Books - हमारी युग निर्माण योजना
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Language: HINDI
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हमारी युग निर्माण-योजना
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युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है
आज जिस स्थिति में होकर मनुष्य जाति का गुजरना पड़ रहा है वह बाहर से उत्थान जैसी दीखते हुए भी वस्तुतः पतन की है। दिखावा, शोभा, श्रृंगार का आवरण बढ़ रहा है पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला हुआ जा रहा है। दिमाग बड़े हो रहे हैं पर दिल दिन-दिन सिकुड़ते जाते हैं। पढ़-लिखकर लोग होशियार तो खूब हो रहे हैं पर साथ ही अनुदारता स्वार्थपरता, विलास और अहंकार भी उसी अनुपात से बढ़े हैं। पोशाक, श्रृंगार, स्वादिष्ट भोजन और मनोरंजन की किस्में बढ़ती जाती हैं, पर असंयम के कारण स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता चला जा रहा है। दो-तीन पीढ़ी पहले जैसा अच्छा स्वास्थ्य था वह अब देखने को नहीं मिलता। कमजोरी और अशक्तता हर किसी को किसी-न-किसी रूप में घेरे हुए हैं। डॉक्टर-देवताओं की पूजा प्रदक्षिणा करते-करते लोग थक जाते हैं पर स्वास्थ्य लाभ का मनोरथ किसी बेचारे को कदाचित ही प्राप्त होता है।
धन बढ़ा है पर साथ ही महंगाई और जरूरतों की असाधारण वृद्धि हुई हैं। खर्चों के मुकाबिले आमदनी कम रहने से हर आदमी अभावग्रस्त रहता है और खर्चे की तंगी अनुभव करता है। पारस्परिक सम्बन्ध खिंचे हुए, संदिग्ध और अविश्वास से भरे हुए हैं। पति-पत्नी, पिता-पुत्र और भाई-भाई के बीच मनोमालिन्य ही भरा रहता है। यार-दोस्तों में से अधिकांश ऐसे होते हैं जिनसे विश्वासघात, अपहरण और तोताचश्मी की ही आशा की जा सकती है। चरित्र और ईमानदारी की मात्रा इतनी तेजी से गिर रही है कि किसी को किसी पर विश्वास नहीं होता। कोई करने भी लगे तो बेचारा धोखा खाता है। पुलिस और जेलों की, मुकदमे और कचहरियों की कमी नहीं, पर अपराधी मनोवृत्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है।
जीवन संघर्ष अब इतना कठिन होता जाता है कि सुख शान्ति के साथ जिन्दगी के दिन पूरे कर लेना अब सरल नहीं रहा। हर व्यक्ति अपनी-अपनी समस्याओं में उलझा हुआ है। चिन्ता, भय, विक्षोभ और परेशानी से उसका चित्त अशान्त बना रहता है। शारीरिक व्यथाएं, मानसिक परेशानियां, पारस्परिक, दुर्भाव, न सुलझने वाली उलझनें, आर्थिक तंगी, अनीति भरे आक्रमण, छल और विश्वासघात, प्रवंचना, विडम्बना, असफलताएं और आपत्तियां, घात-प्रतिघात और उतार-चढ़ाव का जोर इतना बढ़ गया है कि साधारण रीति से जीवन व्यतीत कर सकना कठिन होता जाता है। संघर्ष इतना प्रबल हो चला है कि जन-साधारण को निरन्तर विक्षुब्ध रहना पड़ता है। इस प्रबल मानसिक दबाव को कितने ही लोग सहन नहीं कर पाते, फलस्वरूप, आत्म-हत्याओं की, पागलों की, निराश हताश और दीन-दुखियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती ही चली जा रही है। व्यक्तिगत जीवन में हर आदमी को निराशा, तंगी और चिन्ता घेरे हुए हैं। सामाजिक जीवन में मनुष्य अपने को चारों और भेड़ियों से घिरी हुई स्थिति में फंसा अनुभव करता है। राजनीति इतनी विषम हो गई है कि उसमें सत्ताधारी लोगों की मनमानी के आगे जनहित को ठुकराया ही जाता रहता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अविश्वास और भय का इतना बाहुल्य है कि अणु-युद्ध में सारी मानव सभ्यता का विनाश एक-दो घण्टे के भीतर-भीतर ही हो जाने का खतरा नंगी तलवार की तरह दुनिया के सिर पर लटक रहा है। कोई प्रसन्न नहीं, कहीं सन्तोष नहीं, किधर भी शान्ति नहीं। दुर्दशा के चक्रव्यूह में फंसा हुआ मानव प्राणी अपनी मुक्ति का मार्ग खोजता है, पर उसे किधर भी आशा की किरणें दिखाई नहीं पड़तीं। अन्धकार और निराशा के श्मशान में भटकती हुई मानव अन्तरात्मा खेद और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं करती। बाहरी आडम्बर दिन-दिन बढ़ते चले जा रहे हैं, पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला और पोला बनता चला जा रहा है। उस स्थिति में रहते हुए न कोई सन्तुष्ट रहेगा और न शान्त। यह प्रत्यक्ष है कि यदि सम्पूर्ण विनाश ही अभीष्ट न हो तो आज की परिस्थितियों का अविलम्ब परिवर्तन अनिवार्यतः आवश्यक है। स्थिति की विषमता को देखते हुए अब इतनी भी गुंजाइश नहीं रही कि पचास-चालीस वर्ष भी इसी ढर्रे को और आगे चलने दिया जाय। अब दुनिया की चाल बहुत तेज हो गई है। चलने का युग बीत गया, अब हम लोग दौड़ने के युग में रह रहे हैं। सब कुछ दौड़ता हुआ दीखता है। इस घुड़दौड़ में पतन और विनाश भी उतनी ही तेजी से बढ़ा चला आ रहा है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रतिरोध एवं परिवर्तन यदि कुछ समय और रुका रहे तो समय हाथ से निकल जायगा और हम इतने गहरे गर्त में गिर पड़ेंगे कि फिर उठ सकना सम्भव न रहेगा। इसलिए आज की ही घड़ी इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त है, जब कि परिवर्तन की प्रतिक्रिया का शुभारम्भ किया जाय।
(1) स्वस्थ शरीर, (2) स्वच्छ मन और, (3) सभ्य समाज की अभिनव रचना यही युग-निर्माण का उद्देश्य है। इसके लिए अपना व्यक्तित्व, अपना परिवार और अपना समाज हमें आत्मिक दृष्टि से उत्कृष्ट बनाना पड़ेगा। भौतिक सुसज्जा कितनी ही प्राप्त क्यों न करली जाय, जब तक आत्मिक उत्कृष्टता न बढ़ेगी तब तक न मनुष्य सुखी रहेगा और न सन्तुष्ट। उसकी सफलता एवं समृद्धि भी क्षणिक तथा दिखावटी मानी जायगी। मनुष्य का वास्तविक पराक्रम उसके सद्गुणों से ही निखरता है। सद्गुणी ही सच्ची प्रगति कर सकता है। उच्च अन्तःकरण वाले, विशाल हृदय, दूरदर्शी एवं दृढ़ चरित्र व्यक्ति अपना गौरव प्रकट करते हैं, दूसरों का मार्ग दर्शन कर सकने लायक क्षमता सम्पन्न होते हैं। ऐसे लोगों का बाहुल्य होने से ही कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में समर्थ एवं समृद्ध बनता है।
योजना के विविध कार्यक्रमों में यही तथ्य सन्निहित है। व्यक्ति का विकास, परिवार का निर्माण और सामाजिक उत्कर्ष में परिपूर्ण सहयोग की त्रिविधि प्रवृत्तियां जन-साधारण के मनःक्षेत्र में प्रतिष्ठापित एवं परिपोषित करने के लिए यह अभियान आरम्भ किया गया है। इसकी सफलता असफलता पर हमारा वैयक्तिक एवं सामूहिक भविष्य उज्ज्वल या अन्धकारमय बनेगा।
आज आर्थिक विकास पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। जितनी भी योजनाएं हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है कि मनुष्य को अधिक समृद्ध बनाया जाय। शिक्षा भी इसी दृष्टि से दी जा रही है कि पढ़ने वाला अधिक कमाऊ बन सके। इस बात की सर्वत्र उपेक्षा ही दीखती है कि मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा बने, जिसकी सुगन्ध से सारा वातावरण महकने लगे। नैतिकता की धर्म-भावना, कर्तव्य परायणता एवं सदाचरण की अभिवृद्धि के लिए हमारे नेताओं का ध्यान नहीं के बराबर है। इस दिशा में जो किया जा रहा है, वह बहुत ही स्वल्प एवं निराशाजनक है। आवश्यकता इस बात की है कि आर्थिक विकास से भी अधिक ध्यान नैतिक उत्कर्ष के लिए दिया जाय और अभी उसके लिए विशाल परिमाण में रचनात्मक कार्यक्रमों का विस्तार किया जाय। आर्थिक विकास का कोई मूल्य तभी रह सकता है, जब वह सज्जनता सम्पन्न व्यक्तियों का होता हो। यदि दुष्ट और दुर्जन साधन-सम्पन्न बन जायेंगे तो उससे उनका तथा सारे समाज का अधिक अहित ही होगा। दुर्गुणी व्यक्तियों की बढ़ी हुई कमाई ऐसे कामों में खर्च होती है, जिनसे अशान्ति और अनाचार का ही सृजन होता है। अस्तु आवश्यकता इस बात की है कि समाज के कर्णधारों का जितना ध्यान आर्थिक विकास योजनाओं में लगा हुआ है, जितना प्रयत्न और खर्च उन कार्यों के लिए किया जाता है, कम से कम उतना तो नैतिक उत्कर्ष के लिए किया ही जाना चाहिए। होना तो उससे भी अधिक चाहिए क्योंकि धन की अपेक्षा व्यक्तित्व का मूल्य अधिक है। व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति निर्धन रह कर भी ऋषियों की तरह प्रकाशवान बन सकता है, पर अपार धन होते हुए भी दुर्जन मनुष्य केवल विनाश ही प्रस्तुत कर सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नैतिक उत्कर्ष का मूल्य धन की अपेक्षा अनेक गुना अधिक है। अतएव उसके लिए प्रयत्न भी अधिक ही होना चाहिए था, पर खेद इसी बात का है कि सबसे अधिक उपेक्षा इसी दिशा में बरती जा रही है।
व्यक्ति के परिवर्तन से ही समाज, विश्व एवं युग का परिवर्तन सम्भव है। इस धरती पर स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने के लिए हमें जन-मानस का स्तर बदलना पड़ेगा। आज जिस स्वार्थपरता, संकीर्णता, असंयम और अनीति ने अपना पैर पसार रखा है, उसे हटाने का प्रयत्न करना होगा और उसके स्थान पर सज्जनोचित सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा। यह कार्य केवल कहने-सुनने से—लिखने-पढ़ने से सम्भव नहीं। लेखनी एवं वाणी में प्रचारात्मक शक्ति तो होती है, पर इनका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत स्वल्प काल तक रहता है। मनुष्यों में एक दूसरे को देखकर अनुकरण करने की प्रवृत्ति ही प्रधान रूप से काम करती है। दुष्कर्मों को देखकर लोग दुष्कर्म करते हैं। सत्कर्मों को देखकर वैसी गतिविधि अपनाने को जी करता है। इसलिए प्रयत्न यह करना होगा कि सुधरे हुए आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार लोग अपने जीवन क्रम बनावें। श्रेष्ठ व्यक्तियों के श्रेष्ठ आचरणों को देखकर ही जन-साधारण में वे सत्प्रवृत्तियां विकसित होंगी जो युग-निर्माण जैसे महान् अभियान के लिए नितान्त आवश्यक है।
अच्छा होता कि यह कार्य राष्ट्र के कर्णधारों द्वारा विशाल पैमाने पर सुसंगठित रूप से किया जाता। पर आज हमारे नेताओं की विचारधारा बिलकुल दूसरी है, वे आर्थिक उन्नति को सर्वोपरि मानते हैं और नीति सदाचार की बात एक फैशन की तरह कहते-सुनते तो रहते हैं, पर उस तरह की स्थिति पैदा करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने का उनका कोई मन दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में हम जो कुछ भी हैं—जिस छोटी स्थिति में भी हैं, वहीं से अपनी स्वल्प सामर्थ्य के अनुसार कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, वही कर भी रहे हैं।
युग-निर्माण योजना का आरम्भ किसी संस्था के आधार पर नहीं, वरन् एक वैयक्तिक प्रयत्न के रूप में आरम्भ कर रहे हैं। समयानुसार उसका कोई संगठित रूप बन जाय, यह आगे की बात है, पर आज तो अपनी स्वल्प सामर्थ्य को देखते हुए ही उस कार्य का श्रीगणेश किया जा रहा है। आत्म-निर्माण की दृष्टि से—इन पंक्तियों का लेखक, इस अभियान का प्रस्तुतकर्ता अधिक आत्मिक पवित्रता के लिए जो कुछ सम्भव है, प्रयास करता रहा है। उसके पिछले 64 वर्ष इसी प्रयत्न में बीते हैं। अब जीवन के जो दिन शेष रहे हैं, उन्हें वह और भी अधिक जागरूकता एवं सतर्कता से आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के लिए लगाने का प्रयत्न करेगा।
योजना के कार्यक्रमों में दूसरा चरण परिवार निर्माण का है। यों हमारा पांच व्यक्तियों का छोटा-सा परिवार मथुरा के घीया मण्डी मुहल्ले में किराये के मकान में रहता और गुजर करता है। पर दूसरा अपना एक बड़ा परिवार और भी है। वह है—अखण्ड-ज्योति पत्रिका के सदस्यों का जिसे हम सच्चे अर्थों में ‘अपना परिवार’ मानते हैं। गत 62 वर्षों से जिन लोगों के साथ निरन्तर वैसा ही व्यक्तिगत सम्पर्क रखा है वैसा ही उनके सुख-दुःख में भाग लिया है—जैसा कि कोई अंश-वंश के लोगों के साथ रखता या रख सकता है। 62 वर्ष के लम्बे सम्पर्क से हम अपने इसी विचार-परिवार के अत्यधिक निकट आये हैं और एक तरह से उन्हीं में घुल मिल गये हैं। हमने अपनी आत्मा में जलने वाली आग की गर्मी और रोशनी उन्हें दी है, तदनुसार वे विचार ही नहीं, कार्यों की दृष्टि से भी हमारे निकटतम व्यक्ति बन गये हैं।
अखण्ड-ज्योति परिवार श्रेय-पथ पर चलने वाले 25 लाख व्यक्तियों को एक आध्यात्मिक श्रृंखला में पिरोये रहने वाला सूत्र है। लेखों के आधार पर नहीं, भावना और आत्मीयता के सुदृढ़ संबंधों की मजबूत रस्सी से बंधा हुआ यह एक ऐसा संगठन है, जिसे कौटुम्बिक परिजनों से किसी भी प्रकार कम महत्व नहीं दिया जा सकता। व्यक्तिगत एकता और आत्मीयता के बन्धन हम लोगों के बीच इतनी मजबूती से बंधे हुए हैं कि इस समूह को हमें अपना व्यक्तिगत परिवार कहने में तनिक भी अत्युक्ति दिखाई नहीं पड़ती।
जिस प्रकार सर्वसाधारण को अपने रक्त सम्बन्धित परिवार को सुविकसित करने की जिम्मेदारी उठाने पड़ती है, उसी प्रकार हम अपने, इन तीस हजार कुटुम्बियों को लेकर जीवन-निर्माण कार्य में अवतीर्ण हो रहे हैं। उन्हें सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा तो बहुत पहले से दे रहे थे पर अब उनके सामने शत-सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत करके आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता को जीवन व्यवहार में समन्वित करने का अभ्यास करा रहे हैं। यों इन कार्यक्रमों को लाखों व्यक्तियों द्वारा अपनाये जाने पर इनका प्रभाव समाज के नव-निर्माण की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण दूरवर्ती एवं चिरस्थायी होगा। बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति की महान आवश्यकता की वह चिनगारी जलेगी जो आगे चलकर पाप-तापों का भस्मसात करने में दावानल का रूप धारण कर सके। साथ ही इसमें आत्म-कल्याण एवं जीवन-मुक्ति का उद्देश्य भी सन्निहित है। यह योजना व्यक्ति को निकृष्ट स्तर का जीवनयापन करने की दुर्दशा से ऊंचा उठा कर उत्कृष्टता अपनाने की आध्यात्मिक साधना का अवसर उपस्थित करती है। इसलिए उसे एक प्रकार की योग साधना, तपश्चर्या, नर-नारायण की भक्ति तथा भावोपासना भी कह सकते हैं।
इस मार्ग पर चलते हुए—शत-सूत्री कार्यक्रमों में से जिसे जितने अनुकूल पड़े, उन्हें अपनाते हुए निश्चित रूप से साहस एवं मनस्विता का परिचय देना पड़ेगा। कई व्यक्ति उपहास एवं विरोध करेंगे। स्वार्थों को भी सीमित एवं संयमित करना पड़ेगा। आर्थिक दृष्टि से थोड़ा घाटा भी रह सकता है और अपने पूर्व संचित कुसंस्कारों से लड़ने में कठिनाई भी दृष्टिगोचर हो सकती है। जो इतना साहस कर सकेगा उसे सच्चे अर्थों में साधना समर का शूरवीर योद्धा कहा जा सकेगा। यह साहस ही इस बात की कसौटी मानी जायगी कि किसी व्यक्ति ने आध्यात्मिक विचारों को हृदयंगम किया है, या केवल सुना समझा भर है। योजना एक विशुद्ध साधना है जो युग-निर्माण का—समाज की अभिनव रचना का उद्देश्य पूरा करते हुए व्यक्ति को उसका जीवन लक्ष्य पूरा कराने में किसी भी अन्य जप-तप वाली साधना की अपेक्षा अधिक सरलता से पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचा सकती है।
तब हम 30 हजार व्यक्ति एक जुट होकर इस शत-सूत्री कार्यक्रम में संलग्न हुए थे। गुरु-पूर्णिमा, (आषाढ़ सुदी 15) जून सन् 62 को इस महान् अभियान का विधिवत् उद्घाटन हुआ था। इन सभी को हर सदस्य कार्यान्वित करे—यह आवश्यक नहीं, पर जिससे जितना संभव हो सके, जिन कार्यक्रमों को अपनाया जा सके, उन्हें अपनाना चाहिए। वैसा ही परिजन कर भी रहे हैं। जैसे-जैसे एवं मनोबल बढ़ता चलेगा, अधिक तेजी से कदम आगे बढ़ेंगे।
अखण्ड-ज्योति के दस सदस्य या उससे थोड़े न्यूनाधिक सदस्य जहां कहीं हैं, वहां उनका एक संगठन बनाया जा रहा है। एक शाखा-संचालक तथा पांच अन्य व्यक्तियों की कार्य समिति चुन ली जाती है। इस शाखा का कार्यालय जहां रहता है, उसे युग-निर्माण केन्द्र कहते हैं। यह केन्द्र सदस्यों के परस्पर मिलने-जुलने का एक मिलन-मन्दिर बन कर योजना की रचनात्मक प्रवृत्तियों के संचालन का उद्गम बन जाता है। इस स्थान पर अनिवार्य रूप से एक युग-निर्माण पुस्तकालय रहता है, जहां से जनता में घर-घर जीवन निर्माण का सत्साहित्य पहुंचाने पढ़ाने वापिस लाने एवं अभिरुचि उत्पन्न करने की प्रक्रिया चलती रहती है। परस्पर विचार विनिमय द्वारा सुविधानुसार जो कुछ जहां किया जाना सम्भव होता है, वह वहां किया जाता रहता है। इन कार्यों की सूचना ‘युग-निर्माण योजना’ पाक्षिक पत्रिका में छपती रहती है जिससे सभी शाखाओं को देशभर में चलने वाली इस महान् प्रक्रिया की प्रगति का पता चलता रहता है और समय-समय पर आवश्यक प्रकाश एवं मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है।
यह सोचना उचित नहीं कि इतने बड़े संसार में 25 लाख व्यक्ति नगण्य हैं, उनके सुधरने से क्या बनने वाला है? परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह विचारधारा दस अन्य व्यक्तियों तक प्रसारित करते रहने की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है। उसके पास जो ‘अखण्ड ज्योति’ मासिक एवं ‘युग-निर्माण’ पात्रिक पत्रिकाएं पहुंचती हैं, उन्हें स्वयं ही पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, वरन् कम से कम दूसरे दस को उन्हें पढ़ाने या सुनाने की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। इस प्रकार अपने 25 लाख व्यक्ति दस-दस से सम्बन्धित रहने के कारण 25 करोड़ व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाते रहते हैं। इनमें से निश्चित रूप से कुछ योजना के विधिवत् सदस्य बढ़ेंगे ही—अखण्ड-ज्योति परिवार में सम्मिलित होंगे ही। फिर उन्हें भी दस नये व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना पड़ेगा। इस तरह प्रचार परम्परा की यह पीढ़ी—एक से दस—एक से दस में गुणित होती हुई पांच-छह छलांगों में सारे विश्व में अपना प्रभाव प्रस्तुत कर सकेगी और जो अभियान आरम्भ किया गया है, उस स्वप्न को साकार रूप में प्रस्तुत कर सकेगी।
‘युग-निर्माण योजना’ इसी अभाव की पूर्ति का एक विनम्र प्रयास है। इसका प्रारम्भ बहुत ही छोटे रूप में किया जा रहा है और आशा यह की जा रही है कि जिस तरह एक छोटा बीज अपने आपको गला कर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है और उस वृक्ष पर लगने वाले फलों में रहने वाले बीज सहस्रों अन्य बीजों की उत्पत्ति का कारण बन जाते हैं। उसी प्रकार यह शुभारम्भ बहुत छोटे रूप में किया जा रहा है, पर विश्वास यह किया जा रहा है कि यह तेजी से बढ़ेगा और इसका प्रकाश समस्त विश्व को—समस्त मानव जाति का—समस्त प्राणियों को प्राप्त होगा।
आज जिस स्थिति में होकर मनुष्य जाति का गुजरना पड़ रहा है वह बाहर से उत्थान जैसी दीखते हुए भी वस्तुतः पतन की है। दिखावा, शोभा, श्रृंगार का आवरण बढ़ रहा है पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला हुआ जा रहा है। दिमाग बड़े हो रहे हैं पर दिल दिन-दिन सिकुड़ते जाते हैं। पढ़-लिखकर लोग होशियार तो खूब हो रहे हैं पर साथ ही अनुदारता स्वार्थपरता, विलास और अहंकार भी उसी अनुपात से बढ़े हैं। पोशाक, श्रृंगार, स्वादिष्ट भोजन और मनोरंजन की किस्में बढ़ती जाती हैं, पर असंयम के कारण स्वास्थ्य दिन-दिन गिरता चला जा रहा है। दो-तीन पीढ़ी पहले जैसा अच्छा स्वास्थ्य था वह अब देखने को नहीं मिलता। कमजोरी और अशक्तता हर किसी को किसी-न-किसी रूप में घेरे हुए हैं। डॉक्टर-देवताओं की पूजा प्रदक्षिणा करते-करते लोग थक जाते हैं पर स्वास्थ्य लाभ का मनोरथ किसी बेचारे को कदाचित ही प्राप्त होता है।
धन बढ़ा है पर साथ ही महंगाई और जरूरतों की असाधारण वृद्धि हुई हैं। खर्चों के मुकाबिले आमदनी कम रहने से हर आदमी अभावग्रस्त रहता है और खर्चे की तंगी अनुभव करता है। पारस्परिक सम्बन्ध खिंचे हुए, संदिग्ध और अविश्वास से भरे हुए हैं। पति-पत्नी, पिता-पुत्र और भाई-भाई के बीच मनोमालिन्य ही भरा रहता है। यार-दोस्तों में से अधिकांश ऐसे होते हैं जिनसे विश्वासघात, अपहरण और तोताचश्मी की ही आशा की जा सकती है। चरित्र और ईमानदारी की मात्रा इतनी तेजी से गिर रही है कि किसी को किसी पर विश्वास नहीं होता। कोई करने भी लगे तो बेचारा धोखा खाता है। पुलिस और जेलों की, मुकदमे और कचहरियों की कमी नहीं, पर अपराधी मनोवृत्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती है।
जीवन संघर्ष अब इतना कठिन होता जाता है कि सुख शान्ति के साथ जिन्दगी के दिन पूरे कर लेना अब सरल नहीं रहा। हर व्यक्ति अपनी-अपनी समस्याओं में उलझा हुआ है। चिन्ता, भय, विक्षोभ और परेशानी से उसका चित्त अशान्त बना रहता है। शारीरिक व्यथाएं, मानसिक परेशानियां, पारस्परिक, दुर्भाव, न सुलझने वाली उलझनें, आर्थिक तंगी, अनीति भरे आक्रमण, छल और विश्वासघात, प्रवंचना, विडम्बना, असफलताएं और आपत्तियां, घात-प्रतिघात और उतार-चढ़ाव का जोर इतना बढ़ गया है कि साधारण रीति से जीवन व्यतीत कर सकना कठिन होता जाता है। संघर्ष इतना प्रबल हो चला है कि जन-साधारण को निरन्तर विक्षुब्ध रहना पड़ता है। इस प्रबल मानसिक दबाव को कितने ही लोग सहन नहीं कर पाते, फलस्वरूप, आत्म-हत्याओं की, पागलों की, निराश हताश और दीन-दुखियों की संख्या दिन-दिन बढ़ती ही चली जा रही है। व्यक्तिगत जीवन में हर आदमी को निराशा, तंगी और चिन्ता घेरे हुए हैं। सामाजिक जीवन में मनुष्य अपने को चारों और भेड़ियों से घिरी हुई स्थिति में फंसा अनुभव करता है। राजनीति इतनी विषम हो गई है कि उसमें सत्ताधारी लोगों की मनमानी के आगे जनहित को ठुकराया ही जाता रहता है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अविश्वास और भय का इतना बाहुल्य है कि अणु-युद्ध में सारी मानव सभ्यता का विनाश एक-दो घण्टे के भीतर-भीतर ही हो जाने का खतरा नंगी तलवार की तरह दुनिया के सिर पर लटक रहा है। कोई प्रसन्न नहीं, कहीं सन्तोष नहीं, किधर भी शान्ति नहीं। दुर्दशा के चक्रव्यूह में फंसा हुआ मानव प्राणी अपनी मुक्ति का मार्ग खोजता है, पर उसे किधर भी आशा की किरणें दिखाई नहीं पड़तीं। अन्धकार और निराशा के श्मशान में भटकती हुई मानव अन्तरात्मा खेद और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं करती। बाहरी आडम्बर दिन-दिन बढ़ते चले जा रहे हैं, पर भीतर-ही-भीतर सब कुछ खोखला और पोला बनता चला जा रहा है। उस स्थिति में रहते हुए न कोई सन्तुष्ट रहेगा और न शान्त। यह प्रत्यक्ष है कि यदि सम्पूर्ण विनाश ही अभीष्ट न हो तो आज की परिस्थितियों का अविलम्ब परिवर्तन अनिवार्यतः आवश्यक है। स्थिति की विषमता को देखते हुए अब इतनी भी गुंजाइश नहीं रही कि पचास-चालीस वर्ष भी इसी ढर्रे को और आगे चलने दिया जाय। अब दुनिया की चाल बहुत तेज हो गई है। चलने का युग बीत गया, अब हम लोग दौड़ने के युग में रह रहे हैं। सब कुछ दौड़ता हुआ दीखता है। इस घुड़दौड़ में पतन और विनाश भी उतनी ही तेजी से बढ़ा चला आ रहा है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रतिरोध एवं परिवर्तन यदि कुछ समय और रुका रहे तो समय हाथ से निकल जायगा और हम इतने गहरे गर्त में गिर पड़ेंगे कि फिर उठ सकना सम्भव न रहेगा। इसलिए आज की ही घड़ी इसके लिए सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त है, जब कि परिवर्तन की प्रतिक्रिया का शुभारम्भ किया जाय।
(1) स्वस्थ शरीर, (2) स्वच्छ मन और, (3) सभ्य समाज की अभिनव रचना यही युग-निर्माण का उद्देश्य है। इसके लिए अपना व्यक्तित्व, अपना परिवार और अपना समाज हमें आत्मिक दृष्टि से उत्कृष्ट बनाना पड़ेगा। भौतिक सुसज्जा कितनी ही प्राप्त क्यों न करली जाय, जब तक आत्मिक उत्कृष्टता न बढ़ेगी तब तक न मनुष्य सुखी रहेगा और न सन्तुष्ट। उसकी सफलता एवं समृद्धि भी क्षणिक तथा दिखावटी मानी जायगी। मनुष्य का वास्तविक पराक्रम उसके सद्गुणों से ही निखरता है। सद्गुणी ही सच्ची प्रगति कर सकता है। उच्च अन्तःकरण वाले, विशाल हृदय, दूरदर्शी एवं दृढ़ चरित्र व्यक्ति अपना गौरव प्रकट करते हैं, दूसरों का मार्ग दर्शन कर सकने लायक क्षमता सम्पन्न होते हैं। ऐसे लोगों का बाहुल्य होने से ही कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों में समर्थ एवं समृद्ध बनता है।
योजना के विविध कार्यक्रमों में यही तथ्य सन्निहित है। व्यक्ति का विकास, परिवार का निर्माण और सामाजिक उत्कर्ष में परिपूर्ण सहयोग की त्रिविधि प्रवृत्तियां जन-साधारण के मनःक्षेत्र में प्रतिष्ठापित एवं परिपोषित करने के लिए यह अभियान आरम्भ किया गया है। इसकी सफलता असफलता पर हमारा वैयक्तिक एवं सामूहिक भविष्य उज्ज्वल या अन्धकारमय बनेगा।
आज आर्थिक विकास पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है। जितनी भी योजनाएं हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है कि मनुष्य को अधिक समृद्ध बनाया जाय। शिक्षा भी इसी दृष्टि से दी जा रही है कि पढ़ने वाला अधिक कमाऊ बन सके। इस बात की सर्वत्र उपेक्षा ही दीखती है कि मनुष्य का व्यक्तित्व ऐसा बने, जिसकी सुगन्ध से सारा वातावरण महकने लगे। नैतिकता की धर्म-भावना, कर्तव्य परायणता एवं सदाचरण की अभिवृद्धि के लिए हमारे नेताओं का ध्यान नहीं के बराबर है। इस दिशा में जो किया जा रहा है, वह बहुत ही स्वल्प एवं निराशाजनक है। आवश्यकता इस बात की है कि आर्थिक विकास से भी अधिक ध्यान नैतिक उत्कर्ष के लिए दिया जाय और अभी उसके लिए विशाल परिमाण में रचनात्मक कार्यक्रमों का विस्तार किया जाय। आर्थिक विकास का कोई मूल्य तभी रह सकता है, जब वह सज्जनता सम्पन्न व्यक्तियों का होता हो। यदि दुष्ट और दुर्जन साधन-सम्पन्न बन जायेंगे तो उससे उनका तथा सारे समाज का अधिक अहित ही होगा। दुर्गुणी व्यक्तियों की बढ़ी हुई कमाई ऐसे कामों में खर्च होती है, जिनसे अशान्ति और अनाचार का ही सृजन होता है। अस्तु आवश्यकता इस बात की है कि समाज के कर्णधारों का जितना ध्यान आर्थिक विकास योजनाओं में लगा हुआ है, जितना प्रयत्न और खर्च उन कार्यों के लिए किया जाता है, कम से कम उतना तो नैतिक उत्कर्ष के लिए किया ही जाना चाहिए। होना तो उससे भी अधिक चाहिए क्योंकि धन की अपेक्षा व्यक्तित्व का मूल्य अधिक है। व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति निर्धन रह कर भी ऋषियों की तरह प्रकाशवान बन सकता है, पर अपार धन होते हुए भी दुर्जन मनुष्य केवल विनाश ही प्रस्तुत कर सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नैतिक उत्कर्ष का मूल्य धन की अपेक्षा अनेक गुना अधिक है। अतएव उसके लिए प्रयत्न भी अधिक ही होना चाहिए था, पर खेद इसी बात का है कि सबसे अधिक उपेक्षा इसी दिशा में बरती जा रही है।
व्यक्ति के परिवर्तन से ही समाज, विश्व एवं युग का परिवर्तन सम्भव है। इस धरती पर स्वर्गीय वातावरण का सृजन करने के लिए हमें जन-मानस का स्तर बदलना पड़ेगा। आज जिस स्वार्थपरता, संकीर्णता, असंयम और अनीति ने अपना पैर पसार रखा है, उसे हटाने का प्रयत्न करना होगा और उसके स्थान पर सज्जनोचित सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा। यह कार्य केवल कहने-सुनने से—लिखने-पढ़ने से सम्भव नहीं। लेखनी एवं वाणी में प्रचारात्मक शक्ति तो होती है, पर इनका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत स्वल्प काल तक रहता है। मनुष्यों में एक दूसरे को देखकर अनुकरण करने की प्रवृत्ति ही प्रधान रूप से काम करती है। दुष्कर्मों को देखकर लोग दुष्कर्म करते हैं। सत्कर्मों को देखकर वैसी गतिविधि अपनाने को जी करता है। इसलिए प्रयत्न यह करना होगा कि सुधरे हुए आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार लोग अपने जीवन क्रम बनावें। श्रेष्ठ व्यक्तियों के श्रेष्ठ आचरणों को देखकर ही जन-साधारण में वे सत्प्रवृत्तियां विकसित होंगी जो युग-निर्माण जैसे महान् अभियान के लिए नितान्त आवश्यक है।
अच्छा होता कि यह कार्य राष्ट्र के कर्णधारों द्वारा विशाल पैमाने पर सुसंगठित रूप से किया जाता। पर आज हमारे नेताओं की विचारधारा बिलकुल दूसरी है, वे आर्थिक उन्नति को सर्वोपरि मानते हैं और नीति सदाचार की बात एक फैशन की तरह कहते-सुनते तो रहते हैं, पर उस तरह की स्थिति पैदा करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने का उनका कोई मन दिखाई नहीं पड़ता। ऐसी निराशाजनक परिस्थितियों में हम जो कुछ भी हैं—जिस छोटी स्थिति में भी हैं, वहीं से अपनी स्वल्प सामर्थ्य के अनुसार कार्य आरम्भ कर देना चाहिए, वही कर भी रहे हैं।
युग-निर्माण योजना का आरम्भ किसी संस्था के आधार पर नहीं, वरन् एक वैयक्तिक प्रयत्न के रूप में आरम्भ कर रहे हैं। समयानुसार उसका कोई संगठित रूप बन जाय, यह आगे की बात है, पर आज तो अपनी स्वल्प सामर्थ्य को देखते हुए ही उस कार्य का श्रीगणेश किया जा रहा है। आत्म-निर्माण की दृष्टि से—इन पंक्तियों का लेखक, इस अभियान का प्रस्तुतकर्ता अधिक आत्मिक पवित्रता के लिए जो कुछ सम्भव है, प्रयास करता रहा है। उसके पिछले 64 वर्ष इसी प्रयत्न में बीते हैं। अब जीवन के जो दिन शेष रहे हैं, उन्हें वह और भी अधिक जागरूकता एवं सतर्कता से आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के लिए लगाने का प्रयत्न करेगा।
योजना के कार्यक्रमों में दूसरा चरण परिवार निर्माण का है। यों हमारा पांच व्यक्तियों का छोटा-सा परिवार मथुरा के घीया मण्डी मुहल्ले में किराये के मकान में रहता और गुजर करता है। पर दूसरा अपना एक बड़ा परिवार और भी है। वह है—अखण्ड-ज्योति पत्रिका के सदस्यों का जिसे हम सच्चे अर्थों में ‘अपना परिवार’ मानते हैं। गत 62 वर्षों से जिन लोगों के साथ निरन्तर वैसा ही व्यक्तिगत सम्पर्क रखा है वैसा ही उनके सुख-दुःख में भाग लिया है—जैसा कि कोई अंश-वंश के लोगों के साथ रखता या रख सकता है। 62 वर्ष के लम्बे सम्पर्क से हम अपने इसी विचार-परिवार के अत्यधिक निकट आये हैं और एक तरह से उन्हीं में घुल मिल गये हैं। हमने अपनी आत्मा में जलने वाली आग की गर्मी और रोशनी उन्हें दी है, तदनुसार वे विचार ही नहीं, कार्यों की दृष्टि से भी हमारे निकटतम व्यक्ति बन गये हैं।
अखण्ड-ज्योति परिवार श्रेय-पथ पर चलने वाले 25 लाख व्यक्तियों को एक आध्यात्मिक श्रृंखला में पिरोये रहने वाला सूत्र है। लेखों के आधार पर नहीं, भावना और आत्मीयता के सुदृढ़ संबंधों की मजबूत रस्सी से बंधा हुआ यह एक ऐसा संगठन है, जिसे कौटुम्बिक परिजनों से किसी भी प्रकार कम महत्व नहीं दिया जा सकता। व्यक्तिगत एकता और आत्मीयता के बन्धन हम लोगों के बीच इतनी मजबूती से बंधे हुए हैं कि इस समूह को हमें अपना व्यक्तिगत परिवार कहने में तनिक भी अत्युक्ति दिखाई नहीं पड़ती।
जिस प्रकार सर्वसाधारण को अपने रक्त सम्बन्धित परिवार को सुविकसित करने की जिम्मेदारी उठाने पड़ती है, उसी प्रकार हम अपने, इन तीस हजार कुटुम्बियों को लेकर जीवन-निर्माण कार्य में अवतीर्ण हो रहे हैं। उन्हें सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा तो बहुत पहले से दे रहे थे पर अब उनके सामने शत-सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत करके आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता को जीवन व्यवहार में समन्वित करने का अभ्यास करा रहे हैं। यों इन कार्यक्रमों को लाखों व्यक्तियों द्वारा अपनाये जाने पर इनका प्रभाव समाज के नव-निर्माण की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण दूरवर्ती एवं चिरस्थायी होगा। बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति की महान आवश्यकता की वह चिनगारी जलेगी जो आगे चलकर पाप-तापों का भस्मसात करने में दावानल का रूप धारण कर सके। साथ ही इसमें आत्म-कल्याण एवं जीवन-मुक्ति का उद्देश्य भी सन्निहित है। यह योजना व्यक्ति को निकृष्ट स्तर का जीवनयापन करने की दुर्दशा से ऊंचा उठा कर उत्कृष्टता अपनाने की आध्यात्मिक साधना का अवसर उपस्थित करती है। इसलिए उसे एक प्रकार की योग साधना, तपश्चर्या, नर-नारायण की भक्ति तथा भावोपासना भी कह सकते हैं।
इस मार्ग पर चलते हुए—शत-सूत्री कार्यक्रमों में से जिसे जितने अनुकूल पड़े, उन्हें अपनाते हुए निश्चित रूप से साहस एवं मनस्विता का परिचय देना पड़ेगा। कई व्यक्ति उपहास एवं विरोध करेंगे। स्वार्थों को भी सीमित एवं संयमित करना पड़ेगा। आर्थिक दृष्टि से थोड़ा घाटा भी रह सकता है और अपने पूर्व संचित कुसंस्कारों से लड़ने में कठिनाई भी दृष्टिगोचर हो सकती है। जो इतना साहस कर सकेगा उसे सच्चे अर्थों में साधना समर का शूरवीर योद्धा कहा जा सकेगा। यह साहस ही इस बात की कसौटी मानी जायगी कि किसी व्यक्ति ने आध्यात्मिक विचारों को हृदयंगम किया है, या केवल सुना समझा भर है। योजना एक विशुद्ध साधना है जो युग-निर्माण का—समाज की अभिनव रचना का उद्देश्य पूरा करते हुए व्यक्ति को उसका जीवन लक्ष्य पूरा कराने में किसी भी अन्य जप-तप वाली साधना की अपेक्षा अधिक सरलता से पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचा सकती है।
तब हम 30 हजार व्यक्ति एक जुट होकर इस शत-सूत्री कार्यक्रम में संलग्न हुए थे। गुरु-पूर्णिमा, (आषाढ़ सुदी 15) जून सन् 62 को इस महान् अभियान का विधिवत् उद्घाटन हुआ था। इन सभी को हर सदस्य कार्यान्वित करे—यह आवश्यक नहीं, पर जिससे जितना संभव हो सके, जिन कार्यक्रमों को अपनाया जा सके, उन्हें अपनाना चाहिए। वैसा ही परिजन कर भी रहे हैं। जैसे-जैसे एवं मनोबल बढ़ता चलेगा, अधिक तेजी से कदम आगे बढ़ेंगे।
अखण्ड-ज्योति के दस सदस्य या उससे थोड़े न्यूनाधिक सदस्य जहां कहीं हैं, वहां उनका एक संगठन बनाया जा रहा है। एक शाखा-संचालक तथा पांच अन्य व्यक्तियों की कार्य समिति चुन ली जाती है। इस शाखा का कार्यालय जहां रहता है, उसे युग-निर्माण केन्द्र कहते हैं। यह केन्द्र सदस्यों के परस्पर मिलने-जुलने का एक मिलन-मन्दिर बन कर योजना की रचनात्मक प्रवृत्तियों के संचालन का उद्गम बन जाता है। इस स्थान पर अनिवार्य रूप से एक युग-निर्माण पुस्तकालय रहता है, जहां से जनता में घर-घर जीवन निर्माण का सत्साहित्य पहुंचाने पढ़ाने वापिस लाने एवं अभिरुचि उत्पन्न करने की प्रक्रिया चलती रहती है। परस्पर विचार विनिमय द्वारा सुविधानुसार जो कुछ जहां किया जाना सम्भव होता है, वह वहां किया जाता रहता है। इन कार्यों की सूचना ‘युग-निर्माण योजना’ पाक्षिक पत्रिका में छपती रहती है जिससे सभी शाखाओं को देशभर में चलने वाली इस महान् प्रक्रिया की प्रगति का पता चलता रहता है और समय-समय पर आवश्यक प्रकाश एवं मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है।
यह सोचना उचित नहीं कि इतने बड़े संसार में 25 लाख व्यक्ति नगण्य हैं, उनके सुधरने से क्या बनने वाला है? परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह विचारधारा दस अन्य व्यक्तियों तक प्रसारित करते रहने की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है। उसके पास जो ‘अखण्ड ज्योति’ मासिक एवं ‘युग-निर्माण’ पात्रिक पत्रिकाएं पहुंचती हैं, उन्हें स्वयं ही पढ़ना पर्याप्त नहीं होता, वरन् कम से कम दूसरे दस को उन्हें पढ़ाने या सुनाने की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। इस प्रकार अपने 25 लाख व्यक्ति दस-दस से सम्बन्धित रहने के कारण 25 करोड़ व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाते रहते हैं। इनमें से निश्चित रूप से कुछ योजना के विधिवत् सदस्य बढ़ेंगे ही—अखण्ड-ज्योति परिवार में सम्मिलित होंगे ही। फिर उन्हें भी दस नये व्यक्तियों तक यह प्रकाश पहुंचाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध होना पड़ेगा। इस तरह प्रचार परम्परा की यह पीढ़ी—एक से दस—एक से दस में गुणित होती हुई पांच-छह छलांगों में सारे विश्व में अपना प्रभाव प्रस्तुत कर सकेगी और जो अभियान आरम्भ किया गया है, उस स्वप्न को साकार रूप में प्रस्तुत कर सकेगी।
‘युग-निर्माण योजना’ इसी अभाव की पूर्ति का एक विनम्र प्रयास है। इसका प्रारम्भ बहुत ही छोटे रूप में किया जा रहा है और आशा यह की जा रही है कि जिस तरह एक छोटा बीज अपने आपको गला कर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है और उस वृक्ष पर लगने वाले फलों में रहने वाले बीज सहस्रों अन्य बीजों की उत्पत्ति का कारण बन जाते हैं। उसी प्रकार यह शुभारम्भ बहुत छोटे रूप में किया जा रहा है, पर विश्वास यह किया जा रहा है कि यह तेजी से बढ़ेगा और इसका प्रकाश समस्त विश्व को—समस्त मानव जाति का—समस्त प्राणियों को प्राप्त होगा।