Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2
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Language: HINDI
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।। अथ गायत्री पञ्जरम् ।।
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भूर्भुवः सुविरित्यतैर्निगमत्व प्रकाशिकाम् । महर्जनस्तपः सत्यं लोकोपरि सुसंस्थिताम् ।।1।।
भूः भुवः स्वः द्वारा निगम को प्रकाशित करती है, महः, जनः, तपः, सत्यं इन लोकों से ऊपर स्थित है।
कृतगान—विनोदादि कथालापेषु तत्परम् । तदित्यचाङ् मनोगम्य तेजो रूपधरां पराम् ।।2।।
गान आदि से विनोद और कथा आदि में तत्पर वह वाणी और मन से अगम्य होने पर भी जो तेज रूप धारण किये हुए है।
जगतः प्रसवित्री तां सवितुः सृष्टिकारिणीम् । वरेण्यमित्यन्नमयीं पुरुषार्थफलप्रदाम् ।।3।।
जगत् का प्रसव करने वाली को सविता की सृष्टिकर्त्री कहा है। वरेण्य का अर्थ अन्नमयी है, वह पुरुषार्थ का फल देती है।
अविद्या वर्ण वर्ज्यां च तेजोवद्गर्भसंज्ञिकाम् । देवस्य सच्चिदानन्द परब्रह्म रसात्मिकम् ।।4।।
वह अविद्या है, वर्ण रहित है, तेजयुक्त है, गर्भ संज्ञा वाली है तथा सच्चिदानन्द परब्रह्म देव की रसमयी है।
यद्वयं धीमहि सा वै ब्रह्माद्वैतस्वरूपिणीम् । धियो योनस्तु सविता प्रचोदयादुपासिताम् ।।5।।
हम ध्यान करते हैं कि वह अद्वैत ब्रह्म स्वरूपिणी है, सविता स्वरूपा हमारी बुद्धि को उपासना के लिये प्रेरणा देती है।
तादृगस्या विराट् रूपां किरीटवरराजिताम् । व्योमकेशालकाकाशां रहस्यं प्रवदाम्यहम् ।।6।।
इस प्रकार वह विराट् रूप वाली है, वह सुन्दर किरीट धारण करती है। व्योम केश हैं, आकाश अलके हैं, इस प्रकार इसका रहस्य कहा जाता है।
मेघ भ्रुकुटिकाक्रान्तां विधिविष्णुशिवार्चिताम् । गुरु भार्गवकर्णां तां सोमसूर्याग्निलोचनाम् ।।7।।
भौंहों से आक्रान्त मेघ है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव से जो अर्चित है, गुरु, शुक्र जिसके कान हैं, सोम, सूर्य, अग्नि जिसके नेत्र हैं।
पिंगलेडाद्वयं नूनं वायुनासापुटान्विताम् । सन्ध्यौभयोष्ठपुटितां लसद्वाग्भूपजिह्विकाम् ।।8।।
इडा, पिंगला दोनों नासापुट हैं। दोनों संध्या, दोनों ओष्ठ हैं, उप जिह्वा ही वाणी है।
सन्ध्याद्युमणिकण्ठां च लसदबाहुसमन्विताम् । पर्जन्य हृदयासक्तां वसु-सुस्तनमण्डलाम् ।।9।।
उस सन्ध्या रूपी द्युमणि से काष्ठ शोभित है। बाहु शोभायुक्त हैं तथा पर्जन्य हृदय है और स्तनमण्डल वसु है।
वितताकाशमुदरं सुनाभ्यन्तरदेशकाम् । प्रजापत्याख्यजघनां कटीन्द्राणीतिसंज्ञिकाम् ।।10।।
आकाश उदर है, अन्तरदेश नाभि है। जघन प्रजापति है, कटि इन्द्राणी है।
ऊरुमलयमेरुभ्यां सन्ति यत्रासुरद्विषः । जानुनी जहनु कुशिकौ वैश्वदेवसदाभुजाम् ।।11।।
ऊरु मलय—मेरु है, जहां असुर द्वेषी देव निवास करते हैं। जानु में जह्नु कुशिक है, भुजाएं वैश्वदेव हैं।
अयनद्वयं जंघाद्यं खुरादि पितृसंज्ञिकाम् । पदांधि नखरोमादि भूतलद्रुमलांछिताम् ।।12।।
जंघाओं के दोनों आदि स्थान अयन हैं, खुर आदि पितृ हैं, पद, अंघ्रि, नख, रोम आदि पृथ्वी तल के पेड़ आदि कहे हैं।
ग्रहराशिर्देवर्षयो मूर्तिं च परसंज्ञिकाम् । तिथिमासस्तुवर्षाख्यं सुकेतुनिमिषात्मिकाम् ।। माया कल्पित वैचित्र्यां सध्याच्छादन संवृताम् ।।13।।
ग्रह, राशि, देव, ऋषि, परसंज्ञक शशि की मूर्तियां हैं। तिथि, मास, ऋतु, वर्ष तथा सुकेतु आदि निमेष हैं। माया से रचित विचित्रता वाली तथा सन्ध्या के आवरण से युक्त है। ज्वलत्कालानलप्रभां तडित्कोटिसमप्रभाम् । कोटिसूर्य-प्रतीकाशां चन्द्रकोटि-सुशीतलाम् ।।14।।
कालाग्नि की तरह ज्वलन है, करोड़ों बिजलियों के समान प्रभा युक्त है, करोड़ों सूर्य की तरह प्रकाशवान् और करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतल है।
सुधामण्डलमध्यस्थां सान्द्रानन्दाऽमृतात्मिकाम् । प्रगतीतां मनोरम्यां वरदां वेदमातरम् ।।15।।
सुधा मण्डल के मध्य में आनन्द और अमृतयुक्त है, प्राक् है, अतीत है, मनोहर है, वरदा है और वेदमाता है।
षडंगा वर्णिता सा च तैरेव व्यापकत्रयम् । पूर्वोक्तदेवतां ध्यायेत्साकारगुणसंयुताम् ।।16।।
इसके छः अंग हैं, यह तीनों भुवनों में व्यापक है। इन पूर्वोक्त गुणों से संयुक्त देवता का ध्यान करना चाहिये।
पञ्चवक्त्रां दशभुजां त्रिपञ्चनयनैर्युताम् । मुक्ताविद्रुमसौवर्णां स्वच्छशुभ्रसमाननाम् ।।17।।
पांच मुंह हैं, दश भुजाएं हैं, पन्द्रह नेत्र हैं और मुक्ता, विद्रुम के तुल्य सुवर्ण, सफेद तथा शुभ्र आनन हैं।
आदित्य-मार्गगमनां स्मरेद् ब्रह्मस्वरूपिणीम् । विचित्र-मन्त्र-जननीं स्मरेद्विद्यां सरस्वतीम् ।।18।।
वह सूर्य मार्ग से गमन करती है, उस ब्रह्म स्वरूपिणी का स्मरण करना चाहिये। उन विचित्र मन्त्रों की जननी विद्या सरस्वती का स्मरण करना चाहिये।
भूः भुवः स्वः द्वारा निगम को प्रकाशित करती है, महः, जनः, तपः, सत्यं इन लोकों से ऊपर स्थित है।
कृतगान—विनोदादि कथालापेषु तत्परम् । तदित्यचाङ् मनोगम्य तेजो रूपधरां पराम् ।।2।।
गान आदि से विनोद और कथा आदि में तत्पर वह वाणी और मन से अगम्य होने पर भी जो तेज रूप धारण किये हुए है।
जगतः प्रसवित्री तां सवितुः सृष्टिकारिणीम् । वरेण्यमित्यन्नमयीं पुरुषार्थफलप्रदाम् ।।3।।
जगत् का प्रसव करने वाली को सविता की सृष्टिकर्त्री कहा है। वरेण्य का अर्थ अन्नमयी है, वह पुरुषार्थ का फल देती है।
अविद्या वर्ण वर्ज्यां च तेजोवद्गर्भसंज्ञिकाम् । देवस्य सच्चिदानन्द परब्रह्म रसात्मिकम् ।।4।।
वह अविद्या है, वर्ण रहित है, तेजयुक्त है, गर्भ संज्ञा वाली है तथा सच्चिदानन्द परब्रह्म देव की रसमयी है।
यद्वयं धीमहि सा वै ब्रह्माद्वैतस्वरूपिणीम् । धियो योनस्तु सविता प्रचोदयादुपासिताम् ।।5।।
हम ध्यान करते हैं कि वह अद्वैत ब्रह्म स्वरूपिणी है, सविता स्वरूपा हमारी बुद्धि को उपासना के लिये प्रेरणा देती है।
तादृगस्या विराट् रूपां किरीटवरराजिताम् । व्योमकेशालकाकाशां रहस्यं प्रवदाम्यहम् ।।6।।
इस प्रकार वह विराट् रूप वाली है, वह सुन्दर किरीट धारण करती है। व्योम केश हैं, आकाश अलके हैं, इस प्रकार इसका रहस्य कहा जाता है।
मेघ भ्रुकुटिकाक्रान्तां विधिविष्णुशिवार्चिताम् । गुरु भार्गवकर्णां तां सोमसूर्याग्निलोचनाम् ।।7।।
भौंहों से आक्रान्त मेघ है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव से जो अर्चित है, गुरु, शुक्र जिसके कान हैं, सोम, सूर्य, अग्नि जिसके नेत्र हैं।
पिंगलेडाद्वयं नूनं वायुनासापुटान्विताम् । सन्ध्यौभयोष्ठपुटितां लसद्वाग्भूपजिह्विकाम् ।।8।।
इडा, पिंगला दोनों नासापुट हैं। दोनों संध्या, दोनों ओष्ठ हैं, उप जिह्वा ही वाणी है।
सन्ध्याद्युमणिकण्ठां च लसदबाहुसमन्विताम् । पर्जन्य हृदयासक्तां वसु-सुस्तनमण्डलाम् ।।9।।
उस सन्ध्या रूपी द्युमणि से काष्ठ शोभित है। बाहु शोभायुक्त हैं तथा पर्जन्य हृदय है और स्तनमण्डल वसु है।
वितताकाशमुदरं सुनाभ्यन्तरदेशकाम् । प्रजापत्याख्यजघनां कटीन्द्राणीतिसंज्ञिकाम् ।।10।।
आकाश उदर है, अन्तरदेश नाभि है। जघन प्रजापति है, कटि इन्द्राणी है।
ऊरुमलयमेरुभ्यां सन्ति यत्रासुरद्विषः । जानुनी जहनु कुशिकौ वैश्वदेवसदाभुजाम् ।।11।।
ऊरु मलय—मेरु है, जहां असुर द्वेषी देव निवास करते हैं। जानु में जह्नु कुशिक है, भुजाएं वैश्वदेव हैं।
अयनद्वयं जंघाद्यं खुरादि पितृसंज्ञिकाम् । पदांधि नखरोमादि भूतलद्रुमलांछिताम् ।।12।।
जंघाओं के दोनों आदि स्थान अयन हैं, खुर आदि पितृ हैं, पद, अंघ्रि, नख, रोम आदि पृथ्वी तल के पेड़ आदि कहे हैं।
ग्रहराशिर्देवर्षयो मूर्तिं च परसंज्ञिकाम् । तिथिमासस्तुवर्षाख्यं सुकेतुनिमिषात्मिकाम् ।। माया कल्पित वैचित्र्यां सध्याच्छादन संवृताम् ।।13।।
ग्रह, राशि, देव, ऋषि, परसंज्ञक शशि की मूर्तियां हैं। तिथि, मास, ऋतु, वर्ष तथा सुकेतु आदि निमेष हैं। माया से रचित विचित्रता वाली तथा सन्ध्या के आवरण से युक्त है। ज्वलत्कालानलप्रभां तडित्कोटिसमप्रभाम् । कोटिसूर्य-प्रतीकाशां चन्द्रकोटि-सुशीतलाम् ।।14।।
कालाग्नि की तरह ज्वलन है, करोड़ों बिजलियों के समान प्रभा युक्त है, करोड़ों सूर्य की तरह प्रकाशवान् और करोड़ों चन्द्रमा के समान शीतल है।
सुधामण्डलमध्यस्थां सान्द्रानन्दाऽमृतात्मिकाम् । प्रगतीतां मनोरम्यां वरदां वेदमातरम् ।।15।।
सुधा मण्डल के मध्य में आनन्द और अमृतयुक्त है, प्राक् है, अतीत है, मनोहर है, वरदा है और वेदमाता है।
षडंगा वर्णिता सा च तैरेव व्यापकत्रयम् । पूर्वोक्तदेवतां ध्यायेत्साकारगुणसंयुताम् ।।16।।
इसके छः अंग हैं, यह तीनों भुवनों में व्यापक है। इन पूर्वोक्त गुणों से संयुक्त देवता का ध्यान करना चाहिये।
पञ्चवक्त्रां दशभुजां त्रिपञ्चनयनैर्युताम् । मुक्ताविद्रुमसौवर्णां स्वच्छशुभ्रसमाननाम् ।।17।।
पांच मुंह हैं, दश भुजाएं हैं, पन्द्रह नेत्र हैं और मुक्ता, विद्रुम के तुल्य सुवर्ण, सफेद तथा शुभ्र आनन हैं।
आदित्य-मार्गगमनां स्मरेद् ब्रह्मस्वरूपिणीम् । विचित्र-मन्त्र-जननीं स्मरेद्विद्यां सरस्वतीम् ।।18।।
वह सूर्य मार्ग से गमन करती है, उस ब्रह्म स्वरूपिणी का स्मरण करना चाहिये। उन विचित्र मन्त्रों की जननी विद्या सरस्वती का स्मरण करना चाहिये।