Books - गायत्री महाविज्ञान भाग 2
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Language: HINDI
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न्यास
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न्यास
न्यास का अर्थ है—स्थापना। किसी स्थान में किसी वस्तु की स्थापना करना न्यास करना कहलाता है। साधना पर स्थित होकर दाहिने हाथ का अंगूठा मध्यमा तथा अनामिका को मिलाकर विविध अंगों को स्पर्श करते हैं और उन अंगों में गायत्री-शक्तियों की स्थापना की भावना करते जाते हैं। इस प्रकार की भावना से साधक अपने अंग-प्रत्यंगों में एक दैवी शक्ति का अनुभव करता है। यह भावना अपने श्रद्धा-विश्वास के कारण सचमुच दृढ़ता और पुष्टि प्रदान करती है। न्यास शक्ति
सावित्री में शिरः पातु शिखायाममृतेश्वरी । ललाटं ब्रह्मदैवत्या भ्रुवौ मे पातु वैष्णवी ।।
सावित्री शिर की रक्षा करें, अमृतेश्वरी शिखा की, ब्रह्म देवी ललाट की तथा वैष्णवी भ्रू की रक्षा करें।
कर्णौ मे पातु रुद्राणी सूर्या सावित्रिकाम्बके । गायत्री वदनं पातु शारदा दशनच्छदौ ।।
रुद्राणी कान की, सूर्य में रहकर सभी प्राणियों का सृजन करने वाली भगवती सावित्री दोनों नेत्रों की, गायत्री मुख की तथा शारदा ओठों की रक्षा करें। द्विजान्यज्ञप्रिया पातु रसनां तु सरस्वती । सांख्यायनी नासिकां मे कपोलौ चन्द्रहासिनी ।।
द्विजों की यज्ञ-प्रिया जीभ की सरस्वती नासिका की सांख्यायनी तथा कपाल की चन्द्रहासिनी रक्षा करें।
चिबुकं वेद गर्भा च कण्ठं पात्वघनाशिनी । स्तनौ मे पातु इन्द्राणी हृदयं ब्रह्मवादिनी ।।
ठोड़ी में वेदगर्भा, अघनाशिनी कण्ठ की, इन्द्राणी स्तनों की, ब्रह्मवादिनी हृदय की रक्षा करें।
उदरे विश्व भोक्त्री च नाभिं पातु सुरप्रिया । जघनं नारसिंहीं च पृष्ठं ब्रह्मांडधारिणी ।।
विश्वभोक्त्री उदर की, सुरप्रिया नाभि की, नारसिंही जघन की तथा ब्रह्माण्डधारिणी पीठ की रक्षा करें।
पार्श्वौ मे पातु पद्माक्षी गुह्यं गोगोप्विकाऽवतु । ऊर्वोरोंकाररूपा च जान्वोः सन्ध्यात्मिकाऽवतु ।।
पद्माक्षी पार्श्व की, गोप्त्रिका गुह्य की, ओंकार रूपा ऊरु की तथा सन्ध्यात्मिका जानु की रक्षा करें।
जंघयोः पातु अक्षोभ्या मुल्फयोर्ब्रह्मशीर्षका । सूर्या पदद्वयं पातु चन्द्रा पादांगुलीषु च ।।
अक्षोभ्या जंघा की, ब्रह्मशीर्षका गुल्फ की, सूर्या दोनों पैरों की अंगुलियों की रक्षा करें।
सर्वांगं वेदजननी पातु मे सर्वदाऽनघा । इत्येतत्कवचं ब्रह्मन् गायत्र्याः सर्व-पावनम् । पुण्यं पवित्रं पापघ्नं सर्व-रोग-निवारणम् ।।
वेद जननी सब शरीर की, सर्वदा मेरी रक्षा करें। यह सर्व पावन ब्रह्म गायत्री का कवच है, जो पुण्यकारी, पवित्रकारी, पापनाशक तथा सर्वरोग निवारक है।
त्रिसंध्यं यः पठेद्विद्वान् सर्वान्कामानवाप्नुयात् । सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स भवेद्वेदवित्तमः ।।
त्रिसन्ध्या पाठ करने से विद्वान् सब कामनाओं को प्राप्त करता है, वह सब शास्त्रों का जानकार हो जाता है। वेदज्ञ हो जाता है।
सर्व यज्ञ फलं प्राप्य ब्रह्मान्ते समवाप्नुयात् । प्राप्नोति जपमात्रेण पुरुषार्थांश्चतुर्विधान् ।।
सब यज्ञों का फल उसे मिलता है। अन्त में ब्रह्म की प्राप्ति होती है और जप मात्र से ही वह चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। प्रार्थना और स्तुति से, उस शक्ति की महत्ता पर अपना ध्यान केन्द्रित होता है। महिमा में जिन विशेषताओं का वर्णन होता है, उनका प्रायः अपने में अभाव रहने से मन उस ओर आकर्षित होता है और उधर रुचि एवं श्रद्धा उत्पन्न होती है। जैसे किसी निर्धन और भुखमरे व्यक्ति के सामने किसी के बड़े भारी ऐश्वर्य का वर्णन किया जाए और स्वादिष्ट बढ़िया भोजनों का रोचक वर्णन किया जाए, तो वह उस ओर लालायित होता है और उस स्थिति को या उन स्वादिष्ट पदार्थों को प्राप्त करने के लिये उसके मन की लालसायें प्रदीप्त हो जाती हैं। यह लालसाओं का प्रदीप्त होना किसी कार्य में तत्परतापूर्वक लगने का प्रधान हेतु होता है। स्तोत्र पाठ से साधक मैं श्रद्धा भक्ति की जागृति होती है।
गायत्री स्तोत्र
सुकल्वाणीं वाणीं सुरमुनिवरैः पूजितपदाम् ।शिवामाद्यां वन्द्यां त्रिभुवनमयीं वेदजननीम् ।।
परां शक्तिं स्रष्टुं विविधविध रूपां गुणमयीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।1।।
विशुद्धां सत्त्वस्थामखिल दुरवस्थादिहरणीम् । निराकारां सारां सुविमल तपो मूर्त्तिमतुलाम् ।।
जगज्ज्येष्ठां श्रेष्ठामसुरसुरपूज्यां श्रुतिनुताम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।2।।
तपो निष्ठाभीष्टांस्वजनमनसन्तापशमनीम् । दयामूर्तिं स्फूर्तिं यतितति प्रसादैकसुलभाम् ।।
वरेण्यां पुण्यां तो निखिल भव बन्धापहरणीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।3।।
सदाराध्यां साध्यां सुमति मति विस्तारकरणीम् । विशोकामालोकां हृदयगत मोहान्धहरणीम् । परां दिव्यां भव्यामगमभवसिन्ध्वेक तरणीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।4।।
अजां द्वैतां त्रैतां विविधगुणरूपां सुविमलाम् । तमो हन्त्रीं-तन्त्रीं श्रुति मधुरनादां रसमयीम् ।।
महामान्यां धन्यां सततकरुणाशील विभवाम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।5।।
जगद्धात्रीं पात्रीं सकल भव संहारकरणीम् । सुवीरां धीरां तां सुविमल तपो राशि सरणीम् ।।
अनेकामेकां वै त्रिजगसदधिष्ठानपदवीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।6।।
प्रबद्धां बुद्धां तां स्वजनमति जाड्यापहरणाम् । हिरण्यां गुण्यां तां सुकविजन गीतां सुनिपुणीम् ।।
सुविद्यां निरवद्याममल गुणगाथां भगवतीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।7।।
अनन्तां शान्तां यां भजति बुध वृन्दः श्रुतिमयीम् । सुगेयां ध्येयां यां स्मरति हदि नित्यं सुरपतिः ।।
सदा भक्त्या शक्त्या प्रणतमतिभिः प्रीतिवशगाम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।8।।
शुद्ध चित्तः पठेद्यस्तु गायत्र्या अष्टकं शुभम् । अहो भाग्यो अवेल्लोके तस्मिन् माता प्रसीदति ।।9।।
गायत्री वाणी का कल्याण करने वाली है। सुर, मुनि द्वारा इसकी पूजा की जाती है। इसे शिवा कहते हैं। यह आद्या है, त्रिभुवन में वन्दनीय है, वेद-जननी है, पराशक्ति है, गुणमयी है तथा विविध रूप धारण करके प्रादुर्भूत होती है। इस माता गायत्री का, जो सौभाग्य और आनन्द का सृजन करती है, हम भजन करते हैं। ।1।। गायत्री विशुद्ध तत्त्व वाली, सत्त्वमयी तथा समस्त दुःख, दोष एवं दुरवस्था हरने वाली है। यह निराकार है, सारभूत है और अतुल तप की मूर्ति एवं विमल है। यह संसार में सबसे महान् है, ज्येष्ठ है। देवता तथा असुरों से पूजित है। उस सौभाग्य एवं आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते हैं।।2।। गायत्री का तपोनिष्ठ रहना भी अभीष्ट है। यह स्वजनों के मानसिक संतापों का शमन करने वाली है। यह स्फूर्तिमयी है, दया मूर्ति है और उसकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेना अत्यंत सुलभ है। वह संसार के समस्त बन्धनों का हरण करने वाली है एवं वरण करने योग्य है। उस परम सौभाग्य एवं आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते हैं।।3।। गायत्री निरन्तर आराधना करने योग्य है और उसकी आराधना करना अत्यंत साध्य है। वह सुमति का विस्तार करने वाली है। वह प्रकाशमय है, शोकरहित है और हृदय में रहने वाले मोहान्धकार को दूर करने वाली है। वह परा है, दिव्य है, अगम संसार सागर से तरने के लिये नौका के समान है, उस परम सौभाग्य और आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते है। गायत्री अजन्मा है, द्वैता है, त्रिगुण एवं सुविमल रूपमयी है। तम को दूर करती है। विश्व की संचालिका है। वाणी सुनने में मधुर एवं रसमयी है। वह महा मान्य है, धन्य है और उनका वैभव निरंतर करुणाशील है। उस परम सौभाग्य एवं आनन्द की जननी मात गायत्री का हम भजन करते हैं। गायत्री संसार की माता है और सकल संसार की संहार करने की भी उनमें शक्ति है। वह वीर है, धीर है और उसका जीवन पवित्र तपोमय है। वह एक होते हुए भी अनेक रूपों में है। उसकी पदवी संसार की अधिष्ठात्री की है। उस परम सौभाग्य एवं आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते हैं।।6।। गायत्री प्रबुद्ध है, बोधमयी है, स्वजनों की जड़ता को नाश करने वाली है, हिरण्यमयी है, गुणमयी है, जिनकी निपुणता सुकवि जनों द्वारा गाई जाने वाली है। निरवद्य है, उनके रूपों में गुणों की गाथा अकथनीय है। वे भगवती अम्बा गायत्री उस परम सौभाग्य एवं आनंद की जननी है, मैं उनका भजन करता हूं।।7।। गायत्री अनन्त है, इसका भजन करके पण्डित लोग वेदमय हो जाते हैं इसका गान, ध्यान तथा स्मरण इन्द्र नित्यप्रति हृदय से करता है। सदा भक्तिपूर्वक, शक्ति के साथ, आत्म-निवेदन पूर्वक, प्रेमयुक्त आनंद एवं सौभाग्य की जननी माता गायत्री की मैं उपासना करता हूं।।8।। इस शुभ गायत्री अष्टक को जो लोग शुद्ध चित्त होकर पढ़ते हैं, वे इस संसार में भाग्यवान् हो जाते हैं और माता की उन पर पूर्ण कृपा रहती है ।।9।।
4—शापमोचन
गायत्री को शाप लगने के बारे में दो कथायें पुराणों में मिलती हैं। एक है कि ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री अपने पति की आज्ञा न मानकर यज्ञ में सम्मिलित नहीं हुई, तब उन्होंने दूसरी पत्नी गायत्री को साथ लेकर यज्ञ-कर्म पूरा किया। इस पर सावित्री बहुत कुपित हुईं और उन्होंने गायत्री को शाप दिया कि तुम्हारी शक्ति नष्ट हो जायेगी। इस शाप से सर्वत्र बड़ी चिन्ता फैली। देवताओं ने अनुनय-विनय कर प्रार्थना की कि गायत्री को शाप से मुक्त कर दिया जाए, अन्यथा ब्रह्मशक्ति की बड़ी भारी क्षति होगी। तब सावित्री ने एक मन्त्र बताया, जिसके पढ़ने से गायत्री शापमुक्त हो जाती है और जो उसका प्रयोग नहीं करता, उसके लिये गायत्री शाप युक्त रहती है। दूसरा उपाख्यान इस प्रकार मिलता है कि किसी समय ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र ने अपनी-अपनी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करने की शक्ति प्राप्त करने के लिये गायत्री-उपासना की थी, परन्तु गायत्री ने इनकी इच्छा पूर्ण न की। तब उन तीनों ने क्रुद्ध होकर गायत्री को शाप दिया कि तुम्हारी शक्ति नष्ट हो जाए। शाप के फलस्वरूप गायत्री शक्तिहीन हो गयीं। तब देवताओं की प्रार्थना करने पर उन तीनों ने शाप-मुक्ति का यह उपाय बताया कि जो मनुष्य शापमोचन मन्त्र के साथ जप करेगा, उसके लिये गायत्री शक्ति वाली होगी। शापोद्धार के मन्त्र ॐ अस्य गायत्री शापविमोचन मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दो वरुणो देवता ब्रह्मशापविमोचने विनियोगः । इस गायत्री शाप विमोचन, मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, वरुण देवता हैं तथा ब्रह्म-शाप के मोचन में इसका प्रयोग होता है। ॐ यद् ब्रह्मेति ब्रह्मविदो विदुस्त्वां पश्यन्ति धीराः । सुमनसो त्वं गायत्रि ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव ।। हे गायत्रि! ब्रह्मवेत्ता जिसको ब्रह्मनाम से कहते हैं, धीर पुरुष अपने अन्तःकरण में आपको उसी रूप में देखते हैं, आप ब्रह्म-शाप से विमुक्त हों। ॐ अस्य गायत्री वशिष्ठशापविमोचन मन्त्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुऽष्टुप् छन्दो, वशिष्ठ देवता, वशिष्ठ शाप विमोचने विनियोगः ।। गायत्री के वशिष्ठ-शाप विमोचन मन्त्र के वशिष्ठ ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, वशिष्ठ देवता हैं तथा वशिष्ठ के शाप विमोचन में विनियोग है। ॐ अर्क ज्योतिरह ब्रह्मा ब्रह्म ज्योतिरहं शिवः । शिव ज्योतिरह विष्णुः विष्णुर्ज्योतिः शिवः परः । गायत्रि त्वं वशिष्ठशापाद्विमुक्ता भव ।। मैं सूर्य की ज्योति ब्रह्मा हूं। मैं ब्रह्मा की ज्योति शिव हूं। मैं शिव की ज्योति विष्णु हूं। मैं विष्णु की ज्योति शिव हूं। हे गायत्री! आप वशिष्ठ के शाप से विमुक्त हों। ॐ अस्य गायत्री विश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य विश्वामित्र ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, आद्या देवता विश्वामित्र शापविमोचने विनियोगः ।। विश्वामित्र शाप विमोचन मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और आद्य देवता हैं तथा विश्वामित्र के शाप विमोचन में इनका प्रयोग होता है। ॐ अहो देवि महादेवि सन्ध्ये विद्ये सरस्वति । अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते । गायत्रि त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्त भव ।। हे देवि! हे महादेवि! हे ज्ञानरूपे! हे सन्ध्या रूपे! हे सरस्वति! हे जरारहिते! हे मरणरहिते! आपको नमस्कार है। हे गायत्रि! आप विश्वामित्र के शाप से मुक्त हों। 5—हवन
गायत्री-हवन की विधि गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में बताई जा चुकी है कि हवन किस प्रकार करना चाहिये तथा किस उद्देश्य के लिये किन-किन सामग्रियों का हवन करना चाहिये, कुण्ड या वेदी कैसे बनानी चाहिये, उन सब बातों को बार-बार दुहराने से कोई लाभ नहीं। पाठक उसे देखकर हवन का सारा परिचय प्राप्त कर लें। आहुति मन्त्र के लिये गायत्री ही एक मात्र मन्त्र है, उसके अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द जोड़कर आहुति देनी चाहिये।
6—तर्पण
तर्पण के लिये नदी या सरोवर में खड़े होकर, कुश हाथ में लेकर, यज्ञोपवीत को अंगूठे और तर्जनी के बीच में होते हुए हाथ में अटका हुआ निकालकर, अंजलि जल भरकर अर्घ्य की भांति उंगलियों के छोरों की ओर जल विसर्जित करे। तर्पण के समय दोनों हाथों की अनामिका उंगलियों में कुश की बनी हुई अंगूठी पहने। शिखा में, दोनों पैरों के नीचे, यज्ञोपवीत में तथा धोती की अण्टी में कुश के टुकड़े लगा लेने चाहिये।
तर्पण मन्त्र—
ॐ भूर्भुवः स्वः पुरुषमृग्यजुः साममंडलान्तर्गत सवितारमावाहयामीत्यावाह्य तर्पणं कुर्यात्। ॐ भूः पुरुषमृग्वेदं तर्पयामि । ॐ भुवः पुरुषं यजुर्वेदं तर्पयामि । ॐ स्वः पुरुषं सामवेदं तर्पयामि । ॐ महः पुरुषमथर्ववेदं तर्पयामि । ॐ जनः पुरुषमितिहासपुराणं तर्पयामि । ॐ तपः पुरुषं सर्वागमं तर्पयामि । ॐ सत्यं पुरुषं सर्वलोकं तर्पयामि । ॐ भूर्भुवः स्व (पुरुषं) ऋग्यजुः साममण्डलान्तर्गतं तर्पयामि । ॐ भूरेकं पादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ भुवर्द्विपादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ स्वस्त्रिपादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ भूर्भुवः स्वश्चतुष्पादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ उषसं तर्पयामि । ॐ गायत्रीं तर्पयामि । ॐ सावित्रीं तर्पयामि । ॐ सरस्वतीं तर्पयामि । ॐ वेदमातरं तर्पयामि । ॐ पृथिवीं तर्पयामि । ॐ जयां तर्पयामि । ॐ कौशिकीं तर्पयामि । ॐ सांकृतीं तर्पयामि । ॐ सर्वापराजितां तर्पयामि । ॐ सहस्रमूर्तिं तर्पयामि । ॐ अनन्तमूर्ति तर्पयामि । एभिर्मन्त्रैश्च यो नित्यं चतुर्विंशतिभिर्द्विजः । सुतर्पयति गायत्रीं स सन्ध्याफलमाप्नुयात् ।।
7—मार्जन
कुश की एक छोटी-सी कूंची बना लेनी चाहिये। इसका पूजन करके उसमें पवित्रीकरण की शक्ति की श्रद्धा करनी चाहिये। तदनन्तर इस कूंची को ताम्रपत्र में रखे हुए जल में डुबो-डुबोकर बार-बार ऊपर छिड़कना चाहिये, यही मार्जन है। मार्जन की विधि और नौ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं। कोई-कोई आचार्य इन नौ मन्त्रों की जगह गायत्री मन्त्र से ही मार्जन का काम लेते हैं।
संकल्प्य मार्जनं कुर्यादापोहिष्ठा कुशोदकैः । पादे पादे क्षिपेन्मूर्ध्नि प्रतिप्रणवसंयुताम् ।।1।।
संकल्प तथा मार्जन करे। मार्जन प्रणवयुक्त आपोहिष्ठा इत्यादि मन्त्र द्वारा कुशोदक से करे, प्रत्येक पाद पर , मूर्धा पर जल निक्षेप करे।
आत्मानं प्रणवेनैव परिसिंच्य जलेन सः । कुर्यात्सप्रणवै पादैर्मार्जनं तु कुशोदकैः ।। ततो हि पाणिस्थ जलं सकुशं प्रक्षिपेदधः ।।2।।
प्रणव से आत्म-कमल पर परिसिंचन करे, फिर कुश सहित जल को नीचे फेंक दें।
स्पृष्ट्वा हस्तेन वामेन तटं नद्यादिकेषु च । पाणिना दक्षिणेनैव मार्जयेत् सकुशेन तु ।।3।।
नदी आदि के तट को बायें हाथ से स्पर्श करे, दाहिने हाथ में कुश को लेकर मार्जन करे।
पाणिस्थितोदकेनैव वामहस्तोदकेन वा । गृहे तु मार्जनं कुर्यान्नान्यथेत्यब्रवीन्मनुः ।।4।।
दायें हाथ पर रखा हुआ जल हो या बायें पर, मनु कहते हैं कि घर में उससे मार्जन करे। आपोहिष्ठेति त्र्यृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषि आपो देवता गायत्री छन्दः मार्जने विनियोगः । आपोहिष्ठेति मंत्र की तीन ऋचाओं के सिन्धु द्वीप हैं, आपः गायत्री है, मार्जन उसका विनियोग है।
ॐ आपोहिष्ठामयो भुवः ।1। ॐ तान ऊर्जे दधातन ।2। ॐ महेरणाय चक्षसे ।3। ॐ यो वः शिवतमो रसः ।4। ॐ तस्यभाजयतेह नः ।5। ॐ उशतीरिव मातरः ।6। ॐ तस्माऽअरंगमामवः ।7। ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ ।8। ॐ आपोजनयथा च नः ।9।
दर्भान्विसृज्य कुशपाणिर्मार्जयेत् । प्रणव युक्तसमस्तया व्याहृत्या गायत्र्या आपोहिष्ठेति नवपादैः शन्नोदेवीरिति सप्तभिर्मार्जयेत् ।। दर्भ को फेंककर जिस हाथ में कुश है, उसे धो डाले। सबके साथ प्रणव लगाकर व्याहृति के साथ गायत्री से आपोहिष्ठा के नव पदों से सात बार मार्जन करे।
नवपादमतिक्रम्य अथर्चा वसुसंख्यया । ऋतं च प्रणवेनैव मार्जनं समुदाहृतम् ।।
नव पाद को छोड़कर-लांघकर-आठ बार प्रणव सहित ‘ऋतं च’ मन्त्र से मार्जन करे।
भुवि मूर्ध्नि तथाऽऽकाश आकाशे भुवि मस्तके । मस्तके भुवि मूर्ध्निस्यान्मार्जनं समुदाहृतम् ।।
भू, मूर्धा तथा आकाश, आकाश; भू और मस्तक; मस्तक, भू और मूर्धा पर क्रमशः मार्जन करे।
8—मुद्रा
गायत्री जप की चौबीस मुद्राएं हैं। हाथ को विशेष आकृति में मोड़ने पर विविध प्रकार की मुद्रायें बनती हैं। मुद्रायें गायत्री प्रतिमा या मन्त्र के सामने एकान्त में दिखाई जाती हैं। किसी के सामने इनका प्रदर्शन नहीं किया जाता। जब दिखाते हैं तब या तो उपस्थित लोगों को हटा देते हैं या किसी वस्त्र का पर्दा कर देते हैं, ताकि उन्हें कोई देख न सके। नीचे चौबीस मुद्राओं का वर्णन किया जाता है।
गायत्री की 24 मुद्रायें
अतः परं प्रवक्ष्यामि वर्णा मुद्राः क्रमेण तु । सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा ।।1।।
अब क्रमशः वर्णों में मुद्राओं का वर्णन करते हैं। सुमुख, सम्पुट वितत, विस्तृत।
द्विमुखं त्रिमुखं चैवं चतुः पञ्चमुखं तथा । षण्मुखाधोमुखं चैव व्यापकांजलिकं तथा ।।2।।
द्विमुख, त्रिमुख, चतुर्मुख, पंचमुख, षण्मुख, अधोमुख, व्यापकांजलि।
शकटं यम पाशं च ग्रन्थितं सन्मुखोन्मुखम् । प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यकूर्मवराहकम् ।।3।।
शकट, यमपाश, ग्रन्थित, सन्मुखोन्मुख, प्रलम्ब, मुष्टिक, मत्स्य, कूर्म, वराहक।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं, मुद्गरं, पल्लवं तथा । एताः मुद्राः चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिताः ।।4।।
सिंहाक्रान्त, महाक्रान्त, मुद्गर, पल्लव—ये 24 मुद्रायें जप के आदि में करने के लिये कही गयी हैं।
चतुर्विंशतिरिमा मुद्रा मायत्र्याः सुप्रतिष्ठिताः । एता मुद्राः न जानाति गायत्री निष्फला भवेत् ।।5।।
उपर्युक्त चौबीस मुद्रायें गायत्री में सुप्रसिद्ध हैं। इन मुद्राओं को न जानने वाले की गायत्री निष्फल हो जाती है।
1. सुमुखम् 2. सम्पुटम् 3. विततम् 4. विस्तृतम् 5. द्विमुखम् 6. त्रिमुखम् 7. चतुर्मुखम् 8. पञ्मुखम् 9. षम्मुखम् 10. अधोमुखम् 11. व्यापकाञ्जलिकम् 12. शकटम् 13. यमपाशम्14. ग्रन्थितम् 15. उन्मुखोन्मुखम् 16. प्रलम्बम् 17. मुष्टिकम् 18, मत्स्यः 19. कूर्मः 20. वराहकम् 21. सिंहाक्रान्तम् 22. महाक्रान्तम् 23. मुद्गरम् 24. पल्लवम्
9—विसर्जन
पूजा के समय गायत्री का आह्वान किया जाता है। प्रतिदिन पुरश्चरण पूरा करते हुए गायत्री का विसर्जन करना चाहिये। विसर्जन का मन्त्र नीचे है— गायत्री का आवाहन मन्त्र— आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि । गायत्रिच्छन्दसां मात ब्रह्मयोनेनमोऽस्तु ते । गायत्री का विसर्जन मन्त्र—
उत्तमे शिखरे देवि भूम्यां पर्वत मूर्धनि । ब्राह्मणेभ्यो ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ।।
10—अर्घ्य-दान
पुरश्चरण से बचे हुए जल से सूर्य के सामने अर्घ्य देना चाहिये। यह जल पवित्र भूमि में छोड़ा जाना चाहिये अथवा किसी चौड़े मुंह के पात्र में अर्घ्य से गिरे हुए जल को लेकर उसे गौओं को पिला देना चाहिये। अर्घ्य की विधि—
मुक्त हस्तेन दातव्यं मुद्रां तत्र न कारयेत् । तर्जन्यंगुष्ठयोगं तु राक्षसी मुद्रिका स्मृता ।।
अर्घ्य देते समय तर्जनी अंगुली की जड़ में अंगूठा मिला हुआ न होना चाहिये। अतः अंगूठे को तर्जनी से बिना मिलाये ही अर्घ्य देना चाहिये। अंगूठे का तर्जनी के साथ योग हो जाने पर राक्षसी मुद्रा हो जाती है। गायत्र्या त्रिरर्घ्यं सूर्याय दद्यात् । गायत्री मन्त्र से तीन बार अर्घ्य सूर्य को दे। पश्चात् नीचे लिखे हुए मन्त्र से सूर्य को अर्घ्य दे। मन्त्र—
सूर्यदेव सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर ।।
हे सहस्ररश्मि सूर्य! तेज की राशि। जगत्पति! मेरे ऊपर आप कृपा करें तथा भक्ति से दिये हुए मेरे अर्घ्य को ग्रहण करें।
11—क्षमा प्रार्थना
प्रत्येक साधना के अन्त में इस क्षमा प्रार्थना स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। इससे जाने या अनजाने में हुई भूलों का दुष्परिणाम शांत हो जाता है।
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो, न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुति-कथाः । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनम्, परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेश-हरणम् ।
न तो मैं मन्त्र, यन्त्र जानता हूं और न स्तुति ही जानता हूं। आवाहन, ध्यान, स्तुति-कथा भी नहीं जानता हूं, पूजा और मुद्रा भी नहीं जानता, लेकिन इतना जानता हूं कि तुम्हारी शरण क्लेश हरने वाली है।
विधेरज्ञानेन दविणविरहेणालसतया, विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्याच्युतिरभूत् । तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे, कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
हे शिवे! सकल उद्धारिणी जननी! विधि के अज्ञान से, धन की कमी से, आलस्य और सामर्थ्यहीनता के कारण आपकी चरण सेवा करने में जो भूल रह गयी हो, उसको क्षमा करना, क्योंकि पुत्र-कुपुत्र हो सकता है, लेकिन माता-कुमाता नहीं होती।
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः, परं तेषां मध्ये विरल तरलोऽहं तव सुतः । मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे, कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
हे मां! पृथ्वी पर तेरे बहुत से पुत्र हैं, जो सरल हैं, पर उनके बीच में तेरा पुत्र अकेला मैं ही टेढ़ा हो गया हूं। फिर भी हे मां! तेरे लिये त्याग उचित नहीं है; क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं होती है।
जगन्मातर्मातस्तव चरण सेवा न रचिता, न वा दत्तं देवि द्रविमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे, कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
हे जगत् की माता! मैंने तेरे चरण की सेवा नहीं की। हे देवि! तूने मुझे पर्याप्त द्रव्य भी नहीं दिया, जिससे दान ही करता; परंतु तू मेरे ऊपर खूब स्नेह करती है। पुत्र-कुपुत्र हो जाता है, परन्तु माता-कुमाता नहीं होती है।
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिर, निरातंको रंको विहरति चिरं कोटि कनकैः । तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं, जनः को जानीते जननि जपनीयं जप विधौ ।।
हे मां! तुम्हारी स्तुति करने से नीच और चाण्डाल भी मीठी और मधुर वाणी बोलने वाले महाकवि हो जाते हैं और रंक भी दुःख की अग्नि से बचकर करोड़ों स्वर्ण मुहरों से युक्त धनिक बन जाते हैं। तुम्हारा शब्द कान में पड़ते ही मनुष्य श्रेष्ठ बल प्राप्त करता है। हे माता! तुम्हारी स्तुति करने के ढंग को कौन जानता है?
जगदम्ब! विचित्रमत्र किं, परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । अपराध परंपरावृतं, नहि माता समुपेक्षते सुतम् ।।
हे जगदम्बे! यदि तुम्हारी मेरे ऊपर कृपा हो, तो इसमें क्या विचित्रता है? अपराधों की चाहे कितनी ही परम्परा क्यों न हो, लेकिन मां अपने पुत्र की कभी उपेक्षा नहीं करती।
मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा नहि । एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ।।
मेरे समान तो कोई पातकी नहीं है तथा तुम्हारे समान पाप नाश करने वाली कोई नहीं है, ऐसा जानकर हे महादेवि! जैसा तुम्हें उचित लगे, वैसा करो।
12—ब्राह्मण भोजन
पुरश्चरण में प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन कराने का विधान है। जो लोग पुरश्चरण कार्य में नियोजित हैं, उनकी भोजन व्यवस्था का भार तो, यजमान को उठाना ही होता है, इसके अतिरिक्त चिड़ियों को दाना, चींटियों को चावल का चूर्ण और शक्कर मिलाकर, गौओं को आटे की लोई खिलानी चाहिये। उपस्थित लोगों को पंचामृत—दूध, दही, घृत, मधु-शर्करा, जल एवं तुलसी-पत्र का सम्मिश्रण पंचामृत अथवा कोई अन्य मधुर वस्तु प्रसाद रूप में वितरित करनी चाहिये। समाप्ति के साथ-साथ कीर्तन, सामूहिक प्रार्थना एवं आरती का सम्मिलित रूप से मधुर गायन करना चाहिये और अभिवादन एवं आशीर्वाद की भावनाओं के साथ सब लोगों को कार्य समाप्त करना चाहिये। प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में दान का विधान है। कहा गया है कि बिना दक्षिणा का यज्ञ निष्फल होता है। ज्ञान-प्रसार करने वाली संस्थाओं, लोक सेवी ब्रह्मपरायण सत्पुरुषों एवं दीन-दुखियों को, पण्डितों को यथाशक्ति प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में दान देना आवश्यक है। यह दान, भोजन, धन, वस्त्र, पुस्तकें या अन्य उपयोग की वस्तुओं के रूप में किया जा सकता है।
गायत्री लहरी
अमन्दानंदेनामरवरगृहे वास निरतां- नरं गायन्तं या भुवि भवभयात्त्रायते इह । सुरेशैः सम्पूज्यां मुनिगणनुतां तां सुखकरीं नमामो गायत्रीं निखिलमनुजाघौघशमनीम् ।।1।।
अर्थ—आनन्दपूर्वक देवलोक में निवास करने वाली, अपने भक्त की सांसारिक भयों से रक्षा करने वाली, देवताओं द्वारा पूजित, प्राणिमात्र के पापों का विनाश करने वाली गायत्री माता को हम भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं।
अवामा संयुक्तं सकलमनुजैर्जाप्यमभितो- ह्यपावात्पायाभूरथ भुवि भुवः स्वः पदमिति । पदं तन्मे पादाववतु सवितुश्चैव जघने- वरेण्यं श्रोणिं मे सततमवतान्नाभिमपि च ।।2।।
पदं भर्गो देवस्य मम हृदयं धीमहि तथा- गलंपायान्नित्यं धिय इह पदं चैव रसनाम् । तथा नेत्रे योऽव्यादलकमवतान्नः पदमिति- शिरोदेशं पायान्मम तु परितश्चान्तिमपदम् ।।3।।
अर्थ—ओंकार और अनुस्वार से युक्त प्रत्येक प्राणी द्वारा जपने योग्य ॐ भूर्भुवः स्वः ये पद सम्पूर्ण पापों से मेरी रक्षा करें तथा तत् पद पैरों की, सवितुः जांघों की, वरेण्यं कटि की, भर्गो पद नाभि की, देवस्य पद हृदय की धीमहि, गले की, धियः जिह्वा की, यः नयनों की और नः ललाट की एवं अन्तिम पद प्रचोदयात् मेरे सिर की सर्व प्रकार से रक्षा करे। इन दोनों श्लोकों में पूरा गायत्री मन्त्र है और उसके द्वारा अपने सर्वांग संरक्षण की प्रार्थना की गयी है। इसे युग्मक कहते हैं। अये दिव्ये देवि त्रिदशनिवहैर्वदितपदे, न शेकुस्त्वां स्तोतुं भगवति महान्तोऽपि मुनयः । कथंकारं तर्हिस्तुतिततिरियं मे शुभतरा- तथा पूर्णा भूयात् त्रुटिपरियुता भावरहिता ।।4।।
अर्थ—हे देवताओं द्वारा पूजनीय चरणों वाली गायत्री माता! तेरी स्तुति करने में बड़े-बड़े मुनि भी समर्थ नहीं हैं। तब मेरी यह दोषों से युक्त तथा भाव से रहित स्तुति उपयुक्त कैसे हो सकती है? तथापि मैं स्तुति करता हूं, सो स्वीकृत करो।
भजन्तं निर्व्याजं तव सुखदमन्त्रं विजयिनं, जनं यावज्जीवं जपति जननि त्यं सुखयसि । न वा कामं काचित् कलुषकणिकाऽपि स्पृशति तं, संसार संसारम् सरति सहसा तस्य सततम् ।।55।।
हे माता! तेरे सुखद और विजयी मन्त्र को जो जन जपता है, उसको तुम सुखी बनाती हो और उसको पाप की कणिका स्पर्श नहीं करती एवं उसका सांसारिक वातावरण आनन्दयुक्त हो जाता है।
दधानां ह्याथानं सितकुवलयास्फालनरुचां, स्वयं विभ्राजन्ता त्रिभुवनजनाह्लादनकरीम् । अलं चालं चालं मम चकितचित्तं सुचपत्नं, चलच्चन्द्रास्ये त्वद्वदनरुचमाचामय चिरम् ।।6।।
हे चंचल चन्द्र के समान मुख वाली! श्वेत कमल की कमनीय कान्ति-समूह को धारण करने वाली, संसार के प्राणियों को सुख देने वाली दांतों की ज्योति का मेरे चलायमान चंचल चित्त को शीघ्र पान कराओ।
ललामे भाले ते बहुतर विशालेऽत्ति विमले, कला चञ्चच्चांद्री रुचिरतिलकावेन्दुकलया । नितान्तं गोमाया निविड तमसो नाश व्यसना, तमो मे गाढं हि हृदयसदनस्थं ग्लपयतु ।।7।।
हे भगवति! आपके विशाल भाल पटल पर, जो चन्द्रमा की कला अथवा चन्द्राकार तिलक शोभायमान हो रहा है, उसकी कान्ति जो भूतल के अन्धकार का नाश करने वाली है, वह मेरे हृदय-सदन के अन्धकार को दूर करे।
अद्ये मातः किन्ते चरण-शरणं संश्रयवतां- जनानामन्तस्थो वृजिन हुतभुक् प्रज्वलति यः । तदस्याशु सम्यक् प्रशमनहितायैव विधृतं- करे पात्रं पुण्यं सलिलभरितं काष्ठरचितम् ।।8।।
हे माता गायत्री! आपके चरणों की शरण ग्रहण करने वाले प्राणियों के हृदय में, पाप रूपी जो आग लगी है, उसको शीघ्र शान्त करने के लिये आपने अपने कर-कमल में, जल-पूरित काष्ठनिर्मित कमण्डलु धारण किया है क्या?
अथाहोस्विन्मातः सरिदधिपतेः सारमखिलं, सुधारूपं कूपं लघुतरमनपं कलयति । स्वभक्तेभ्यो नित्यं वितरसि जनोद्धारिणि शुभे, विहीने दीने मय्यपि कृपय किंचित् करुणया ।।9।।
अथवा हे माता! समुद्र के सारभूत अमृत को ही अपने कमण्डलु रूपी छोटे से कूप में भरकर, अपने प्रिय भक्तों को वितरित करती हो। हे प्राणिमात्र के उद्धार करने वाली शुभे! दीन-हीन मुझ पर भी कुछ कृपा कीजिये।
सदैव त्वत्पाणौ विधृतमरविन्दं द्युतिकरं, त्विदं दर्शं दर्शं रविशशिसमं नेत्रयुगलम् । विचिंत्य स्वां वृत्तिं भ्रमविषमजालेऽस्ति पतित- मिदं मन्ये नोचेत् कथमिति भवेदर्ध-विकचम् ।।10।।
हे माता! तुम्हारे हाथ में जो कमल शोभायमान हो रहा है, वह आपके सूर्य और चन्द्र के समान नेत्र युगल को देखकर भ्रम में पड़ गया है और अपनी वृत्ति का विचार कर सूर्योदय समझ खिलना चाहता है और चन्द्रमा को देख मुकुलित होना चाहता है, ऐसा मैं मानता हूं। नहीं तो वह कमल दिन-रात अधखिला क्यों रहता है?
स्वयं मातः किम्वा त्वमसि जलजानामपि खनि- र्यतस्ते सर्वांगं कमलमयमेवास्ति किमु नो । तथा भीत्या तस्माच्छरणमुपयातः कमलराट्- प्रयुञ्जानोऽश्रान्तं भवति तदिहैवासनविधौ ।।11।।
अथवा हे माता! तुम स्वयं कमलों की खान हो क्या, क्योंकि आपका सम्पूर्ण अंग ही क्या कमलमय नहीं है? अतएव जो कमलों का राजा है, वह आपके शरण में डर कर आया है और वही निरन्तर आपके आसन के प्रयोग में आता है।
दिवौकोभिर्वन्द्ये विकसित सरोजाक्षि सुखदे, कृपादृष्टेर्वृष्टिः सुनिपतति यस्योपरि तव । तदीया वाञ्छा किं द्रुतमनु विधेयास्ति सकला, अतोमंतोस्तंतून् मम सपदि छित्वाऽम्ब सुखय।।12।।
हे देवताओं द्वारा पूजनीये! विकसित कमल के समान नेत्र वाली सुखदायिनी, आपकी कृपा दृष्टि की वर्षा जिस पर होती है, उसकी सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कर देती हो, अतएव मेरे भी अपराध शूलों का छेदन कर सुख प्रदान करो।
करेऽक्षाणां माला प्रविलसति या तेऽतिविमले, किमर्थं सा कान् वा गणयसि जनान् भक्ति निरतान् । जपन्ती कं मन्त्रं प्रशमयसि दुःखं जनिजुषा, मये का वा वांछा तव वरिवृति त्वत्र वरदे ।।13।।
हे माता! तेरे एक हाथ में जो अक्षमाला विराजित है वह किस लिये है? किन भक्तों को उसके द्वारा गिनती हो? अथवा किस मन्त्र को जपकर प्राणियों के दुःखों का शमन करती हो? हे वरदायिनी, अथवा और मन्त्र जपकर क्या करना चाहती हो?
न मन्ये धन्येऽहं त्ववितथमिदं लोकगदितं, ममत्रोक्तिर्मत्वा कमलमिव फुल्लं तव करम् । विजृम्भा संयुक्त द्युतिमयमिदं कोकनदमि- त्यरं जनानेयं मधुकरततिः संविलसति ।।14।।
हे धन्ये! यह जो लोकोक्ति ऊपर कही गयी है, इसे मैं तो उपयुक्त नहीं मानता। इस विषय में मेरी उक्ति ही युक्त है कि आपके हाथों को विकसित कमल मानकर यह भ्रमरों की पंक्ति मंडरा रही है।
महामोहाम्भोधौ मम निपतता जीवनतरि- र्निरालम्बा दोला चलित दुरवस्थामधिगता । जलावर्त व्यालो ग्रसितुमभितो वांछति च तां करालम्बं दत्वा भगवति द्रुतं तारय शिवे ।।15।।
हे भगवति! कल्याणमयी इस संसार रूपी विशाल समुद्र में, मेरी जीवन नौका पड़ी हुई है और वह बिना सहायता के बुरी अवस्था को प्राप्त हो गयी है। उसको भंवर रूप सर्प डसने की इच्छा कर रहा है। अतएव हे माता! उसे शीघ्र तिराओ तथा अपने कर कमल का सहारा दो।
दधानासित्वं यत् स्ववपुषि पयोधारि-युगल- मिति श्रुत्वा लोकैर्मम मनसि चिन्ता समभवत् । कथं स्यात् सी तस्मादलक लतिका मस्तक भुवि, शिरोद्यां हृद्येयं जलदपटली खेलति किल ।।16।।
हे माता! आप दो पयोधरों को धारण करती हो, ऐसा लोगों के द्वारा सुनकर मेरे मन में चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह मस्तक रूपी भूमि पर केशपाशमयी लता कैसी हो सकती है। यह तो निश्चय ही मस्तकाकाश पर मेघमण्डली क्रीड़ा कर रही है ।।16।।
तथा तत्रैवोपस्थितिमपि निशीथिन्यधिपतेः प्रपश्यामि श्यामे सह सहचरैस्तारक गणैः । अहोरात्रः क्रीडा परवशमितास्तेऽपि चकिता श्चिरं चिक्रीडन्ते तदपि महदाश्चर्य-चरितम् ।।17।।
तथा साथ ही हे माता! उस समस्त आकाश में चन्द्र को अपने सहचर तारागणों के साथ ही मैं देख रहा हूं, रात-दिन क्रीड़ा में रत होकर आश्चर्ययुक्त क्रीड़ा नित्य करते ही रहते हैं। यह भी आश्चर्यमय चरित्र है, क्योंकि सूर्योदय होने पर दिन में चन्द्र-तारे अदृश्य हो जाते हैं, किन्तु यहां नहीं होते।
यदाहुस्तं मुक्ता पटल जटितं रत्न मुकुटं, न धत्ते तेषां सा वचनरचना साधुपदवीम् । निशैषा केशास्तु नहि विगत वेशा धुवमिति, प्रसन्नाऽध्यासन्ना विधुपरिषदेषा विलसति ।।18।।
कुछ लोगों का कहना है कि यह तो अनेक मणि-माणिक्यों में जड़ा हुआ मुकुट है, किन्तु मेरी सम्मति से यह बात उनकी ठीक नहीं जंचती। यह तो निशा ही है, विगत वेश, केश नहीं है, ऐसा निश्चय करके ही यह प्रसन्नतापूर्वक चन्द्रमा की सभा शोभित हो रही है।
त्रिबीजे हे देवि त्रि प्रणवसहिते त्र्यक्षरयुते, त्रिमात्रा राजन्ते भुवनविभवे ह्योमितिपदे । त्रिकालं संसेव्ये त्रिगुणवति च त्रिस्वरमयि, त्रिलोकेशैः पूज्ये त्रिभुवनभयात्राहि सततम् ।।19।।
है तीन बीज वाली, तीन ओंकार युक्त मन्त्र वाली, तीन अक्षर वाली! ‘ओं’ इस एक मात्र सारभूत मन्त्र में तीन मात्रा शोभित हैं। हे तीनों काल में सेवनीय, तीन गुण वाली, तीन स्वर वाली, तीन लोक के ईश देवताओं द्वारा पूजनीय माता हमारी सांसारिक भय से रक्षा करो।
न चन्द्रो नैवेमे नभसि, वितता तारकगणाः, त्विषां राशी रम्या तव चरणयोरम्बुनिचये । पतित्वा कल्लोलैः सह परिचयाद्विस्तृतिमिता, प्रभा सैवाऽनन्ता गगनमुकुरे दीव्यति सदा ।।20।।
आकाश में ये चन्द्रमा और तारागण नहीं हैं; किन्तु आपके चरणों की छाया जल में गिर कर तरंगों के साथ परिचय होने से विस्तार को प्राप्त हो गयी और वही आभा आकाश रूपी कांच में देदीप्यमान हो रही है।
त्वमेव ब्रह्माणी त्वमसि कमला त्वं नगसुता, त्रिसन्ध्यं सेवन्ते चरणयुगलं ये तव जनाः । जगज्जाले तेषां निपतित जनानामिह शुभे, समुद्धारार्थं किं मतिमति ! भतिस्ते न भवति ।।21।।
तू ही ब्रह्माणी, कमला एवं रुद्राणी है। तीनों काल में जो आपके चरण की सेवा करते हैं, उन जगजाल में फंसे हुए प्राणियों के उद्धार के लिये हे मतिमती! आपकी मति नहीं होती है क्या? अर्थात् अवश्य होती है।
अनेकैः पापौधेर्लुलित वपुषं शोक सहितं, लुठन्तं दीनं मां विमल पदयो रेणुषु तव । गलद्वाष्पं शश्वद् जननि सहसाश्वासनवचो, ब्रुवाणोत्तिष्ठ त्वं अमृतकणिकां पास्यसि कदा ।।22।।
अनेक पापों के समुदाय से जर्जर शरीर वाले, शोकयुक्त मुझ दीन को आपके पांवों की धूल में लोटते हुए अश्रुपूर्ण नेत्र वाले मुझ पापी को आश्वासन के वचन कहती हुई—हे बेटा! उठ, ऐसे वचनों के अमृत कण का कब पान कराओगी?
न वा मादृक् पापी नहि तव समा पापहरणी, न दुर्बुद्धिर्मादृक् न च तव समा धी वितरिणी । न मादृर् गर्विष्ठो नहि तव समा गर्वहरणी, हृदि स्मृत्वा ह्येवं मामयि । कुरु यथेच्छा तव यथा ।।23।।
मेरे जैसा पापी नहीं और आप जैसी पाप हरणी नहीं, मेरे जैसा मूर्ख नहीं और आप जैसी बुद्धिदायी नहीं। मेरे जैसा अभिमानी नहीं और आप जैसी गर्वहारिणी नहीं। अतएव हे माता! यह सब विचार कर चाहे जैसा करो।।23।।
दरीधर्ति स्वांतेऽक्षर वर चतुर्विंशतिमितं, त्वदन्तर्मन्त्रं यत्त्वयि निहित चेतो हि मनुजः । समन्ताद भास्वन्तं भवति भुवि संजीवनवनं, भवाम्भोधेः पारं व्रजति स नितान्तं सुखयुतः ।।24।।
जो मनुष्य आपके 24 अक्षर वाले मन्त्र को हृदय में धारण करता है वह सुखी है। वह संसार समुद्र से पार हो जाता है और उसका जीवन-वन हरा-भरा हो जाता है।।24।।।
भगवति ! लहरीयं रुद्रदेव प्रणीता तव चरण सरोजे स्थाप्यते भक्तिभावैः । कुमतितिमिरपंकस्यांकमग्नं सशंकं, अयि ! खलु कुरु दत्त्वा वीतशंकं स्वमंकम् ।।25।।
हे भगवति! यह लहरी रुद्रदेव द्वारा रचित तेरे चरण कमलों में स्थापित की जाती है। कुमति रूपी अन्धकार के कीचड़ की गोद में मग्न, शंकित मुझको अपनी गोद की शरण दे निर्भय करिये।।25।।। ।। इति श्री रुद्रदेव विरचित गायत्री लहरी समाप्त ।।
न्यास का अर्थ है—स्थापना। किसी स्थान में किसी वस्तु की स्थापना करना न्यास करना कहलाता है। साधना पर स्थित होकर दाहिने हाथ का अंगूठा मध्यमा तथा अनामिका को मिलाकर विविध अंगों को स्पर्श करते हैं और उन अंगों में गायत्री-शक्तियों की स्थापना की भावना करते जाते हैं। इस प्रकार की भावना से साधक अपने अंग-प्रत्यंगों में एक दैवी शक्ति का अनुभव करता है। यह भावना अपने श्रद्धा-विश्वास के कारण सचमुच दृढ़ता और पुष्टि प्रदान करती है। न्यास शक्ति
सावित्री में शिरः पातु शिखायाममृतेश्वरी । ललाटं ब्रह्मदैवत्या भ्रुवौ मे पातु वैष्णवी ।।
सावित्री शिर की रक्षा करें, अमृतेश्वरी शिखा की, ब्रह्म देवी ललाट की तथा वैष्णवी भ्रू की रक्षा करें।
कर्णौ मे पातु रुद्राणी सूर्या सावित्रिकाम्बके । गायत्री वदनं पातु शारदा दशनच्छदौ ।।
रुद्राणी कान की, सूर्य में रहकर सभी प्राणियों का सृजन करने वाली भगवती सावित्री दोनों नेत्रों की, गायत्री मुख की तथा शारदा ओठों की रक्षा करें। द्विजान्यज्ञप्रिया पातु रसनां तु सरस्वती । सांख्यायनी नासिकां मे कपोलौ चन्द्रहासिनी ।।
द्विजों की यज्ञ-प्रिया जीभ की सरस्वती नासिका की सांख्यायनी तथा कपाल की चन्द्रहासिनी रक्षा करें।
चिबुकं वेद गर्भा च कण्ठं पात्वघनाशिनी । स्तनौ मे पातु इन्द्राणी हृदयं ब्रह्मवादिनी ।।
ठोड़ी में वेदगर्भा, अघनाशिनी कण्ठ की, इन्द्राणी स्तनों की, ब्रह्मवादिनी हृदय की रक्षा करें।
उदरे विश्व भोक्त्री च नाभिं पातु सुरप्रिया । जघनं नारसिंहीं च पृष्ठं ब्रह्मांडधारिणी ।।
विश्वभोक्त्री उदर की, सुरप्रिया नाभि की, नारसिंही जघन की तथा ब्रह्माण्डधारिणी पीठ की रक्षा करें।
पार्श्वौ मे पातु पद्माक्षी गुह्यं गोगोप्विकाऽवतु । ऊर्वोरोंकाररूपा च जान्वोः सन्ध्यात्मिकाऽवतु ।।
पद्माक्षी पार्श्व की, गोप्त्रिका गुह्य की, ओंकार रूपा ऊरु की तथा सन्ध्यात्मिका जानु की रक्षा करें।
जंघयोः पातु अक्षोभ्या मुल्फयोर्ब्रह्मशीर्षका । सूर्या पदद्वयं पातु चन्द्रा पादांगुलीषु च ।।
अक्षोभ्या जंघा की, ब्रह्मशीर्षका गुल्फ की, सूर्या दोनों पैरों की अंगुलियों की रक्षा करें।
सर्वांगं वेदजननी पातु मे सर्वदाऽनघा । इत्येतत्कवचं ब्रह्मन् गायत्र्याः सर्व-पावनम् । पुण्यं पवित्रं पापघ्नं सर्व-रोग-निवारणम् ।।
वेद जननी सब शरीर की, सर्वदा मेरी रक्षा करें। यह सर्व पावन ब्रह्म गायत्री का कवच है, जो पुण्यकारी, पवित्रकारी, पापनाशक तथा सर्वरोग निवारक है।
त्रिसंध्यं यः पठेद्विद्वान् सर्वान्कामानवाप्नुयात् । सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स भवेद्वेदवित्तमः ।।
त्रिसन्ध्या पाठ करने से विद्वान् सब कामनाओं को प्राप्त करता है, वह सब शास्त्रों का जानकार हो जाता है। वेदज्ञ हो जाता है।
सर्व यज्ञ फलं प्राप्य ब्रह्मान्ते समवाप्नुयात् । प्राप्नोति जपमात्रेण पुरुषार्थांश्चतुर्विधान् ।।
सब यज्ञों का फल उसे मिलता है। अन्त में ब्रह्म की प्राप्ति होती है और जप मात्र से ही वह चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। प्रार्थना और स्तुति से, उस शक्ति की महत्ता पर अपना ध्यान केन्द्रित होता है। महिमा में जिन विशेषताओं का वर्णन होता है, उनका प्रायः अपने में अभाव रहने से मन उस ओर आकर्षित होता है और उधर रुचि एवं श्रद्धा उत्पन्न होती है। जैसे किसी निर्धन और भुखमरे व्यक्ति के सामने किसी के बड़े भारी ऐश्वर्य का वर्णन किया जाए और स्वादिष्ट बढ़िया भोजनों का रोचक वर्णन किया जाए, तो वह उस ओर लालायित होता है और उस स्थिति को या उन स्वादिष्ट पदार्थों को प्राप्त करने के लिये उसके मन की लालसायें प्रदीप्त हो जाती हैं। यह लालसाओं का प्रदीप्त होना किसी कार्य में तत्परतापूर्वक लगने का प्रधान हेतु होता है। स्तोत्र पाठ से साधक मैं श्रद्धा भक्ति की जागृति होती है।
गायत्री स्तोत्र
सुकल्वाणीं वाणीं सुरमुनिवरैः पूजितपदाम् ।शिवामाद्यां वन्द्यां त्रिभुवनमयीं वेदजननीम् ।।
परां शक्तिं स्रष्टुं विविधविध रूपां गुणमयीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।1।।
विशुद्धां सत्त्वस्थामखिल दुरवस्थादिहरणीम् । निराकारां सारां सुविमल तपो मूर्त्तिमतुलाम् ।।
जगज्ज्येष्ठां श्रेष्ठामसुरसुरपूज्यां श्रुतिनुताम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।2।।
तपो निष्ठाभीष्टांस्वजनमनसन्तापशमनीम् । दयामूर्तिं स्फूर्तिं यतितति प्रसादैकसुलभाम् ।।
वरेण्यां पुण्यां तो निखिल भव बन्धापहरणीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।3।।
सदाराध्यां साध्यां सुमति मति विस्तारकरणीम् । विशोकामालोकां हृदयगत मोहान्धहरणीम् । परां दिव्यां भव्यामगमभवसिन्ध्वेक तरणीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।4।।
अजां द्वैतां त्रैतां विविधगुणरूपां सुविमलाम् । तमो हन्त्रीं-तन्त्रीं श्रुति मधुरनादां रसमयीम् ।।
महामान्यां धन्यां सततकरुणाशील विभवाम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।5।।
जगद्धात्रीं पात्रीं सकल भव संहारकरणीम् । सुवीरां धीरां तां सुविमल तपो राशि सरणीम् ।।
अनेकामेकां वै त्रिजगसदधिष्ठानपदवीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।6।।
प्रबद्धां बुद्धां तां स्वजनमति जाड्यापहरणाम् । हिरण्यां गुण्यां तां सुकविजन गीतां सुनिपुणीम् ।।
सुविद्यां निरवद्याममल गुणगाथां भगवतीम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।7।।
अनन्तां शान्तां यां भजति बुध वृन्दः श्रुतिमयीम् । सुगेयां ध्येयां यां स्मरति हदि नित्यं सुरपतिः ।।
सदा भक्त्या शक्त्या प्रणतमतिभिः प्रीतिवशगाम् । भजेऽम्बां गायत्रीं परमसुभगानन्दजननीम् ।।8।।
शुद्ध चित्तः पठेद्यस्तु गायत्र्या अष्टकं शुभम् । अहो भाग्यो अवेल्लोके तस्मिन् माता प्रसीदति ।।9।।
गायत्री वाणी का कल्याण करने वाली है। सुर, मुनि द्वारा इसकी पूजा की जाती है। इसे शिवा कहते हैं। यह आद्या है, त्रिभुवन में वन्दनीय है, वेद-जननी है, पराशक्ति है, गुणमयी है तथा विविध रूप धारण करके प्रादुर्भूत होती है। इस माता गायत्री का, जो सौभाग्य और आनन्द का सृजन करती है, हम भजन करते हैं। ।1।। गायत्री विशुद्ध तत्त्व वाली, सत्त्वमयी तथा समस्त दुःख, दोष एवं दुरवस्था हरने वाली है। यह निराकार है, सारभूत है और अतुल तप की मूर्ति एवं विमल है। यह संसार में सबसे महान् है, ज्येष्ठ है। देवता तथा असुरों से पूजित है। उस सौभाग्य एवं आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते हैं।।2।। गायत्री का तपोनिष्ठ रहना भी अभीष्ट है। यह स्वजनों के मानसिक संतापों का शमन करने वाली है। यह स्फूर्तिमयी है, दया मूर्ति है और उसकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेना अत्यंत सुलभ है। वह संसार के समस्त बन्धनों का हरण करने वाली है एवं वरण करने योग्य है। उस परम सौभाग्य एवं आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते हैं।।3।। गायत्री निरन्तर आराधना करने योग्य है और उसकी आराधना करना अत्यंत साध्य है। वह सुमति का विस्तार करने वाली है। वह प्रकाशमय है, शोकरहित है और हृदय में रहने वाले मोहान्धकार को दूर करने वाली है। वह परा है, दिव्य है, अगम संसार सागर से तरने के लिये नौका के समान है, उस परम सौभाग्य और आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते है। गायत्री अजन्मा है, द्वैता है, त्रिगुण एवं सुविमल रूपमयी है। तम को दूर करती है। विश्व की संचालिका है। वाणी सुनने में मधुर एवं रसमयी है। वह महा मान्य है, धन्य है और उनका वैभव निरंतर करुणाशील है। उस परम सौभाग्य एवं आनन्द की जननी मात गायत्री का हम भजन करते हैं। गायत्री संसार की माता है और सकल संसार की संहार करने की भी उनमें शक्ति है। वह वीर है, धीर है और उसका जीवन पवित्र तपोमय है। वह एक होते हुए भी अनेक रूपों में है। उसकी पदवी संसार की अधिष्ठात्री की है। उस परम सौभाग्य एवं आनन्द की जननी माता गायत्री का हम भजन करते हैं।।6।। गायत्री प्रबुद्ध है, बोधमयी है, स्वजनों की जड़ता को नाश करने वाली है, हिरण्यमयी है, गुणमयी है, जिनकी निपुणता सुकवि जनों द्वारा गाई जाने वाली है। निरवद्य है, उनके रूपों में गुणों की गाथा अकथनीय है। वे भगवती अम्बा गायत्री उस परम सौभाग्य एवं आनंद की जननी है, मैं उनका भजन करता हूं।।7।। गायत्री अनन्त है, इसका भजन करके पण्डित लोग वेदमय हो जाते हैं इसका गान, ध्यान तथा स्मरण इन्द्र नित्यप्रति हृदय से करता है। सदा भक्तिपूर्वक, शक्ति के साथ, आत्म-निवेदन पूर्वक, प्रेमयुक्त आनंद एवं सौभाग्य की जननी माता गायत्री की मैं उपासना करता हूं।।8।। इस शुभ गायत्री अष्टक को जो लोग शुद्ध चित्त होकर पढ़ते हैं, वे इस संसार में भाग्यवान् हो जाते हैं और माता की उन पर पूर्ण कृपा रहती है ।।9।।
4—शापमोचन
गायत्री को शाप लगने के बारे में दो कथायें पुराणों में मिलती हैं। एक है कि ब्रह्माजी की प्रथम पत्नी सावित्री अपने पति की आज्ञा न मानकर यज्ञ में सम्मिलित नहीं हुई, तब उन्होंने दूसरी पत्नी गायत्री को साथ लेकर यज्ञ-कर्म पूरा किया। इस पर सावित्री बहुत कुपित हुईं और उन्होंने गायत्री को शाप दिया कि तुम्हारी शक्ति नष्ट हो जायेगी। इस शाप से सर्वत्र बड़ी चिन्ता फैली। देवताओं ने अनुनय-विनय कर प्रार्थना की कि गायत्री को शाप से मुक्त कर दिया जाए, अन्यथा ब्रह्मशक्ति की बड़ी भारी क्षति होगी। तब सावित्री ने एक मन्त्र बताया, जिसके पढ़ने से गायत्री शापमुक्त हो जाती है और जो उसका प्रयोग नहीं करता, उसके लिये गायत्री शाप युक्त रहती है। दूसरा उपाख्यान इस प्रकार मिलता है कि किसी समय ब्रह्मा, वशिष्ठ और विश्वामित्र ने अपनी-अपनी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करने की शक्ति प्राप्त करने के लिये गायत्री-उपासना की थी, परन्तु गायत्री ने इनकी इच्छा पूर्ण न की। तब उन तीनों ने क्रुद्ध होकर गायत्री को शाप दिया कि तुम्हारी शक्ति नष्ट हो जाए। शाप के फलस्वरूप गायत्री शक्तिहीन हो गयीं। तब देवताओं की प्रार्थना करने पर उन तीनों ने शाप-मुक्ति का यह उपाय बताया कि जो मनुष्य शापमोचन मन्त्र के साथ जप करेगा, उसके लिये गायत्री शक्ति वाली होगी। शापोद्धार के मन्त्र ॐ अस्य गायत्री शापविमोचन मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्दो वरुणो देवता ब्रह्मशापविमोचने विनियोगः । इस गायत्री शाप विमोचन, मन्त्र के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, वरुण देवता हैं तथा ब्रह्म-शाप के मोचन में इसका प्रयोग होता है। ॐ यद् ब्रह्मेति ब्रह्मविदो विदुस्त्वां पश्यन्ति धीराः । सुमनसो त्वं गायत्रि ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव ।। हे गायत्रि! ब्रह्मवेत्ता जिसको ब्रह्मनाम से कहते हैं, धीर पुरुष अपने अन्तःकरण में आपको उसी रूप में देखते हैं, आप ब्रह्म-शाप से विमुक्त हों। ॐ अस्य गायत्री वशिष्ठशापविमोचन मन्त्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुऽष्टुप् छन्दो, वशिष्ठ देवता, वशिष्ठ शाप विमोचने विनियोगः ।। गायत्री के वशिष्ठ-शाप विमोचन मन्त्र के वशिष्ठ ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, वशिष्ठ देवता हैं तथा वशिष्ठ के शाप विमोचन में विनियोग है। ॐ अर्क ज्योतिरह ब्रह्मा ब्रह्म ज्योतिरहं शिवः । शिव ज्योतिरह विष्णुः विष्णुर्ज्योतिः शिवः परः । गायत्रि त्वं वशिष्ठशापाद्विमुक्ता भव ।। मैं सूर्य की ज्योति ब्रह्मा हूं। मैं ब्रह्मा की ज्योति शिव हूं। मैं शिव की ज्योति विष्णु हूं। मैं विष्णु की ज्योति शिव हूं। हे गायत्री! आप वशिष्ठ के शाप से विमुक्त हों। ॐ अस्य गायत्री विश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य विश्वामित्र ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, आद्या देवता विश्वामित्र शापविमोचने विनियोगः ।। विश्वामित्र शाप विमोचन मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और आद्य देवता हैं तथा विश्वामित्र के शाप विमोचन में इनका प्रयोग होता है। ॐ अहो देवि महादेवि सन्ध्ये विद्ये सरस्वति । अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते । गायत्रि त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्त भव ।। हे देवि! हे महादेवि! हे ज्ञानरूपे! हे सन्ध्या रूपे! हे सरस्वति! हे जरारहिते! हे मरणरहिते! आपको नमस्कार है। हे गायत्रि! आप विश्वामित्र के शाप से मुक्त हों। 5—हवन
गायत्री-हवन की विधि गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग में बताई जा चुकी है कि हवन किस प्रकार करना चाहिये तथा किस उद्देश्य के लिये किन-किन सामग्रियों का हवन करना चाहिये, कुण्ड या वेदी कैसे बनानी चाहिये, उन सब बातों को बार-बार दुहराने से कोई लाभ नहीं। पाठक उसे देखकर हवन का सारा परिचय प्राप्त कर लें। आहुति मन्त्र के लिये गायत्री ही एक मात्र मन्त्र है, उसके अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द जोड़कर आहुति देनी चाहिये।
6—तर्पण
तर्पण के लिये नदी या सरोवर में खड़े होकर, कुश हाथ में लेकर, यज्ञोपवीत को अंगूठे और तर्जनी के बीच में होते हुए हाथ में अटका हुआ निकालकर, अंजलि जल भरकर अर्घ्य की भांति उंगलियों के छोरों की ओर जल विसर्जित करे। तर्पण के समय दोनों हाथों की अनामिका उंगलियों में कुश की बनी हुई अंगूठी पहने। शिखा में, दोनों पैरों के नीचे, यज्ञोपवीत में तथा धोती की अण्टी में कुश के टुकड़े लगा लेने चाहिये।
तर्पण मन्त्र—
ॐ भूर्भुवः स्वः पुरुषमृग्यजुः साममंडलान्तर्गत सवितारमावाहयामीत्यावाह्य तर्पणं कुर्यात्। ॐ भूः पुरुषमृग्वेदं तर्पयामि । ॐ भुवः पुरुषं यजुर्वेदं तर्पयामि । ॐ स्वः पुरुषं सामवेदं तर्पयामि । ॐ महः पुरुषमथर्ववेदं तर्पयामि । ॐ जनः पुरुषमितिहासपुराणं तर्पयामि । ॐ तपः पुरुषं सर्वागमं तर्पयामि । ॐ सत्यं पुरुषं सर्वलोकं तर्पयामि । ॐ भूर्भुवः स्व (पुरुषं) ऋग्यजुः साममण्डलान्तर्गतं तर्पयामि । ॐ भूरेकं पादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ भुवर्द्विपादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ स्वस्त्रिपादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ भूर्भुवः स्वश्चतुष्पादं गायत्रीं तर्पयामि । ॐ उषसं तर्पयामि । ॐ गायत्रीं तर्पयामि । ॐ सावित्रीं तर्पयामि । ॐ सरस्वतीं तर्पयामि । ॐ वेदमातरं तर्पयामि । ॐ पृथिवीं तर्पयामि । ॐ जयां तर्पयामि । ॐ कौशिकीं तर्पयामि । ॐ सांकृतीं तर्पयामि । ॐ सर्वापराजितां तर्पयामि । ॐ सहस्रमूर्तिं तर्पयामि । ॐ अनन्तमूर्ति तर्पयामि । एभिर्मन्त्रैश्च यो नित्यं चतुर्विंशतिभिर्द्विजः । सुतर्पयति गायत्रीं स सन्ध्याफलमाप्नुयात् ।।
7—मार्जन
कुश की एक छोटी-सी कूंची बना लेनी चाहिये। इसका पूजन करके उसमें पवित्रीकरण की शक्ति की श्रद्धा करनी चाहिये। तदनन्तर इस कूंची को ताम्रपत्र में रखे हुए जल में डुबो-डुबोकर बार-बार ऊपर छिड़कना चाहिये, यही मार्जन है। मार्जन की विधि और नौ मन्त्र नीचे दिये जाते हैं। कोई-कोई आचार्य इन नौ मन्त्रों की जगह गायत्री मन्त्र से ही मार्जन का काम लेते हैं।
संकल्प्य मार्जनं कुर्यादापोहिष्ठा कुशोदकैः । पादे पादे क्षिपेन्मूर्ध्नि प्रतिप्रणवसंयुताम् ।।1।।
संकल्प तथा मार्जन करे। मार्जन प्रणवयुक्त आपोहिष्ठा इत्यादि मन्त्र द्वारा कुशोदक से करे, प्रत्येक पाद पर , मूर्धा पर जल निक्षेप करे।
आत्मानं प्रणवेनैव परिसिंच्य जलेन सः । कुर्यात्सप्रणवै पादैर्मार्जनं तु कुशोदकैः ।। ततो हि पाणिस्थ जलं सकुशं प्रक्षिपेदधः ।।2।।
प्रणव से आत्म-कमल पर परिसिंचन करे, फिर कुश सहित जल को नीचे फेंक दें।
स्पृष्ट्वा हस्तेन वामेन तटं नद्यादिकेषु च । पाणिना दक्षिणेनैव मार्जयेत् सकुशेन तु ।।3।।
नदी आदि के तट को बायें हाथ से स्पर्श करे, दाहिने हाथ में कुश को लेकर मार्जन करे।
पाणिस्थितोदकेनैव वामहस्तोदकेन वा । गृहे तु मार्जनं कुर्यान्नान्यथेत्यब्रवीन्मनुः ।।4।।
दायें हाथ पर रखा हुआ जल हो या बायें पर, मनु कहते हैं कि घर में उससे मार्जन करे। आपोहिष्ठेति त्र्यृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषि आपो देवता गायत्री छन्दः मार्जने विनियोगः । आपोहिष्ठेति मंत्र की तीन ऋचाओं के सिन्धु द्वीप हैं, आपः गायत्री है, मार्जन उसका विनियोग है।
ॐ आपोहिष्ठामयो भुवः ।1। ॐ तान ऊर्जे दधातन ।2। ॐ महेरणाय चक्षसे ।3। ॐ यो वः शिवतमो रसः ।4। ॐ तस्यभाजयतेह नः ।5। ॐ उशतीरिव मातरः ।6। ॐ तस्माऽअरंगमामवः ।7। ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ ।8। ॐ आपोजनयथा च नः ।9।
दर्भान्विसृज्य कुशपाणिर्मार्जयेत् । प्रणव युक्तसमस्तया व्याहृत्या गायत्र्या आपोहिष्ठेति नवपादैः शन्नोदेवीरिति सप्तभिर्मार्जयेत् ।। दर्भ को फेंककर जिस हाथ में कुश है, उसे धो डाले। सबके साथ प्रणव लगाकर व्याहृति के साथ गायत्री से आपोहिष्ठा के नव पदों से सात बार मार्जन करे।
नवपादमतिक्रम्य अथर्चा वसुसंख्यया । ऋतं च प्रणवेनैव मार्जनं समुदाहृतम् ।।
नव पाद को छोड़कर-लांघकर-आठ बार प्रणव सहित ‘ऋतं च’ मन्त्र से मार्जन करे।
भुवि मूर्ध्नि तथाऽऽकाश आकाशे भुवि मस्तके । मस्तके भुवि मूर्ध्निस्यान्मार्जनं समुदाहृतम् ।।
भू, मूर्धा तथा आकाश, आकाश; भू और मस्तक; मस्तक, भू और मूर्धा पर क्रमशः मार्जन करे।
8—मुद्रा
गायत्री जप की चौबीस मुद्राएं हैं। हाथ को विशेष आकृति में मोड़ने पर विविध प्रकार की मुद्रायें बनती हैं। मुद्रायें गायत्री प्रतिमा या मन्त्र के सामने एकान्त में दिखाई जाती हैं। किसी के सामने इनका प्रदर्शन नहीं किया जाता। जब दिखाते हैं तब या तो उपस्थित लोगों को हटा देते हैं या किसी वस्त्र का पर्दा कर देते हैं, ताकि उन्हें कोई देख न सके। नीचे चौबीस मुद्राओं का वर्णन किया जाता है।
गायत्री की 24 मुद्रायें
अतः परं प्रवक्ष्यामि वर्णा मुद्राः क्रमेण तु । सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा ।।1।।
अब क्रमशः वर्णों में मुद्राओं का वर्णन करते हैं। सुमुख, सम्पुट वितत, विस्तृत।
द्विमुखं त्रिमुखं चैवं चतुः पञ्चमुखं तथा । षण्मुखाधोमुखं चैव व्यापकांजलिकं तथा ।।2।।
द्विमुख, त्रिमुख, चतुर्मुख, पंचमुख, षण्मुख, अधोमुख, व्यापकांजलि।
शकटं यम पाशं च ग्रन्थितं सन्मुखोन्मुखम् । प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यकूर्मवराहकम् ।।3।।
शकट, यमपाश, ग्रन्थित, सन्मुखोन्मुख, प्रलम्ब, मुष्टिक, मत्स्य, कूर्म, वराहक।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं, मुद्गरं, पल्लवं तथा । एताः मुद्राः चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिताः ।।4।।
सिंहाक्रान्त, महाक्रान्त, मुद्गर, पल्लव—ये 24 मुद्रायें जप के आदि में करने के लिये कही गयी हैं।
चतुर्विंशतिरिमा मुद्रा मायत्र्याः सुप्रतिष्ठिताः । एता मुद्राः न जानाति गायत्री निष्फला भवेत् ।।5।।
उपर्युक्त चौबीस मुद्रायें गायत्री में सुप्रसिद्ध हैं। इन मुद्राओं को न जानने वाले की गायत्री निष्फल हो जाती है।
1. सुमुखम् 2. सम्पुटम् 3. विततम् 4. विस्तृतम् 5. द्विमुखम् 6. त्रिमुखम् 7. चतुर्मुखम् 8. पञ्मुखम् 9. षम्मुखम् 10. अधोमुखम् 11. व्यापकाञ्जलिकम् 12. शकटम् 13. यमपाशम्14. ग्रन्थितम् 15. उन्मुखोन्मुखम् 16. प्रलम्बम् 17. मुष्टिकम् 18, मत्स्यः 19. कूर्मः 20. वराहकम् 21. सिंहाक्रान्तम् 22. महाक्रान्तम् 23. मुद्गरम् 24. पल्लवम्
9—विसर्जन
पूजा के समय गायत्री का आह्वान किया जाता है। प्रतिदिन पुरश्चरण पूरा करते हुए गायत्री का विसर्जन करना चाहिये। विसर्जन का मन्त्र नीचे है— गायत्री का आवाहन मन्त्र— आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि । गायत्रिच्छन्दसां मात ब्रह्मयोनेनमोऽस्तु ते । गायत्री का विसर्जन मन्त्र—
उत्तमे शिखरे देवि भूम्यां पर्वत मूर्धनि । ब्राह्मणेभ्यो ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ।।
10—अर्घ्य-दान
पुरश्चरण से बचे हुए जल से सूर्य के सामने अर्घ्य देना चाहिये। यह जल पवित्र भूमि में छोड़ा जाना चाहिये अथवा किसी चौड़े मुंह के पात्र में अर्घ्य से गिरे हुए जल को लेकर उसे गौओं को पिला देना चाहिये। अर्घ्य की विधि—
मुक्त हस्तेन दातव्यं मुद्रां तत्र न कारयेत् । तर्जन्यंगुष्ठयोगं तु राक्षसी मुद्रिका स्मृता ।।
अर्घ्य देते समय तर्जनी अंगुली की जड़ में अंगूठा मिला हुआ न होना चाहिये। अतः अंगूठे को तर्जनी से बिना मिलाये ही अर्घ्य देना चाहिये। अंगूठे का तर्जनी के साथ योग हो जाने पर राक्षसी मुद्रा हो जाती है। गायत्र्या त्रिरर्घ्यं सूर्याय दद्यात् । गायत्री मन्त्र से तीन बार अर्घ्य सूर्य को दे। पश्चात् नीचे लिखे हुए मन्त्र से सूर्य को अर्घ्य दे। मन्त्र—
सूर्यदेव सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर ।।
हे सहस्ररश्मि सूर्य! तेज की राशि। जगत्पति! मेरे ऊपर आप कृपा करें तथा भक्ति से दिये हुए मेरे अर्घ्य को ग्रहण करें।
11—क्षमा प्रार्थना
प्रत्येक साधना के अन्त में इस क्षमा प्रार्थना स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। इससे जाने या अनजाने में हुई भूलों का दुष्परिणाम शांत हो जाता है।
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो, न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुति-कथाः । न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनम्, परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेश-हरणम् ।
न तो मैं मन्त्र, यन्त्र जानता हूं और न स्तुति ही जानता हूं। आवाहन, ध्यान, स्तुति-कथा भी नहीं जानता हूं, पूजा और मुद्रा भी नहीं जानता, लेकिन इतना जानता हूं कि तुम्हारी शरण क्लेश हरने वाली है।
विधेरज्ञानेन दविणविरहेणालसतया, विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्याच्युतिरभूत् । तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे, कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
हे शिवे! सकल उद्धारिणी जननी! विधि के अज्ञान से, धन की कमी से, आलस्य और सामर्थ्यहीनता के कारण आपकी चरण सेवा करने में जो भूल रह गयी हो, उसको क्षमा करना, क्योंकि पुत्र-कुपुत्र हो सकता है, लेकिन माता-कुमाता नहीं होती।
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः, परं तेषां मध्ये विरल तरलोऽहं तव सुतः । मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे, कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
हे मां! पृथ्वी पर तेरे बहुत से पुत्र हैं, जो सरल हैं, पर उनके बीच में तेरा पुत्र अकेला मैं ही टेढ़ा हो गया हूं। फिर भी हे मां! तेरे लिये त्याग उचित नहीं है; क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं होती है।
जगन्मातर्मातस्तव चरण सेवा न रचिता, न वा दत्तं देवि द्रविमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे, कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
हे जगत् की माता! मैंने तेरे चरण की सेवा नहीं की। हे देवि! तूने मुझे पर्याप्त द्रव्य भी नहीं दिया, जिससे दान ही करता; परंतु तू मेरे ऊपर खूब स्नेह करती है। पुत्र-कुपुत्र हो जाता है, परन्तु माता-कुमाता नहीं होती है।
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिर, निरातंको रंको विहरति चिरं कोटि कनकैः । तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं, जनः को जानीते जननि जपनीयं जप विधौ ।।
हे मां! तुम्हारी स्तुति करने से नीच और चाण्डाल भी मीठी और मधुर वाणी बोलने वाले महाकवि हो जाते हैं और रंक भी दुःख की अग्नि से बचकर करोड़ों स्वर्ण मुहरों से युक्त धनिक बन जाते हैं। तुम्हारा शब्द कान में पड़ते ही मनुष्य श्रेष्ठ बल प्राप्त करता है। हे माता! तुम्हारी स्तुति करने के ढंग को कौन जानता है?
जगदम्ब! विचित्रमत्र किं, परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । अपराध परंपरावृतं, नहि माता समुपेक्षते सुतम् ।।
हे जगदम्बे! यदि तुम्हारी मेरे ऊपर कृपा हो, तो इसमें क्या विचित्रता है? अपराधों की चाहे कितनी ही परम्परा क्यों न हो, लेकिन मां अपने पुत्र की कभी उपेक्षा नहीं करती।
मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा नहि । एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ।।
मेरे समान तो कोई पातकी नहीं है तथा तुम्हारे समान पाप नाश करने वाली कोई नहीं है, ऐसा जानकर हे महादेवि! जैसा तुम्हें उचित लगे, वैसा करो।
12—ब्राह्मण भोजन
पुरश्चरण में प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन कराने का विधान है। जो लोग पुरश्चरण कार्य में नियोजित हैं, उनकी भोजन व्यवस्था का भार तो, यजमान को उठाना ही होता है, इसके अतिरिक्त चिड़ियों को दाना, चींटियों को चावल का चूर्ण और शक्कर मिलाकर, गौओं को आटे की लोई खिलानी चाहिये। उपस्थित लोगों को पंचामृत—दूध, दही, घृत, मधु-शर्करा, जल एवं तुलसी-पत्र का सम्मिश्रण पंचामृत अथवा कोई अन्य मधुर वस्तु प्रसाद रूप में वितरित करनी चाहिये। समाप्ति के साथ-साथ कीर्तन, सामूहिक प्रार्थना एवं आरती का सम्मिलित रूप से मधुर गायन करना चाहिये और अभिवादन एवं आशीर्वाद की भावनाओं के साथ सब लोगों को कार्य समाप्त करना चाहिये। प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में दान का विधान है। कहा गया है कि बिना दक्षिणा का यज्ञ निष्फल होता है। ज्ञान-प्रसार करने वाली संस्थाओं, लोक सेवी ब्रह्मपरायण सत्पुरुषों एवं दीन-दुखियों को, पण्डितों को यथाशक्ति प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में दान देना आवश्यक है। यह दान, भोजन, धन, वस्त्र, पुस्तकें या अन्य उपयोग की वस्तुओं के रूप में किया जा सकता है।
गायत्री लहरी
अमन्दानंदेनामरवरगृहे वास निरतां- नरं गायन्तं या भुवि भवभयात्त्रायते इह । सुरेशैः सम्पूज्यां मुनिगणनुतां तां सुखकरीं नमामो गायत्रीं निखिलमनुजाघौघशमनीम् ।।1।।
अर्थ—आनन्दपूर्वक देवलोक में निवास करने वाली, अपने भक्त की सांसारिक भयों से रक्षा करने वाली, देवताओं द्वारा पूजित, प्राणिमात्र के पापों का विनाश करने वाली गायत्री माता को हम भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं।
अवामा संयुक्तं सकलमनुजैर्जाप्यमभितो- ह्यपावात्पायाभूरथ भुवि भुवः स्वः पदमिति । पदं तन्मे पादाववतु सवितुश्चैव जघने- वरेण्यं श्रोणिं मे सततमवतान्नाभिमपि च ।।2।।
पदं भर्गो देवस्य मम हृदयं धीमहि तथा- गलंपायान्नित्यं धिय इह पदं चैव रसनाम् । तथा नेत्रे योऽव्यादलकमवतान्नः पदमिति- शिरोदेशं पायान्मम तु परितश्चान्तिमपदम् ।।3।।
अर्थ—ओंकार और अनुस्वार से युक्त प्रत्येक प्राणी द्वारा जपने योग्य ॐ भूर्भुवः स्वः ये पद सम्पूर्ण पापों से मेरी रक्षा करें तथा तत् पद पैरों की, सवितुः जांघों की, वरेण्यं कटि की, भर्गो पद नाभि की, देवस्य पद हृदय की धीमहि, गले की, धियः जिह्वा की, यः नयनों की और नः ललाट की एवं अन्तिम पद प्रचोदयात् मेरे सिर की सर्व प्रकार से रक्षा करे। इन दोनों श्लोकों में पूरा गायत्री मन्त्र है और उसके द्वारा अपने सर्वांग संरक्षण की प्रार्थना की गयी है। इसे युग्मक कहते हैं। अये दिव्ये देवि त्रिदशनिवहैर्वदितपदे, न शेकुस्त्वां स्तोतुं भगवति महान्तोऽपि मुनयः । कथंकारं तर्हिस्तुतिततिरियं मे शुभतरा- तथा पूर्णा भूयात् त्रुटिपरियुता भावरहिता ।।4।।
अर्थ—हे देवताओं द्वारा पूजनीय चरणों वाली गायत्री माता! तेरी स्तुति करने में बड़े-बड़े मुनि भी समर्थ नहीं हैं। तब मेरी यह दोषों से युक्त तथा भाव से रहित स्तुति उपयुक्त कैसे हो सकती है? तथापि मैं स्तुति करता हूं, सो स्वीकृत करो।
भजन्तं निर्व्याजं तव सुखदमन्त्रं विजयिनं, जनं यावज्जीवं जपति जननि त्यं सुखयसि । न वा कामं काचित् कलुषकणिकाऽपि स्पृशति तं, संसार संसारम् सरति सहसा तस्य सततम् ।।55।।
हे माता! तेरे सुखद और विजयी मन्त्र को जो जन जपता है, उसको तुम सुखी बनाती हो और उसको पाप की कणिका स्पर्श नहीं करती एवं उसका सांसारिक वातावरण आनन्दयुक्त हो जाता है।
दधानां ह्याथानं सितकुवलयास्फालनरुचां, स्वयं विभ्राजन्ता त्रिभुवनजनाह्लादनकरीम् । अलं चालं चालं मम चकितचित्तं सुचपत्नं, चलच्चन्द्रास्ये त्वद्वदनरुचमाचामय चिरम् ।।6।।
हे चंचल चन्द्र के समान मुख वाली! श्वेत कमल की कमनीय कान्ति-समूह को धारण करने वाली, संसार के प्राणियों को सुख देने वाली दांतों की ज्योति का मेरे चलायमान चंचल चित्त को शीघ्र पान कराओ।
ललामे भाले ते बहुतर विशालेऽत्ति विमले, कला चञ्चच्चांद्री रुचिरतिलकावेन्दुकलया । नितान्तं गोमाया निविड तमसो नाश व्यसना, तमो मे गाढं हि हृदयसदनस्थं ग्लपयतु ।।7।।
हे भगवति! आपके विशाल भाल पटल पर, जो चन्द्रमा की कला अथवा चन्द्राकार तिलक शोभायमान हो रहा है, उसकी कान्ति जो भूतल के अन्धकार का नाश करने वाली है, वह मेरे हृदय-सदन के अन्धकार को दूर करे।
अद्ये मातः किन्ते चरण-शरणं संश्रयवतां- जनानामन्तस्थो वृजिन हुतभुक् प्रज्वलति यः । तदस्याशु सम्यक् प्रशमनहितायैव विधृतं- करे पात्रं पुण्यं सलिलभरितं काष्ठरचितम् ।।8।।
हे माता गायत्री! आपके चरणों की शरण ग्रहण करने वाले प्राणियों के हृदय में, पाप रूपी जो आग लगी है, उसको शीघ्र शान्त करने के लिये आपने अपने कर-कमल में, जल-पूरित काष्ठनिर्मित कमण्डलु धारण किया है क्या?
अथाहोस्विन्मातः सरिदधिपतेः सारमखिलं, सुधारूपं कूपं लघुतरमनपं कलयति । स्वभक्तेभ्यो नित्यं वितरसि जनोद्धारिणि शुभे, विहीने दीने मय्यपि कृपय किंचित् करुणया ।।9।।
अथवा हे माता! समुद्र के सारभूत अमृत को ही अपने कमण्डलु रूपी छोटे से कूप में भरकर, अपने प्रिय भक्तों को वितरित करती हो। हे प्राणिमात्र के उद्धार करने वाली शुभे! दीन-हीन मुझ पर भी कुछ कृपा कीजिये।
सदैव त्वत्पाणौ विधृतमरविन्दं द्युतिकरं, त्विदं दर्शं दर्शं रविशशिसमं नेत्रयुगलम् । विचिंत्य स्वां वृत्तिं भ्रमविषमजालेऽस्ति पतित- मिदं मन्ये नोचेत् कथमिति भवेदर्ध-विकचम् ।।10।।
हे माता! तुम्हारे हाथ में जो कमल शोभायमान हो रहा है, वह आपके सूर्य और चन्द्र के समान नेत्र युगल को देखकर भ्रम में पड़ गया है और अपनी वृत्ति का विचार कर सूर्योदय समझ खिलना चाहता है और चन्द्रमा को देख मुकुलित होना चाहता है, ऐसा मैं मानता हूं। नहीं तो वह कमल दिन-रात अधखिला क्यों रहता है?
स्वयं मातः किम्वा त्वमसि जलजानामपि खनि- र्यतस्ते सर्वांगं कमलमयमेवास्ति किमु नो । तथा भीत्या तस्माच्छरणमुपयातः कमलराट्- प्रयुञ्जानोऽश्रान्तं भवति तदिहैवासनविधौ ।।11।।
अथवा हे माता! तुम स्वयं कमलों की खान हो क्या, क्योंकि आपका सम्पूर्ण अंग ही क्या कमलमय नहीं है? अतएव जो कमलों का राजा है, वह आपके शरण में डर कर आया है और वही निरन्तर आपके आसन के प्रयोग में आता है।
दिवौकोभिर्वन्द्ये विकसित सरोजाक्षि सुखदे, कृपादृष्टेर्वृष्टिः सुनिपतति यस्योपरि तव । तदीया वाञ्छा किं द्रुतमनु विधेयास्ति सकला, अतोमंतोस्तंतून् मम सपदि छित्वाऽम्ब सुखय।।12।।
हे देवताओं द्वारा पूजनीये! विकसित कमल के समान नेत्र वाली सुखदायिनी, आपकी कृपा दृष्टि की वर्षा जिस पर होती है, उसकी सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कर देती हो, अतएव मेरे भी अपराध शूलों का छेदन कर सुख प्रदान करो।
करेऽक्षाणां माला प्रविलसति या तेऽतिविमले, किमर्थं सा कान् वा गणयसि जनान् भक्ति निरतान् । जपन्ती कं मन्त्रं प्रशमयसि दुःखं जनिजुषा, मये का वा वांछा तव वरिवृति त्वत्र वरदे ।।13।।
हे माता! तेरे एक हाथ में जो अक्षमाला विराजित है वह किस लिये है? किन भक्तों को उसके द्वारा गिनती हो? अथवा किस मन्त्र को जपकर प्राणियों के दुःखों का शमन करती हो? हे वरदायिनी, अथवा और मन्त्र जपकर क्या करना चाहती हो?
न मन्ये धन्येऽहं त्ववितथमिदं लोकगदितं, ममत्रोक्तिर्मत्वा कमलमिव फुल्लं तव करम् । विजृम्भा संयुक्त द्युतिमयमिदं कोकनदमि- त्यरं जनानेयं मधुकरततिः संविलसति ।।14।।
हे धन्ये! यह जो लोकोक्ति ऊपर कही गयी है, इसे मैं तो उपयुक्त नहीं मानता। इस विषय में मेरी उक्ति ही युक्त है कि आपके हाथों को विकसित कमल मानकर यह भ्रमरों की पंक्ति मंडरा रही है।
महामोहाम्भोधौ मम निपतता जीवनतरि- र्निरालम्बा दोला चलित दुरवस्थामधिगता । जलावर्त व्यालो ग्रसितुमभितो वांछति च तां करालम्बं दत्वा भगवति द्रुतं तारय शिवे ।।15।।
हे भगवति! कल्याणमयी इस संसार रूपी विशाल समुद्र में, मेरी जीवन नौका पड़ी हुई है और वह बिना सहायता के बुरी अवस्था को प्राप्त हो गयी है। उसको भंवर रूप सर्प डसने की इच्छा कर रहा है। अतएव हे माता! उसे शीघ्र तिराओ तथा अपने कर कमल का सहारा दो।
दधानासित्वं यत् स्ववपुषि पयोधारि-युगल- मिति श्रुत्वा लोकैर्मम मनसि चिन्ता समभवत् । कथं स्यात् सी तस्मादलक लतिका मस्तक भुवि, शिरोद्यां हृद्येयं जलदपटली खेलति किल ।।16।।
हे माता! आप दो पयोधरों को धारण करती हो, ऐसा लोगों के द्वारा सुनकर मेरे मन में चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह मस्तक रूपी भूमि पर केशपाशमयी लता कैसी हो सकती है। यह तो निश्चय ही मस्तकाकाश पर मेघमण्डली क्रीड़ा कर रही है ।।16।।
तथा तत्रैवोपस्थितिमपि निशीथिन्यधिपतेः प्रपश्यामि श्यामे सह सहचरैस्तारक गणैः । अहोरात्रः क्रीडा परवशमितास्तेऽपि चकिता श्चिरं चिक्रीडन्ते तदपि महदाश्चर्य-चरितम् ।।17।।
तथा साथ ही हे माता! उस समस्त आकाश में चन्द्र को अपने सहचर तारागणों के साथ ही मैं देख रहा हूं, रात-दिन क्रीड़ा में रत होकर आश्चर्ययुक्त क्रीड़ा नित्य करते ही रहते हैं। यह भी आश्चर्यमय चरित्र है, क्योंकि सूर्योदय होने पर दिन में चन्द्र-तारे अदृश्य हो जाते हैं, किन्तु यहां नहीं होते।
यदाहुस्तं मुक्ता पटल जटितं रत्न मुकुटं, न धत्ते तेषां सा वचनरचना साधुपदवीम् । निशैषा केशास्तु नहि विगत वेशा धुवमिति, प्रसन्नाऽध्यासन्ना विधुपरिषदेषा विलसति ।।18।।
कुछ लोगों का कहना है कि यह तो अनेक मणि-माणिक्यों में जड़ा हुआ मुकुट है, किन्तु मेरी सम्मति से यह बात उनकी ठीक नहीं जंचती। यह तो निशा ही है, विगत वेश, केश नहीं है, ऐसा निश्चय करके ही यह प्रसन्नतापूर्वक चन्द्रमा की सभा शोभित हो रही है।
त्रिबीजे हे देवि त्रि प्रणवसहिते त्र्यक्षरयुते, त्रिमात्रा राजन्ते भुवनविभवे ह्योमितिपदे । त्रिकालं संसेव्ये त्रिगुणवति च त्रिस्वरमयि, त्रिलोकेशैः पूज्ये त्रिभुवनभयात्राहि सततम् ।।19।।
है तीन बीज वाली, तीन ओंकार युक्त मन्त्र वाली, तीन अक्षर वाली! ‘ओं’ इस एक मात्र सारभूत मन्त्र में तीन मात्रा शोभित हैं। हे तीनों काल में सेवनीय, तीन गुण वाली, तीन स्वर वाली, तीन लोक के ईश देवताओं द्वारा पूजनीय माता हमारी सांसारिक भय से रक्षा करो।
न चन्द्रो नैवेमे नभसि, वितता तारकगणाः, त्विषां राशी रम्या तव चरणयोरम्बुनिचये । पतित्वा कल्लोलैः सह परिचयाद्विस्तृतिमिता, प्रभा सैवाऽनन्ता गगनमुकुरे दीव्यति सदा ।।20।।
आकाश में ये चन्द्रमा और तारागण नहीं हैं; किन्तु आपके चरणों की छाया जल में गिर कर तरंगों के साथ परिचय होने से विस्तार को प्राप्त हो गयी और वही आभा आकाश रूपी कांच में देदीप्यमान हो रही है।
त्वमेव ब्रह्माणी त्वमसि कमला त्वं नगसुता, त्रिसन्ध्यं सेवन्ते चरणयुगलं ये तव जनाः । जगज्जाले तेषां निपतित जनानामिह शुभे, समुद्धारार्थं किं मतिमति ! भतिस्ते न भवति ।।21।।
तू ही ब्रह्माणी, कमला एवं रुद्राणी है। तीनों काल में जो आपके चरण की सेवा करते हैं, उन जगजाल में फंसे हुए प्राणियों के उद्धार के लिये हे मतिमती! आपकी मति नहीं होती है क्या? अर्थात् अवश्य होती है।
अनेकैः पापौधेर्लुलित वपुषं शोक सहितं, लुठन्तं दीनं मां विमल पदयो रेणुषु तव । गलद्वाष्पं शश्वद् जननि सहसाश्वासनवचो, ब्रुवाणोत्तिष्ठ त्वं अमृतकणिकां पास्यसि कदा ।।22।।
अनेक पापों के समुदाय से जर्जर शरीर वाले, शोकयुक्त मुझ दीन को आपके पांवों की धूल में लोटते हुए अश्रुपूर्ण नेत्र वाले मुझ पापी को आश्वासन के वचन कहती हुई—हे बेटा! उठ, ऐसे वचनों के अमृत कण का कब पान कराओगी?
न वा मादृक् पापी नहि तव समा पापहरणी, न दुर्बुद्धिर्मादृक् न च तव समा धी वितरिणी । न मादृर् गर्विष्ठो नहि तव समा गर्वहरणी, हृदि स्मृत्वा ह्येवं मामयि । कुरु यथेच्छा तव यथा ।।23।।
मेरे जैसा पापी नहीं और आप जैसी पाप हरणी नहीं, मेरे जैसा मूर्ख नहीं और आप जैसी बुद्धिदायी नहीं। मेरे जैसा अभिमानी नहीं और आप जैसी गर्वहारिणी नहीं। अतएव हे माता! यह सब विचार कर चाहे जैसा करो।।23।।
दरीधर्ति स्वांतेऽक्षर वर चतुर्विंशतिमितं, त्वदन्तर्मन्त्रं यत्त्वयि निहित चेतो हि मनुजः । समन्ताद भास्वन्तं भवति भुवि संजीवनवनं, भवाम्भोधेः पारं व्रजति स नितान्तं सुखयुतः ।।24।।
जो मनुष्य आपके 24 अक्षर वाले मन्त्र को हृदय में धारण करता है वह सुखी है। वह संसार समुद्र से पार हो जाता है और उसका जीवन-वन हरा-भरा हो जाता है।।24।।।
भगवति ! लहरीयं रुद्रदेव प्रणीता तव चरण सरोजे स्थाप्यते भक्तिभावैः । कुमतितिमिरपंकस्यांकमग्नं सशंकं, अयि ! खलु कुरु दत्त्वा वीतशंकं स्वमंकम् ।।25।।
हे भगवति! यह लहरी रुद्रदेव द्वारा रचित तेरे चरण कमलों में स्थापित की जाती है। कुमति रूपी अन्धकार के कीचड़ की गोद में मग्न, शंकित मुझको अपनी गोद की शरण दे निर्भय करिये।।25।।। ।। इति श्री रुद्रदेव विरचित गायत्री लहरी समाप्त ।।