Books - हमारी युग निर्माण योजना
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Language: HINDI
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राजनीति और सच्चरित्रता
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आज की परिस्थितियों में शासन सत्ता की शक्ति बहुत अधिक है। इसलिये उत्तरदायित्व भी उसी पर अधिक है। राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान और पतन में भी शासन-तंत्र अपनी नीतियों के कारण बहुत कुछ सहायक अथवा बाधक हो सकता है। नीचे कुछ ऐसे सुझाव प्रस्तुत किए जाते हैं जिनके आधार पर राजनीति के क्षेत्र से चरित्र निर्माण की दिशा में बहुत काम हो सकता है। हम लोग आज की प्रत्यक्ष राजनीति में भाग नहीं लेते पर एक मतदाता और राष्ट्र के उत्तरदायी नागरिक होने के नाते इतना कर्तव्य तो है ही कि शासन तंत्र में आवश्यक उत्कृष्टता लाने के लिए प्रयत्न करें।
जो लोग आज चुने हुए हैं उन तक यह विचार पहुंचाए जाएं और जो आगे चुने जाएं उन्हें इन विचारों की उपयोगिता समझाई जाय। चुने हुए लोगों का बहुमत तो इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है। अल्प मत के लोग भी बहुमत को प्रभावित तो कर ही सकते हैं। जन आन्दोलन के रूप में यह विचारधारा यदि सरकार तक पहुंचाई जाय तो उसे भी इस ओर ध्यान देने और आवश्यक सुधार करने का अवसर मिलेगा। हमें रचनात्मक प्रयत्न करने चाहिये और शासन में चरित्र-निर्माण के उपयुक्त वातावरण रहे इसके लिये प्रयत्न करते रहना ही चाहिए।
नीचे कुछ विचार प्रस्तुत हैं। इनके अतिरिक्त तथा विकल्प में भी अनेक विचार हो सकते हैं जिनके आधार पर राष्ट्र का चारित्रिक विकास हो सके। उनको भी सामने लाना चाहिए।
87—गीता के माध्यम से जनजागरण—जिस प्रकार भागवत् कथा सप्ताहों के धार्मिक अनुष्ठान होते हैं उसी प्रकार गीता कथा सप्ताहों के माध्यम से जन जागरण के आयोजन किये जायें। युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आर्ष-विचारधारा का प्रतिपादन है वह गीता में समग्र रूप से विद्यमान हैं। मोह-ग्रस्त अर्जुन को जिस प्रकार भगवान कृष्ण ने गीता का सन्देश सुनाकर उसे कर्तव्य पथ पर संलग्न किया था उसी प्रकार प्रस्तुत भारत को जागृत करने के लिये जन-जीवन में गीता ज्ञान का प्रवेश कराया जाना चाहिए।
इस प्रकार गीता प्रवचनों के प्रशिक्षण के लिये एक विशेष योजना तैयार की गई है। गीता श्लोकों से संगति रखने वाली रामायण की चौपाइयों में इतिहास पुराणों की कथाओं का समावेश करके ऐसी पुस्तकें तैयार की गई हैं जिनके माध्यम से गीता की कथा को बाल, वृद्ध, नर, नारी, शिक्षित, अशिक्षित सभी के लिए आकर्षक, प्रबोधक एवं हृदयस्पर्शी बनाया जा सकता है। राधेश्याम तर्ज पर गीता का ऐसा पद्यानुवाद भी छापा गया है जिसे कीर्तन भजन की तरह गाया जा सकता है। आयोजनों में भाग लेने वाले व्यक्ति दो भागों में विभक्त होकर बारी-बारी इन पद्यानुवादों का सामूहिक पाठ करें तो वह गीता परायण बहुत ही आकर्षक बन सकता है। किस श्लोक के साथ किस युग-निर्माण सिद्धान्त का समावेश किया जाय और उसका प्रतिपादन किस प्रकार हो यह विधान इस गीता सप्ताह साहित्य में समाविष्ट कर दिया गया है। ऐसे प्रवचन कर्ताओं को व्यवहारिक शिक्षा देने के लिए मथुरा में एक एक महीने के शिक्षण शिविर भी होते हैं, जिनमें प्रशिक्षण प्राप्त कर गीता के माध्यम से जन-जागरण के लिये नई पीढ़ी के नये प्रवचनकर्त्ता—कथा-व्यास तैयार किये जा सकते हैं।
88—मत-दान और मतदाता—जहां प्रजातन्त्र पद्धति है वहां शासन के भले या बुरे होने का उत्तर-दायित्व वहां के उन सभी नागरिकों पर रहता है जो मतदान करते हैं। ‘वोट’ राष्ट्र की एक परम पवित्र थाती है। उसकी महत्ता हम में से हर को समझनी चाहिये। किसी पक्षपात, दबाव या लोभ में आकर इसे चाहे किसी को दे डालने का उथलापन नहीं अपनाना चाहिए। जिस पार्टी या उम्मीदवार को वोट देना हो उसकी विचारधारा, भावना एवं उत्कृष्टता को भली भांति परखना चाहिए। राष्ट्र के भाग्य निर्माण का उत्तरदायित्व हम किसे सौंपे? इस कसौटी पर जो भी खरा उतरे उसे ही वोट दिया जाय। प्रजातन्त्र का लाभ तभी है जब हर नागरिक उसका महत्व और उत्तरदायित्व समझे और अनुभव करे। शासन में आवश्यक सुधार अभीष्ट हो तो इसके लिये मतदाताओं को समझाया और सुधारा जाना आवश्यक है।
89—शिक्षा पद्धति का स्तर—शिक्षालय व्यक्तित्व ढालने की फैक्ट्रियां होती हैं। वहां जैसा वातावरण रहता है, जिस व्यक्तित्व के अध्यापक रहते हैं, जैसा पाठ्यक्रम रहता है, जैसी व्यवस्था बरती जाती है उसका भारी प्रभाव छात्रों की मनोभूमि पर पड़ता है और वे भावी जीवन में बहुत कुछ उसी ढांचे में ढल जाते हैं। आज शिक्षा का पूरा नियन्त्रण सरकार के हाथ में है, इसलिए छात्रों की मनोभूमि का निर्माण करने की जिम्मेदारी भी बहुत कुछ उसी के ऊपर है। शिक्षण पद्धति में ऐसा सुधार करने के लिए सरकार को कहा जाय जिससे चरित्रवान् कर्मठ और सभ्य, सेवा भावी नागरिक बनकर शिक्षार्थी निकल सकें। सैनिक शिक्षा को शिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाय और नैतिक एवं सांस्कृतिक भावनाओं से विद्यालयों का वातावरण पूर्ण रहे। इसके लिये सरकार पर आवश्यक दबाव डाला जाय।
90—कुरीतियों का उन्मूलन—सामाजिक कुरीतियों की हानियां नैतिक अपराधों में बढ़कर हैं। भले ही उन्हें मानसिक दुर्बलतावश अपनाये रखा गया हो पर समाज का अहित तो बहुत भारी ही होता है। इसलिये इनके विरुद्ध भी कानून बनाने चाहिए। स्वर्ण नियन्त्रण का कानून कड़ाई के साथ अमल में आते ही जेवरों का सदियों पुराना मोह सप्ताहों के भीतर समाप्त हो गया। इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अन्य कानून भी बनाये जांय और उनके पालन कराने में स्वर्ण नियन्त्रण जैसी कड़ाई बरती जाय। यों दहेज, मृत्युभोज, बाल-विवाह, वेश्यावृत्ति आदि के विरुद्ध कानून मौजूद हैं पर वे इतने ढीले-पोले हैं कि उससे न्याय और कानून का उपहास ही बनता है। यदि सचमुच ही कोई सुधार करना हो तो कानूनों में तेजी और कड़ाई रहनी आवश्यक है। सरकार पर ऐसे सुधारात्मक कड़े कानून बनाने के लिए जोर डाला जाय।
91—सस्ता, शीघ्र और सरल न्याय—आज का न्याय बहुत पेचीदा, बहुत लम्बा, बहुत व्ययसाध्य और ऐसी गुत्थियों से भरा है कि बेचारा निर्धन और भोला भाला व्यक्ति न्याय से वंचित ही रह जाता है। धूर्तों के लिए ऐसी गुंजाइश मिल जाती है कि वे पैसे के बल पर सीधे को उलटा कर सकें। न्यायतंत्र में से ऐसे सारे छिद्र बन्द किये जाने चाहिये और ऐसी व्यवस्था बननी चाहिये और ऐसा परिवर्तन होना चाहिए कि सरल रीति से ही व्यक्ति को शीघ्र और सस्ता न्याय प्राप्त हो सके। इस विभाग के कर्मचारियों के हाथ में जनता को परेशान करने की क्षमता न रहे तो रिश्वत सहज ही बन्द हो सकती है।
92—अपराधों के प्रति कड़ाई—अपराधियों के प्रति कड़ाई की कठोर नीति रखने की प्रेरणा सरकार को करनी चाहिये। स्वल्प दण्ड और जेलों में असाधारण सुविधायें मिलने से बन्दी सुधरते नहीं वरन् निर्भय होकर आते हैं। सुधारने वाला वातावरण जेलों में कहां है? यदि वहां असुविधा भी न रहेंगी तो अपराधी लोग उसकी परवाह न करते हुए दुस्साहसपूर्ण अपराध करते ही रहेंगे। रूस आदि जिन देशों में अपराधी को कड़ी सजा मिलती है वहां के लोग अपराध करते हुए डरते हैं। यह डर घट जाय या मिट जाय तो अपराध बढ़ेंगे ही। इसलिये स्वल्प दण्ड देने वाले कानून और जेल में अधिक सुविधाएं मिलना चरित्र निर्माण की दृष्टि से हानिकारक है, इस तथ्य को सरकार से मनवाने का प्रयत्न किया जाय।
कानूनी पकड़ से जो लोग बच जाते हैं उन असामाजिक गुण्डातत्वों की अपराध वृत्ति रोकने के लिए विशेष तन्त्र गठित रहे, जिसमें उच्च आदर्शवान परखे हुए लोग ही गुप्तचरों के रूप में वस्तु स्थिति का पता लगाते रहें। इनकी जांच के आधार पर गुण्डा-तत्वों को नजरबन्द किया जा सके ऐसी व्यवस्था रहे। आज अपराधी लोग कानून की पकड़ से आतंक, धन और चतुरता के आधार पर बच निकलते हैं। यह सुविधा बन्द की जाय। न्यायालयों से ही नहीं वस्तुस्थिति जांच करने वाली उच्चस्तरीय जांच समिति की सूचना के आधार पर भी दण्ड व्यवस्था की जा सके, ऐसी व्यवस्था की जाय।
93—अधिकारियों की प्रामाणिकता—अपराधों को रोकने वाले शासनाधिकारियों को उनकी ईमानदारी और विश्वस्तता की लम्बी अवधि तक परख होते रहने के बाद नियुक्त किया जाय। उन्हें विभागों में से लिया जाय और यह देखा जाय कि अपराधों को रोकने में इनकी भावना एवं प्रतिभा कैसी रही है। अनुभवहीन लड़कों को एक दम अपराध निरोधक पदों पर नियुक्ति कर दिया जाना और उनके चरित्र की गुप्त जांच न होते रहना शासन में भ्रष्टाचार उत्पन्न करता है। जिन पदों पर भ्रष्टाचार की सम्भावना है उन पर नियुक्तियां शिक्षा एवं योग्यता के अतिरिक्त अनुभव एवं चरित्र को प्रधानता देते हुए की जाया करें। अपराधी अधिकारियों का जन-दण्ड की अपेक्षा दस-बीस गुना दण्ड मिलने की व्यवस्था कानून में रहे। अधिकारियों को भ्रष्टाचार मिटे बिना जनता की अनैतिकता का मिट सकना कठिन है।
94—आर्थिक विषमता घटे—आर्थिक विषमता और फिजूल खर्ची पर नियन्त्रण रहे। आर्थिक कारणों से अधिकतर अपराध बढ़ते हैं। इसलिए उपलब्धि के साधन हर व्यक्ति को इतने मिलें जिससे उसकी ठीक गुजर हो सके। यह तभी सम्भव है जब अधिक उपभोग एवं संग्रह की सीमा पर भी नियन्त्रण हो। मिलों में कपड़ा की डिजाइनें कम बनें तो कपड़े का खर्च बहुत घट जाय। इसी प्रकार उपयोगी वस्तुओं की संख्या एवं भिन्नता सीमित करदी जाय। राष्ट्रीय शासन का एक स्तर कायम हो जिसमें थोड़ा अन्तर तो रह सकता है पर जमीन-आसमान जैसा अन्तर न हो। सामूहिकता और समता के आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाय तो उसमें अपराधों की गुंजाइश सहज ही बहुत घट जायगी।
जो लोग आज चुने हुए हैं उन तक यह विचार पहुंचाए जाएं और जो आगे चुने जाएं उन्हें इन विचारों की उपयोगिता समझाई जाय। चुने हुए लोगों का बहुमत तो इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है। अल्प मत के लोग भी बहुमत को प्रभावित तो कर ही सकते हैं। जन आन्दोलन के रूप में यह विचारधारा यदि सरकार तक पहुंचाई जाय तो उसे भी इस ओर ध्यान देने और आवश्यक सुधार करने का अवसर मिलेगा। हमें रचनात्मक प्रयत्न करने चाहिये और शासन में चरित्र-निर्माण के उपयुक्त वातावरण रहे इसके लिये प्रयत्न करते रहना ही चाहिए।
नीचे कुछ विचार प्रस्तुत हैं। इनके अतिरिक्त तथा विकल्प में भी अनेक विचार हो सकते हैं जिनके आधार पर राष्ट्र का चारित्रिक विकास हो सके। उनको भी सामने लाना चाहिए।
87—गीता के माध्यम से जनजागरण—जिस प्रकार भागवत् कथा सप्ताहों के धार्मिक अनुष्ठान होते हैं उसी प्रकार गीता कथा सप्ताहों के माध्यम से जन जागरण के आयोजन किये जायें। युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आर्ष-विचारधारा का प्रतिपादन है वह गीता में समग्र रूप से विद्यमान हैं। मोह-ग्रस्त अर्जुन को जिस प्रकार भगवान कृष्ण ने गीता का सन्देश सुनाकर उसे कर्तव्य पथ पर संलग्न किया था उसी प्रकार प्रस्तुत भारत को जागृत करने के लिये जन-जीवन में गीता ज्ञान का प्रवेश कराया जाना चाहिए।
इस प्रकार गीता प्रवचनों के प्रशिक्षण के लिये एक विशेष योजना तैयार की गई है। गीता श्लोकों से संगति रखने वाली रामायण की चौपाइयों में इतिहास पुराणों की कथाओं का समावेश करके ऐसी पुस्तकें तैयार की गई हैं जिनके माध्यम से गीता की कथा को बाल, वृद्ध, नर, नारी, शिक्षित, अशिक्षित सभी के लिए आकर्षक, प्रबोधक एवं हृदयस्पर्शी बनाया जा सकता है। राधेश्याम तर्ज पर गीता का ऐसा पद्यानुवाद भी छापा गया है जिसे कीर्तन भजन की तरह गाया जा सकता है। आयोजनों में भाग लेने वाले व्यक्ति दो भागों में विभक्त होकर बारी-बारी इन पद्यानुवादों का सामूहिक पाठ करें तो वह गीता परायण बहुत ही आकर्षक बन सकता है। किस श्लोक के साथ किस युग-निर्माण सिद्धान्त का समावेश किया जाय और उसका प्रतिपादन किस प्रकार हो यह विधान इस गीता सप्ताह साहित्य में समाविष्ट कर दिया गया है। ऐसे प्रवचन कर्ताओं को व्यवहारिक शिक्षा देने के लिए मथुरा में एक एक महीने के शिक्षण शिविर भी होते हैं, जिनमें प्रशिक्षण प्राप्त कर गीता के माध्यम से जन-जागरण के लिये नई पीढ़ी के नये प्रवचनकर्त्ता—कथा-व्यास तैयार किये जा सकते हैं।
88—मत-दान और मतदाता—जहां प्रजातन्त्र पद्धति है वहां शासन के भले या बुरे होने का उत्तर-दायित्व वहां के उन सभी नागरिकों पर रहता है जो मतदान करते हैं। ‘वोट’ राष्ट्र की एक परम पवित्र थाती है। उसकी महत्ता हम में से हर को समझनी चाहिये। किसी पक्षपात, दबाव या लोभ में आकर इसे चाहे किसी को दे डालने का उथलापन नहीं अपनाना चाहिए। जिस पार्टी या उम्मीदवार को वोट देना हो उसकी विचारधारा, भावना एवं उत्कृष्टता को भली भांति परखना चाहिए। राष्ट्र के भाग्य निर्माण का उत्तरदायित्व हम किसे सौंपे? इस कसौटी पर जो भी खरा उतरे उसे ही वोट दिया जाय। प्रजातन्त्र का लाभ तभी है जब हर नागरिक उसका महत्व और उत्तरदायित्व समझे और अनुभव करे। शासन में आवश्यक सुधार अभीष्ट हो तो इसके लिये मतदाताओं को समझाया और सुधारा जाना आवश्यक है।
89—शिक्षा पद्धति का स्तर—शिक्षालय व्यक्तित्व ढालने की फैक्ट्रियां होती हैं। वहां जैसा वातावरण रहता है, जिस व्यक्तित्व के अध्यापक रहते हैं, जैसा पाठ्यक्रम रहता है, जैसी व्यवस्था बरती जाती है उसका भारी प्रभाव छात्रों की मनोभूमि पर पड़ता है और वे भावी जीवन में बहुत कुछ उसी ढांचे में ढल जाते हैं। आज शिक्षा का पूरा नियन्त्रण सरकार के हाथ में है, इसलिए छात्रों की मनोभूमि का निर्माण करने की जिम्मेदारी भी बहुत कुछ उसी के ऊपर है। शिक्षण पद्धति में ऐसा सुधार करने के लिए सरकार को कहा जाय जिससे चरित्रवान् कर्मठ और सभ्य, सेवा भावी नागरिक बनकर शिक्षार्थी निकल सकें। सैनिक शिक्षा को शिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाय और नैतिक एवं सांस्कृतिक भावनाओं से विद्यालयों का वातावरण पूर्ण रहे। इसके लिये सरकार पर आवश्यक दबाव डाला जाय।
90—कुरीतियों का उन्मूलन—सामाजिक कुरीतियों की हानियां नैतिक अपराधों में बढ़कर हैं। भले ही उन्हें मानसिक दुर्बलतावश अपनाये रखा गया हो पर समाज का अहित तो बहुत भारी ही होता है। इसलिये इनके विरुद्ध भी कानून बनाने चाहिए। स्वर्ण नियन्त्रण का कानून कड़ाई के साथ अमल में आते ही जेवरों का सदियों पुराना मोह सप्ताहों के भीतर समाप्त हो गया। इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध अन्य कानून भी बनाये जांय और उनके पालन कराने में स्वर्ण नियन्त्रण जैसी कड़ाई बरती जाय। यों दहेज, मृत्युभोज, बाल-विवाह, वेश्यावृत्ति आदि के विरुद्ध कानून मौजूद हैं पर वे इतने ढीले-पोले हैं कि उससे न्याय और कानून का उपहास ही बनता है। यदि सचमुच ही कोई सुधार करना हो तो कानूनों में तेजी और कड़ाई रहनी आवश्यक है। सरकार पर ऐसे सुधारात्मक कड़े कानून बनाने के लिए जोर डाला जाय।
91—सस्ता, शीघ्र और सरल न्याय—आज का न्याय बहुत पेचीदा, बहुत लम्बा, बहुत व्ययसाध्य और ऐसी गुत्थियों से भरा है कि बेचारा निर्धन और भोला भाला व्यक्ति न्याय से वंचित ही रह जाता है। धूर्तों के लिए ऐसी गुंजाइश मिल जाती है कि वे पैसे के बल पर सीधे को उलटा कर सकें। न्यायतंत्र में से ऐसे सारे छिद्र बन्द किये जाने चाहिये और ऐसी व्यवस्था बननी चाहिये और ऐसा परिवर्तन होना चाहिए कि सरल रीति से ही व्यक्ति को शीघ्र और सस्ता न्याय प्राप्त हो सके। इस विभाग के कर्मचारियों के हाथ में जनता को परेशान करने की क्षमता न रहे तो रिश्वत सहज ही बन्द हो सकती है।
92—अपराधों के प्रति कड़ाई—अपराधियों के प्रति कड़ाई की कठोर नीति रखने की प्रेरणा सरकार को करनी चाहिये। स्वल्प दण्ड और जेलों में असाधारण सुविधायें मिलने से बन्दी सुधरते नहीं वरन् निर्भय होकर आते हैं। सुधारने वाला वातावरण जेलों में कहां है? यदि वहां असुविधा भी न रहेंगी तो अपराधी लोग उसकी परवाह न करते हुए दुस्साहसपूर्ण अपराध करते ही रहेंगे। रूस आदि जिन देशों में अपराधी को कड़ी सजा मिलती है वहां के लोग अपराध करते हुए डरते हैं। यह डर घट जाय या मिट जाय तो अपराध बढ़ेंगे ही। इसलिये स्वल्प दण्ड देने वाले कानून और जेल में अधिक सुविधाएं मिलना चरित्र निर्माण की दृष्टि से हानिकारक है, इस तथ्य को सरकार से मनवाने का प्रयत्न किया जाय।
कानूनी पकड़ से जो लोग बच जाते हैं उन असामाजिक गुण्डातत्वों की अपराध वृत्ति रोकने के लिए विशेष तन्त्र गठित रहे, जिसमें उच्च आदर्शवान परखे हुए लोग ही गुप्तचरों के रूप में वस्तु स्थिति का पता लगाते रहें। इनकी जांच के आधार पर गुण्डा-तत्वों को नजरबन्द किया जा सके ऐसी व्यवस्था रहे। आज अपराधी लोग कानून की पकड़ से आतंक, धन और चतुरता के आधार पर बच निकलते हैं। यह सुविधा बन्द की जाय। न्यायालयों से ही नहीं वस्तुस्थिति जांच करने वाली उच्चस्तरीय जांच समिति की सूचना के आधार पर भी दण्ड व्यवस्था की जा सके, ऐसी व्यवस्था की जाय।
93—अधिकारियों की प्रामाणिकता—अपराधों को रोकने वाले शासनाधिकारियों को उनकी ईमानदारी और विश्वस्तता की लम्बी अवधि तक परख होते रहने के बाद नियुक्त किया जाय। उन्हें विभागों में से लिया जाय और यह देखा जाय कि अपराधों को रोकने में इनकी भावना एवं प्रतिभा कैसी रही है। अनुभवहीन लड़कों को एक दम अपराध निरोधक पदों पर नियुक्ति कर दिया जाना और उनके चरित्र की गुप्त जांच न होते रहना शासन में भ्रष्टाचार उत्पन्न करता है। जिन पदों पर भ्रष्टाचार की सम्भावना है उन पर नियुक्तियां शिक्षा एवं योग्यता के अतिरिक्त अनुभव एवं चरित्र को प्रधानता देते हुए की जाया करें। अपराधी अधिकारियों का जन-दण्ड की अपेक्षा दस-बीस गुना दण्ड मिलने की व्यवस्था कानून में रहे। अधिकारियों को भ्रष्टाचार मिटे बिना जनता की अनैतिकता का मिट सकना कठिन है।
94—आर्थिक विषमता घटे—आर्थिक विषमता और फिजूल खर्ची पर नियन्त्रण रहे। आर्थिक कारणों से अधिकतर अपराध बढ़ते हैं। इसलिए उपलब्धि के साधन हर व्यक्ति को इतने मिलें जिससे उसकी ठीक गुजर हो सके। यह तभी सम्भव है जब अधिक उपभोग एवं संग्रह की सीमा पर भी नियन्त्रण हो। मिलों में कपड़ा की डिजाइनें कम बनें तो कपड़े का खर्च बहुत घट जाय। इसी प्रकार उपयोगी वस्तुओं की संख्या एवं भिन्नता सीमित करदी जाय। राष्ट्रीय शासन का एक स्तर कायम हो जिसमें थोड़ा अन्तर तो रह सकता है पर जमीन-आसमान जैसा अन्तर न हो। सामूहिकता और समता के आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाय तो उसमें अपराधों की गुंजाइश सहज ही बहुत घट जायगी।