Books - हमारी युग निर्माण योजना
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Language: HINDI
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प्रगतिशील जातीय संगठनों की रूपरेखा
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आदर्श विवाह तभी सम्भव हो सकते हैं जब वर और कन्या दोनों पक्ष इसके लिये सहमत हों। एक पक्ष कितना ही आदर्शवादी क्यों न हो, बिना दूसरा पक्ष अपने अनुकूल मिले इन विचारों को कार्यान्वित न कर सकेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि कोई ऐसा तन्त्र खड़ा किया जाय जिसके माध्यम से एक समान विचार और आदर्शों के लोगों को ढूंढ़ने की सुविधा मिल सके। यह प्रयोजन प्रगतिशील जातियों के संगठनों के माध्यम से ही पूरा हो सकता है।
अत्यधिक उत्साही लोग यह भी सोच कर सकते हैं कि अपनी जाति को छोड़कर अन्य जातियों में अपने विचार के लोगों को साथ विवाह क्यों न आरम्भ किये जाय? आदर्श के लिये यह विचार उत्तम हैं। ऊंचे घर के लोगों के लिये सम्भव भी है। पर भारत की वर्तमान स्थिति में सर्व साधारण के लिये इतना बड़ा कदम उठा लेने के बाद जो कठिनाइयां उपस्थित होती हैं, उन्हें नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत योजना अखण्ड-ज्योति परिवार के लोगों को ध्यान में रखते हुए आरम्भ की गई है। उनकी स्थिति हमें विदित है। इसलिये उन्हें अभी मितव्ययी विवाह के लिये ही जोर दे सकना उचित है। उन जातियों के बन्धन शिथिल करने के लिये ही उन्हें कहा जा सकता है। जिनमें अधिक साहस हो वे जाति-पांति की परवा किये बिना भी विवाह करें, पर जो एक बार भी उतना न कर सकेंगे वे अपनी जातियों में सम्बन्ध करने को उत्सुक होंगे। उनका काम इतने साहस से भी कहा जायगा। रूढ़ि ग्रसित समाज में आर्थिक सुधार ही सफल हो सकते हैं। अत्यधिक उत्साह आदर्शवाद की दृष्टि से प्रशंसनीय हो सकता है पर समय से पूर्व उठाये गए कदमों के असफल होने की ही संभावना ज्यादा रहती है।
जातियों-संगठनों के वर्तमान स्वरूप और जाति-पांति से उत्पन्न होने वाली बुराइयों को ध्यान में रखते हुए तत्काल तो कोई भी विचारशील व्यक्ति इस प्रकार के प्रयत्नों का विरोध नहीं करेगा। जब उसे हमारे प्रयोजन का पता चलेगा और वस्तु स्थिति पर विचार करेगा तो उसे इसकी सामयिक उपयोगिता एवं आवश्यकता का महत्व भी स्वीकार करना पड़ेगा। कुएं में गिरना एक बात है और कुएं में गिरे हुये को निकालने के लिये कुएं में घुसना दूसरी बात है। जाति वाद की संकीर्णता से लड़ने के लिये और उस बुराई का उन्मूलन करने के लिये बनाये गये जातीय संगठन लहर एक जैसे दीख पड़ सकते हैं, पर वस्तुतः उनमें कुएं में गिरने वाले और निकालने के लिये उतरने वाले की तरह जमीन-आसमान का अन्तर है। हम संकीर्णता फैलाने के लिये नहीं वरन् उसके उन्मूलन के लिये जातीय संगठन बना रहे हैं। अस्तु इसका परिणाम भी हमारी भावना के अनुरूप ही होगा।
अखण्ड-ज्योति परिवार के लिये लोग अपने जातीय संगठन बनाने और उनके द्वारा आदर्श विचारों का प्रयोजन पूरा करने का प्रयत्न करें। इन संगठनों को अधिक सहायक बनाकर हम सामाजिक क्रान्ति की एक भारी आवश्यकता को पूरा भी कर सकते हैं।
1—संगठनों का नामकरण—इन जातीय संगठनों का निर्माण प्रगतिशीलता बढ़ाने के लिये किया जा रहा है। आज जातिवाद जिन कारणों से बदनाम है, उन्हें हटाना अपना उद्देश्य है। संकीर्णता, वंशगत अहंकार, अपनी जाति वालों के साथ पक्षपात, अपने वर्ग में प्रचलित रूढ़ियों का अन्ध-समर्थन जैसे कारणों से जातिवाद बदनाम हुआ है। हमें इन बातों से तनिक भी लगाव नहीं, अपना उद्देश्य तो जिस क्षेत्र में अपना अधिक परिचय, अधिक प्रभाव एवं अधिक सम्बन्ध रहता है, उसे अधिक सुविकसित, सुसंस्कृत एवं प्रगतिशील बनाना है। इसलिये अपने द्वारा संगठित सभाओं के साथ अनिवार्यतः ‘प्रगतिशील’ शब्द जुड़ा रहना चाहिये। ताकि अपने उद्देश्यों की प्राथमिकता और पुराने ढंग की जातीय सभाओं से अपनी भिन्नता सिद्ध कर सकें।
2—उप जातियों के प्रथम संगठन—प्रगतिशील भटनागर सभा, प्रगतिशील श्रीवास्तव सभा, प्रगतिशील सक्सेना सभा जैसे छोटे संगठन अलग-अलग से बनेंगे। लेकिन वे अन्ततः ‘प्रगतिशील कायस्थ सभा’ के अन्तर्गत रहेंगे। इसी प्रकार अन्य जातियों के भी उप-जातियों के अलग-अलग संगठन होने चाहिए, ताकि उसी समुदाय के अन्तर्गत विवाह करने वाले या उसे छोड़कर अन्यों में करने वाले लोगों का विवाह सम्बन्ध करने में सुविधा रह सके। उप-जातियों के यह पृथक-पृथक संगठन अन्ततः अपनी मूल जाति के केन्द्रीय संगठन के अन्तर्गत रहेंगे। आरम्भिक गठन उप-जातियों के द्वारा शुरू करना चाहिए और पीछे उन सब प्रतिनिधियों को लेकर एक मूल जाति की प्रगतिशील सभा गठित कर लेनी चाहिए। जैसी—ब्राह्मणों की सनाढ्य गौड़, कान्यकुब्ज, सरयूपारीण, सारस्वत, औदीच्य, श्रीमाली, गौतम आदि उप-जातियों की अलग सभाएं बन गईं तो उनके दो-दो प्रतिनिधि लेकर एक केन्द्रीय प्रगतिशील ब्राह्मण सभा बना दी जायगी।
3—सदस्यता की शर्त—इन संगठनों के सदस्यों की भर्ती सामाजिक सुधारों को, विशेषतया विवाहों में होने वाले अपव्यय को रोकने के प्रति आस्थावान होने की शर्त पर की जानी चाहिए। भले ही 24 सूत्रीय आदर्श विवाहों की रूपरेखा को वे आज पूरी तरह कार्यान्वित करने की स्थिति में न हों, पर विचारों की दृष्टि से तो उसके औचित्य को पूर्णतया मानना ही चाहिए और अवसर आने पर समर्थन भी उन्हीं बातों का करना चाहिए। 24 सूत्रों में से कोई पूरी तरह न निभ सके तो उसे अपनी कमजोरी ही मानना चाहिए और उसके लिए दुःख एवं लज्जा अनुभव करनी चाहिए। उस दुर्बलता का उन्हें समर्थन कदापि न करना चाहिए।
ऐसे आस्थावान व्यक्तियों की सहमति—प्रतिज्ञा का एक फार्म होगा, जिस पर सदस्यगण अपने हस्ताक्षर करेंगे। इन हस्ताक्षर कर्त्ताओं के प्रार्थना-पत्र क्षेत्रीय संगठन द्वारा स्वीकार किये जाने पर उन्हें सदस्य घोषित किया जायगा और उन्हें प्रमाण-पत्र दिया जायगा। अवांछनीय, व्यक्तियों के सदस्यता-पत्र अस्वीकृत कर दिये जायेंगे। पीछे भी कभी कोई सदस्य संगठन को कलंकित करने वाले काम करता पाया गया तो उसकी सदस्यता क्षेत्रीय संगठन की सिफारिश पर केन्द्रीय संगठन रद्द कर देगा। सदस्यता की कोई फीस नहीं होगी। वयस्क नर-नारी सभा का सदस्य बन सकता है।
4—कार्य का आरम्भ—यह प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन-कार्य अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों द्वारा आरम्भ किया जा रहा है। इसलिए प्रेरक सदस्यों की तरह आरंभ में वे ही अपनी-अपनी उपजाति का क्षेत्रीय संगठन बना लें। क्षेत्र की परिधि साधारणतया 50-50 मील चारों ओर होनी चाहिए। सौ मील लम्बे और सौ मील चौड़े क्षेत्र में भी सैकड़ों गांव कस्बे होते हैं, उतने क्षेत्र को ठीक तरह संगठित कर सकना भी कठिन नहीं है। इसलिए आरम्भ में भले ही यह क्षेत्र अधिक विस्तृत हों, पर अन्त में इनका कार्य-क्षेत्र उतना ही बड़ा रहना चाहिए, जितने में कि कार्यकर्त्ता गण आसानी से आपस में मिलते-जुलते रह सकें। इस दृष्टि से सौ-सौ मील की लम्बाई-चौड़ाई का क्षेत्र पर्याप्त है। विशेष परिस्थिति होने पर ही उसे घटाया-बढ़ाया जाय।
अखण्ड-ज्योति सदस्यों के यह उपजातियों के आधार पर क्षेत्रीय संगठन तुरन्त बन जाने चाहिए। इसके लिए कुछ अधिक सेवा-भावी व्यक्तियों को आगे आना चाहिए और इन सब सदस्यों से मिलकर उन्हें मीटिंग के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। सब लोग इकट्ठे होकर अपनी-अपनी सदस्यता को नियमित कर लें। दस व्यक्तियों की कार्य-समिति गठित करलें और प्रधान-मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष चुन लें। युग-निर्माण केन्द्रों में पांच व्यक्तियों की कार्य-समिति होती है और एक शाखा संचालक ही पदाधिकारी रहता है, पर इन जातीय संगठनों में उपरोक्त तीन पदाधिकारी और 10 सदस्य रहने चाहिए, क्योंकि इनका कार्य-क्षेत्र बड़ा है।
5—क्षेत्रीय संगठनों का विस्तार—यह प्रारम्भिक गठन हो जाने के बाद इन प्रेरक सदस्यों को अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में सदस्य बनाने के लिए छोटी-छोटी मित्र-मण्डलियों के रूप में नये सदस्य भर्ती करने निकल पड़ना चाहिए। जिन गांवों में कम से कम पांच सदस्य भी बन जांय, वहां ग्राम सभाएं बना दी जांय। प्रयत्न यह होना चाहिए कि जहां भी जिस उपजाति के लोग हों, उनकी एक-एक ग्राम-सभा वहां गठित रहे। क्षेत्रीय सभाओं के अन्तर्गत जितनी ग्राम सभाएं होंगी, वह उतनी ही सफल मानी जायेंगी और उनकी गतिविधियां उतनी ही बढ़ सकेंगी। इसलिए क्षेत्रीय संगठनों के कार्यकर्त्ताओं को दौरा करके अपना कार्य-क्षेत्र सुगठित कर लेने के लिए तत्परतापूर्वक लग जाना ही पड़ेगा।
6—संगठन-कर्त्ता की आवश्यकता—अच्छा यही हो कि क्षेत्रीय प्रचार के लिए कम से कम एक वैतनिक या अवैतनिक पूरे समय का कार्यकर्त्ता नियत हो। वह अपना पूरा समय उसी कार्य के लिए लगाता रहे। अपने साथ एक-दो सक्रिय प्रभावशाली सदस्यों को लेकर वह जन-सम्पर्क के लिए प्रयत्न करता रहे। लोगों को इकट्ठा करने, समझाने तथा प्रभावित करने का गुण कार्यकर्त्ता में अवश्य होना चाहिए। संकोची, दब्बू प्रकृति के या आलसी व्यक्ति इस कार्य को ठीक तरह नहीं कर सकते। इसलिए संगठनकर्त्ता नियत करते समय यह बातें देख लेनी चाहिए।
सम्भव न हो, वहां क्षेत्रीय संगठन के सदस्य गण स्वयं ही थोड़ा-थोड़ा समय देकर वह कार्य करते रहें। कोई भी उपाय क्यों न हो, इस कार्य में समय की नितान्त आवश्यकता है, सो लगाने के लिए किसी न किसी प्रकार व्यवस्था बननी ही चाहिए।
7—दोनों कार्यक्रम एक दूसरे से पूरक—युग-निर्माण केन्द्रों और इन जातीय संगठनों में कोई प्रतिद्वन्द्विता या भिन्नता नहीं होनी चाहिये। वस्तुतः दोनों को एक ही समझना चाहिए। यह भिन्नता केवल विवाह शादियों की सुविधा की दृष्टि से की गई है। सो हर जगह इन जातीय संगठनों को अपना सम्मिलित स्वरूप युग-निर्माण शाखाओं के रूप में भी रखना चाहिए। एक व्यक्ति उन दो संगठनों का सदस्य आसानी से रह सकता है, जो परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकार युग-निर्माण योजना के सदस्यों को दो उत्तरदायित्व वहन करने पड़ेंगे। एक सभी जाति, धर्मों का सम्मिलित युग-निर्माण आन्दोलन चलाने का—दूसरा समाज सुधार के लिये अपने व्यक्तिगत प्रभाव-क्षेत्र में जाति की ओर ध्यान देने का। इनमें परस्पर कोई भिन्नता या झंझट नहीं। वरन् एक दूसरे के पूरक हैं। रोटी खाना और पानी पीना देखने में दो अलग प्रकार के काम हैं, उनका दृश्य स्वरूप भी भिन्न प्रकार का है, पर वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए किसी रोटी खाने वाले को पानी पीना कोई अलग काम या भिन्न प्रकार का झंझट मालूम नहीं पड़ता। इसी प्रकार युग-निर्माण आन्दोलन और जातीय-संगठनों में बाहर से देखने का ही अन्तर है, वस्तुतः युग-निर्माण की सामाजिक क्रान्ति योजना का एक पहलू या मोर्चा भर जातीय संगठन है।
अस्तु हर जगह इस प्रकार का खांचा मिलाया जाना चाहिए कि दोनों कार्य एक ही साथ चलते रहें। प्रत्येक कार्यकर्त्ता दोनों कार्य करता रहे। यह दोनों आपस में टकराते नहीं। दुहरा झंझट तभी तक मालूम पड़ेगा, जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाय। जो उसे कार्यान्वित करेंगे, वे देखेंगे कि युग-निर्माण योजना की शत-सूत्री योजना का जातीय संगठन भी एक अंग मात्र है। जिस प्रकार प्रौढ़ पाठशाला, पुस्तकालय, वृक्षारोपण, हवन आदि में एक ही व्यक्ति कई प्रवृत्तियों में एक साथ भाग लेता रहा सकता है, उसी प्रकार यह दोनों कार्यक्रम एक साथ चलाये जा सकने में पूर्णतया सरल एवं शक्य हैं।
8—विवाह योग्य लड़की लड़कों की जानकारी—संगठन बन जाने पर उसका प्रथम कार्य प्रगतिशील लोगों के लड़के लड़कियों की जानकारी क्षेत्रीय दफ्तर में एकत्रित करना है। प्रत्येक ग्राम सभा अपने यहां से इस प्रकार की सूचना संग्रह करके क्षेत्रीय कार्यालयों में भेजा करेगी। जो लोग आदर्श विवाह करने के लिए सहमत हों, उन्हीं की जानकारियां संग्रह की जांय। क्योंकि यह सारा प्रयत्न ही आदर्श विवाहों के प्रचलन के लिये किया गया है। जिन्हें पुराने ढर्रे के देन-दहेज और ठाट-बाट के विवाह करने हैं वे अपने आप, अपने ढंग से लड़की-लड़के ढूंढ़ते रहते हैं। हमें तो उन लोगों की सुविधा की दृष्टि से इतना बड़ा यह ढांचा खड़ा करना पड़ रहा है जो आदर्श विवाहों के इच्छुक हों, उनको अपने ही विचारों एवं आदर्श वाले सम्बन्धी मिल सकें यही हमारा उद्देश्य रहना चाहिये।
दफ्तर में एकत्रित रह सकती हैं। सभी जातियों का एक ही दफ्तर रह सकता है। इसी प्रकार संगठनकर्त्ता भी एक ही सब जातियों के लिए काम दे सकता है। क्षेत्रीय प्रगतिशील जातीय सभा कार्यालय आरम्भ में एक ही रखना होगा। पीछे जब काम का बहुत विस्तार हो तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि चार वर्णों के अलग-अलग कार्यालय बांटे जा सकते हैं और यदि काम बहुत बढ़ जाय तो उपजातियों के लिये भी अलग दफ्तर की आवश्यकता पूरी की जा सकती है, पर आरम्भ में एक ही संगठन-कर्त्ता की नियुक्ति करना उचित होगा।
9—प्रचार साधन और सुविधाएं—आदर्श विवाहों की आवश्यकता, उपयोगिता एवं रूपरेखा समझने के लिये व्यापक प्रचार की आवश्यकता होगी। इन विचारों से जब तक लोगों को प्रभावित न किया जायगा, तब तक वे उससे सहमत न होंगे और वैसा करने के लिए साहस न कर सकेंगे। इसलिये छोटी-मोटी पुस्तिकाएं पढ़ना, भजन, गायन, चित्र प्रदर्शिनी, कवि-सम्मेलन, सभा-सम्मेलन, गोष्ठियां आदि के छोटे-छोटे आयोजन आदि माध्यमों से लोगों में आदर्श विवाहों की भावना आकांक्षा एवं हिम्मत पैदा करनी चाहिए। वैसे जोड़े ढूंढ़ने में अधिक व्यक्तियों की सहायता की जानी चाहिये। उत्सव का रूप प्रभावशाली एवं आकर्षक कैसे बने, इसकी व्यवस्था बनाने में सहयोग होना चाहिये, तथा जहां भी ऐसे विवाह हों, उनका प्रचार दूर-दूर तक करने के लिये प्रयत्न होना चाहिये। यह सुविधाएं प्रस्तुत करना क्षेत्रीय संगठन का काम हैं। इन प्रयत्नों से ही उत्साह उत्पन्न होगा और उत्साह सामूहिक कार्यक्रमों की प्रगति का मूलभूत आधार होता है।
10—आन्दोलन का खर्च—हर आन्दोलन कुछ खर्च चाहता है। पैसे के बिना कोई भी काम, संस्थाएं भी अपना काम ठीक नहीं कर पातीं। जातीय-संगठनों का कार्य और आदर्श विवाहों की योजना भी व्ययसाध्य हैं। संगठनकर्त्ता, दफ्तर, पत्र-व्यवहार, मार्गव्यय, प्रचार आदि सभी कार्यों के लिए तो पैसा चाहिये। इसकी पूर्ति हमें निष्ठावान् सदस्यों से मासिक चन्दे के रूप में करना चाहिये। युग-निर्माण योजना के सदस्यों को अपनी आय का एक अंश सामाजिक पुनरुत्थान के लिए अनिवार्य रूप से निकालना होगा। भावनाशील लोगों से यह आशा की जाती है कि वे अपने हृदय की विशालता और उच्च आदर्शवादिता के अनुरूप समय ही नहीं, धन भी उदारतापूर्वक देंगे। मासिक चन्दा हर सक्रिय कार्यकर्त्ता को देना चाहिये। इसका आरम्भ अपने लोगों से ही होगा। बाहर के नये लोगों से प्रारम्भ में ही चन्दा मांगने लगने से वे बिचक जाते हैं। जो जितना आस्थावान बनता जाय, उससे उसी अनुपात से आर्थिक सहयोग की भी आशा की जा सकेगी। सम्पन्न एवं दानी लोगों से जो सक्रिय कार्य नहीं कर सकते, पर पैसा दे सकते हैं, उनसे लेना चाहिए। किन्हीं दानी उदार सज्जनों से इन कार्यों के लिए कोई स्थायी जमीन-जायदाद मिल सके तो उसके लिये भी प्रयत्न करना चाहिये। मन्दिरों, धर्मशालाओं की खाली इमारतें संगठन के कार्यालय का काम देने योग्य मिल सकें तो उन्हें लेने का भी प्रयास करना चाहिये, ताकि मकान सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति बिना खर्च के भी हो सके। धर्म घट रखकर प्रतिदिन एक मुट्ठी अन्न या धर्म पेटी रखकर कुछ पैसे लेने वाला क्रम भी जहां जम सके वहां अवश्य जमाना चाहिये।
11—वार्षिकोत्सव—संगठनों में चेतना और सक्रियता बने रहने के लिये यह आवश्यक है कि उस तरह के विचारों के लोगों का परस्पर सम्मिलन होता रहे। उत्सवों के द्वारा प्रत्येक चेतना को नवजीवन तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। बड़े उत्सव खर्चीले होते हैं, किन्तु छोटे-छोटे आयोजन तो आसानी से हो सकते हैं। जातीय संगठनों के मेले आयोजित करने की बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। आदर्श विवाहों की पृष्ठभूमि रूपी उन सम्मेलनों में सामूहिक विवाह होने की प्रथा चल पड़े तो और भी उत्तम रहे। इन उत्सवों को गायत्री यज्ञ का रूप दिया जाना चाहिये। यज्ञ से उत्सव की शोभा सज्जा ही नहीं, भावनात्मक, धार्मिक वातावरण भी बनता है और शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक कई प्रकार के लाभ भी होते हैं। सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार, मुण्डन आदि भी उस अवसर पर हो सकते हैं। प्रचार के लिए तो यह एक प्रभावशाली माध्यम है ही। इन यज्ञो में कुछ लोग विधिवत् वानप्रस्थ लेकर समाज-सेवा के लिये अपना जीवन उत्सर्ग किया करें, ऐसी चेष्टा भी करते रहना चाहिये।
जिस जाति का सम्मेलन हो उसके लोगों को तो आना ही चाहिए, पर साथ ही अन्य जातियों के लोगों को भी बुलाया जाना आवश्यक है, ताकि वे भी उसके अनुकरण की प्रेरणा ले सकें।
अत्यधिक उत्साही लोग यह भी सोच कर सकते हैं कि अपनी जाति को छोड़कर अन्य जातियों में अपने विचार के लोगों को साथ विवाह क्यों न आरम्भ किये जाय? आदर्श के लिये यह विचार उत्तम हैं। ऊंचे घर के लोगों के लिये सम्भव भी है। पर भारत की वर्तमान स्थिति में सर्व साधारण के लिये इतना बड़ा कदम उठा लेने के बाद जो कठिनाइयां उपस्थित होती हैं, उन्हें नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत योजना अखण्ड-ज्योति परिवार के लोगों को ध्यान में रखते हुए आरम्भ की गई है। उनकी स्थिति हमें विदित है। इसलिये उन्हें अभी मितव्ययी विवाह के लिये ही जोर दे सकना उचित है। उन जातियों के बन्धन शिथिल करने के लिये ही उन्हें कहा जा सकता है। जिनमें अधिक साहस हो वे जाति-पांति की परवा किये बिना भी विवाह करें, पर जो एक बार भी उतना न कर सकेंगे वे अपनी जातियों में सम्बन्ध करने को उत्सुक होंगे। उनका काम इतने साहस से भी कहा जायगा। रूढ़ि ग्रसित समाज में आर्थिक सुधार ही सफल हो सकते हैं। अत्यधिक उत्साह आदर्शवाद की दृष्टि से प्रशंसनीय हो सकता है पर समय से पूर्व उठाये गए कदमों के असफल होने की ही संभावना ज्यादा रहती है।
जातियों-संगठनों के वर्तमान स्वरूप और जाति-पांति से उत्पन्न होने वाली बुराइयों को ध्यान में रखते हुए तत्काल तो कोई भी विचारशील व्यक्ति इस प्रकार के प्रयत्नों का विरोध नहीं करेगा। जब उसे हमारे प्रयोजन का पता चलेगा और वस्तु स्थिति पर विचार करेगा तो उसे इसकी सामयिक उपयोगिता एवं आवश्यकता का महत्व भी स्वीकार करना पड़ेगा। कुएं में गिरना एक बात है और कुएं में गिरे हुये को निकालने के लिये कुएं में घुसना दूसरी बात है। जाति वाद की संकीर्णता से लड़ने के लिये और उस बुराई का उन्मूलन करने के लिये बनाये गये जातीय संगठन लहर एक जैसे दीख पड़ सकते हैं, पर वस्तुतः उनमें कुएं में गिरने वाले और निकालने के लिये उतरने वाले की तरह जमीन-आसमान का अन्तर है। हम संकीर्णता फैलाने के लिये नहीं वरन् उसके उन्मूलन के लिये जातीय संगठन बना रहे हैं। अस्तु इसका परिणाम भी हमारी भावना के अनुरूप ही होगा।
अखण्ड-ज्योति परिवार के लिये लोग अपने जातीय संगठन बनाने और उनके द्वारा आदर्श विचारों का प्रयोजन पूरा करने का प्रयत्न करें। इन संगठनों को अधिक सहायक बनाकर हम सामाजिक क्रान्ति की एक भारी आवश्यकता को पूरा भी कर सकते हैं।
1—संगठनों का नामकरण—इन जातीय संगठनों का निर्माण प्रगतिशीलता बढ़ाने के लिये किया जा रहा है। आज जातिवाद जिन कारणों से बदनाम है, उन्हें हटाना अपना उद्देश्य है। संकीर्णता, वंशगत अहंकार, अपनी जाति वालों के साथ पक्षपात, अपने वर्ग में प्रचलित रूढ़ियों का अन्ध-समर्थन जैसे कारणों से जातिवाद बदनाम हुआ है। हमें इन बातों से तनिक भी लगाव नहीं, अपना उद्देश्य तो जिस क्षेत्र में अपना अधिक परिचय, अधिक प्रभाव एवं अधिक सम्बन्ध रहता है, उसे अधिक सुविकसित, सुसंस्कृत एवं प्रगतिशील बनाना है। इसलिये अपने द्वारा संगठित सभाओं के साथ अनिवार्यतः ‘प्रगतिशील’ शब्द जुड़ा रहना चाहिये। ताकि अपने उद्देश्यों की प्राथमिकता और पुराने ढंग की जातीय सभाओं से अपनी भिन्नता सिद्ध कर सकें।
2—उप जातियों के प्रथम संगठन—प्रगतिशील भटनागर सभा, प्रगतिशील श्रीवास्तव सभा, प्रगतिशील सक्सेना सभा जैसे छोटे संगठन अलग-अलग से बनेंगे। लेकिन वे अन्ततः ‘प्रगतिशील कायस्थ सभा’ के अन्तर्गत रहेंगे। इसी प्रकार अन्य जातियों के भी उप-जातियों के अलग-अलग संगठन होने चाहिए, ताकि उसी समुदाय के अन्तर्गत विवाह करने वाले या उसे छोड़कर अन्यों में करने वाले लोगों का विवाह सम्बन्ध करने में सुविधा रह सके। उप-जातियों के यह पृथक-पृथक संगठन अन्ततः अपनी मूल जाति के केन्द्रीय संगठन के अन्तर्गत रहेंगे। आरम्भिक गठन उप-जातियों के द्वारा शुरू करना चाहिए और पीछे उन सब प्रतिनिधियों को लेकर एक मूल जाति की प्रगतिशील सभा गठित कर लेनी चाहिए। जैसी—ब्राह्मणों की सनाढ्य गौड़, कान्यकुब्ज, सरयूपारीण, सारस्वत, औदीच्य, श्रीमाली, गौतम आदि उप-जातियों की अलग सभाएं बन गईं तो उनके दो-दो प्रतिनिधि लेकर एक केन्द्रीय प्रगतिशील ब्राह्मण सभा बना दी जायगी।
3—सदस्यता की शर्त—इन संगठनों के सदस्यों की भर्ती सामाजिक सुधारों को, विशेषतया विवाहों में होने वाले अपव्यय को रोकने के प्रति आस्थावान होने की शर्त पर की जानी चाहिए। भले ही 24 सूत्रीय आदर्श विवाहों की रूपरेखा को वे आज पूरी तरह कार्यान्वित करने की स्थिति में न हों, पर विचारों की दृष्टि से तो उसके औचित्य को पूर्णतया मानना ही चाहिए और अवसर आने पर समर्थन भी उन्हीं बातों का करना चाहिए। 24 सूत्रों में से कोई पूरी तरह न निभ सके तो उसे अपनी कमजोरी ही मानना चाहिए और उसके लिए दुःख एवं लज्जा अनुभव करनी चाहिए। उस दुर्बलता का उन्हें समर्थन कदापि न करना चाहिए।
ऐसे आस्थावान व्यक्तियों की सहमति—प्रतिज्ञा का एक फार्म होगा, जिस पर सदस्यगण अपने हस्ताक्षर करेंगे। इन हस्ताक्षर कर्त्ताओं के प्रार्थना-पत्र क्षेत्रीय संगठन द्वारा स्वीकार किये जाने पर उन्हें सदस्य घोषित किया जायगा और उन्हें प्रमाण-पत्र दिया जायगा। अवांछनीय, व्यक्तियों के सदस्यता-पत्र अस्वीकृत कर दिये जायेंगे। पीछे भी कभी कोई सदस्य संगठन को कलंकित करने वाले काम करता पाया गया तो उसकी सदस्यता क्षेत्रीय संगठन की सिफारिश पर केन्द्रीय संगठन रद्द कर देगा। सदस्यता की कोई फीस नहीं होगी। वयस्क नर-नारी सभा का सदस्य बन सकता है।
4—कार्य का आरम्भ—यह प्रगतिशील जातीय सभाओं का संगठन-कार्य अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों द्वारा आरम्भ किया जा रहा है। इसलिए प्रेरक सदस्यों की तरह आरंभ में वे ही अपनी-अपनी उपजाति का क्षेत्रीय संगठन बना लें। क्षेत्र की परिधि साधारणतया 50-50 मील चारों ओर होनी चाहिए। सौ मील लम्बे और सौ मील चौड़े क्षेत्र में भी सैकड़ों गांव कस्बे होते हैं, उतने क्षेत्र को ठीक तरह संगठित कर सकना भी कठिन नहीं है। इसलिए आरम्भ में भले ही यह क्षेत्र अधिक विस्तृत हों, पर अन्त में इनका कार्य-क्षेत्र उतना ही बड़ा रहना चाहिए, जितने में कि कार्यकर्त्ता गण आसानी से आपस में मिलते-जुलते रह सकें। इस दृष्टि से सौ-सौ मील की लम्बाई-चौड़ाई का क्षेत्र पर्याप्त है। विशेष परिस्थिति होने पर ही उसे घटाया-बढ़ाया जाय।
अखण्ड-ज्योति सदस्यों के यह उपजातियों के आधार पर क्षेत्रीय संगठन तुरन्त बन जाने चाहिए। इसके लिए कुछ अधिक सेवा-भावी व्यक्तियों को आगे आना चाहिए और इन सब सदस्यों से मिलकर उन्हें मीटिंग के लिए आमन्त्रित करना चाहिए। सब लोग इकट्ठे होकर अपनी-अपनी सदस्यता को नियमित कर लें। दस व्यक्तियों की कार्य-समिति गठित करलें और प्रधान-मन्त्री तथा कोषाध्यक्ष चुन लें। युग-निर्माण केन्द्रों में पांच व्यक्तियों की कार्य-समिति होती है और एक शाखा संचालक ही पदाधिकारी रहता है, पर इन जातीय संगठनों में उपरोक्त तीन पदाधिकारी और 10 सदस्य रहने चाहिए, क्योंकि इनका कार्य-क्षेत्र बड़ा है।
5—क्षेत्रीय संगठनों का विस्तार—यह प्रारम्भिक गठन हो जाने के बाद इन प्रेरक सदस्यों को अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में सदस्य बनाने के लिए छोटी-छोटी मित्र-मण्डलियों के रूप में नये सदस्य भर्ती करने निकल पड़ना चाहिए। जिन गांवों में कम से कम पांच सदस्य भी बन जांय, वहां ग्राम सभाएं बना दी जांय। प्रयत्न यह होना चाहिए कि जहां भी जिस उपजाति के लोग हों, उनकी एक-एक ग्राम-सभा वहां गठित रहे। क्षेत्रीय सभाओं के अन्तर्गत जितनी ग्राम सभाएं होंगी, वह उतनी ही सफल मानी जायेंगी और उनकी गतिविधियां उतनी ही बढ़ सकेंगी। इसलिए क्षेत्रीय संगठनों के कार्यकर्त्ताओं को दौरा करके अपना कार्य-क्षेत्र सुगठित कर लेने के लिए तत्परतापूर्वक लग जाना ही पड़ेगा।
6—संगठन-कर्त्ता की आवश्यकता—अच्छा यही हो कि क्षेत्रीय प्रचार के लिए कम से कम एक वैतनिक या अवैतनिक पूरे समय का कार्यकर्त्ता नियत हो। वह अपना पूरा समय उसी कार्य के लिए लगाता रहे। अपने साथ एक-दो सक्रिय प्रभावशाली सदस्यों को लेकर वह जन-सम्पर्क के लिए प्रयत्न करता रहे। लोगों को इकट्ठा करने, समझाने तथा प्रभावित करने का गुण कार्यकर्त्ता में अवश्य होना चाहिए। संकोची, दब्बू प्रकृति के या आलसी व्यक्ति इस कार्य को ठीक तरह नहीं कर सकते। इसलिए संगठनकर्त्ता नियत करते समय यह बातें देख लेनी चाहिए।
सम्भव न हो, वहां क्षेत्रीय संगठन के सदस्य गण स्वयं ही थोड़ा-थोड़ा समय देकर वह कार्य करते रहें। कोई भी उपाय क्यों न हो, इस कार्य में समय की नितान्त आवश्यकता है, सो लगाने के लिए किसी न किसी प्रकार व्यवस्था बननी ही चाहिए।
7—दोनों कार्यक्रम एक दूसरे से पूरक—युग-निर्माण केन्द्रों और इन जातीय संगठनों में कोई प्रतिद्वन्द्विता या भिन्नता नहीं होनी चाहिये। वस्तुतः दोनों को एक ही समझना चाहिए। यह भिन्नता केवल विवाह शादियों की सुविधा की दृष्टि से की गई है। सो हर जगह इन जातीय संगठनों को अपना सम्मिलित स्वरूप युग-निर्माण शाखाओं के रूप में भी रखना चाहिए। एक व्यक्ति उन दो संगठनों का सदस्य आसानी से रह सकता है, जो परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकार युग-निर्माण योजना के सदस्यों को दो उत्तरदायित्व वहन करने पड़ेंगे। एक सभी जाति, धर्मों का सम्मिलित युग-निर्माण आन्दोलन चलाने का—दूसरा समाज सुधार के लिये अपने व्यक्तिगत प्रभाव-क्षेत्र में जाति की ओर ध्यान देने का। इनमें परस्पर कोई भिन्नता या झंझट नहीं। वरन् एक दूसरे के पूरक हैं। रोटी खाना और पानी पीना देखने में दो अलग प्रकार के काम हैं, उनका दृश्य स्वरूप भी भिन्न प्रकार का है, पर वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, इसलिए किसी रोटी खाने वाले को पानी पीना कोई अलग काम या भिन्न प्रकार का झंझट मालूम नहीं पड़ता। इसी प्रकार युग-निर्माण आन्दोलन और जातीय-संगठनों में बाहर से देखने का ही अन्तर है, वस्तुतः युग-निर्माण की सामाजिक क्रान्ति योजना का एक पहलू या मोर्चा भर जातीय संगठन है।
अस्तु हर जगह इस प्रकार का खांचा मिलाया जाना चाहिए कि दोनों कार्य एक ही साथ चलते रहें। प्रत्येक कार्यकर्त्ता दोनों कार्य करता रहे। यह दोनों आपस में टकराते नहीं। दुहरा झंझट तभी तक मालूम पड़ेगा, जब तक उसे व्यवहार में न लाया जाय। जो उसे कार्यान्वित करेंगे, वे देखेंगे कि युग-निर्माण योजना की शत-सूत्री योजना का जातीय संगठन भी एक अंग मात्र है। जिस प्रकार प्रौढ़ पाठशाला, पुस्तकालय, वृक्षारोपण, हवन आदि में एक ही व्यक्ति कई प्रवृत्तियों में एक साथ भाग लेता रहा सकता है, उसी प्रकार यह दोनों कार्यक्रम एक साथ चलाये जा सकने में पूर्णतया सरल एवं शक्य हैं।
8—विवाह योग्य लड़की लड़कों की जानकारी—संगठन बन जाने पर उसका प्रथम कार्य प्रगतिशील लोगों के लड़के लड़कियों की जानकारी क्षेत्रीय दफ्तर में एकत्रित करना है। प्रत्येक ग्राम सभा अपने यहां से इस प्रकार की सूचना संग्रह करके क्षेत्रीय कार्यालयों में भेजा करेगी। जो लोग आदर्श विवाह करने के लिए सहमत हों, उन्हीं की जानकारियां संग्रह की जांय। क्योंकि यह सारा प्रयत्न ही आदर्श विवाहों के प्रचलन के लिये किया गया है। जिन्हें पुराने ढर्रे के देन-दहेज और ठाट-बाट के विवाह करने हैं वे अपने आप, अपने ढंग से लड़की-लड़के ढूंढ़ते रहते हैं। हमें तो उन लोगों की सुविधा की दृष्टि से इतना बड़ा यह ढांचा खड़ा करना पड़ रहा है जो आदर्श विवाहों के इच्छुक हों, उनको अपने ही विचारों एवं आदर्श वाले सम्बन्धी मिल सकें यही हमारा उद्देश्य रहना चाहिये।
दफ्तर में एकत्रित रह सकती हैं। सभी जातियों का एक ही दफ्तर रह सकता है। इसी प्रकार संगठनकर्त्ता भी एक ही सब जातियों के लिए काम दे सकता है। क्षेत्रीय प्रगतिशील जातीय सभा कार्यालय आरम्भ में एक ही रखना होगा। पीछे जब काम का बहुत विस्तार हो तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि चार वर्णों के अलग-अलग कार्यालय बांटे जा सकते हैं और यदि काम बहुत बढ़ जाय तो उपजातियों के लिये भी अलग दफ्तर की आवश्यकता पूरी की जा सकती है, पर आरम्भ में एक ही संगठन-कर्त्ता की नियुक्ति करना उचित होगा।
9—प्रचार साधन और सुविधाएं—आदर्श विवाहों की आवश्यकता, उपयोगिता एवं रूपरेखा समझने के लिये व्यापक प्रचार की आवश्यकता होगी। इन विचारों से जब तक लोगों को प्रभावित न किया जायगा, तब तक वे उससे सहमत न होंगे और वैसा करने के लिए साहस न कर सकेंगे। इसलिये छोटी-मोटी पुस्तिकाएं पढ़ना, भजन, गायन, चित्र प्रदर्शिनी, कवि-सम्मेलन, सभा-सम्मेलन, गोष्ठियां आदि के छोटे-छोटे आयोजन आदि माध्यमों से लोगों में आदर्श विवाहों की भावना आकांक्षा एवं हिम्मत पैदा करनी चाहिए। वैसे जोड़े ढूंढ़ने में अधिक व्यक्तियों की सहायता की जानी चाहिये। उत्सव का रूप प्रभावशाली एवं आकर्षक कैसे बने, इसकी व्यवस्था बनाने में सहयोग होना चाहिये, तथा जहां भी ऐसे विवाह हों, उनका प्रचार दूर-दूर तक करने के लिये प्रयत्न होना चाहिये। यह सुविधाएं प्रस्तुत करना क्षेत्रीय संगठन का काम हैं। इन प्रयत्नों से ही उत्साह उत्पन्न होगा और उत्साह सामूहिक कार्यक्रमों की प्रगति का मूलभूत आधार होता है।
10—आन्दोलन का खर्च—हर आन्दोलन कुछ खर्च चाहता है। पैसे के बिना कोई भी काम, संस्थाएं भी अपना काम ठीक नहीं कर पातीं। जातीय-संगठनों का कार्य और आदर्श विवाहों की योजना भी व्ययसाध्य हैं। संगठनकर्त्ता, दफ्तर, पत्र-व्यवहार, मार्गव्यय, प्रचार आदि सभी कार्यों के लिए तो पैसा चाहिये। इसकी पूर्ति हमें निष्ठावान् सदस्यों से मासिक चन्दे के रूप में करना चाहिये। युग-निर्माण योजना के सदस्यों को अपनी आय का एक अंश सामाजिक पुनरुत्थान के लिए अनिवार्य रूप से निकालना होगा। भावनाशील लोगों से यह आशा की जाती है कि वे अपने हृदय की विशालता और उच्च आदर्शवादिता के अनुरूप समय ही नहीं, धन भी उदारतापूर्वक देंगे। मासिक चन्दा हर सक्रिय कार्यकर्त्ता को देना चाहिये। इसका आरम्भ अपने लोगों से ही होगा। बाहर के नये लोगों से प्रारम्भ में ही चन्दा मांगने लगने से वे बिचक जाते हैं। जो जितना आस्थावान बनता जाय, उससे उसी अनुपात से आर्थिक सहयोग की भी आशा की जा सकेगी। सम्पन्न एवं दानी लोगों से जो सक्रिय कार्य नहीं कर सकते, पर पैसा दे सकते हैं, उनसे लेना चाहिए। किन्हीं दानी उदार सज्जनों से इन कार्यों के लिए कोई स्थायी जमीन-जायदाद मिल सके तो उसके लिये भी प्रयत्न करना चाहिये। मन्दिरों, धर्मशालाओं की खाली इमारतें संगठन के कार्यालय का काम देने योग्य मिल सकें तो उन्हें लेने का भी प्रयास करना चाहिये, ताकि मकान सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति बिना खर्च के भी हो सके। धर्म घट रखकर प्रतिदिन एक मुट्ठी अन्न या धर्म पेटी रखकर कुछ पैसे लेने वाला क्रम भी जहां जम सके वहां अवश्य जमाना चाहिये।
11—वार्षिकोत्सव—संगठनों में चेतना और सक्रियता बने रहने के लिये यह आवश्यक है कि उस तरह के विचारों के लोगों का परस्पर सम्मिलन होता रहे। उत्सवों के द्वारा प्रत्येक चेतना को नवजीवन तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। बड़े उत्सव खर्चीले होते हैं, किन्तु छोटे-छोटे आयोजन तो आसानी से हो सकते हैं। जातीय संगठनों के मेले आयोजित करने की बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। आदर्श विवाहों की पृष्ठभूमि रूपी उन सम्मेलनों में सामूहिक विवाह होने की प्रथा चल पड़े तो और भी उत्तम रहे। इन उत्सवों को गायत्री यज्ञ का रूप दिया जाना चाहिये। यज्ञ से उत्सव की शोभा सज्जा ही नहीं, भावनात्मक, धार्मिक वातावरण भी बनता है और शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक कई प्रकार के लाभ भी होते हैं। सामूहिक यज्ञोपवीत संस्कार, मुण्डन आदि भी उस अवसर पर हो सकते हैं। प्रचार के लिए तो यह एक प्रभावशाली माध्यम है ही। इन यज्ञो में कुछ लोग विधिवत् वानप्रस्थ लेकर समाज-सेवा के लिये अपना जीवन उत्सर्ग किया करें, ऐसी चेष्टा भी करते रहना चाहिये।
जिस जाति का सम्मेलन हो उसके लोगों को तो आना ही चाहिए, पर साथ ही अन्य जातियों के लोगों को भी बुलाया जाना आवश्यक है, ताकि वे भी उसके अनुकरण की प्रेरणा ले सकें।