Books - हमारी युग निर्माण योजना
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Language: HINDI
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संजीवन-विद्या प्रशिक्षण
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युग-निर्माण योजना तीन भागों में विभक्त है। उसके तीन प्रधान कार्यक्रम हैं। (1) स्वस्थ शरीर, (2) स्वच्छ मन, (3) सभ्य समाज। इन तीन आयोजनों द्वारा व्यक्ति और समाज का उत्कर्ष सम्भव है। यह तीन कार्यक्रम ही आन्दोलनों के रूप में परिणित किये जाते। इनकी पूर्ति के लिए जहां जिस प्रकार की क्रम व्यवस्था बन सकती हो वह बनाई जानी चाहिए।
यह निश्चित है कि जन आदर्शों को हम विश्वव्यापी बनाना चाहते हैं उनका आरम्भ हमें अपने निज के जीवन से करना होगा। हमारा अपना जीवन आदर्श, सुविकसित सुखी सुसंस्कृत एवं सम्मानास्पद बने तभी उसे देखकर दूसरे लोग उस प्रकाश को ग्रहण करने में तत्पर हो सकते हैं। इस दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया है कि जीवन जीने की कला—व्यवहारिक अध्यात्म को सिखाने के लिए एक सर्वांगीण प्रबन्ध किया जाय। यह प्रशिक्षण योजना इसी आश्विन मास से गायत्री तपोभूमि में आरम्भ कर दी गई है। एक-एक महीने के शिविर यहां नियमित रूप से होते रहेंगे। इनकी रूपरेखा नीचे दी जा रही है—
(1) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन की दृष्टि से यह एक-एक महीने के शिविर लगाये जायेंगे। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक इनका क्रम चला करेगा। जिनकी धर्मपत्नियां भी आ सकती हों वे उन्हें भी लाने का प्रयत्न करें। वयस्क बच्चे भी इस शिक्षण का लाभ उठा सकते हैं।
(2) शिक्षार्थियों के निवास के लिए स्वतन्त्र कमरे मिलेंगे। भोजन व्यय तथा बनाने का कार्य शिक्षार्थी स्वयं करेंगे।
(3) इस एक मास में प्रत्येक शिक्षार्थी दो गायत्री अनुष्ठान पूरे करेगा एक पूर्णिमा से अमावस्या तक दूसरा अमावस्या से पूर्णिमा तक। जिन्हें कोई विशेष उपासना की आवश्यकता समझी जायगी उन्हें वे भी बता दी जायगी।
(4) शरीर एवं मन के शोधन के लिए जो सज्जन चान्द्रायण व्रत करना चाहेंगे उन्हें आवश्यक देख-रेख के साथ उसे आरम्भ कराया जायगा। जो वैसा न कर सकेंगे उन्हें दूध कल्प, छाछ कल्प, शाक कल्प, फल कल्प, अन्न कल्प आदि के लिए कहा जायगा। जो उसे भी न कर सकेंगे उन्हें चिकित्सा विभाग की एक विशेष पद्धति द्वारा अन्न कल्प कराया जायगा, जो बालकों तक के लिए सुगम हो सकता है। इन व्रतों का परिणाम शारीरिक ही नहीं, मानसिक परिशोधन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। (5) प्राकृतिक चिकित्सा विधि से शिक्षार्थियों के पेट सम्बन्धी रोगों की चिकित्सा इस अवधि में होती रहेगी और यह प्रयत्न किया जायगा कि पाचन यन्त्र की विकृति को सुधारने के लिए अधिक से अधिक उपचार किया जाय। पाचन-तन्त्र के उदर रोगों के अतिरिक्त अभी अन्य रोगों की चिकित्सा का प्रबन्ध यहां नहीं हो पाया है। उपवास, एनेमा, मिट्टी की पट्टी, टब बाथ, सूर्य स्नान, आसन, प्राणायाम, वाष्प स्नान, मालिश आदि उपचारों का लाभ देने के अतिरिक्त इस विज्ञान की आवश्यक शिक्षा भी दी जायगी ताकि अपने या दूसरों के स्वास्थ्य-संकट को निवारण कर सकने में यह शिक्षार्थी समर्थ हो सकें।
(6) आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता निराशा, भय, क्रोध, चंचलता उद्विग्नता, संशय, इन्द्रिय, लोलुपता, व्यसन, आलस, प्रमाद जैसे मनोविकारों का उपचार प्रवचनों द्वारा वस्तुस्थिति समझाकर विशिष्ठ आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा तथा व्यवहारिक उपाय बताकर किया जायगा। प्रयत्न यह होगा कि मानसिक दृष्टि से भी शिक्षार्थी रोग मुक्त होकर जाय।
(7) मधुर भाषण, शिष्टाचार, नम्रता, सज्जनता, स्वच्छता, सदा प्रसन्न रहना, नियमितता, मितव्ययिता, सादगी, श्रमशीलता, तितिक्षा, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए आवश्यक उपाय कराये जावेंगे। बौद्धिक और व्यवहारिक प्रशिक्षण का मनोवैज्ञानिक क्रम इस प्रकार रहेगा जिससे शिक्षार्थी को सद्गुणी बनने का अधिकाधिक अवसर मिले। (8) जीवन में विभिन्न अवसरों पर आने वाली समस्याओं को हल करने के लिये ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जायगा, जिसके आधार पर शिक्षार्थी हर परिस्थिति में सुखी और सन्तुलित रहकर प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। (9) दाम्पत्ति-जीवन में आवश्यक विश्वास, प्रेम तथा सहयोग रखने, बालकों को सुविकसित बनाने तथा परिवार में सुव्यवस्था रखने के सिद्धान्तों एवं सूत्रों का प्रशिक्षण। (10) आध्यात्मिक उन्नति एवं मानव जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने का सुव्यवस्थित एवं व्यवहार में आ सकने योग्य कार्यक्रम बनाकर चलने का परामर्श एवं निष्कर्ष। उपरोक्त आधार पर एक महीने की प्रशिक्षण व्यवस्था बनाई गई है। सप्ताह में छह दिन शिक्षा चलेगी, एक दिन छुट्टी रहेगी, जिसका उपयोग शिक्षार्थी मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, महावन, दाऊजी, गोवर्द्धन, नन्दगांव, बरसाना, राधाकुण्ड आदि ब्रज के प्रमुख तीर्थों को देखने में कर सकेंगे। शिक्षण का कार्यक्रम काफी व्यस्त रहेगा, इसलिये उत्साही एवं परिश्रमी ही उसका लाभ उठा सकेंगे। आलसी, अवज्ञाकारी, व्यसनी तथा उच्छृंखल प्रकृति के लोग न आवें तो ही ठीक है।
यह शिक्षा पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है पर स्थान सम्बन्धी असुविधा तथा अन्य कठिनाइयों के कारण अभी थोड़े-थोड़े शिक्षार्थी ही लिए जा सकेंगे। जिन्हें आना हो पूर्व स्वीकृति प्राप्त करके ही आवें। बिना स्वीकृति प्राप्त किये, अनायास या कम समय के लिए आने वाले इस शिक्षण में प्रवेश न पा सकेंगे।
परिवार के सदस्यों में से जिन्हें अपने लिए यह उपयुक्त लगे वे अपने आने के सम्बन्ध में पत्र व्यवहार द्वारा महीना निश्चित करलें, क्योंकि शिक्षार्थी अधिक और व्यवस्था कम रहने से क्रमशः ही स्थान मिल सकना सम्भव होगा।
यह निश्चित है कि जन आदर्शों को हम विश्वव्यापी बनाना चाहते हैं उनका आरम्भ हमें अपने निज के जीवन से करना होगा। हमारा अपना जीवन आदर्श, सुविकसित सुखी सुसंस्कृत एवं सम्मानास्पद बने तभी उसे देखकर दूसरे लोग उस प्रकाश को ग्रहण करने में तत्पर हो सकते हैं। इस दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया है कि जीवन जीने की कला—व्यवहारिक अध्यात्म को सिखाने के लिए एक सर्वांगीण प्रबन्ध किया जाय। यह प्रशिक्षण योजना इसी आश्विन मास से गायत्री तपोभूमि में आरम्भ कर दी गई है। एक-एक महीने के शिविर यहां नियमित रूप से होते रहेंगे। इनकी रूपरेखा नीचे दी जा रही है—
(1) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन की दृष्टि से यह एक-एक महीने के शिविर लगाये जायेंगे। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक इनका क्रम चला करेगा। जिनकी धर्मपत्नियां भी आ सकती हों वे उन्हें भी लाने का प्रयत्न करें। वयस्क बच्चे भी इस शिक्षण का लाभ उठा सकते हैं।
(2) शिक्षार्थियों के निवास के लिए स्वतन्त्र कमरे मिलेंगे। भोजन व्यय तथा बनाने का कार्य शिक्षार्थी स्वयं करेंगे।
(3) इस एक मास में प्रत्येक शिक्षार्थी दो गायत्री अनुष्ठान पूरे करेगा एक पूर्णिमा से अमावस्या तक दूसरा अमावस्या से पूर्णिमा तक। जिन्हें कोई विशेष उपासना की आवश्यकता समझी जायगी उन्हें वे भी बता दी जायगी।
(4) शरीर एवं मन के शोधन के लिए जो सज्जन चान्द्रायण व्रत करना चाहेंगे उन्हें आवश्यक देख-रेख के साथ उसे आरम्भ कराया जायगा। जो वैसा न कर सकेंगे उन्हें दूध कल्प, छाछ कल्प, शाक कल्प, फल कल्प, अन्न कल्प आदि के लिए कहा जायगा। जो उसे भी न कर सकेंगे उन्हें चिकित्सा विभाग की एक विशेष पद्धति द्वारा अन्न कल्प कराया जायगा, जो बालकों तक के लिए सुगम हो सकता है। इन व्रतों का परिणाम शारीरिक ही नहीं, मानसिक परिशोधन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। (5) प्राकृतिक चिकित्सा विधि से शिक्षार्थियों के पेट सम्बन्धी रोगों की चिकित्सा इस अवधि में होती रहेगी और यह प्रयत्न किया जायगा कि पाचन यन्त्र की विकृति को सुधारने के लिए अधिक से अधिक उपचार किया जाय। पाचन-तन्त्र के उदर रोगों के अतिरिक्त अभी अन्य रोगों की चिकित्सा का प्रबन्ध यहां नहीं हो पाया है। उपवास, एनेमा, मिट्टी की पट्टी, टब बाथ, सूर्य स्नान, आसन, प्राणायाम, वाष्प स्नान, मालिश आदि उपचारों का लाभ देने के अतिरिक्त इस विज्ञान की आवश्यक शिक्षा भी दी जायगी ताकि अपने या दूसरों के स्वास्थ्य-संकट को निवारण कर सकने में यह शिक्षार्थी समर्थ हो सकें।
(6) आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता निराशा, भय, क्रोध, चंचलता उद्विग्नता, संशय, इन्द्रिय, लोलुपता, व्यसन, आलस, प्रमाद जैसे मनोविकारों का उपचार प्रवचनों द्वारा वस्तुस्थिति समझाकर विशिष्ठ आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा तथा व्यवहारिक उपाय बताकर किया जायगा। प्रयत्न यह होगा कि मानसिक दृष्टि से भी शिक्षार्थी रोग मुक्त होकर जाय।
(7) मधुर भाषण, शिष्टाचार, नम्रता, सज्जनता, स्वच्छता, सदा प्रसन्न रहना, नियमितता, मितव्ययिता, सादगी, श्रमशीलता, तितिक्षा, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए आवश्यक उपाय कराये जावेंगे। बौद्धिक और व्यवहारिक प्रशिक्षण का मनोवैज्ञानिक क्रम इस प्रकार रहेगा जिससे शिक्षार्थी को सद्गुणी बनने का अधिकाधिक अवसर मिले। (8) जीवन में विभिन्न अवसरों पर आने वाली समस्याओं को हल करने के लिये ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जायगा, जिसके आधार पर शिक्षार्थी हर परिस्थिति में सुखी और सन्तुलित रहकर प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। (9) दाम्पत्ति-जीवन में आवश्यक विश्वास, प्रेम तथा सहयोग रखने, बालकों को सुविकसित बनाने तथा परिवार में सुव्यवस्था रखने के सिद्धान्तों एवं सूत्रों का प्रशिक्षण। (10) आध्यात्मिक उन्नति एवं मानव जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने का सुव्यवस्थित एवं व्यवहार में आ सकने योग्य कार्यक्रम बनाकर चलने का परामर्श एवं निष्कर्ष। उपरोक्त आधार पर एक महीने की प्रशिक्षण व्यवस्था बनाई गई है। सप्ताह में छह दिन शिक्षा चलेगी, एक दिन छुट्टी रहेगी, जिसका उपयोग शिक्षार्थी मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, महावन, दाऊजी, गोवर्द्धन, नन्दगांव, बरसाना, राधाकुण्ड आदि ब्रज के प्रमुख तीर्थों को देखने में कर सकेंगे। शिक्षण का कार्यक्रम काफी व्यस्त रहेगा, इसलिये उत्साही एवं परिश्रमी ही उसका लाभ उठा सकेंगे। आलसी, अवज्ञाकारी, व्यसनी तथा उच्छृंखल प्रकृति के लोग न आवें तो ही ठीक है।
यह शिक्षा पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है पर स्थान सम्बन्धी असुविधा तथा अन्य कठिनाइयों के कारण अभी थोड़े-थोड़े शिक्षार्थी ही लिए जा सकेंगे। जिन्हें आना हो पूर्व स्वीकृति प्राप्त करके ही आवें। बिना स्वीकृति प्राप्त किये, अनायास या कम समय के लिए आने वाले इस शिक्षण में प्रवेश न पा सकेंगे।
परिवार के सदस्यों में से जिन्हें अपने लिए यह उपयुक्त लगे वे अपने आने के सम्बन्ध में पत्र व्यवहार द्वारा महीना निश्चित करलें, क्योंकि शिक्षार्थी अधिक और व्यवस्था कम रहने से क्रमशः ही स्थान मिल सकना सम्भव होगा।