Books - हमारी युग निर्माण योजना
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Language: HINDI
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आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना
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1—वर-कन्या की आयु—कन्या की आयु 14 और वर की 18 से कम न हो।
इससे कम आयु के विवाह कानून में भी ‘‘बाल विवाह-विरोधी एक्ट’’ के अनुसार दण्डनीय है और वर-कन्या के स्वास्थ को दुर्बल बनाने वाले हैं। इससे कम आयु के बच्चों का विवाह करना उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। इसलिए बाल विवाहों से सर्वथा बचा जाय। उत्तम विवाह तो 20 वर्ष की कन्या तथा 25 वर्ष के लड़कों का है। विवाह की जल्दी न करके बच्चों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से विकसित होने देना चाहिये और परिपक्व आयु के होने पर ही उनका विवाह करना चाहिए।
2—अनमेल विवाह न हो—कन्या वर में आयु शिक्षा, स्वभाव आदि की दृष्टि से उपयुक्तता का ध्यान रखा जाय। विवाह दोनों की सहमति से हो।
कन्या से वर की आयु 10 वर्ष से अधिक बड़ी न हो। जिनमें इससे अधिक अन्तर होता है वे अनमेल विवाह कहे जाते हैं। अनमेल विवाहों से दाम्पत्ति जीवन में गड़बड़ी उत्पन्न होती है। लड़की-लड़कों को एक दूसरे की स्थिति से भली प्रकार परिचित करा दिया जाय और वे बिना दबाव के उसे स्वीकार करते हों तो ही उसे पक्का किया जाय। अभिभावक यथा सम्भव उपयुक्त जोड़ा मिलाने का अधिक से अधिक ध्यान रखें।
3—दो परिवारों की सांस्कृतिक समानता—वर-पक्ष और कन्या-पक्ष के परिवारों में विचार, आदर्श आहार-विहार, व्यवसाय आदि की समानता रहे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्णों के अन्तर्गत जो उपजातियां हैं, उनमें विवाह की रोक न हो। इससे उपयुक्त लड़की-लड़के ढूंढ़ने का क्षेत्र अधिक व्यापक हो जायगा। आजकल एक-एक वर्ण के अन्तर्गत दसियों उपजातियां हैं और वे परस्पर रोटी बेटी व्यवहार नहीं करतीं। कोई-कोई तो अपने को ऊंच और दूसरी समान उपजाति वाले को नीच मानते हैं। इस तरह की रूढ़िवादिता अब समाप्त करने की आवश्यकता है। हिन्दू समाज का चार भागों में बंटा रहना भी कम नहीं है, इससे अधिक खण्डों में उसे बांटने से हर दृष्टि से हम कमजोर होते चले जायेंगे। विवाह सम्बन्धी अनेक समस्याएं तो इसी प्रतिबन्ध के कारण उपजी हैं।
यह समानता वर-कन्या को एक दूसरे के लिये अनुकूल रखने में सहायक होती है। शाकाहारी, मांसाहारी, बहुत दूर, ठण्डे प्रान्त, गरम प्रान्त, आस्तिक, नास्तिक, भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न धर्मावलंबी, भारतीय ढंग, पश्चिमी ढंग, सुधारवादी, अमीर-गरीब जैसी भिन्नताएं परिवारों में रहेंगी तो उनमें पले हुये लड़की-लड़के आपस में ठीक तरह घुल-मिल न सकेंगे। इसलिये समान स्थिति के सम्बन्ध करने में ही ध्यान रखा जाय। लोग अपने से बहुत अधिक ऊंचे स्तर के घर या लड़के न ढूंढ़ें।
4—उपजातियों को बहुत महत्व न दिया जाय—प्राचीन काल में चार वर्ण थे। प्रत्येक वर्ण के अन्तर्गत गोत्र बचाकर विवाह होते रहें। उपजातियों के कारण विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल किये जांय।
5—विधवा या विधुरों से लिए समान सुविधा-असुविधा—पुरुष और स्त्री के अधिकारों और कर्तव्यों में बहुत कुछ समानता है। इसलिए विधवा और विधुरों को भी समान सुविधा-असुविधा उपलब्ध हों।
साथी के मरने के बाद शेष जीवन एकाकी व्यतीत करना दोनों के लिए प्रशंसनीय है। पर यदि वे पुनः विवाह करना चाहें तो उन्हें समान रूप से सुविधा रहे। विधुरों के लिए यही उचित है कि वे विधवा से विवाह करें। विधवाओं का विवाह उतना ही अच्छा या बुरा माना जाय जितना विधुरों का।
6—आर्थिक आदान प्रदान न हो—न तो कन्या के मूल्य के रूप में लड़की वाले वर पक्ष से कुछ धन मांगें और न लड़के वाले वर की कीमत लड़की वाले से पाने की आशा करें। आदिवासियों, वन्य-जातियों, पिछड़े लोगों और पहाड़ी लोगों में वह रिवाज है कि वे लड़की का मूल्य लड़के से वसूल करते हैं। ऊंचे वर्ण वालों में ऐसा तभी होता है जब बूढ़े या अयोग्य लड़के को कोई लोभी बाप अपनी कन्या देता है, पर पिछड़े लोगों में कन्या का मूल्य लेना आम रिवाज है। इसी प्रकार सर्वत्र लोगों में लड़के की कीमत लड़की वालों से दहेज के रूप में तय की जाती है और उसमें कमी रह जाय तो अवांछनीय उपायों से उसे वसूल किया जाता है।
यह दोनों ही रिवाज समान रूप से घृणित और गर्हित हैं। इन्हें अनैतिक एवं मानवीय आदर्शों के विपरीत भी कहा जा सकता है। इन दोनों ही जंगली रिवाजों को सभ्य समाज में पूर्णतया बहिष्कृत किया जाना चाहिए। विवाह जैसे दो आत्माओं के एकीकरण संस्कार को आर्थिक सौदे-बाजी से सर्वथा दूर रखा जाय।
7—दहेज लोभ के लिए नहीं दक्षिणा के रूप में—मांगलिक कार्यों में पूजा सामग्री के रूप में दक्षिणा का भी स्थान है। वर-पूजन के रूप में एक रुपया या ग्यारह रुपया, विशेष मांगलिक अवसरों पर दिया जा सकता है। अधिक से अधिक यह राशि 101 रु. हो सकती है।
विवाह में तीन ऐसे अवसर रह सकते हैं। पक्की, दरवाजे पर स्वागत, विदाई। इन तीन रस्मों में नकदी 300 रु. से अधिक न दी जानी चाहिए। यह विशुद्ध रूप से पूजा दक्षिणा मानी जाय, कोई लेन-देन ठहराव या लाभ, लोभ की दृष्टि से न गिने। इससे अधिक लेन-देन या ठहरौनी को अवांछनीय माना जाय। वर्तमान कानूनों के अनुसार वह एक अपराध तो है ही। उसमें जेलखाने जाने और कड़ा दंड भुगतने की व्यवस्था तो है ही। कानून के भय से नहीं, नैतिकता एवं मानवता के कर्तव्यों का ध्यान रखकर भी इस दहेज प्रथा को उन्मूलन करने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किया जाय जिसने हिन्दू जाति को आर्थिक दृष्टि से खोखला, नैतिक दृष्टि से बेईमान, मानसिक दृष्टि से चिन्तातुर एवं असहाय बना रखा है। इस सामाजिक पाप से कलंकित सवर्ण हिन्दुओं के मुख को धोने का प्रयत्न हमें विशेष भावनापूर्वक करना चाहिए।
लड़के के अभिभावक या लड़का धन या वस्तुओं की कोई मांग न करें।
8—वर पक्ष जेवर न चढ़ावें—कीमती जेवर और कपड़े चढ़ाने की समस्या लड़के वालों के लिए उतनी ही विकट है जितनी लड़की वालों के लिए दहेज देने की। यह दोनों प्रथायें एक दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप में जुड़ी हुई हैं। इसलिए दोनों को एक ही बार समाप्त करना होगा।
लड़की वाले यह आशा करते हैं कि लड़के की ओर से कीमती जेवर, कपड़े कन्या के लिए आवें। इसमें जो खर्च पड़ता है उसे लड़के वाला दहेज के रूप में वसूल करता है। लड़के की शिक्षा आदि में वह भी इतना खर्च कर चुका होता है कि इन दिखावे मात्र की बेकार चीजों में धन लुटाने के लिए उसके पास भी बचा नहीं होता। कन्या वालों को अपनी ही तरह लड़के वालों की भी कठिनाई समझनी चाहिए और उन्हें जेवर, कपड़े में धन खर्च करने की चिन्ता से मुक्त कर देना चाहिए।
विवाह में वर पक्ष की ओर से लड़की के लिए एक सोने की अंगूठी, पैरों के लिए चांदी के तोड़िए यह दो जेवर ही चढ़ाये जांय और एक सूती, एक रेशमी जोड़ी कपड़े हों। जो कुछ लड़की के लिए लाया गया है उसका दिखावा जरा भी न हो।
9—बेटी को विदाई उपहार—कन्या के माता-पिता अपनी बच्ची की विदाई के समय उसे कुछ कपड़ा, जेवर, बर्तन, फर्नीचर, मिठाई पैसा आदि दें तो वह लड़की का विशुद्ध रूप से ‘‘स्त्री-धन’’ माना जाय। उसका न तो कोई प्रदर्शन हो और न लेखा-जोखा।
बाप-बेटी के व्यक्तिगत स्नेह सौजन्य एवं विदाई उपहार से ससुराल वालों को जरा भी दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए। यह विशुद्ध रूप से बाप-बेटी के बीच का मामला है। उसमें औरों के दखल देने या नुक्ताचीनी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। साधारणतया रस्म के रूप में नाक और कान के छोटे दो जेवर ही लड़की को उसके अभिभावकों के द्वारा विवाह समय पर दिए जाने चाहिए। ताकि नकदी के रूप से हटकर जेवर के रूप में दहेज का पिशाच फिर नया रूप बना कर सामने न आ खड़ा हो। बाप यदि अपनी बेटी को कुछ अधिक देना चाहता है तो वह विवाह संस्कार के एक-दो महीने बाद दें और ससुराल वाले स्त्री-धन के रूप में उसे लड़की के पास ही रहने दें। उसे बहू से मांगना, बच्चों के पैसे छीनने जैसा निष्ठुर कृत्य माना जायगा।
10—लड़की का स्त्री-धन—पिता के यहां से जो कन्या को दिया गया है तथा ससुराल आने पर प्रत्येक सम्बन्धियों ने तथा सास-ससुर ने जो उपहार दिए हों वे वधू की सुरक्षित पूंजी माने जांय। उसे ससुराल वाले छीनने का लालच न करें।
‘स्त्री-धन’ की एक छोटी पूंजी वधू के पास रहनी चाहिए जो किसी विशेष आपत्ति के समय काम आ सके या उसके बुढ़ापे तक बनी रहे सके। इस पावन पूंजी का स्वामित्व लड़की का ही हो और उसी के संरक्षण में ही रहे। अच्छा हो उसे लम्बे समय के सार्टीफिकेटों में लगा दिया जाय जिससे ब्याज भी बढ़ती रहे। जेवर कपड़ों का उपहार देने की अपेक्षा दोनों पक्ष के लोग नव वधू को कुछ धन दें और उसे उसकी सुरक्षित पूंजी बना दें। विवाह के समय मिला हुआ यह उपहार लड़की के उत्साह बढ़ाने का एक अच्छा माध्यम हो सकता है। यथा शक्ति हर विवाह में यह किया जाय। पर इसका कोई दिखावा या शर्त न हो। वरना यह भी दहेज का ही एक दूसरा रूप बन जायगा। 11—विवाह के लिए नियत पर्व—सालग सोधने के झंझट में यदि उपयुक्त समय पर विवाह न बनता हो तो शुभ देव-पर्वों पर उन्हें निस्संकोच कर लिया जाये।
कई बार अभिभावकों की सुविधा के विपरीत पण्डित लोग विवाह न बनने का अड़ंगा लगाकर एक बड़ी कठिनाई उत्पन्न कर देते हैं। यों मासिक होने पर ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार सूर्य, गुरु, चन्द्र आदि के देखने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है और उसका विवाह किसी भी शुभ दिन किया जा सकता है। फिर भी अनाड़ी पण्डित कुछ न कुछ अड़ंगे खड़े करते रहते हैं। ऐसी उलझनों से बचने के लिए देव पर्वों पर पहले भी बिना पण्डित से पूछे विवाह होते थे। (1) कार्तिक में देवोत्थान, (2) माघ में बसन्त-पंचमी, (3) बैसाख में अक्षय तृतीया, (4) आषाढ़ में शुक्ल-पक्ष की नवमी इन चार अवसरों पर अभी भी विवाह किए जाते हैं। अब इनके अतिरिक्त छह नए और बढ़ा दिए जांय (1) कार्तिकी (कार्तिक सुदी 15) (2) गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष सुदी 11) (3) शिवरात्रि (फाल्गुन वदी 13) (4) राम नवमी (चैत्र सुदी 9) (5) हनुमान जयन्ती (चैत्र सुदी 15) (6) गायत्री जयन्ती गंगा दशहरा (ज्येष्ठ सुदी 10)।
12—विवाह का शुभ समय गोधूलि बेला—सायंकाल सूर्य अस्त होते समय विवाह संस्कार के लिए सर्वोत्तम समय माना जाय।
बहुत रात गए विवाह संस्कार होने में, (1) बारात रात में चढ़ती है और रोशनी सजावट का बेकार खर्च बढ़ता है, (2) भोजन कराने में अनावश्यक विलम्ब होता है, (3) सारी रात बेकार जगते जाती है। (4) संस्कार के धर्मानुष्ठान देखने एवं शिक्षाओं को सुनने कम लोग वहां बैठते हैं अधिकांश तो थके मांदे सो ही जाते हैं। (5) अधिक रात विवाह का यज्ञ करने से उसमें कीड़े-मकोड़े गिरने का डर रहता है। (6) वर कन्या अलसाये व उनींदे रहते हैं। इन सब अड़चनों को हटाने के लिए गोधूलि हर विवाह के लिए उपयुक्त मानी जाय। सूर्य अस्त होने से एक घण्टे पूर्व कार्य आरम्भ करके एक दो घण्टे रात गये तक सब कार्य समाप्त हो सकता है। और उस समय सब लोग उस आनन्द समारोह में उत्साहपूर्वक भाग लेने का लाभ उठा सकते हैं।
13—पवित्र धर्मानुष्ठान का यज्ञीय वातावरण रहे—मांस, मदिरा, रण्डी भाड़ नचकैये, अश्लील गीत, गन्दे मजाक, आदि के हेय असुर कृत्यों से इस धर्म संस्कार की पवित्रता नष्ट न होने दी जाय।
विवाह एक श्रेष्ठ यज्ञ है। उसमें देवताओं का आह्वान वेद पाठ एवं दो आत्माओं को जोड़ने वाला महान धर्मानुष्ठान सम्पन्न होता है। ऐसे शुभ समय में उपरोक्त बुराइयों के समावेश का कोई तुक नहीं। जहां इन बातों का रिवाज चल पड़ा है, वहां उसे बन्द किया जाय। गन्दे रिकार्ड भी लाउडस्पीकर में विवाह में न बजें।
14—विवाह संस्कार प्रभावशाली ढंग से हों—विवाह मण्डप की बढ़िया सजावट, हवन की सुव्यवस्था दोनों पक्ष के नर-नारियों के बैठने योग्य समुचित स्थान, कोलाहल, धुंआ आदि से बचाव, विद्वान पण्डित जो विवाह विधान को व्याख्यापूर्वक समझा सके—इन सब बातों का प्रबन्ध विशेष ध्यान देकर किया जाय।
विवाह संस्कार जैसी दो आत्माओं के आत्म समर्पण की धर्म प्रक्रिया का अत्यन्त महत्व है। उसी के उपलक्ष्य में ही इतना सारा आडम्बर रचा जाता है। खेद है कि संस्कार कराने वाले पण्डितों के अनाड़ीपन तथा घर वालों की उपेक्षा के कारण संस्कार की विधि व्यवस्था भार रूप चिह्न पूजा मात्र रह जाती है जिससे हर कोई जल्दी से जल्दी पिंड छुड़ाना चाहता है। आदर्श विवाहों में यह रूप बदला जाना चाहिये, और सुयोग्य पण्डितों के द्वारा शास्त्रोक्त विधि विधान के साथ ऐसे सुन्दर ढंग से विवाह कराने का प्रबन्ध किया जाय जिसे देखने में सबका मन लगे। मन्त्र की व्याख्या भी ऐसे प्रभावशाली ढंग से हो कि वर-वधू ही नहीं उपस्थित समस्त नर-नारी भी अपने विवाहित जीवन का उद्देश्य और कर्तव्य समझ सकें। इसके लिए आवश्यक प्रबन्ध पहले से ही कर रक्खा जाय।
15—वर कन्या भारतीय पोशाक में हों?—विवाह एक यज्ञ एवं धर्मानुष्ठान है। इसमें सम्मिलित होने के लिए वर-वधू को भारतीय वेष-भूषा में ही रहना चाहिये।
आजकल पढ़े-लिखे लड़के विवाह के समय भी ईसाई पोशाक धारण करके अपनी मानसिक गुलामी का परिचय देते हैं। यह अभागा भारत ही ऐसा है जहां के नवयुवक अपनी भाषा, अपनी संस्कृति तथा अपनी वेष-भूषा को तुच्छ समझकर ईसाई संस्कृति की नकल करने में गौरव समझते हैं। विवाह के समय भी वे पेन्ट, टाई जैसे ईसाई लिवास के लिए ही आग्रह करते हैं। उनकी मानसिक दासता विवाह जैसे धर्म कृत्य में तो इस भोंड़े ढंग से प्रदर्शित न हो तो ही अच्छा है। लड़का धोती कुर्ता पहने। ऊपर से जाकेट या बन्द गले का कोट पहना जा सकता है।
16—सार्वजनिक सत्कार्यों के लिए दान—विवाह के हर्षोत्सव में अपनी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति लोकोपयोगी सार्वजनिक कार्यों के लिए मुक्तहस्त से दान देकर की जाय। विवाहों में दोनों पक्षों को अपने-अपने बड़प्पन की बहुत चिन्ता रहती है। यह दिखाने की कोशिश की जाती रहती है कि हम कितने अमीर और उदार हैं। उसकी एक ठोस कसौटी यह है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार सार्वजनिक सत्कर्मों के लिये उदारता पूर्वक अधिक दान देकर अपने सच्चे बड़प्पन का परिचय दें। 17—प्रीतिभोज कन्या के स्वागत समारोह के रूप में हो—विवाह से एक दिन पहले लड़के के यहां प्रीतिभोज करने का रिवाज है। इसके स्थान पर बारात घर लौट आने पर नवागन्तुक वधू के स्वागत में एक छोटा सम्मान समारोह किया जाय।
विवाह से पूर्व किए गए प्रीतिभोज में जो लोग जाते हैं उनसे शिष्टाचारवश बारात में चलने के लिये कहना पड़ता है और मन में कम व्यक्ति ले जाने की इच्छा होते हुये भी बारात बढ़ जाती है। इसलिए उसे बारात लौटने पर किया जाय। वे वधू को आशीर्वाद देने आवें और उसे कुछ उपहार भी दें। इससे वधू का मान गौरव बढ़ेगा और उसे प्रसन्नता भी होगी। तब उसे बहुत बड़ा न करके संक्षिप्त या स्वल्पाहार तक सीमित करना भी सरल हो जायगा।
18—बारात की संख्या कम ने कम रहे—केवल अत्यन्त आवश्यक एवं निजी व्यक्ति ही बारात में जावें। इसमें कुटुम्बी, रिश्तेदारों या अत्यन्त आवश्यक व्यक्तियों के अतिरिक्त फालतू लोग न हों।
अक्सर बड़े आदमियों या उजले कपड़े वालों को बारात की शोभा बढ़ाने के लिए खुशामदें करके मिन्नत करके ले जाया जाता है। इसमें उनका अहसान होता है, अपना खर्चा पड़ता है और बेटी वाले की परेशानी बढ़ती है। इन सब असुविधाओं का ध्यान रखते हुये, इस अन्न संकट तथा महंगाई के जमाने में बारात की संख्या बढ़ाना सर्वथा अनुचित है। साधारणतया 20-20 आदमी की बारात पर्याप्त होगी। अधिकतम संख्या 51 तक हो सकती है।
19—बारात चढ़ाई सादगी के साथ—बारात चढ़ाने और उसकी शोभा बनाने में ढेरों निरर्थक पैसा बर्बाद होता है और उसका स्वरूप दम्भ, अहंकार एवं नकली अमीरी जैसा उपहासास्पद बन जाता है। इसे बदल कर सादगी एवं सौम्यता बरती जाय।
वर की सवारी घोड़े पर निकले जैसा कि बड़े शहरों में रिवाज है। बारात वर के पीछे पैदल शोभा यात्रा में चलें। गांव और कस्बों में भी यही तरीका उचित है। बारातियों के बैठने के लिये जो सवारियां ली गई हों, उनको इस शोभा यात्रा में न रखा जाय। बाजे में 10 से अधिक व्यक्ति न हों। आतिशबाजी, फूलटट्टी, कागज के घोड़े-हाथी, परियां, लड़की लड़के के ऊपर पैसों की बखेर जैसे बेकार खर्च बिलकुल भी न किये जांय। गोधूलि का विवाह रहने से बारात दिन में ही चढ़ेगी इसलिये रात में ही अच्छी लगने वाली इन बेकार चीजों की जरूरत भी न पड़ेगी। बारात के साथ रोशनी का प्रबन्ध भी न करना पड़ेगा।
20—दावत में अधिक संख्या में मिठाइयां न हों?—खाद्य संकट और चीनी की कमी का ध्यान रखते हुये मिठाइयां न बनाई जांय और बनानी भी हों तो इनकी संख्या दो तीन से अधिक न हो।
अधिक संख्या में मिष्ठान्न पकवान बनाने से उनकी तादाद इतनी हो जाती है कि उन सबको खा सकना सम्भव नहीं होता। फलस्वरूप वे बचती और बर्बाद होती हैं। आज ऐसी बर्बादी का समय नहीं। खाने वालों से अनुरोध किया जाय कि वे उतनी वस्तुयें लें जो खा सकें। परोसने वालों से कहा जाय कि वे प्रेम और आतिथ्य तो दिखाएं पर बर्बादी जरा भी न हो इस कला से परसें। अन्न की बर्बादी को देश-द्रोह समझा जाय। अन्न देवता को जूठन के रूप में तिरस्कृत करना धार्मिक दृष्टि से भी अवांछनीय है। मेहतर को जूठन देने की ‘उदारता’ दर्शाने के स्थान पर उसे और भी अधिक उदारता के साथ अच्छा शुद्ध भोजन देना चाहिये।
उच्छृंखलता एवं अशिष्टता न बरती जाय—हल्दी के थापे लगाना, रंग फेंक कर कपड़े खराब करना, भद्दे मजाक करना जैसे उच्छृंखल अशिष्ट व्यवहार न हों।
देखा जाता है कि विवाहों के अवसर पर उच्छृंखलता और गन्दे मजाकों का वातावरण बन जाता है। यह अवांछनीय है। इस महंगाई के जमाने में कपड़े खराब कर देना, कहीं पर गुलाल, बूरा आदि वस्तुयें मल कर आंखों को हानि पहुंचाने का खतरा उत्पन्न कर देना अनुचित है। महिलायें अश्लील गीत गाकर अपना गौरव ही घटाती हैं और आगन्तुक अतिथियों का मजाक उड़ना धृष्टता है। ऐसी ओछी बातें सभ्य लोगों के लिये अशोभनीय है, जहां ऐसा कुछ प्रचलित हो उसे रोका जाय।
22—बारात कम समय ठहरे—समीप की बारात का एक दिन और दूर की बारात का दो दिन ठहरना पर्याप्त है।
अधिक दिनों बारात रुकने से सभी की असुविधा होती है और तरह-तरह के खर्च बढ़ते हैं। समय और पैसे की बर्बादी होती है इसलिये कम समय ही बारात का रुकना उचित है। 23—नेग अपने-अपने चुकायें—कहीं-कहीं ऐसे रिवाज अभी भी हैं कि लड़की वाले के ‘काम वालों’ के नेग बेटे वाले को चुकाने पड़ते हैं। कुछ नेग बेटी वाले को बेटे वाले के कर्मचारियों के चुकाने पड़ते हैं। यह झंझट बन्द करके दोनों अपने-अपने कर्मचारियों के खर्चे चुकावें।
उपरोक्त प्रकार के हेर-फेर से ‘काम वाले’ या तो असन्तुष्ट रहते हैं या अनुचित लाभ लेते हैं। मनोमालिन्य भी बढ़ता है और देखने में भी यह बात भद्दी लगती हैं। उचित यही है कि उनके परिश्रम का ध्यान रखते नेग या वेतन अपने आप ही चुकाया जाय। दूसरे पक्ष पर उसका भार न डाला जाय।
24—छुट-पुट रस्म रिवाजें संक्षिप्त की जायें—बार-बार छुट-पुट रस्म रिवाजें चलाने में समय और धन की बर्बादी न की जाय।
विवाह पक्का होने से लेकर बारात विदाई होने तक ही नहीं वरन् एक साल तक और रिवाज चलाने पड़ते हैं और उनमें बेकार की चीजें खरीद कर इधर से उधर भेजनी पड़ती हैं। इनका खर्च कई बार विवाह जितना ही आ पहुंचता है। इन बेकार बातों को जितना घटाया जा सकता हो तो अवश्य घटाना चाहिये। विवाह के अवसर पर देन-दहेज देने लेने के अनेक ‘ठिक’ बने हुये हैं। इन्हें कम करके (1) पक्की (वर के घर पर) (2) द्वार स्वागत (लड़की के घर) यह दो ही प्रमुख रखें। विदाई, गोद भरना जैसी शुभ समझे जाने वाले रस्म भी स्थानीय लोकाचार के अनुसार की जा सकती हैं।
हर प्रान्त के सब क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग की अगणित प्रकार के अनेकों छुट-पुट रस्म रिवाज हैं। उनमें से कौन-कौन पूरी तरह तुरन्त ही छोड़ देने चाहिये और कौन-कौन किस तरह घटाई जानी चाहिये यह स्थानीय परिस्थितियों को देखकर किया जाय। दृष्टिकोण यही रहे कि जो रूढ़ियां अनावश्यक है उन्हें घटाकर समय और धन की बर्बादी रोकी जाय।
इससे कम आयु के विवाह कानून में भी ‘‘बाल विवाह-विरोधी एक्ट’’ के अनुसार दण्डनीय है और वर-कन्या के स्वास्थ को दुर्बल बनाने वाले हैं। इससे कम आयु के बच्चों का विवाह करना उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना है। इसलिए बाल विवाहों से सर्वथा बचा जाय। उत्तम विवाह तो 20 वर्ष की कन्या तथा 25 वर्ष के लड़कों का है। विवाह की जल्दी न करके बच्चों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से विकसित होने देना चाहिये और परिपक्व आयु के होने पर ही उनका विवाह करना चाहिए।
2—अनमेल विवाह न हो—कन्या वर में आयु शिक्षा, स्वभाव आदि की दृष्टि से उपयुक्तता का ध्यान रखा जाय। विवाह दोनों की सहमति से हो।
कन्या से वर की आयु 10 वर्ष से अधिक बड़ी न हो। जिनमें इससे अधिक अन्तर होता है वे अनमेल विवाह कहे जाते हैं। अनमेल विवाहों से दाम्पत्ति जीवन में गड़बड़ी उत्पन्न होती है। लड़की-लड़कों को एक दूसरे की स्थिति से भली प्रकार परिचित करा दिया जाय और वे बिना दबाव के उसे स्वीकार करते हों तो ही उसे पक्का किया जाय। अभिभावक यथा सम्भव उपयुक्त जोड़ा मिलाने का अधिक से अधिक ध्यान रखें।
3—दो परिवारों की सांस्कृतिक समानता—वर-पक्ष और कन्या-पक्ष के परिवारों में विचार, आदर्श आहार-विहार, व्यवसाय आदि की समानता रहे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्णों के अन्तर्गत जो उपजातियां हैं, उनमें विवाह की रोक न हो। इससे उपयुक्त लड़की-लड़के ढूंढ़ने का क्षेत्र अधिक व्यापक हो जायगा। आजकल एक-एक वर्ण के अन्तर्गत दसियों उपजातियां हैं और वे परस्पर रोटी बेटी व्यवहार नहीं करतीं। कोई-कोई तो अपने को ऊंच और दूसरी समान उपजाति वाले को नीच मानते हैं। इस तरह की रूढ़िवादिता अब समाप्त करने की आवश्यकता है। हिन्दू समाज का चार भागों में बंटा रहना भी कम नहीं है, इससे अधिक खण्डों में उसे बांटने से हर दृष्टि से हम कमजोर होते चले जायेंगे। विवाह सम्बन्धी अनेक समस्याएं तो इसी प्रतिबन्ध के कारण उपजी हैं।
यह समानता वर-कन्या को एक दूसरे के लिये अनुकूल रखने में सहायक होती है। शाकाहारी, मांसाहारी, बहुत दूर, ठण्डे प्रान्त, गरम प्रान्त, आस्तिक, नास्तिक, भिन्न भाषा-भाषी, भिन्न धर्मावलंबी, भारतीय ढंग, पश्चिमी ढंग, सुधारवादी, अमीर-गरीब जैसी भिन्नताएं परिवारों में रहेंगी तो उनमें पले हुये लड़की-लड़के आपस में ठीक तरह घुल-मिल न सकेंगे। इसलिये समान स्थिति के सम्बन्ध करने में ही ध्यान रखा जाय। लोग अपने से बहुत अधिक ऊंचे स्तर के घर या लड़के न ढूंढ़ें।
4—उपजातियों को बहुत महत्व न दिया जाय—प्राचीन काल में चार वर्ण थे। प्रत्येक वर्ण के अन्तर्गत गोत्र बचाकर विवाह होते रहें। उपजातियों के कारण विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध शिथिल किये जांय।
5—विधवा या विधुरों से लिए समान सुविधा-असुविधा—पुरुष और स्त्री के अधिकारों और कर्तव्यों में बहुत कुछ समानता है। इसलिए विधवा और विधुरों को भी समान सुविधा-असुविधा उपलब्ध हों।
साथी के मरने के बाद शेष जीवन एकाकी व्यतीत करना दोनों के लिए प्रशंसनीय है। पर यदि वे पुनः विवाह करना चाहें तो उन्हें समान रूप से सुविधा रहे। विधुरों के लिए यही उचित है कि वे विधवा से विवाह करें। विधवाओं का विवाह उतना ही अच्छा या बुरा माना जाय जितना विधुरों का।
6—आर्थिक आदान प्रदान न हो—न तो कन्या के मूल्य के रूप में लड़की वाले वर पक्ष से कुछ धन मांगें और न लड़के वाले वर की कीमत लड़की वाले से पाने की आशा करें। आदिवासियों, वन्य-जातियों, पिछड़े लोगों और पहाड़ी लोगों में वह रिवाज है कि वे लड़की का मूल्य लड़के से वसूल करते हैं। ऊंचे वर्ण वालों में ऐसा तभी होता है जब बूढ़े या अयोग्य लड़के को कोई लोभी बाप अपनी कन्या देता है, पर पिछड़े लोगों में कन्या का मूल्य लेना आम रिवाज है। इसी प्रकार सर्वत्र लोगों में लड़के की कीमत लड़की वालों से दहेज के रूप में तय की जाती है और उसमें कमी रह जाय तो अवांछनीय उपायों से उसे वसूल किया जाता है।
यह दोनों ही रिवाज समान रूप से घृणित और गर्हित हैं। इन्हें अनैतिक एवं मानवीय आदर्शों के विपरीत भी कहा जा सकता है। इन दोनों ही जंगली रिवाजों को सभ्य समाज में पूर्णतया बहिष्कृत किया जाना चाहिए। विवाह जैसे दो आत्माओं के एकीकरण संस्कार को आर्थिक सौदे-बाजी से सर्वथा दूर रखा जाय।
7—दहेज लोभ के लिए नहीं दक्षिणा के रूप में—मांगलिक कार्यों में पूजा सामग्री के रूप में दक्षिणा का भी स्थान है। वर-पूजन के रूप में एक रुपया या ग्यारह रुपया, विशेष मांगलिक अवसरों पर दिया जा सकता है। अधिक से अधिक यह राशि 101 रु. हो सकती है।
विवाह में तीन ऐसे अवसर रह सकते हैं। पक्की, दरवाजे पर स्वागत, विदाई। इन तीन रस्मों में नकदी 300 रु. से अधिक न दी जानी चाहिए। यह विशुद्ध रूप से पूजा दक्षिणा मानी जाय, कोई लेन-देन ठहराव या लाभ, लोभ की दृष्टि से न गिने। इससे अधिक लेन-देन या ठहरौनी को अवांछनीय माना जाय। वर्तमान कानूनों के अनुसार वह एक अपराध तो है ही। उसमें जेलखाने जाने और कड़ा दंड भुगतने की व्यवस्था तो है ही। कानून के भय से नहीं, नैतिकता एवं मानवता के कर्तव्यों का ध्यान रखकर भी इस दहेज प्रथा को उन्मूलन करने के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किया जाय जिसने हिन्दू जाति को आर्थिक दृष्टि से खोखला, नैतिक दृष्टि से बेईमान, मानसिक दृष्टि से चिन्तातुर एवं असहाय बना रखा है। इस सामाजिक पाप से कलंकित सवर्ण हिन्दुओं के मुख को धोने का प्रयत्न हमें विशेष भावनापूर्वक करना चाहिए।
लड़के के अभिभावक या लड़का धन या वस्तुओं की कोई मांग न करें।
8—वर पक्ष जेवर न चढ़ावें—कीमती जेवर और कपड़े चढ़ाने की समस्या लड़के वालों के लिए उतनी ही विकट है जितनी लड़की वालों के लिए दहेज देने की। यह दोनों प्रथायें एक दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप में जुड़ी हुई हैं। इसलिए दोनों को एक ही बार समाप्त करना होगा।
लड़की वाले यह आशा करते हैं कि लड़के की ओर से कीमती जेवर, कपड़े कन्या के लिए आवें। इसमें जो खर्च पड़ता है उसे लड़के वाला दहेज के रूप में वसूल करता है। लड़के की शिक्षा आदि में वह भी इतना खर्च कर चुका होता है कि इन दिखावे मात्र की बेकार चीजों में धन लुटाने के लिए उसके पास भी बचा नहीं होता। कन्या वालों को अपनी ही तरह लड़के वालों की भी कठिनाई समझनी चाहिए और उन्हें जेवर, कपड़े में धन खर्च करने की चिन्ता से मुक्त कर देना चाहिए।
विवाह में वर पक्ष की ओर से लड़की के लिए एक सोने की अंगूठी, पैरों के लिए चांदी के तोड़िए यह दो जेवर ही चढ़ाये जांय और एक सूती, एक रेशमी जोड़ी कपड़े हों। जो कुछ लड़की के लिए लाया गया है उसका दिखावा जरा भी न हो।
9—बेटी को विदाई उपहार—कन्या के माता-पिता अपनी बच्ची की विदाई के समय उसे कुछ कपड़ा, जेवर, बर्तन, फर्नीचर, मिठाई पैसा आदि दें तो वह लड़की का विशुद्ध रूप से ‘‘स्त्री-धन’’ माना जाय। उसका न तो कोई प्रदर्शन हो और न लेखा-जोखा।
बाप-बेटी के व्यक्तिगत स्नेह सौजन्य एवं विदाई उपहार से ससुराल वालों को जरा भी दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए। यह विशुद्ध रूप से बाप-बेटी के बीच का मामला है। उसमें औरों के दखल देने या नुक्ताचीनी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। साधारणतया रस्म के रूप में नाक और कान के छोटे दो जेवर ही लड़की को उसके अभिभावकों के द्वारा विवाह समय पर दिए जाने चाहिए। ताकि नकदी के रूप से हटकर जेवर के रूप में दहेज का पिशाच फिर नया रूप बना कर सामने न आ खड़ा हो। बाप यदि अपनी बेटी को कुछ अधिक देना चाहता है तो वह विवाह संस्कार के एक-दो महीने बाद दें और ससुराल वाले स्त्री-धन के रूप में उसे लड़की के पास ही रहने दें। उसे बहू से मांगना, बच्चों के पैसे छीनने जैसा निष्ठुर कृत्य माना जायगा।
10—लड़की का स्त्री-धन—पिता के यहां से जो कन्या को दिया गया है तथा ससुराल आने पर प्रत्येक सम्बन्धियों ने तथा सास-ससुर ने जो उपहार दिए हों वे वधू की सुरक्षित पूंजी माने जांय। उसे ससुराल वाले छीनने का लालच न करें।
‘स्त्री-धन’ की एक छोटी पूंजी वधू के पास रहनी चाहिए जो किसी विशेष आपत्ति के समय काम आ सके या उसके बुढ़ापे तक बनी रहे सके। इस पावन पूंजी का स्वामित्व लड़की का ही हो और उसी के संरक्षण में ही रहे। अच्छा हो उसे लम्बे समय के सार्टीफिकेटों में लगा दिया जाय जिससे ब्याज भी बढ़ती रहे। जेवर कपड़ों का उपहार देने की अपेक्षा दोनों पक्ष के लोग नव वधू को कुछ धन दें और उसे उसकी सुरक्षित पूंजी बना दें। विवाह के समय मिला हुआ यह उपहार लड़की के उत्साह बढ़ाने का एक अच्छा माध्यम हो सकता है। यथा शक्ति हर विवाह में यह किया जाय। पर इसका कोई दिखावा या शर्त न हो। वरना यह भी दहेज का ही एक दूसरा रूप बन जायगा। 11—विवाह के लिए नियत पर्व—सालग सोधने के झंझट में यदि उपयुक्त समय पर विवाह न बनता हो तो शुभ देव-पर्वों पर उन्हें निस्संकोच कर लिया जाये।
कई बार अभिभावकों की सुविधा के विपरीत पण्डित लोग विवाह न बनने का अड़ंगा लगाकर एक बड़ी कठिनाई उत्पन्न कर देते हैं। यों मासिक होने पर ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार सूर्य, गुरु, चन्द्र आदि के देखने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है और उसका विवाह किसी भी शुभ दिन किया जा सकता है। फिर भी अनाड़ी पण्डित कुछ न कुछ अड़ंगे खड़े करते रहते हैं। ऐसी उलझनों से बचने के लिए देव पर्वों पर पहले भी बिना पण्डित से पूछे विवाह होते थे। (1) कार्तिक में देवोत्थान, (2) माघ में बसन्त-पंचमी, (3) बैसाख में अक्षय तृतीया, (4) आषाढ़ में शुक्ल-पक्ष की नवमी इन चार अवसरों पर अभी भी विवाह किए जाते हैं। अब इनके अतिरिक्त छह नए और बढ़ा दिए जांय (1) कार्तिकी (कार्तिक सुदी 15) (2) गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष सुदी 11) (3) शिवरात्रि (फाल्गुन वदी 13) (4) राम नवमी (चैत्र सुदी 9) (5) हनुमान जयन्ती (चैत्र सुदी 15) (6) गायत्री जयन्ती गंगा दशहरा (ज्येष्ठ सुदी 10)।
12—विवाह का शुभ समय गोधूलि बेला—सायंकाल सूर्य अस्त होते समय विवाह संस्कार के लिए सर्वोत्तम समय माना जाय।
बहुत रात गए विवाह संस्कार होने में, (1) बारात रात में चढ़ती है और रोशनी सजावट का बेकार खर्च बढ़ता है, (2) भोजन कराने में अनावश्यक विलम्ब होता है, (3) सारी रात बेकार जगते जाती है। (4) संस्कार के धर्मानुष्ठान देखने एवं शिक्षाओं को सुनने कम लोग वहां बैठते हैं अधिकांश तो थके मांदे सो ही जाते हैं। (5) अधिक रात विवाह का यज्ञ करने से उसमें कीड़े-मकोड़े गिरने का डर रहता है। (6) वर कन्या अलसाये व उनींदे रहते हैं। इन सब अड़चनों को हटाने के लिए गोधूलि हर विवाह के लिए उपयुक्त मानी जाय। सूर्य अस्त होने से एक घण्टे पूर्व कार्य आरम्भ करके एक दो घण्टे रात गये तक सब कार्य समाप्त हो सकता है। और उस समय सब लोग उस आनन्द समारोह में उत्साहपूर्वक भाग लेने का लाभ उठा सकते हैं।
13—पवित्र धर्मानुष्ठान का यज्ञीय वातावरण रहे—मांस, मदिरा, रण्डी भाड़ नचकैये, अश्लील गीत, गन्दे मजाक, आदि के हेय असुर कृत्यों से इस धर्म संस्कार की पवित्रता नष्ट न होने दी जाय।
विवाह एक श्रेष्ठ यज्ञ है। उसमें देवताओं का आह्वान वेद पाठ एवं दो आत्माओं को जोड़ने वाला महान धर्मानुष्ठान सम्पन्न होता है। ऐसे शुभ समय में उपरोक्त बुराइयों के समावेश का कोई तुक नहीं। जहां इन बातों का रिवाज चल पड़ा है, वहां उसे बन्द किया जाय। गन्दे रिकार्ड भी लाउडस्पीकर में विवाह में न बजें।
14—विवाह संस्कार प्रभावशाली ढंग से हों—विवाह मण्डप की बढ़िया सजावट, हवन की सुव्यवस्था दोनों पक्ष के नर-नारियों के बैठने योग्य समुचित स्थान, कोलाहल, धुंआ आदि से बचाव, विद्वान पण्डित जो विवाह विधान को व्याख्यापूर्वक समझा सके—इन सब बातों का प्रबन्ध विशेष ध्यान देकर किया जाय।
विवाह संस्कार जैसी दो आत्माओं के आत्म समर्पण की धर्म प्रक्रिया का अत्यन्त महत्व है। उसी के उपलक्ष्य में ही इतना सारा आडम्बर रचा जाता है। खेद है कि संस्कार कराने वाले पण्डितों के अनाड़ीपन तथा घर वालों की उपेक्षा के कारण संस्कार की विधि व्यवस्था भार रूप चिह्न पूजा मात्र रह जाती है जिससे हर कोई जल्दी से जल्दी पिंड छुड़ाना चाहता है। आदर्श विवाहों में यह रूप बदला जाना चाहिये, और सुयोग्य पण्डितों के द्वारा शास्त्रोक्त विधि विधान के साथ ऐसे सुन्दर ढंग से विवाह कराने का प्रबन्ध किया जाय जिसे देखने में सबका मन लगे। मन्त्र की व्याख्या भी ऐसे प्रभावशाली ढंग से हो कि वर-वधू ही नहीं उपस्थित समस्त नर-नारी भी अपने विवाहित जीवन का उद्देश्य और कर्तव्य समझ सकें। इसके लिए आवश्यक प्रबन्ध पहले से ही कर रक्खा जाय।
15—वर कन्या भारतीय पोशाक में हों?—विवाह एक यज्ञ एवं धर्मानुष्ठान है। इसमें सम्मिलित होने के लिए वर-वधू को भारतीय वेष-भूषा में ही रहना चाहिये।
आजकल पढ़े-लिखे लड़के विवाह के समय भी ईसाई पोशाक धारण करके अपनी मानसिक गुलामी का परिचय देते हैं। यह अभागा भारत ही ऐसा है जहां के नवयुवक अपनी भाषा, अपनी संस्कृति तथा अपनी वेष-भूषा को तुच्छ समझकर ईसाई संस्कृति की नकल करने में गौरव समझते हैं। विवाह के समय भी वे पेन्ट, टाई जैसे ईसाई लिवास के लिए ही आग्रह करते हैं। उनकी मानसिक दासता विवाह जैसे धर्म कृत्य में तो इस भोंड़े ढंग से प्रदर्शित न हो तो ही अच्छा है। लड़का धोती कुर्ता पहने। ऊपर से जाकेट या बन्द गले का कोट पहना जा सकता है।
16—सार्वजनिक सत्कार्यों के लिए दान—विवाह के हर्षोत्सव में अपनी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति लोकोपयोगी सार्वजनिक कार्यों के लिए मुक्तहस्त से दान देकर की जाय। विवाहों में दोनों पक्षों को अपने-अपने बड़प्पन की बहुत चिन्ता रहती है। यह दिखाने की कोशिश की जाती रहती है कि हम कितने अमीर और उदार हैं। उसकी एक ठोस कसौटी यह है कि दोनों पक्ष अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार सार्वजनिक सत्कर्मों के लिये उदारता पूर्वक अधिक दान देकर अपने सच्चे बड़प्पन का परिचय दें। 17—प्रीतिभोज कन्या के स्वागत समारोह के रूप में हो—विवाह से एक दिन पहले लड़के के यहां प्रीतिभोज करने का रिवाज है। इसके स्थान पर बारात घर लौट आने पर नवागन्तुक वधू के स्वागत में एक छोटा सम्मान समारोह किया जाय।
विवाह से पूर्व किए गए प्रीतिभोज में जो लोग जाते हैं उनसे शिष्टाचारवश बारात में चलने के लिये कहना पड़ता है और मन में कम व्यक्ति ले जाने की इच्छा होते हुये भी बारात बढ़ जाती है। इसलिए उसे बारात लौटने पर किया जाय। वे वधू को आशीर्वाद देने आवें और उसे कुछ उपहार भी दें। इससे वधू का मान गौरव बढ़ेगा और उसे प्रसन्नता भी होगी। तब उसे बहुत बड़ा न करके संक्षिप्त या स्वल्पाहार तक सीमित करना भी सरल हो जायगा।
18—बारात की संख्या कम ने कम रहे—केवल अत्यन्त आवश्यक एवं निजी व्यक्ति ही बारात में जावें। इसमें कुटुम्बी, रिश्तेदारों या अत्यन्त आवश्यक व्यक्तियों के अतिरिक्त फालतू लोग न हों।
अक्सर बड़े आदमियों या उजले कपड़े वालों को बारात की शोभा बढ़ाने के लिए खुशामदें करके मिन्नत करके ले जाया जाता है। इसमें उनका अहसान होता है, अपना खर्चा पड़ता है और बेटी वाले की परेशानी बढ़ती है। इन सब असुविधाओं का ध्यान रखते हुये, इस अन्न संकट तथा महंगाई के जमाने में बारात की संख्या बढ़ाना सर्वथा अनुचित है। साधारणतया 20-20 आदमी की बारात पर्याप्त होगी। अधिकतम संख्या 51 तक हो सकती है।
19—बारात चढ़ाई सादगी के साथ—बारात चढ़ाने और उसकी शोभा बनाने में ढेरों निरर्थक पैसा बर्बाद होता है और उसका स्वरूप दम्भ, अहंकार एवं नकली अमीरी जैसा उपहासास्पद बन जाता है। इसे बदल कर सादगी एवं सौम्यता बरती जाय।
वर की सवारी घोड़े पर निकले जैसा कि बड़े शहरों में रिवाज है। बारात वर के पीछे पैदल शोभा यात्रा में चलें। गांव और कस्बों में भी यही तरीका उचित है। बारातियों के बैठने के लिये जो सवारियां ली गई हों, उनको इस शोभा यात्रा में न रखा जाय। बाजे में 10 से अधिक व्यक्ति न हों। आतिशबाजी, फूलटट्टी, कागज के घोड़े-हाथी, परियां, लड़की लड़के के ऊपर पैसों की बखेर जैसे बेकार खर्च बिलकुल भी न किये जांय। गोधूलि का विवाह रहने से बारात दिन में ही चढ़ेगी इसलिये रात में ही अच्छी लगने वाली इन बेकार चीजों की जरूरत भी न पड़ेगी। बारात के साथ रोशनी का प्रबन्ध भी न करना पड़ेगा।
20—दावत में अधिक संख्या में मिठाइयां न हों?—खाद्य संकट और चीनी की कमी का ध्यान रखते हुये मिठाइयां न बनाई जांय और बनानी भी हों तो इनकी संख्या दो तीन से अधिक न हो।
अधिक संख्या में मिष्ठान्न पकवान बनाने से उनकी तादाद इतनी हो जाती है कि उन सबको खा सकना सम्भव नहीं होता। फलस्वरूप वे बचती और बर्बाद होती हैं। आज ऐसी बर्बादी का समय नहीं। खाने वालों से अनुरोध किया जाय कि वे उतनी वस्तुयें लें जो खा सकें। परोसने वालों से कहा जाय कि वे प्रेम और आतिथ्य तो दिखाएं पर बर्बादी जरा भी न हो इस कला से परसें। अन्न की बर्बादी को देश-द्रोह समझा जाय। अन्न देवता को जूठन के रूप में तिरस्कृत करना धार्मिक दृष्टि से भी अवांछनीय है। मेहतर को जूठन देने की ‘उदारता’ दर्शाने के स्थान पर उसे और भी अधिक उदारता के साथ अच्छा शुद्ध भोजन देना चाहिये।
उच्छृंखलता एवं अशिष्टता न बरती जाय—हल्दी के थापे लगाना, रंग फेंक कर कपड़े खराब करना, भद्दे मजाक करना जैसे उच्छृंखल अशिष्ट व्यवहार न हों।
देखा जाता है कि विवाहों के अवसर पर उच्छृंखलता और गन्दे मजाकों का वातावरण बन जाता है। यह अवांछनीय है। इस महंगाई के जमाने में कपड़े खराब कर देना, कहीं पर गुलाल, बूरा आदि वस्तुयें मल कर आंखों को हानि पहुंचाने का खतरा उत्पन्न कर देना अनुचित है। महिलायें अश्लील गीत गाकर अपना गौरव ही घटाती हैं और आगन्तुक अतिथियों का मजाक उड़ना धृष्टता है। ऐसी ओछी बातें सभ्य लोगों के लिये अशोभनीय है, जहां ऐसा कुछ प्रचलित हो उसे रोका जाय।
22—बारात कम समय ठहरे—समीप की बारात का एक दिन और दूर की बारात का दो दिन ठहरना पर्याप्त है।
अधिक दिनों बारात रुकने से सभी की असुविधा होती है और तरह-तरह के खर्च बढ़ते हैं। समय और पैसे की बर्बादी होती है इसलिये कम समय ही बारात का रुकना उचित है। 23—नेग अपने-अपने चुकायें—कहीं-कहीं ऐसे रिवाज अभी भी हैं कि लड़की वाले के ‘काम वालों’ के नेग बेटे वाले को चुकाने पड़ते हैं। कुछ नेग बेटी वाले को बेटे वाले के कर्मचारियों के चुकाने पड़ते हैं। यह झंझट बन्द करके दोनों अपने-अपने कर्मचारियों के खर्चे चुकावें।
उपरोक्त प्रकार के हेर-फेर से ‘काम वाले’ या तो असन्तुष्ट रहते हैं या अनुचित लाभ लेते हैं। मनोमालिन्य भी बढ़ता है और देखने में भी यह बात भद्दी लगती हैं। उचित यही है कि उनके परिश्रम का ध्यान रखते नेग या वेतन अपने आप ही चुकाया जाय। दूसरे पक्ष पर उसका भार न डाला जाय।
24—छुट-पुट रस्म रिवाजें संक्षिप्त की जायें—बार-बार छुट-पुट रस्म रिवाजें चलाने में समय और धन की बर्बादी न की जाय।
विवाह पक्का होने से लेकर बारात विदाई होने तक ही नहीं वरन् एक साल तक और रिवाज चलाने पड़ते हैं और उनमें बेकार की चीजें खरीद कर इधर से उधर भेजनी पड़ती हैं। इनका खर्च कई बार विवाह जितना ही आ पहुंचता है। इन बेकार बातों को जितना घटाया जा सकता हो तो अवश्य घटाना चाहिये। विवाह के अवसर पर देन-दहेज देने लेने के अनेक ‘ठिक’ बने हुये हैं। इन्हें कम करके (1) पक्की (वर के घर पर) (2) द्वार स्वागत (लड़की के घर) यह दो ही प्रमुख रखें। विदाई, गोद भरना जैसी शुभ समझे जाने वाले रस्म भी स्थानीय लोकाचार के अनुसार की जा सकती हैं।
हर प्रान्त के सब क्षेत्रों में अपने-अपने ढंग की अगणित प्रकार के अनेकों छुट-पुट रस्म रिवाज हैं। उनमें से कौन-कौन पूरी तरह तुरन्त ही छोड़ देने चाहिये और कौन-कौन किस तरह घटाई जानी चाहिये यह स्थानीय परिस्थितियों को देखकर किया जाय। दृष्टिकोण यही रहे कि जो रूढ़ियां अनावश्यक है उन्हें घटाकर समय और धन की बर्बादी रोकी जाय।