Books - प्रज्ञा पुत्रों को इतना तो करना ही है
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Language: HINDI
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समयदान किस लिए?
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समयदान किस प्रयोजन के लिए? इसका उत्तर एक ही है कि प्रचलित दुर्बुद्धि को निरस्त करने और उसके स्थान पर संसार में सद्भावनाओं को अभिवर्धित करने के लिए। दूसरे शब्दों में उसे जन मानस का परिष्कार कहा जा सकता है; विचार क्रान्ति अभियान भी यही है। और भी अधिक स्पष्ट करना हो तो इसी को सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन भी कह सकते हैं। यही अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इन्हीं के पूरा न होने के कारण भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण उभरा है तथा ऐसा वातावरण बन गया है, जिसे दम घोंट देने वाला तथा हाथों को हाथ न सूझने देने वाला कुहासा ही कहा जा सकता है। इन दिनों हर क्षेत्र में इसी विभीषिका का बोलबाला है। समयदानियों को इसी प्रवाह परिवर्तन में अपने समय, श्रम, साहस और साधनों को नियोजित करना है। इसी तथ्य को मान्यता देते हुए अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित करना है। यह नहीं सोचना चाहिए कि अपनी सामर्थ्य स्वल्प है। हर चिनगारी में प्रकारान्तर से वे सभी सम्भावनायें विद्यमान रहती हैं, जो प्रचण्ड ज्वालमाल और दावानल में दिख पड़ती हैं। आत्म बल उभरे तो सामान्य स्तर का मनुष्य भी देवदूतों जैसा असामान्य बन सकता है। इसके प्रमाण में अब तक के असंख्य महामानवों की साक्षियों प्रस्तुत की जा सकती हैं। महान उद्देश्यों के लिए आगे बढ़ने वालों को अनुयायियों और सहयोगियों की कमी नहीं रहती। बुद्ध, गांधी, बिनोवा, शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द आदि के महान संकल्प असफल कहां हुए। उनको साथी सहयोगियों की कमी कहां पड़ी? सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है, इस तथ्य पर हर आस्तिक को विश्वास करना ही चाहिए।
नव सृजन का कार्य इतना अधिक सुविस्तृत है, जिसमें न्यूनतम योग्यता और क्षमता का व्यक्तित्व भी अपने उपयुक्त कार्य उपलब्ध कर सकता है। केवट, शबरी, गीध, गिलहरी की कथाएं यही बताती हैं। रीछ, वानरों और ग्वाल-बालों ने भी सराहनीय श्रेय प्राप्त कर लिया था। अनपढ़ हजारी किसान ने हजार आम के उद्यान लगवाकर अपना नाम अमर कर लिया और अपने कार्य क्षेत्र को हजारी बाग नाम से प्रख्यात कर दिया। पिसनहारी विधवा द्वारा अपने श्रम से जो कुंआ व्रजभूमि में बनवाया गया था, वह अभी भी किसी बड़े तीर्थ से कम भाव श्रद्धा का केन्द्र नहीं बना हुआ है।
समय की सबसे बड़ी मांग विकृत चिन्तन और भ्रष्ट आचरण को उलटकर उसकी जगह मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को पालने की है। यह कार्य अपने निजी जीवन से आरम्भ किया जा सकता है और अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले लोगों को अनुरोध भरे आग्रह एवं तर्क और तथ्यों से भरे विचार विनिमय द्वारा, उस प्रक्रिया को अपनाने के लिए तैयार किया जा सकता है। यों संसार में पथ भ्रष्ट लोगों का ही बाहुल्य है, पर तलाश करने पर ऐसे भी मिल सकते हैं जिनमें श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के बीजांकुर किसी न किसी मात्रा में विद्यमान है। उन्हें समेटा, संजोया, सिखाया और बदला जा सके, तो अमर-बेल की तरह शालीनता और सद्भावना भी सुविस्तृत होने में किसी से पीछे नहीं रह सकती है। इसके लिए स्थूल प्रयासों के साथ-साथ आध्यात्मिक पुरुषार्थ भी किए जाने आवश्यक हैं।
नव सृजन का कार्य इतना अधिक सुविस्तृत है, जिसमें न्यूनतम योग्यता और क्षमता का व्यक्तित्व भी अपने उपयुक्त कार्य उपलब्ध कर सकता है। केवट, शबरी, गीध, गिलहरी की कथाएं यही बताती हैं। रीछ, वानरों और ग्वाल-बालों ने भी सराहनीय श्रेय प्राप्त कर लिया था। अनपढ़ हजारी किसान ने हजार आम के उद्यान लगवाकर अपना नाम अमर कर लिया और अपने कार्य क्षेत्र को हजारी बाग नाम से प्रख्यात कर दिया। पिसनहारी विधवा द्वारा अपने श्रम से जो कुंआ व्रजभूमि में बनवाया गया था, वह अभी भी किसी बड़े तीर्थ से कम भाव श्रद्धा का केन्द्र नहीं बना हुआ है।
समय की सबसे बड़ी मांग विकृत चिन्तन और भ्रष्ट आचरण को उलटकर उसकी जगह मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को पालने की है। यह कार्य अपने निजी जीवन से आरम्भ किया जा सकता है और अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले लोगों को अनुरोध भरे आग्रह एवं तर्क और तथ्यों से भरे विचार विनिमय द्वारा, उस प्रक्रिया को अपनाने के लिए तैयार किया जा सकता है। यों संसार में पथ भ्रष्ट लोगों का ही बाहुल्य है, पर तलाश करने पर ऐसे भी मिल सकते हैं जिनमें श्रद्धा, प्रज्ञा और निष्ठा के बीजांकुर किसी न किसी मात्रा में विद्यमान है। उन्हें समेटा, संजोया, सिखाया और बदला जा सके, तो अमर-बेल की तरह शालीनता और सद्भावना भी सुविस्तृत होने में किसी से पीछे नहीं रह सकती है। इसके लिए स्थूल प्रयासों के साथ-साथ आध्यात्मिक पुरुषार्थ भी किए जाने आवश्यक हैं।