब्राह्मण, पर्वतों में सुमेरु, नदियों में गंगा, ऋतुओं में वसन्त, प्रजातियों में ब्रह्मा श्रेष्ठ हैं, विशेष हैं, असाधारण हैं, महत्त्वपूर्ण हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण छन्दों में, सम्पूर्ण ज्ञानों में, सम्पूर्ण शक्तियों में गायत्री श्रेष्ठ है—विशेष है।
किं भूः ? किं भुवः ? किं स्वः ? किं महः ? किं जनः ? किं तपः ? किं सत्यं ? किं तत् ? किं सवितुः ? किं वरेण्यं ? किं भर्गः ? किं देवस्य ? किं धीमहि ? किं धियः ? किं यः ? किं नः ? किं प्रचोदयात् ? ।।3।।
भूरिति भूर्लोको, भुव इत्यन्तरिक्षलोकः, स्वरिति स्वर्लोको, महरिति महर्लोको, जन इति जनो लोकः, तप इति तपो लोकः, सत्यमिति सत्यलोकः, भूर्भुवः स्वरिति त्रैलोक्यम् तदिति तेजो यत्तेजसोऽग्निर्देवता सवितुरित्यादित्यस्य वरेण्यमित्यन्नम् अन्नमेव प्रजापतिः । भर्ग इत्यापः, आयो वै भर्गः । यदापस्तत् सर्वा देवताः । देवस्य सवितुर्देवो वा यः पुरुषः स विष्णुः । धीमहीत्यैश्वर्यं, यदैश्वर्यं स प्राण इत्यध्यात्मं, तदध्यात्मम् । तत् परमं पदं, तन्महेश्वरः, धिय इति महीति । पृथिवी मही । यो नः प्रचोदयादिति कामः । काम इमान् लोकान् प्रच्यावयते । यो नृशंसः । योऽनृशंसोऽस्या से परो धर्म इत्येषा वै गायत्री ।।4।। गायत्री का प्रत्येक शब्द क्या है? इसे भलीभांति समझने की आवश्यकता है। एक सपाटे में सबका विहंगावलोकन कर जाने से काम न चलेगा वरन् एक-एक शब्द पर गंभीर दृष्टि डालकर उसके गर्भ में छिपे हुए अर्थ, रहस्य और सन्देश पर विचार करना होगा। यह बताने के लिये उपर्युक्त पंक्तियों में हर शब्द के लिये अलग-अलग प्रश्न करके यह प्रयत्न किया गया है कि हर पद के सम्बन्ध में अलग-अलग विचार किया जाये। गायत्री की सात व्याहृतियों को और उसके अन्य शब्दों को स्पष्ट किया गया है। उनका क्या तात्पर्य है? यह इस प्रकार समझना चाहिये। भूः—पृथ्वी लोक। भुवः—आकाश लोक। स्वः—स्वर्ग लोक। महः—महलोक। जनः—जन लोक। तपः—तप लोक । सत्यं —सत्य लोक । तत्—अर्थात् तेज, तेज का तात्पर्य है अग्नि। सविता—अर्थात् सूर्य। वरेण्यं—अर्थात् अन्न, अन्न का तात्पर्य है—प्रजापालिनी शक्ति। भर्ग अर्थात् आपः, आपः का तात्पर्य है देव—शक्तियों का समूह। देवस्य—अर्थात् सविता देव, सविता देव पुरुष। इसका तात्पर्य है—विष्णु। धीमहि—अर्थात् ऐश्वर्य का ध्यान करते हैं। ऐश्वर्य का अर्थ है, प्राण, अध्यात्म, परम पद, महेश्वर। योनः प्रचोदयात्—अर्थात् काम, काम वह जिसके कारण लोक का संचालन होता है।असत् अर्थात् बुरे कर्मों का संहार करने वाली कामना। नृशंस अर्थात् गर्हित है। जो कामनायें सत्कर्मों की प्रेरणा करती हैं, वह अनृशंस अर्थात् ग्राह्य हैं। इस प्रणाली का परिचालन करना गायत्री का विशेष धर्म है, यह गायत्री का स्वरूप है। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्—’यह सात लोक हैं। सातों लोकों को बार-बार स्मरण करना इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य अपनी समस्याओं, कठिनाइयों, स्वार्थों और लाभों की ओर देखते रहने की संकुचितता से ऊंचा उठकर विश्व ब्रह्माण्ड की ओर देखे, उसकी समस्याओं को अपनी समस्या समझते हुए विश्व-मानव का एक घटक अपने को समझते हुए सोचे और उसी दृष्टि से काम करे। तत्, सविता, वरेण्यं, भर्ग, देव—इन पांच शब्दों द्वारा तेज, उष्णता, अन्न, दिव्यता और परमात्मा—इन पांच महान् आवश्यकताओं की ओर ध्यान केन्द्रित किया गया है। यह पांचों पदार्थ जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं, इन्हें अधिकाधिक मात्रा में संचित करना आवश्यक है। तेजस्विता, प्रतिभा, शालीनता, पुरुषार्थ, पराक्रम—यह तत् शब्द के अंतर्गत हैं। उष्णता, स्फूर्ति, पाचन-शक्ति, नीरोगता, सुदृढ़ता—यह सब सविता से सम्बन्धित हैं। अन्न, वस्त्र, दुधारू पशु, गृहिणी, सन्तति एवं अन्य समस्त जीवनोपयोगी वस्तुयें वरेण्यं शब्द के अंतर्गत हैं। दिव्यता अनेक सद्गुण, योग्यतायें, शक्तियां, सामर्थ्य भर्ग शब्द से सम्बन्धित हैं। गायत्री को पहचानने वाला इन पांचों की आवश्यकता का अनुभव करता है और अपने पुरुषार्थ एवं दैवी सहायता से उन्हें प्राप्त करता है। ‘धीमहि’ कहते हैं—ध्यान को। किसका ध्यान? उस मंगलमय परमात्मा का ध्यान जिसको हृदय में धारण कर लेने से उसके नियमों पर चलने से सब प्रकार की सुख-शान्ति मिलती है। ऐश्वर्य, प्राण-शक्ति, आत्म-दर्शन तथा परम पद की प्राप्ति होती है। ईश्वर की यह धारणा ऐसी निश्चित होनी चाहिये जैसे कि पृथ्वी की धारणा होती है। ‘योनः प्रचोदयात्’ में कामनाओं की ओर संकेत किया गया है। मनुष्य कामनाओं से बना हुआ है, बिना कामना के वह रह नहीं सकता। काम उसका स्वभाव है, क्योंकि कामना के कारण-इच्छा के कारण यह संसार चल रहा है, पर हमारी कामना नृशंस नहीं होनी चाहिये। स्वार्थ, लोलुपता, निर्दयता, भोग आदि की नृशंसता से बचते हुए ऐसे काम का सेवन करें, ऐसी कामनायें करें जो धर्ममूलक हों, सबके लिये श्रेयस्कर हों, यही गायत्री का स्वरूप है। इस लक्षण को स्थित करना, इस मार्ग पर चलना यही गायत्री की असाधारण उपासना है।
किं गोत्रा ? कत्यक्षरा ? कति पादा ? कति कुक्षिः ? कति शीर्षा ? 5।।
सांख्यायनगोत्रा, चतुर्विंशत्यक्षरा वै गायत्री, त्रिपदा, षट्कुक्षिः, पञ्च शीर्षा ।।6।।
केऽस्यास्त्रयः पादा भवन्ति ? का अस्या षट् कुक्षयः ? कानि च पञ्च शीर्षाणि ।।7।।
ऋग्वेदोऽस्याः प्रथमः पादो भवति, यजुर्वेदो द्वितीयः, सामवेदस्तृतीयः । पूर्वा दिक् प्रथमा कुक्षिर्भवति । दक्षिणा द्वितीया, पश्चिमा तृतीया, उत्तरा चतुर्थी, ऊर्ध्वा पञ्चमी, अधोऽस्याः षष्ठी । व्याकरणमस्याः प्रथमं शीर्ष भवति, शिक्षा द्वितीयं, कल्पस्तृतीयं, निरुक्तं चतुर्थं ज्योतिषामयनमिति पञ्चमम् ।।8।।
किं लक्षणम् ? किं विचेष्टितं ? किमुदाहतम् ? ।।9।।
लक्षणं मीमांसा, अथर्ववेदो विचेष्टितं, छन्दो विचितिरुदाहृतम् ।।10।।
को वर्णः ? कः स्वरः ? श्वेतो वर्णः षट् स्वराः ।।11।।
अब प्रश्न यह उठता है कि गायत्री का गोत्र क्या होता है? कितने अक्षर हैं? कितने पाद हैं? कितने कुक्षि हैं? कितने शीर्ष हैं? इनका उत्तर यह है कि गायत्री का सांख्यायन गोत्र है। आत्म-कल्याण के दो मार्ग हैं—एक योग, दूसरा सांख्य। गीता में इन दोनों को एक बताया है—‘‘सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः’’। योग कहते हैं अनासक्ति को, संसार के पदार्थों को त्याग कर—उनसे विमुख होकर आत्मा को प्राप्त करना यह योग मार्ग है। दूसरा मार्ग है, संसार के पदार्थों को उत्साहपूर्वक एकत्रित करना और उदारतापूर्वक उनका सन्मार्ग में व्यय करना। यह दूसरा मार्ग ही सांख्य मार्ग है। गायत्री को सांख्यायन अर्थात् सांख्य का घर कहा है। वह सांख्य, प्रधानता के साथ जीवन व्यतीत करने का संकेत करती है। यही गायत्री को गोत्र है। गायत्री में चौबीस अक्षर हैं, तीन पाद हैं, छः कुक्षि हैं, पांच शीर्ष हैं। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि यह तीन पाद क्या हैं? छः कुक्षियां क्या हैं? पांच शीर्ष क्या हैं? बताते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद—यह तीन वेद उसके पाद हैं। इनके ऊपर गायत्री खड़ी होती है। ये वेद उसकी आधारशिला हैं, चौथा अथर्ववेद तो इस वेदत्रयी की व्याख्या मात्र है। छः कुक्षियां छः दिशायें हैं, पूर्व पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः—इन छहों दिशाओं में अर्थात् सर्वत्र गायत्री-शक्ति व्याप्त है। वेद के षट् अंगों को शीर्ष कहा गया है। गायत्री का शरीर छन्द है, शेष पांच वेदांग उसके शीर्ष हैं। गायत्री छन्द के अन्य पांच वेदांग—व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष सिर हैं—मस्तिष्क हैं। इन वेदांगों के अन्तर्गत जो महान् भावनायें सन्निहित हैं, उन्हें ही गायत्री का सिर अर्थात् मस्तिष्क समझना चाहिये। गायत्री शक्ति में वही भावना विद्यमान है, जो वेदांगों में है। अब जानना है कि गायत्री का लक्षण क्या है? चेष्टा क्या है? उदाहरण क्या है? बताते हैं कि मीमांसा लक्षण है, अथर्ववेद चेष्टा है और छन्द प्रतीक हैं। मीमांसा का अर्थ है—विचार। गायत्री का लक्षण विचार है, इस महाशक्ति का आविर्भाव हुआ है या नहीं, यह परीक्षा किसी मनुष्य के विचारों को देखकर की जा सकती है। जिसके अन्तःकरण में गायत्री अवतीर्ण होगी, उसके विचारों में परिवर्तन दिखाई पड़ेगा। उसके विचार, विवेचना, निर्णय ऐसे होंगे, जो एक आत्म-शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के गौरव के अनुकूल हों। वह गायत्री का लक्षण है, लक्षण को देखकर ही किसी वस्तु का अस्तित्व पहचाना जाता है। गायत्री की उपस्थिति का लक्षण साधक की उच्च विचारधारा को ही समझना चाहिये। गायत्री की चेष्टा अथर्ववेद बताता है। अथर्ववेद में व्यावहारिक ज्ञान है। शिल्प-कला, रसायन, विज्ञान, चिकित्सा, काम-शास्त्र आदि व्यावहारिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली विद्याओं का वेद में वर्णन है। जहां गायत्री की स्थिति होगी, वहां अथर्व से सम्बन्ध रखने वाली चेष्टायें देखी जायेंगी। उद्योग, प्रयोग, उत्पादन, निर्माण, कला-कौशल, व्यवस्था, परिवर्तन, ग्रहण, विसर्जन आदि चेष्टायें प्रयत्न रूप में परिलक्षित होंगी। अभीष्ट की प्राप्ति के लिये जहां प्रचण्ड प्रयत्न हो रहा हो, समझना चाहिये कि गायत्री-शक्ति की चेष्टा है। गायत्री का उदाहरण है—छन्द। छन्द का अर्थ है—पदार्थ। लक्षण और चेष्टाओं के द्वारा विचार और कर्मों द्वारा निःसंदेह अभीष्ट पदार्थ प्राप्त होते हैं। उदाहरण कहते हैं—नमूने को। गायत्री की स्थिति कैसी होती है? इसका उदाहरण उत्तमोत्तम पदार्थों और परिस्थितियों को दिखाकर बताया गया है कि जहां जाने या अनजाने में गायत्री की कृपा होगी, वहां का बाह्य वातावरण श्रेष्ठता से परिपूर्ण होगा। अब मालूम करना है कि गायत्री का वर्ण क्या है? स्वर क्या है? वर्ण श्वेत है। श्वेत-सतोगुण का, शुभ्रता का, उज्ज्वलता का, पवित्रता का प्रतीक है। स्वर छः हैं—ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित। प्रत्येक स्वर का अपना-अपना विज्ञान एवं अपना महत्व है। शब्द की शक्ति अनन्त है, शब्दों द्वारा कम्पन होते हैं, उनके कारण सृष्टि में विविध प्रकार के वातावरण बनते हैं। यह छः स्वर ही ध्यान के छः भेद हैं, इन्हीं के द्वारा पंच-तत्त्वों और सूक्ष्म 24 तत्त्वों में गति संचार होता है। इसे गायत्री महाविज्ञान के तृतीय खण्ड में सविस्तार लिखा जायेगा। यहां तो इतना ही जान लेना चाहिये कि संसार की सम्पूर्ण गतिविधियों को प्रेरणा देने वाले सभी स्वर गायत्री में मौजूद हैं। जो इनका रहस्य जानता है, वह चाहे जिस राग की स्वर-लहरी बजा सकता है और मनचाहे परिणाम उपस्थित कर सकता है। पूर्वा भवति गायत्री, मध्यमा सावित्री, पश्चिमा सन्ध्या सरस्वती । रक्ता गायत्री, श्वेता सावित्री, कृष्णा सरस्वती ।12।।
प्रणवे नित्ययुक्ता स्याद् व्याहृतिषु च सप्तसु । सर्वेषामेव पापानां संकरे समुपस्थिते । शतसाहस्रमभ्यस्ता गायत्री पावनं महत् ।।13।।
उषः काले रक्ता, मध्याह्ने शेताऽपराह्ने कृष्णा । पूर्व सन्धि ब्राह्मी, मध्य सन्धि माहेश्वरी, परा सन्धि वैष्णवी । हंसवाहिनी ब्राह्मी, वृषवाहिनी माहेश्वरी, गरुडवाहिनी वैष्णवी ।।14।।
पूर्वाह्नकाले सन्ध्या गायत्री, कुमारी रक्तांगी रक्तवासास्त्रिनेत्रा पाशांकुशाक्षमाला कमंडलुकरा हंसारूढा ऋग्वेदसहिता, ब्रह्मदैवत्या भूर्लोक व्यवस्थितादित्यपथगामिनी ।।15।।
मध्याह्नकाले सन्ध्या सावित्री युवती श्वेतांगी श्वेतवासास्त्रिनेत्रा पाशांकुशत्रिशूलडमरुहस्ता वृषभारूढा यजुर्वेदसहिता, रुद्रदेवत्या भुवर्लोक व्यवस्थितादित्यपथगामिनी ।।16।।
सायाह्नकाले सन्ध्या सरस्वती वृद्धा कृष्णांगी, कृष्णवासास्त्रिनेत्रा शंख-गदा-चक्र-पद्महस्ता-गरुडारूढा सामवेद-संहिता विष्णु-दैवत्या स्वर्लोक व्यवस्थितादित्यपथगामिनी ।।17।।
गायत्री को तीन नामों से पुकारा जाता है। आरम्भिक अवस्था में गायत्री, मध्य अवस्था में सावित्री और अन्त अवस्था में सरस्वती। प्रारम्भ, तरुणाई और परिपक्वता, इन तीन भेदों के कारण एक ही शक्ति के तीन नाम रखे गये हैं। गायत्री की आभा अरुण है, सावित्री की श्वेत और सरस्वती की कृष्ण वर्ण-धुंधली है। जैसे सूर्य श्वेत वर्ण है पर प्रातःकाल में उसकी आभा लाल, मध्याह्न की शुभ्र और सन्ध्या में धुंधली हो जाती है। उसी प्रकार साधना काल में साधक को अपनी स्थिति के अनुसार यह तीनों वर्ण ध्यानावस्था में परिलक्षित होते हैं। गायत्री सदा प्रणव युक्त है। उसका उच्चारण सदा ॐकार समेत होता है। यद्यपि साधारण साधना में और विवेचना में तीन ही व्याहृतियों का प्रयोग होता है, पर ब्रह्म विवेचना के लिए—उपनिषद् विज्ञान के लिये सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। यदि सब पापों का समूह इकट्ठा हो जाए, तो भी उनका नाश शत-सहस्र गायत्री का अभ्यास करने से हो जाता है। यों मोटे अर्थ में शत सहस्र, एक लाख को और अभ्यास, जप को कहते हैं; परन्तु इस सूत्र का सूक्ष्म रहस्य इस प्रकार है—शत कहते हैं—निश्चित भाव से, सहस्रार कहते हैं—सहस्रार में—ब्रह्मरन्ध्र में गायत्री की धारणा का अभ्यास करने से पाप दूर होते हैं। निश्चित विधि से षट् चक्रों का वेधन कर ब्रह्मरंध्र तक गायत्री को पहुंचाने की विधि ‘‘गायत्री महाविज्ञान’’ के प्रथम भाग में वर्णित है। उस साधना से साधक अग्नि में तपे हुए स्वर्ण की भांति निष्पाप हो जाता है। ‘‘शत सहस्र अभ्यास’’ पद में उसी साधना की ओर संकेत है। पूर्व सन्ध्या को—प्रातःकाल की सन्ध्या को ब्राह्मी कहते हैं। यह हंसवाहिनी, कुमारी, रक्त अंगवाली, रक्त वस्त्र वाली, तीन नेत्र वाली, पाश, अंकुश, जप माला और कमण्डलु धारण करने वाली, ऋग्वेद सहित, ब्रह्म दैवत्या, भूः लोक में रहने वाली और सूर्य पथ से गमन करने वाली है। आइए, उपर्युक्त आलंकारिक वर्णन के गूढ़ रहस्य पर विचार करें। प्रातःकाल का समय ब्रह्म-मुहूर्त का कहलाता है। उस समय ब्रह्म-तत्त्व की विशेषता रहने के कारण गायत्री को ब्राह्मी कहते हैं। हंस कहते हैं प्राण को। हंसारूढ़ अर्थात् प्राण पर छायी हुई। ब्राह्मी गायत्री प्राण पर अपना विशेष प्रभाव प्रकट करती है। कुमारी का अर्थ है—बाल्य-वृत्तियों से—चंचलता से युक्त। रक्त, गतिशीलता का—विकास विद्युत् का प्रतीक है। प्रातःकालीन गायत्री में गतिशीलता का—विकास विद्युत् के संचार का गुण है, यही उसका रक्तांगी और रक्तवस्त्रा होना है। त्रिनयनी—तीन दृष्टियों वाली तीनों लोकों को दृष्टि में रखने वाली, शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण को देखने वाली है। तीनों ओर दृष्टि रखती है, इसलिये उसे त्रिनयनी कहते हैं। पाश—अर्थात् बन्धन, अंकुश—अर्थात् नियन्त्रण, अक्षमाला—शब्द मातृकाएं, कमण्डलु—अर्थात् धारणा, ऋग्वेद—अर्थात् ज्ञान, ब्रह्मदैवत्या—अर्थात् ब्रह्म की देव शक्ति। इन सब लक्षणों, गुणों और साधनों से सम्पन्न होने के कारण प्रातःकाल की गायत्री अपने साधक पर इन सब उपचारों का प्रयोग करती है। वह इन सब साधनों से ब्राह्मी गायत्री द्वारा तपाया जाता है और ब्रह्मभूत बनाया जाता है। ब्रह्म गायत्री भूर्लोक निवासिनी है। उसका इस भूर्लोक के प्राणियों द्वारा विशेष उपयोग होता है। भूः लोक शरीर को भी कहते हैं, ब्राह्मी शरीर को स्वस्थ रखती है। वह सूर्य गामिनी है। जिस प्रकार सूर्य की तेजस्वी किरणें मनुष्य को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं, वैसे ही गायत्री की शक्तियां भी काम करती हैं। सूर्य की किरणों और प्रातः गायत्री की शक्तियों की कार्य-विधि में बहुत कुछ समता है। अब मध्याह्न गायत्री के लक्षण देखिये। वह सावित्री नाम वाली युवती, श्वेतांगी, श्वेत वस्त्रा, त्रिनयना, पाश, अंकुश, त्रिशूल, डमरू लिये हुए है। वृषभ पर आरूढ़ है। यजुर्वेद सहित, रुद्र दैवत्या, भुवः लोक अवस्थित, सूर्य पथगामिनी है। इनमें से कुछ बातें तो ब्राह्मी के समान हैं—त्रिनयना, पाश, अंकुश, सूर्य पथगामिनी, इन चारों बातों की विवेचना पहले की जा चुकी है। अब शेष लक्षणों पर प्रकाश डालते हैं—युवती अर्थात् प्रौढ़, विकसित, परिपुष्ट, स्थिर, सुदृढ़। श्वेत वर्ण अर्थात् प्रकाशवती, विस्तृत फैली हुई आलोकमय। परिपुष्ट होकर अपनी पूर्णावस्था के तेज से झिलमिलाती हुई गायत्री को श्वेत वर्ण, श्वेतवस्त्रा कहा है। सविता सूर्य के समान तेजस्वी होने से उनका सावित्री नाम है। त्रिशूल कहते हैं तीन दुःखों को—अज्ञान, अभाव और अशक्ति इन तीनों को वह अपने हाथ में, अपनी मुट्ठी में लिये हुए है—अर्थात् यह तीनों शूल उसके नियंत्रण में हैं। डमरू—ध्वनि का—वाणी का प्रतीक है। वृषभ धर्म का प्रतीक है। तरुण सावित्री धर्म पर आरूढ़ है। यजुर्वेद कर्मकाण्ड का प्रतीक है। वह कर्म की प्रेरणा करता है। रुद्र दैवत्या—अर्थात् भयंकर, उग्र, दिव्य शक्तियों वाली। भुवः लोक में निवास करने वाली, भुवः कहते हैं मानस लोक को। मस्तिष्क, विचार, तर्क, बुद्धि, सूझबूझ को परिमार्जित बनाने वाली है। अब सन्ध्याकाल की गायत्री के लक्षण देखिये। वह सावित्री के नाम वाली वृद्धा, कृष्णांगी, कृष्णवस्त्रा, तीन नेत्र वाली, शंख, चक्र, गदा, पद्म हाथ में लिये हुए गरुड़ पर आरूढ़-सामवेद सहित, विष्णु दैवत्या, स्वःलोकनिवासिनी, सूर्यपथगामिनी है। सूर्यपथगामिनी और त्रिनयनी का वर्णन पहले हो चुका है। इसलिये इन दो लक्षणों को छोड़कर अन्य लक्षणों पर विचार करेंगे। स + रस् + वती = सरस्वती। सरसता वाली, संगीत, कला, कवित्व तथा अन्य स्थूल सूक्ष्म रसों की निर्झरिणी होने के कारण परिपक्व—सन्ध्याकालीन गायत्री को सरस्वती कहा है। वृद्धा का अर्थ है—परिपक्व, पूर्ण विकसित, विकास की अंतिम मर्यादा तक पहुंची हुई है। कृष्ण वर्ण—धुंधलापन-मिश्रण का द्योतक है। ब्रह्म और प्रकृति के उभय रूपों का मिश्रण काला होता है। पारा श्वेत है, गन्धक पीली है, इसी प्रकार ब्रह्म शुभ है, प्रकृति पीत है, दोनों के मिश्रण से काला रंग बनता है। भगवान् राम और कृष्ण के काला होने का यही कारण था। सन्ध्याकालीन गायत्री में ब्रह्म और प्रकृति का सम्मिश्रण होने से वह कृष्ण वर्ण वाली, कृष्ण वस्त्र वाली कहलाती है। सरस्वती के हाथ में चार पदार्थ हैं। शंख अर्थात् वाणी, चक्र अर्थात् तेज, गदा—अर्थात् विनाश, पद्म अर्थात् वैभव। इन चारों शक्तियों पर सरस्वती का आधिपत्य है। गरुड़ कहते हैं—क्रिया को, गतिशीलता को। सरस्वती का क्षेत्र विचार तक ही सीमित नहीं है वरन् वह क्रियाशील भी है। सामवेद, संगीत का—बाह्य गायन का प्रतीक है। विष्णु की सेविका दिव्य शक्तियों को प्रतिनिधित्व करने के कारण वह विष्णु दैवत्या कहलाती है। स्वःलोक कहते हैं—हृदय को—अन्तःकरण को। सरस्वती वीणा के तारों को झंकृत करती है—अन्तःकरण में विवेक जाग्रत् करती है। ऊपर ब्राह्मी, सावित्री और सरस्वती का विवेचन किया गया है। अविकसित, विकसित और परिपुष्ट इन भेदों से तीन रूप कहे गये हैं। इनको प्रातः, मध्याह्न, सन्ध्या इन तीन कालों में भी विभक्त कर दिया गया है। इन तीन भेदों में से साधक को अपने लिये जिस शक्ति की उपयोगिता दृष्टिगोचर होती हो, उसे साधना के लिये चुन लेना चाहिये।
कान्यक्षर दैवतानि भवन्ति ? ।।18।।
प्रथममाग्नेयं, द्वितीयं प्राजापत्यं तृतीयं सौम्यं, चतुर्थमैशानं, पञ्चमादित्यं, षष्ठं बार्हस्पत्यं, सप्तमं भगदैवत्यम्, अष्टमं पितृदेवत्यं नवममर्यमणं, दशमं सावित्रं, एकादशं त्वाष्ट्रं, द्वादशं पौष्णं, त्रयोदशमैन्द्राग्नं, चतुर्दशं वायव्यं, पञ्चदशं वामदेव्यं, षोडशं मैत्रावरुण, सप्तदशं वाभ्रव्यं, अष्टादशं वैश्वदेव्यम्, एकोनविंशतिकं वैष्णव्यं, विंशतिकं वासवम्, एकविंशतिकं तौषितं, द्वाविंशतिक कौबेरं, त्रयोविंशतिकं आश्विनं, चतुर्विंशतिकं ब्राह्यं इत्यक्षरदैवतानि भवन्ति ।।19।।
गायत्री के चौबीस अक्षरों के देवता कौन-कौन हैं? इसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि ‘तत्’ का देवता अग्नि, ‘स’ का प्रजापति, ‘वि’ का सोम, ‘तुः’ का ईशान, ‘य’ का आदित्य, ‘रे’ का बृहस्पति, ‘णि’ का भग, ‘यम्’ का पितृ, ‘भ’ का अर्यमा, ‘गो’ का सविता, ‘दे’ का त्वष्टा, ‘व’ का पूषा, ‘स्य’ का इन्द्र और अग्नि, ‘धी’ का वायु, ‘म’ का वामदेव, ‘हि’ का मित्र और वरुण, ‘धि’ का वभु, ‘यो’ का विश्वदेव, ‘यो’ का विष्णु, ‘नः’ का वसु, ‘प्र’ का तुषित, ‘चो’ का कुबेर, ‘द’ का अश्विनी कुमार और ‘यात्’ का ब्रह्मा देवता है। ये देवता प्रत्येक अक्षर की शक्तियां हैं। इन शक्तियों का गायत्री के चौबीस अक्षर प्रतिनिधित्व करते हैं। इस महामन्त्र के साथ उन शक्तियों का साधना में आविर्भाव होता है।
द्यौ मूर्ध्निसंगतास्ते, ललाटे रुद्रः, भ्रुवोर्मेघः चक्षुषोश्चन्द्रादित्यौ, कर्णयोः शुक्रबृहस्पती नासिके वायुदैवत्ये दन्तौष्ठावुभयसन्ध्ये, मुखमग्निः, जिह्वा सरस्वती, ग्रीवासाध्यानुगृहीतिः, स्तनयोर्वसवः , बाह्वोर्मरुतः, हृदयं पर्जन्यमाकाशमुदरं, नाभिरंतरिक्षं कट्योरिन्द्राग्नी, जघनं प्राजापत्यं, कैलासमलयावूरु, विश्वेदेवा जानुनी, जह्नु-कुशिकौ जंघाद्वयं, खुराः पितराः, पादौ वनस्पतयः अंगुलयो रोमाणि, नखाश्च मुहूर्त्तास्तेऽपि ग्रहाः केतुर्मासा ऋतवः सन्ध्याकालस्तथाच्छादनं सम्वत्सरो निमिषमहोरात्र आदित्यश्चन्द्रमाः ।।20।।
गायत्री को यदि एक मनुष्याकृति देवी माना जाए, तो उसके अंग-प्रत्यंगों में विविध देव-शक्तियों की स्थापना माननी होगी। गायत्री का ध्यान जब मनुष्याकृति देवी रूप में करते हैं, तो उसके दिव्य होने की धारणा की जाती है। गायत्री के अंग-प्रत्यंगों में जो शक्तियां निवास करती हैं, उनका ध्यान भी साधक को करना होता है। जब साधक अपने को गायत्री-शक्ति से ओत-प्रोत अनुभव करे, तब भी उसे ऐसा ही ज्ञान होना चाहिये कि मैं स्वयं उन शक्तियों से ओत-प्रोत हो रहा हूं। मेरे अंग-प्रत्यंगों में वे ही देवतागण समाये हुए हैं, जो गायत्री के अंगों में हैं। इस भावना के कारण साधक अपने उपास्य देव की जाति में आ जाता है। कहा है कि—‘‘देव बनकर देवता की उपासना करनी चाहिये।’’ देव शक्तियां हमारे अंग-प्रत्यंगों में विराजमान हैं, यह भावना आत्म-श्रेष्ठता का संचार करती है और आत्म-स्थिति को देव-उपासना के योग्य बनाती है। अब गायत्री के अंगों में देव-शक्तियों की स्थापना का वर्णन देखिये। गायत्री के मस्तक में स्वर्ण, ललाट में रुद्र, भौंहों में मेघ, दोनों नेत्रों में चन्द्र-सूर्य, दोनों कानों में शुक्र और बृहस्पति, दोनों नथुनों में वायु, दन्त और ओष्ठों में दोनों सन्ध्याएं, मुख में अग्नि, जिह्वा में सरस्वती, ग्रीवा में साध्य-गण, स्तनों में वसु-गण, दोनों भुजाओं में मरुद्गण, हृदय में पर्जन्य, उदर में आकाश, कटि में इन्द्राग्नि, जघन में प्रजापति, उरु में कैलाश और मलय पर्वत, जंघा में जहनु और कुशिक, तलवों में पितृ-गण, चरण में वनस्पति-गण, अंगुलियों, रोम और नखों में मुहूर्त, ग्रह, धूमकेतु, मास, ऋतु और सन्ध्याएं, आच्छादन, सम्वत्सर, वर्ष, दिन-रात्रि, सूर्य और चन्द्र गायत्री के निमेष हैं।
सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम् । सहस्रनेत्रां गायत्रीं शरणमहं प्रपद्ये ।।21।।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्याय नमः । ॐ तत् पूर्व जयाय नमः । ॐ तत् प्रातरादित्य प्रतिष्ठाय नमः ।।22।।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । तत् सायं प्रातरधीयानो ऽपापो भवति ।।23।।
य इदं गायत्रीहृदयं ब्राह्मणः पठेत् अपेयपानात् पूतो भवति । अभक्ष्यभक्षणात् पूतो भवति । अज्ञानात् पूतो भवति । स्वर्ण स्तेयात् पूतो भवति । गुरु तल्यगमनात् पूतो भवति । अपंक्ति पावनात् पूतो भवति । ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति । अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवति । इत्यनेन हृदयेनाधीतेन क्रतु सहस्रेणेष्टो भवति । षष्टि शतसहस्राणि जप्यानि फलानि भवन्ति अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयेदर्थसिद्धिर्भवति ।।24।।
य इदं नित्यमधीयानो ब्राह्मण प्रयतः शुचिः सर्वपापैः प्रमुच्यते इति । ब्रह्मलोके महीयते इत्याह भगवान् याज्ञवल्क्यः ।।25।।