Books - हमारी युग निर्माण योजना
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Language: HINDI
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जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना
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ज्ञान को उपनिषदों में अमृत कहा गया है। जीवन को ठीक प्रकार जीने और सही दृष्टिकोण अपनाये रहने के लिए प्रेरणा देते रहना और श्रद्धा स्थिर रखना यही ज्ञान का उद्देश्य है। जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया उनका मनुष्य जन्म धन्य हो जाता है। शिक्षा का उद्देश्य भी ज्ञान की प्राप्ति ही है। सद्ज्ञान को ही विद्या या दीक्षा कहते हैं। जिसे यह सम्पत्ति प्राप्त हो गई उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।
जीवन में ज्ञान को कैसे धारण किया जाय और उसे व्यापक कैसे बनाया जाय, इस सम्बन्ध में कुछ कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत हैं—
31—आस्तिकता की आस्था—आस्तिकता पर गहरी निष्ठा-भावना मन में जमी रहने से मनुष्य अनेक दुष्कर्मों से बच जाता है और उसी आन्तरिक प्रगति सन्मार्ग की ओर होती रहती है। परमात्मा को सर्व-व्यापक और न्यायकारी मानने से छुपकर पाप करना भी कठिन हो जाता है। राजदण्ड से बचा जा सकता है पर सर्वज्ञ ईश्वर के दण्ड से चतुरता करने वाले भी नहीं बच सकते। यह विश्वास जिनमें स्थिर रहेगा वे कुमार्ग से बचेंगे और सत्कर्मों द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने और उसकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहेंगे। आस्तिकता व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सुख शान्तिमय बनाये रहने का अचूक साधन है। उसे हर व्यक्ति अपने अन्तःकरण में गहराई तक प्रतिष्ठित रखे यह प्रयत्न करना चाहिये।
चाहे कितना ही व्यस्त कार्यक्रम क्यों न हो प्रातः सोकर उठते और रात को सोते समय कम से कम 15-15 मिनट सर्वशक्तिमान, न्यायकारी परमात्मा का ध्यान करना चाहिये और उससे सद्विचारों एवं सत्कर्मों की प्रेरणा के लिए प्रार्थना करनी चाहिये। इतनी उपासना तो प्रत्येक व्यक्ति करने ही लगे। जिन्हें कुछ सुविधा और श्रद्धा अधिक हो वे नित्य नियमपूर्वक स्नान करके उपासना स्थल पर गायत्री महामन्त्र का जप किया करें। अन्य देवताओं या विधानों से उपासना करने वाले भी कुछ गायत्री मन्त्र अवश्य जप कर लिया करें। इससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है।
32—स्वाध्याय की साधना—जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रेरणा देने वाला सत्साहित्य नित्य नियमपूर्वक पढ़ना ही चाहिये। स्वाध्याय को भी साधना का ही एक अंग माना जाय और कुछ समय इसके लिए नियत रखा जाय। कुविचारों को शमन करने के लिए नित्य सद्विचारों का सत्संग करना आवश्यक है। व्यक्ति का सत्संग तो कठिन पड़ता है पर साहित्य के माध्यम से संसार भर के जीवित या मृत सत्पुरुषों के साथ सत्संग किया जा सकता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण लाभ है, जिससे किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिये। जो पढ़े लिखे नहीं हैं उन्हें दूसरों से सत्साहित्य पढ़ा कर सुनने की व्यवस्था करनी चाहिये।
33—संस्कारित जीवन—जीवन को समय-समय पर संस्कारित करने के लिये हिन्दू धर्म में षोडश संस्कारों का महत्वपूर्ण विधान है। पारिवारिक समारोह के उत्साहपूर्ण वातावरण में सुव्यवस्थित जीवन की शिक्षा इन अवसरों पर मनीषियों द्वारा दी जाती है और अग्निदेव तथा देवताओं की साक्षी में इन नियमों पर चलने के लिये प्रतिज्ञा कराई जाती है तो उसका ठोस प्रभाव पड़ता है। पुंसवन, सीमन्त, नामकरण, मुण्डन, अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि आदि संस्कारों का कर्मकाण्ड बहुत ही शिक्षा और प्रेरणा से भरा हुआ है। यदि उन्हें ठीक तरह किया जाय तो हर व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़े।
खेद है कि संस्कारों के कर्मकाण्ड अब केवल चिन्हपूजा मात्र रह गये हैं। उनमें खर्च तो बहुत होता है पर प्रेरणा कुछ नहीं मिलती। हमें संस्कारों का महत्व जानना चाहिए और कराने की विधि तथा शिक्षा को सीखना समझना चाहिए। संस्कारों का पुनः प्रसार किया जाय और उनके कर्मकाण्ड इस प्रकार किये जांय कि कम-से-कम खर्च में अधिक से अधिक प्रेरणा प्राप्त कर सकना सर्वसुलभ हो सके।
34—पर्व और त्यौहारों का सन्देश—जिस प्रकार व्यक्तिगत नैतिक प्रशिक्षण के लिये संस्कारों की उपयोगिता है उसी प्रकार सामाजिक सुव्यवस्था की शिक्षा पर्व और त्यौहारों के माध्यम से दी जाती है। हर त्यौहार के साथ महत्वपूर्ण आदर्श और संदेश सन्निहित हैं जिन्हें हृदयंगम करने से जन साधारण को अपने सामाजिक कर्तव्यों का ठीक तरह बोध हो सकता है और उन्हें पालन करने की आवश्यक प्रेरणा मिल सकती है।
त्यौहारों के मनाये जाने के सामूहिक कार्यक्रम बनाये जाया करें, और उनके विधान, कर्मकाण्ड ऐसे रहें जिनमें भाग लेने के लिये सहज ही आकर्षण हो और इच्छा जगे। सब लोग इकट्ठे हों, पुरोहित लोग उस पर्व का संदेश सुनाते हुए प्रवचन करें और उस संदेश में जिन प्रवृत्तियों की प्रेरणा है उन्हें किसी रूप से कार्यान्वित भी किया जाया करे। संस्कारों और त्यौहारों को कैसे मनाया जाया करे और उपस्थित लोगों को क्या सिखाया जाया करे इसकी शिक्षा व्यवस्था हम जल्दी ही करेंगे। उसे सीख कर अपने संबद्ध समाज में इन पुण्य प्रक्रियाओं को प्रचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
35—जन्म-दिन समारोह—हर व्यक्ति का जन्मदिन समारोह मनाया जाय। उसके स्वजन सम्बन्धी बधाई और शुभ कामनाएं दिया करें। एक छोटा जन्मोत्सव मनाया जाया करे जिसमें वह व्यक्ति आत्म-निरीक्षण करते हुए शेष जीवन को और भी अधिक आदर्शमय बनाने के लिए कदम उठाया करे। बधाई देने वाले लोग भी कुछ ऐसा ही प्रोत्साहन उसे दिया करें। हर जन्म-दिन जीवन शोधन की प्रेरणा का पर्व बने, ऐसी प्रथा परम्पराएं प्रचलित की जानी चाहिये।
36—व्रतशीलता की धर्म धारणा—प्रत्येक व्यक्ति व्रतशील बने, इसके लिये व्रत आन्दोलन को जन्म दिया जाना चाहिए। भोजन, ब्रह्मचर्य, अर्थ उपार्जन, दिनचर्या, खर्च का निर्धारित बजट, स्वाध्याय, उपासना, व्यायाम, दान, सोना, उठना आदि हर कार्य की निर्धारित मर्यादाएं अपनी परिस्थितियों के अनुकूल निर्धारित करके उसका कड़ाई के साथ पालन करने की आवश्यकता हर व्यक्ति अनुभव करे, ऐसा लोक शिक्षण किया जाय। बुरी आदतों को क्रमशः घटाते चलना और सद्गुणों को निरन्तर बढ़ाते चलना भी इस आन्दोलन का एक अंग रहे। साधनामय, संयमी और मर्यादित जीवन बिताने की कला हर व्यक्ति को सिखाई जाय ताकि उसके लिये प्रगतिशील हो सकना संभव हो सके। 37—मन्दिरों को प्रेरणा-केन्द्र बनाया जाय—मन्दिर, मठों को नैतिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया जाय। इतनी बड़ी इमारतों में प्रौढ़ पाठशालायें, रात्रि पाठशालायें, कथा-कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, पर्व त्यौहारों के सामूहिक आयोजन, यज्ञोपवीत, मुण्डन आदि संस्कारों के कार्यक्रम, औषधालय, पुस्तकालय, संगीत, शिक्षा, आसन, प्राणायाम, व्यायाम की व्यवस्था, व्रत आन्दोलन जैसी युग-निर्माण की अनेकों गतिविधियों को चलाया जा सकता है। भगवान की सेवा पूजा करने वाले व्यक्ति ऐसे हों जो बचे हुए समय का उपयोग मन्दिर को धर्म प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाये रहने और उनका संचालन करने में लगाया करें। प्रतिमा की आरती, पूजा, भोग, प्रसाद की तरह ही जन-सेवा के कार्यक्रमों को भी यज्ञ माना जाना चाहिए और इनके लिए मन्दिरों के संचालकों एवं कार्यकर्ताओं से अनुरोध करना चाहिए कि मन्दिरों को उपासना के साथ-साथ धर्म सेवा का भी केन्द्र बनाया जाय।
38—युग निर्माण के ज्ञान मन्दिर—जगह-जगह ऐसे केन्द्र स्थापित किये जांय जिनका स्वरूप ज्ञान मन्दिर जैसा हो। सद्भावना और सत्प्रवृत्ति की प्रतीक गायत्री माता का सुन्दर चित्र इन केन्द्रों में स्थापित करके, प्रातः सायं पूजा, आरती, भजन, कीर्तन की व्यवस्था करके इन केन्द्रों में मन्दिर जैसा धार्मिक वातावरण बनाया जाय। उसमें पुस्तकालय, वाचनालय रहें। सदस्यों के नित्य प्रति मिलने-जुलने, पढ़ने सीखने और विचार विनिमय करने एवं रचनात्मक कार्यों की योजनायें चलाने के लिये इसे एक क्लब या मिलन मन्दिर का रूप दिया जाय। योजना की स्थानीय प्रवृत्तियों के संचालक के लिये इस प्रकार के केन्द्र कार्यालय हर जगह होने चाहिए।
39—साधु ब्राह्मण भी कर्तव्य पालें—पंडित, पुरोहित, ग्राम गुरु, पुजारी, साधु, महात्मा, कथा वाचक आदि धर्म के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्तियों की संख्या भारतवर्ष में 60 लाख है। इन्हें जन सेवा एवं धर्म प्रवृत्तियों को चलाने के लिये प्रेरणा देनी चाहिए। ईसाई धर्म में करीब 1 लाख पादरी हैं जिनके प्रयत्न से संसार की तीन अरब आबादी में से करीब 1 अरब लोग ईसाई बन चुके हैं। इधर साठ लाख सन्त-महन्तों के होते हुए भी हिन्दू धर्म की संख्या और उत्कृष्टता दिन दिन गिरती जा रही है, यह दुःख की बात है। इस पुरोहित वर्ग को समय के साथ बदलने और जनता से प्राप्त होने वाले मान एवं निर्वाह के बदले कुछ प्रत्युपकार करने की बात सुझाई-समझाई जाय। इतने बड़े जन समाज को केवल आडम्बर के नाम पर समय और धन नष्ट करते हुये नहीं रहने देना चाहिये। यदि यह प्रयत्न सफल नहीं होता है तो धर्म-प्रचार के उत्तरदायित्व को हम लोग मिल जुल कर कंधों पर उठावें, हम में हर व्यक्ति धर्म प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिये कुछ समय नियमित रूप से दिया करे। 40—वानप्रस्थ का पुनर्जीवन—जिन्हें पारिवारिक उत्तर-दायित्वों से छुटकारा मिल चुका है, जो रिटायर्ड हो चुके हैं या जिनके घर में गुजारे के आवश्यक साधन मौजूद हैं उन्हें अपना अधिकांश समय लोक-हित और परमार्थ के लिये लगाने की प्रेरणा उत्पन्न हो, ऐसा प्रयत्न किया जाय। वानप्रस्थ आश्रम पालन करने की प्रथा अब लुप्त हो गई है। उसे पुनः सजीव किया जाय। ढलती आयु में गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर लोग घर में रहते हुए लोकसेवा में अधिक समय दिया करें तो सन्त-महात्माओं और ब्राह्मण पुरोहितों का आवश्यक उत्तरदायित्व किसी प्रकार अन्य लोग अपने कंधे पर उठाकर पूरा कर सकते हैं। वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा का पुनर्जागरण युग-निर्माण की दृष्टि से नितांत आवश्यक है।
जीवन में ज्ञान को कैसे धारण किया जाय और उसे व्यापक कैसे बनाया जाय, इस सम्बन्ध में कुछ कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत हैं—
31—आस्तिकता की आस्था—आस्तिकता पर गहरी निष्ठा-भावना मन में जमी रहने से मनुष्य अनेक दुष्कर्मों से बच जाता है और उसी आन्तरिक प्रगति सन्मार्ग की ओर होती रहती है। परमात्मा को सर्व-व्यापक और न्यायकारी मानने से छुपकर पाप करना भी कठिन हो जाता है। राजदण्ड से बचा जा सकता है पर सर्वज्ञ ईश्वर के दण्ड से चतुरता करने वाले भी नहीं बच सकते। यह विश्वास जिनमें स्थिर रहेगा वे कुमार्ग से बचेंगे और सत्कर्मों द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने और उसकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहेंगे। आस्तिकता व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सुख शान्तिमय बनाये रहने का अचूक साधन है। उसे हर व्यक्ति अपने अन्तःकरण में गहराई तक प्रतिष्ठित रखे यह प्रयत्न करना चाहिये।
चाहे कितना ही व्यस्त कार्यक्रम क्यों न हो प्रातः सोकर उठते और रात को सोते समय कम से कम 15-15 मिनट सर्वशक्तिमान, न्यायकारी परमात्मा का ध्यान करना चाहिये और उससे सद्विचारों एवं सत्कर्मों की प्रेरणा के लिए प्रार्थना करनी चाहिये। इतनी उपासना तो प्रत्येक व्यक्ति करने ही लगे। जिन्हें कुछ सुविधा और श्रद्धा अधिक हो वे नित्य नियमपूर्वक स्नान करके उपासना स्थल पर गायत्री महामन्त्र का जप किया करें। अन्य देवताओं या विधानों से उपासना करने वाले भी कुछ गायत्री मन्त्र अवश्य जप कर लिया करें। इससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है।
32—स्वाध्याय की साधना—जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रेरणा देने वाला सत्साहित्य नित्य नियमपूर्वक पढ़ना ही चाहिये। स्वाध्याय को भी साधना का ही एक अंग माना जाय और कुछ समय इसके लिए नियत रखा जाय। कुविचारों को शमन करने के लिए नित्य सद्विचारों का सत्संग करना आवश्यक है। व्यक्ति का सत्संग तो कठिन पड़ता है पर साहित्य के माध्यम से संसार भर के जीवित या मृत सत्पुरुषों के साथ सत्संग किया जा सकता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण लाभ है, जिससे किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिये। जो पढ़े लिखे नहीं हैं उन्हें दूसरों से सत्साहित्य पढ़ा कर सुनने की व्यवस्था करनी चाहिये।
33—संस्कारित जीवन—जीवन को समय-समय पर संस्कारित करने के लिये हिन्दू धर्म में षोडश संस्कारों का महत्वपूर्ण विधान है। पारिवारिक समारोह के उत्साहपूर्ण वातावरण में सुव्यवस्थित जीवन की शिक्षा इन अवसरों पर मनीषियों द्वारा दी जाती है और अग्निदेव तथा देवताओं की साक्षी में इन नियमों पर चलने के लिये प्रतिज्ञा कराई जाती है तो उसका ठोस प्रभाव पड़ता है। पुंसवन, सीमन्त, नामकरण, मुण्डन, अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि आदि संस्कारों का कर्मकाण्ड बहुत ही शिक्षा और प्रेरणा से भरा हुआ है। यदि उन्हें ठीक तरह किया जाय तो हर व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़े।
खेद है कि संस्कारों के कर्मकाण्ड अब केवल चिन्हपूजा मात्र रह गये हैं। उनमें खर्च तो बहुत होता है पर प्रेरणा कुछ नहीं मिलती। हमें संस्कारों का महत्व जानना चाहिए और कराने की विधि तथा शिक्षा को सीखना समझना चाहिए। संस्कारों का पुनः प्रसार किया जाय और उनके कर्मकाण्ड इस प्रकार किये जांय कि कम-से-कम खर्च में अधिक से अधिक प्रेरणा प्राप्त कर सकना सर्वसुलभ हो सके।
34—पर्व और त्यौहारों का सन्देश—जिस प्रकार व्यक्तिगत नैतिक प्रशिक्षण के लिये संस्कारों की उपयोगिता है उसी प्रकार सामाजिक सुव्यवस्था की शिक्षा पर्व और त्यौहारों के माध्यम से दी जाती है। हर त्यौहार के साथ महत्वपूर्ण आदर्श और संदेश सन्निहित हैं जिन्हें हृदयंगम करने से जन साधारण को अपने सामाजिक कर्तव्यों का ठीक तरह बोध हो सकता है और उन्हें पालन करने की आवश्यक प्रेरणा मिल सकती है।
त्यौहारों के मनाये जाने के सामूहिक कार्यक्रम बनाये जाया करें, और उनके विधान, कर्मकाण्ड ऐसे रहें जिनमें भाग लेने के लिये सहज ही आकर्षण हो और इच्छा जगे। सब लोग इकट्ठे हों, पुरोहित लोग उस पर्व का संदेश सुनाते हुए प्रवचन करें और उस संदेश में जिन प्रवृत्तियों की प्रेरणा है उन्हें किसी रूप से कार्यान्वित भी किया जाया करे। संस्कारों और त्यौहारों को कैसे मनाया जाया करे और उपस्थित लोगों को क्या सिखाया जाया करे इसकी शिक्षा व्यवस्था हम जल्दी ही करेंगे। उसे सीख कर अपने संबद्ध समाज में इन पुण्य प्रक्रियाओं को प्रचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
35—जन्म-दिन समारोह—हर व्यक्ति का जन्मदिन समारोह मनाया जाय। उसके स्वजन सम्बन्धी बधाई और शुभ कामनाएं दिया करें। एक छोटा जन्मोत्सव मनाया जाया करे जिसमें वह व्यक्ति आत्म-निरीक्षण करते हुए शेष जीवन को और भी अधिक आदर्शमय बनाने के लिए कदम उठाया करे। बधाई देने वाले लोग भी कुछ ऐसा ही प्रोत्साहन उसे दिया करें। हर जन्म-दिन जीवन शोधन की प्रेरणा का पर्व बने, ऐसी प्रथा परम्पराएं प्रचलित की जानी चाहिये।
36—व्रतशीलता की धर्म धारणा—प्रत्येक व्यक्ति व्रतशील बने, इसके लिये व्रत आन्दोलन को जन्म दिया जाना चाहिए। भोजन, ब्रह्मचर्य, अर्थ उपार्जन, दिनचर्या, खर्च का निर्धारित बजट, स्वाध्याय, उपासना, व्यायाम, दान, सोना, उठना आदि हर कार्य की निर्धारित मर्यादाएं अपनी परिस्थितियों के अनुकूल निर्धारित करके उसका कड़ाई के साथ पालन करने की आवश्यकता हर व्यक्ति अनुभव करे, ऐसा लोक शिक्षण किया जाय। बुरी आदतों को क्रमशः घटाते चलना और सद्गुणों को निरन्तर बढ़ाते चलना भी इस आन्दोलन का एक अंग रहे। साधनामय, संयमी और मर्यादित जीवन बिताने की कला हर व्यक्ति को सिखाई जाय ताकि उसके लिये प्रगतिशील हो सकना संभव हो सके। 37—मन्दिरों को प्रेरणा-केन्द्र बनाया जाय—मन्दिर, मठों को नैतिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया जाय। इतनी बड़ी इमारतों में प्रौढ़ पाठशालायें, रात्रि पाठशालायें, कथा-कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, पर्व त्यौहारों के सामूहिक आयोजन, यज्ञोपवीत, मुण्डन आदि संस्कारों के कार्यक्रम, औषधालय, पुस्तकालय, संगीत, शिक्षा, आसन, प्राणायाम, व्यायाम की व्यवस्था, व्रत आन्दोलन जैसी युग-निर्माण की अनेकों गतिविधियों को चलाया जा सकता है। भगवान की सेवा पूजा करने वाले व्यक्ति ऐसे हों जो बचे हुए समय का उपयोग मन्दिर को धर्म प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाये रहने और उनका संचालन करने में लगाया करें। प्रतिमा की आरती, पूजा, भोग, प्रसाद की तरह ही जन-सेवा के कार्यक्रमों को भी यज्ञ माना जाना चाहिए और इनके लिए मन्दिरों के संचालकों एवं कार्यकर्ताओं से अनुरोध करना चाहिए कि मन्दिरों को उपासना के साथ-साथ धर्म सेवा का भी केन्द्र बनाया जाय।
38—युग निर्माण के ज्ञान मन्दिर—जगह-जगह ऐसे केन्द्र स्थापित किये जांय जिनका स्वरूप ज्ञान मन्दिर जैसा हो। सद्भावना और सत्प्रवृत्ति की प्रतीक गायत्री माता का सुन्दर चित्र इन केन्द्रों में स्थापित करके, प्रातः सायं पूजा, आरती, भजन, कीर्तन की व्यवस्था करके इन केन्द्रों में मन्दिर जैसा धार्मिक वातावरण बनाया जाय। उसमें पुस्तकालय, वाचनालय रहें। सदस्यों के नित्य प्रति मिलने-जुलने, पढ़ने सीखने और विचार विनिमय करने एवं रचनात्मक कार्यों की योजनायें चलाने के लिये इसे एक क्लब या मिलन मन्दिर का रूप दिया जाय। योजना की स्थानीय प्रवृत्तियों के संचालक के लिये इस प्रकार के केन्द्र कार्यालय हर जगह होने चाहिए।
39—साधु ब्राह्मण भी कर्तव्य पालें—पंडित, पुरोहित, ग्राम गुरु, पुजारी, साधु, महात्मा, कथा वाचक आदि धर्म के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्तियों की संख्या भारतवर्ष में 60 लाख है। इन्हें जन सेवा एवं धर्म प्रवृत्तियों को चलाने के लिये प्रेरणा देनी चाहिए। ईसाई धर्म में करीब 1 लाख पादरी हैं जिनके प्रयत्न से संसार की तीन अरब आबादी में से करीब 1 अरब लोग ईसाई बन चुके हैं। इधर साठ लाख सन्त-महन्तों के होते हुए भी हिन्दू धर्म की संख्या और उत्कृष्टता दिन दिन गिरती जा रही है, यह दुःख की बात है। इस पुरोहित वर्ग को समय के साथ बदलने और जनता से प्राप्त होने वाले मान एवं निर्वाह के बदले कुछ प्रत्युपकार करने की बात सुझाई-समझाई जाय। इतने बड़े जन समाज को केवल आडम्बर के नाम पर समय और धन नष्ट करते हुये नहीं रहने देना चाहिये। यदि यह प्रयत्न सफल नहीं होता है तो धर्म-प्रचार के उत्तरदायित्व को हम लोग मिल जुल कर कंधों पर उठावें, हम में हर व्यक्ति धर्म प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिये कुछ समय नियमित रूप से दिया करे। 40—वानप्रस्थ का पुनर्जीवन—जिन्हें पारिवारिक उत्तर-दायित्वों से छुटकारा मिल चुका है, जो रिटायर्ड हो चुके हैं या जिनके घर में गुजारे के आवश्यक साधन मौजूद हैं उन्हें अपना अधिकांश समय लोक-हित और परमार्थ के लिये लगाने की प्रेरणा उत्पन्न हो, ऐसा प्रयत्न किया जाय। वानप्रस्थ आश्रम पालन करने की प्रथा अब लुप्त हो गई है। उसे पुनः सजीव किया जाय। ढलती आयु में गृहस्थ के उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर लोग घर में रहते हुए लोकसेवा में अधिक समय दिया करें तो सन्त-महात्माओं और ब्राह्मण पुरोहितों का आवश्यक उत्तरदायित्व किसी प्रकार अन्य लोग अपने कंधे पर उठाकर पूरा कर सकते हैं। वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा का पुनर्जागरण युग-निर्माण की दृष्टि से नितांत आवश्यक है।