Books - मन को भगवान के साथ जोड़िए
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Language: HINDI
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अपने मन को भगवान के साथ जोड़ दें
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बेटे! आपको क्या करना पड़ेगा? आपको अपने मन को भगवान के साथ, देवता के साथ जोड़ देना पड़ेगा। कल हमने आपको बताया था कि परिशोधन की प्रक्रिया के साथ सारे के सारे विचार उसमें जुड़े हुए हैं। किसमें? जो हम कर्मकाण्ड कराते हैं उसके साथ। कर्मकाण्डों का जादू इतना ही है कि प्रत्येक कर्मकाण्ड के साथ में शिक्षा भरी पड़ी है। वे सारी की सारी शिक्षाएँ आपके हृदयों में गूँजती रहें, दिमागों में चलती रहें। आपके चिंतन 'और विचारों की धारा वहीं बहती रहे, तो मैं समझूँगा कि आपने विचारों का और क्रिया का समन्वय कर दिया। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥
प्रभु की आज्ञा मानें सन्मार्ग पर चलें
हम सब ईश्वर की संतान हैं। परमात्मा ने अनेक प्रकार की सुविधाएँ देकर हमें बड़ा कर दिया। मानव शरीर जैसा बहुमूल्य वाहन, स्वास्थ्य, बुद्धि, विद्या, परिवार, आजीविका, मित्र आदि साधन देकर इस योग्य बना दिया कि संसार में भली प्रकार जीवन निर्वाह कर सकें। उसने हमारी अंतरात्मा में सद्बुद्धि की एक पुकार भी पैदा की है, जिसकी सलाह पर आचरण करने से हमें सदैव सुख और सुविधाएँ ही उपलब्ध होती रह सकती हैं।
हम करते यह हैं कि उस अंतरात्मा की पुकार को पग-पग पर ठुकराते हैं-अनुचित मार्ग अपनाते हैं, अनावश्यक इच्छाएँ करते हैं, अवांछनीय तृष्णाओं और वासनाओं का जंजाल अपने ऊपर लाद लेते हैं, इतना सब करने के बाद, इन गड़बड़ियों के फलस्वरूप जो नाना प्रकार की परेशानियाँ, चिंताएँ, पीड़ाएँ, कमियाँ अनुभव होती हैं इन्हें हमारी मन मरजी के अनुसार हल करने के लिए परमात्मा से आशा करते हैं और जब वह हमारी उलटी गतिविधि, उलटी तृष्णा को पूर्ण नहीं करता तो कभी अपने ऊपर कभी अपने भाग्य के ऊपर, कभी परमात्मा के ऊपर नाराज होते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति इसी प्रकार के जंजालों में उलझे रहते हैं। परमात्मा को पुकारते तो हैं पर अपनी ऊट-पटांग गतिविधि से उत्पन्न भौंड़ी समस्याओं को हमारी तृष्णा और वासना के अनुरूप हल करने के लिए पुकारते हैं। शरीर का बचपन समाप्त हो गया पर मानसिक बचपन नहीं जाता।
माता पिता छोटे बच्चे की टट्टी धोते हुए कुछ संकोच नहीं करते पर यदि जवान बेटा पाखाने में टट्टी न जाकर माता से बचपन की भाँति टट्टी समेटवाने की क्रिया करावे तो माता उसके कार्य को अनुचित ही समझेगी। जब बेटा समर्थ हो गया तो माता की इच्छा, अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए उसे कुछ करना चाहिए था, न कि उलटे उसे उन अनावश्यक बातों के लिए परेशान करना, जिनमें से अधिकांश तो बिलकुल निरर्थक होती हैं और अधिकांश ऐसी होती हैं कि मनुष्य अपनी समझ और कार्यप्रणाली में थोड़ा हेर-फेर कर ले तो उन्हें आसानी से हल कर सकता है। पर उतना कष्ट कौन करे? आत्मनिरीक्षण, अपनी त्रुटियों को ढूँढ़ना, अपने विचारों, आदतों और कार्यों में सुधार करना उस झमेले में पड़ने की बजाय लोग अपनी औंधी इच्छाओं को परमात्मा से पूर्ण करने की मनौती मानते रहते हैं। ऐसे लोगों के प्रति, परमात्मा की मान्यता वैसी ही रहती है, जैसी पिता से टट्टी समेटवाने वाले जवान बेटे के प्रति पिता की रह सकती है। हम भक्ति करते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, पर उसके भीतर जो कुछ छिपा रहता है, वह लगभग इसी श्रेणी का होता है। दयालु पिता कई बार हमारी कुछ आवश्यकताएँ पूर्ण भी कर देते हैं पर उनके मन में हमारे प्रति कोई सद्भाव उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि प्रभु इतना कुछ दे देने के बाद जवान बेटों से तरह-तरह की फरमाइशों की नहीं, वरन अपनी इच्छाओं की पूर्ति की आशा रखते हैं। जैसी कि सभी माता पिता अपनी समर्थ संतान से रखते हैं
परमात्मा हमें मनुष्य का बहुमूल्य शरीर इसलिए प्रदान नहीं करता किं हम अपनी आवश्यकताएँ, लालसाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ बढ़ाते जावें और उनकी पूर्ति के लिए दिन रात परेशान रहने में ही सारा समय लगा दें। मनुष्य जीवन का उद्देश्य यह है कि जीव अपने विवेक को -जाग्रत करके चिरसंचित कुसंस्कारों से अपनी मनोभूमि को शुद्ध करे, भवबंधनों को काटे, दूसरों की सेवा करे और अपने आदर्श चरित्र द्वारा संसार के सामने उदाहरण उपस्थित करके अपनी कीर्ति को अमर करे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न करते हैं, वे ही ईश्वर को प्रिय लगते हैं ओर उन्हीं को वे अपना सच्चा प्रेम, वात्सल्य तथा अनुग्रह प्रदान करते हैं। ऐसा अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही जीवन की सार्थकता है। इस मार्ग पर चलने के लिए मनुष्य को छह कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं। (१) अपनी आवश्यकताएँ कम से कम रखना, (२) अपनी वस्तुओं को ईश्वर की वस्तु समझकर अपने को उनका ट्रस्टी-संरक्षक मात्र समझना, (३) सामने उपस्थित कठिनाइयों से परेशान न होकर उन्हें विवेकपूर्वक सुलझाना, जो न टल सकें उन्हें प्रारब्ध भोग समझकर धैर्यपूर्वक सहना, (४) मन को भगवान में लगाए रखने के लिए भजन, साधन करना, (५) अपने कुविचारों, दुर्गुणों तथा अकर्मों को हटाने तथा घटाने के लिए निरंतर प्रयत्न करना। (६) दूसरों की भलाई के लिए कुछ न कुछ काम ईश्वर की सेवा समझकर नित्य ही करते रहना। जो व्यक्ति इन छह कार्यक्रमों को जितने अंशों में अपनाता है, वह उतना ही भगवान का भक्त है। परमपिता उससे उतना ही प्रसन्न और संतुष्ट रहता है। जिसके कार्य इन छह बातों से जितने ही विपरीत हैं समझना चाहिए कि वह ईश्वर की उतनी ही अवज्ञा कर रहा है और उसका कोपभाजन बन रहा है।
सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करने का अलभ्य अवसर प्राप्त करने के पश्चात सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि अपने आप को भवबंधनों से मुक्त करने के लिए सच्चे हृदय से और पूरी सावधानी के साथ लगा जाए। शरीर को जीवन-यात्रा के प्रयोजनों में और मन को भगवान में लगाए रहे। सत्कर्मों के द्वारा अपना आदर्श उज्ज्वल करना, प्रभु के बगीचे-संसार को अधिक सुरम्य बनाने के लिए निरंतर लोक-सेवा एवं परमार्थ के कार्यों में संलग्न रहना यही जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग है। भगवान हमसे ऐसी ही आशा रखते हैं। वे सब कुछ देकर हमें समर्थ इसलिए बनाते हैं कि हम उनके आदेशों और प्रयोजनों को पूरा करें। तृष्णाओं और वासनाओं को बढ़ाते रहकर नाना प्रकार की कामनाएँ करते रहना ईश्वर को प्रसन्न करने का नहीं नाराज करने का तरीका है।
॥ॐ शान्ति:॥
प्रभु की आज्ञा मानें सन्मार्ग पर चलें
हम सब ईश्वर की संतान हैं। परमात्मा ने अनेक प्रकार की सुविधाएँ देकर हमें बड़ा कर दिया। मानव शरीर जैसा बहुमूल्य वाहन, स्वास्थ्य, बुद्धि, विद्या, परिवार, आजीविका, मित्र आदि साधन देकर इस योग्य बना दिया कि संसार में भली प्रकार जीवन निर्वाह कर सकें। उसने हमारी अंतरात्मा में सद्बुद्धि की एक पुकार भी पैदा की है, जिसकी सलाह पर आचरण करने से हमें सदैव सुख और सुविधाएँ ही उपलब्ध होती रह सकती हैं।
हम करते यह हैं कि उस अंतरात्मा की पुकार को पग-पग पर ठुकराते हैं-अनुचित मार्ग अपनाते हैं, अनावश्यक इच्छाएँ करते हैं, अवांछनीय तृष्णाओं और वासनाओं का जंजाल अपने ऊपर लाद लेते हैं, इतना सब करने के बाद, इन गड़बड़ियों के फलस्वरूप जो नाना प्रकार की परेशानियाँ, चिंताएँ, पीड़ाएँ, कमियाँ अनुभव होती हैं इन्हें हमारी मन मरजी के अनुसार हल करने के लिए परमात्मा से आशा करते हैं और जब वह हमारी उलटी गतिविधि, उलटी तृष्णा को पूर्ण नहीं करता तो कभी अपने ऊपर कभी अपने भाग्य के ऊपर, कभी परमात्मा के ऊपर नाराज होते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति इसी प्रकार के जंजालों में उलझे रहते हैं। परमात्मा को पुकारते तो हैं पर अपनी ऊट-पटांग गतिविधि से उत्पन्न भौंड़ी समस्याओं को हमारी तृष्णा और वासना के अनुरूप हल करने के लिए पुकारते हैं। शरीर का बचपन समाप्त हो गया पर मानसिक बचपन नहीं जाता।
माता पिता छोटे बच्चे की टट्टी धोते हुए कुछ संकोच नहीं करते पर यदि जवान बेटा पाखाने में टट्टी न जाकर माता से बचपन की भाँति टट्टी समेटवाने की क्रिया करावे तो माता उसके कार्य को अनुचित ही समझेगी। जब बेटा समर्थ हो गया तो माता की इच्छा, अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए उसे कुछ करना चाहिए था, न कि उलटे उसे उन अनावश्यक बातों के लिए परेशान करना, जिनमें से अधिकांश तो बिलकुल निरर्थक होती हैं और अधिकांश ऐसी होती हैं कि मनुष्य अपनी समझ और कार्यप्रणाली में थोड़ा हेर-फेर कर ले तो उन्हें आसानी से हल कर सकता है। पर उतना कष्ट कौन करे? आत्मनिरीक्षण, अपनी त्रुटियों को ढूँढ़ना, अपने विचारों, आदतों और कार्यों में सुधार करना उस झमेले में पड़ने की बजाय लोग अपनी औंधी इच्छाओं को परमात्मा से पूर्ण करने की मनौती मानते रहते हैं। ऐसे लोगों के प्रति, परमात्मा की मान्यता वैसी ही रहती है, जैसी पिता से टट्टी समेटवाने वाले जवान बेटे के प्रति पिता की रह सकती है। हम भक्ति करते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, पर उसके भीतर जो कुछ छिपा रहता है, वह लगभग इसी श्रेणी का होता है। दयालु पिता कई बार हमारी कुछ आवश्यकताएँ पूर्ण भी कर देते हैं पर उनके मन में हमारे प्रति कोई सद्भाव उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि प्रभु इतना कुछ दे देने के बाद जवान बेटों से तरह-तरह की फरमाइशों की नहीं, वरन अपनी इच्छाओं की पूर्ति की आशा रखते हैं। जैसी कि सभी माता पिता अपनी समर्थ संतान से रखते हैं
परमात्मा हमें मनुष्य का बहुमूल्य शरीर इसलिए प्रदान नहीं करता किं हम अपनी आवश्यकताएँ, लालसाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ बढ़ाते जावें और उनकी पूर्ति के लिए दिन रात परेशान रहने में ही सारा समय लगा दें। मनुष्य जीवन का उद्देश्य यह है कि जीव अपने विवेक को -जाग्रत करके चिरसंचित कुसंस्कारों से अपनी मनोभूमि को शुद्ध करे, भवबंधनों को काटे, दूसरों की सेवा करे और अपने आदर्श चरित्र द्वारा संसार के सामने उदाहरण उपस्थित करके अपनी कीर्ति को अमर करे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न करते हैं, वे ही ईश्वर को प्रिय लगते हैं ओर उन्हीं को वे अपना सच्चा प्रेम, वात्सल्य तथा अनुग्रह प्रदान करते हैं। ऐसा अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही जीवन की सार्थकता है। इस मार्ग पर चलने के लिए मनुष्य को छह कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं। (१) अपनी आवश्यकताएँ कम से कम रखना, (२) अपनी वस्तुओं को ईश्वर की वस्तु समझकर अपने को उनका ट्रस्टी-संरक्षक मात्र समझना, (३) सामने उपस्थित कठिनाइयों से परेशान न होकर उन्हें विवेकपूर्वक सुलझाना, जो न टल सकें उन्हें प्रारब्ध भोग समझकर धैर्यपूर्वक सहना, (४) मन को भगवान में लगाए रखने के लिए भजन, साधन करना, (५) अपने कुविचारों, दुर्गुणों तथा अकर्मों को हटाने तथा घटाने के लिए निरंतर प्रयत्न करना। (६) दूसरों की भलाई के लिए कुछ न कुछ काम ईश्वर की सेवा समझकर नित्य ही करते रहना। जो व्यक्ति इन छह कार्यक्रमों को जितने अंशों में अपनाता है, वह उतना ही भगवान का भक्त है। परमपिता उससे उतना ही प्रसन्न और संतुष्ट रहता है। जिसके कार्य इन छह बातों से जितने ही विपरीत हैं समझना चाहिए कि वह ईश्वर की उतनी ही अवज्ञा कर रहा है और उसका कोपभाजन बन रहा है।
सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करने का अलभ्य अवसर प्राप्त करने के पश्चात सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि अपने आप को भवबंधनों से मुक्त करने के लिए सच्चे हृदय से और पूरी सावधानी के साथ लगा जाए। शरीर को जीवन-यात्रा के प्रयोजनों में और मन को भगवान में लगाए रहे। सत्कर्मों के द्वारा अपना आदर्श उज्ज्वल करना, प्रभु के बगीचे-संसार को अधिक सुरम्य बनाने के लिए निरंतर लोक-सेवा एवं परमार्थ के कार्यों में संलग्न रहना यही जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग है। भगवान हमसे ऐसी ही आशा रखते हैं। वे सब कुछ देकर हमें समर्थ इसलिए बनाते हैं कि हम उनके आदेशों और प्रयोजनों को पूरा करें। तृष्णाओं और वासनाओं को बढ़ाते रहकर नाना प्रकार की कामनाएँ करते रहना ईश्वर को प्रसन्न करने का नहीं नाराज करने का तरीका है।