Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2
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Language: HINDI
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।। इति गायत्री पञ्जरम् ।।
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अन्यत्र भी इस प्रकार के प्रमाण पाये जाते हैं, जिनमें पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड की स्थिति होने की पुष्टि की गयी है, देखिये—
देहेऽस्मिन् वर्तते मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः । सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः ।। ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि तथा ग्रहाः । पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठ देवताः ।। सृष्टिसंहारकर्त्तारौ भ्रमन्तौ शशिभास्करौ । नभो वायुश्च वह्निश्च जलं पृथ्वी तथैव च ।। त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः । मेरु संवेष्ट्य सर्वत्र व्यवहार प्रवर्तते ।। जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः । ब्रह्माण्डसंज्ञके देहे यथादेशं व्यवस्थितः ।। —शिव संहिता
मनुष्य शरीर इस विशाल ब्रह्माण्ड की प्रतिमूर्ति है, जो शक्तियां इस विश्व का परिचालन करती हैं, वे सब इस मानव देह में विद्यमान हैं। इस शरीर में सप्तद्वीप सहित मेरु है। नदियां, सागर, पर्वत, खेत, किसान, ऋषि, मुनि, सब नक्षत्र, ग्रह, पुण्यतीर्थ, पीठ और पीठ-देवता विद्यमान हैं। सृष्टि और संहार करने वाले चन्द्र, सूर्य घूम रहे हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तीनों लोकों में जितने भी भूत हैं वे सब शरीर में हैं। मेरु को संवेष्टन कर सर्वत्र व्यवहार होता है। जो भी इनको जानता है, वह योगी है। इसमें संशय नहीं कि ये सब ब्रह्माण्ड नामक देह में यथा आदेश व्यवस्थित हैं।
स एव पुरुषस्तस्मादण्डं निर्भेद्य निर्गतः । सहस्रोर्वङ्घ्रिबाहूवक्षः सहस्राननशीर्षवान् ।। यस्येहावयवैर्लोकान् कल्पयन्ति मनीषिणः । कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ।। भूर्लोकः कल्पिक पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्यनाभितः । हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ।। ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् । मूर्द्धाभिः सत्यलोकश्च ब्रह्म लोकः सनातनः ।। तत्कट्या चातलं क्लृप्तमूरुभ्यां वितलं विभोः । जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जंघाभ्यां च तलातलम् ।। महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् । पातालं पादतलजमिति लोकमयः पुमान् ।।
इसलिए यह भी पुरुष प्राण को भेदन कर निकल गया, जिसके हजार ऊरु, अंगुली, बाहु, नेत्र और हजार ही मुख और शिर थे तथा इस संसार में विद्वान् जिसके अवयवों के द्वारा लोकों की कल्पना करते हैं। कटि से नीचे सात और नितम्ब से ऊपर सात लोक हैं। पैरों में भू लोक की कल्पना की है, नाभि से भुवः लोक की, हृदय में स्वर्लोक की, वक्षस्थल से महः लोक, गर्दन से जनःलोक की तथा दोनों स्तनों में तपः लोक की और मूर्द्धा में सत्य-लोक की। वह ब्रह्म लोक सनातन है, उसकी कटि में अतल कल्पित किया है। ऊरुओं में वितल, घुटनों में सुतल, पिण्डलियों में तलातल, गुल्फ में महातल, पंजों में रसातल और पादतल में पाताल। यह लोकमय पुरुष हैं। इन श्लोकों का पाठ करना पर्याप्त न होगा। इस पर विचारपूर्वक, भक्ति-भावना के साथ चित्त एकाग्र किया जाना चाहिए। विराट् विश्व में अपने इष्टदेव को व्याप्त देखने की अनुभूति जब प्रत्यक्ष होने लगती है, तो प्रतिक्षण ईश्वर के दर्शन का लाभ प्राप्त करने वाले स्वर्ग का साक्षात्कार इसी जीवन में होने लगता है।
देहेऽस्मिन् वर्तते मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः । सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः ।। ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि तथा ग्रहाः । पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठ देवताः ।। सृष्टिसंहारकर्त्तारौ भ्रमन्तौ शशिभास्करौ । नभो वायुश्च वह्निश्च जलं पृथ्वी तथैव च ।। त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः । मेरु संवेष्ट्य सर्वत्र व्यवहार प्रवर्तते ।। जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः । ब्रह्माण्डसंज्ञके देहे यथादेशं व्यवस्थितः ।। —शिव संहिता
मनुष्य शरीर इस विशाल ब्रह्माण्ड की प्रतिमूर्ति है, जो शक्तियां इस विश्व का परिचालन करती हैं, वे सब इस मानव देह में विद्यमान हैं। इस शरीर में सप्तद्वीप सहित मेरु है। नदियां, सागर, पर्वत, खेत, किसान, ऋषि, मुनि, सब नक्षत्र, ग्रह, पुण्यतीर्थ, पीठ और पीठ-देवता विद्यमान हैं। सृष्टि और संहार करने वाले चन्द्र, सूर्य घूम रहे हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तीनों लोकों में जितने भी भूत हैं वे सब शरीर में हैं। मेरु को संवेष्टन कर सर्वत्र व्यवहार होता है। जो भी इनको जानता है, वह योगी है। इसमें संशय नहीं कि ये सब ब्रह्माण्ड नामक देह में यथा आदेश व्यवस्थित हैं।
स एव पुरुषस्तस्मादण्डं निर्भेद्य निर्गतः । सहस्रोर्वङ्घ्रिबाहूवक्षः सहस्राननशीर्षवान् ।। यस्येहावयवैर्लोकान् कल्पयन्ति मनीषिणः । कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ।। भूर्लोकः कल्पिक पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्यनाभितः । हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ।। ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् । मूर्द्धाभिः सत्यलोकश्च ब्रह्म लोकः सनातनः ।। तत्कट्या चातलं क्लृप्तमूरुभ्यां वितलं विभोः । जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जंघाभ्यां च तलातलम् ।। महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् । पातालं पादतलजमिति लोकमयः पुमान् ।।
इसलिए यह भी पुरुष प्राण को भेदन कर निकल गया, जिसके हजार ऊरु, अंगुली, बाहु, नेत्र और हजार ही मुख और शिर थे तथा इस संसार में विद्वान् जिसके अवयवों के द्वारा लोकों की कल्पना करते हैं। कटि से नीचे सात और नितम्ब से ऊपर सात लोक हैं। पैरों में भू लोक की कल्पना की है, नाभि से भुवः लोक की, हृदय में स्वर्लोक की, वक्षस्थल से महः लोक, गर्दन से जनःलोक की तथा दोनों स्तनों में तपः लोक की और मूर्द्धा में सत्य-लोक की। वह ब्रह्म लोक सनातन है, उसकी कटि में अतल कल्पित किया है। ऊरुओं में वितल, घुटनों में सुतल, पिण्डलियों में तलातल, गुल्फ में महातल, पंजों में रसातल और पादतल में पाताल। यह लोकमय पुरुष हैं। इन श्लोकों का पाठ करना पर्याप्त न होगा। इस पर विचारपूर्वक, भक्ति-भावना के साथ चित्त एकाग्र किया जाना चाहिए। विराट् विश्व में अपने इष्टदेव को व्याप्त देखने की अनुभूति जब प्रत्यक्ष होने लगती है, तो प्रतिक्षण ईश्वर के दर्शन का लाभ प्राप्त करने वाले स्वर्ग का साक्षात्कार इसी जीवन में होने लगता है।