Books - प्रज्ञा पुत्रों को इतना तो करना ही है
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Language: HINDI
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तृतीय कार्यक्रम
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तीसरा कार्यक्रम है—महिला जागरण। आधी जनसंख्या को अबला, कामिनी, कैदी जैसी स्थिति से उबार कर उसे अगले दिनों इस योग्य बनाया जाना है कि वह एक समग्र मनुष्य स्तर की भूमिका निभा सके। शिक्षा, स्वावलम्बन और विवेकशीलता की दृष्टि से उसे समर्थ एवं सुयोग्य बना जाना है। इसके लिए अनेक प्रयास किये जाने हैं, जिनके आधार पर हर घर में गृह-लक्ष्मी का अवतरण संभव हो सके। घरेलू काम-काज सब लोग मिल-जुल कर करने लगें, तो जहां पूरे परिवार को सद्गुणों की शिक्षा मिलेगी, वहां महिलाएं भी थोड़ा अवकाश पाकर अपना, अपने परिवार का और समाज का उत्कर्ष करने में कुछ ऐसा कर सकेंगी, जिसे चमत्कारी कहा जा सके। परिवारों को नर-रत्नों की खदान बनाने के लिए घर-परिवार को शालीनता के वातावरण से ओत-प्रोत होना चाहिए। इस प्रक्रिया को सुविकसित नारी ही कर सकती है। अगले दिनों महान आत्मायें नव सृजन में योग देने के लिए अवतरित होने वाली हैं। वे भी इन प्रगतिशील महिलाओं के आंचल से ही उपजेंगी। समर्थ नारी, समाज और शासन में अपना उचित स्थान प्राप्त करने के उपरान्त इतना कुछ कर सकेंगी, जिसके आधार पर हर क्षेत्र में अनेक गुनी प्रगति हुई देखी जा सके। इक्कीसवीं सदी ‘मातृ शतक’ के नाम से निर्धारित हो चुकी है। उसे प्रत्यक्ष देखने के लिए नारी जागरण की निर्धारित योजना को इन्हीं दिनों कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। उसे शिक्षित, मुखर तथा प्रतिभावान बनाना है, ताकि शासन, समाज और नव निर्माण की अनेकानेक आवश्यकताओं को पूरा कर सके। इस प्रयोजन के लिए हमें सर्व-प्रथम अपने घर की महिलाओं को अग्रिम पंक्ति में खड़े करना चाहिए; ताकि अन्य अनेकों को सहयोग देने, अनुकरण करने के लिए अभीष्ट उत्साह एवं मार्गदर्शन मिल सके।
महिलाओं के पास मध्याह्न में बारह से चार बजे के बीच प्रायः अवकाश रहता है। उसमें शिक्षा संवर्धन, कुटीर उद्योग, परिवार निर्माण, कुरीति निवारण, सर्वतोमुखी महिला विकास की रूप-रेखा आदि विषय पढ़ाए जाने चाहिए। इन परिस्थितियों का प्रबंध सेवा भावी शिक्षित महिलाओं को सौंपा जाय। वे ‘महिला प्रशिक्षण’ की व्यवस्था अधिक अच्छी तरह बिठा सकती हैं।
अवांछनीयता का उन्मूलन भी
विचार क्रान्ति का एक पक्ष है वांछित विचारों-संस्कारों की स्थापना और दूसरा पक्ष है अवांछनीयता का निवारण। इसके लिए असहयोग, विरोध-संघर्ष जैसे सूत्रों का भी उपयोग करना पड़ सकता है। कुछ अवांछनीयताएं, कुरीतियां, मूढ़ मान्यताएं ऐसी हैं जिनके कारण सर्व साधारण का असामान्य अहित होता है। इनके विरोध में वातावरण बनाना चाहिए। समझाने-बुझाने, दुष्परिणामों से अवगत कराने, असहयोग करने, दबाव डालने जैसे अनेक उपाय ऐसे हैं, जिनका आश्रय लेकर दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन का कार्य भी भली प्रकार होता रह सकता है।
नशेबाजी का शिकार होने वालों को अपने शारीरिक स्वास्थ्य— मानसिक संतुलन बिगड़ने, सामाजिक अपमान, आर्थिक अपव्यय परिवार पर बुरा प्रभाव आदि की अनेकानेक हानियां उठानी पड़ती हैं। इनसे व्यक्ति और समाज को जो नुकसान उठाने पड़ते हैं, उन्हें और अनेकों को समय रहते सावधान करके बचाया जा सकता है। उनके स्वास्थ्य, धन और चरित्र की रक्षा की जा सकती है।
धूमधाम वाली शादियों में दहेज, जेवर और बारात, प्रीतिभोज जैसे इतने निरर्थक अपव्यय होते हैं कि इनमें दोनों ही पक्षों का कचूमर निकल जाता है। अर्थव्यवस्था चौपट होती है तथा गरीबी बेईमानी के गर्त में गिरना पड़ता है। संबंधियों के बीच दरार पड़ती है और सुयोग्य जोड़े मिलने में भारी अड़चन उत्पन्न होती है। अस्तु बिना खर्च की शादियों का ही प्रचलन होना चाहिए। शान्तिकुंज में भी ऐसे आदर्श विवाह सम्पन्न होते रहते हैं। अच्छा हो सुयोग्य जोड़े आसानी से ढूंढ़ने के लिए उपजाति की सीमा में ही सीमित रहने की बालहठ छोड़ दी जाय और बड़ी जाति के अन्तर्गत मिली हुई छोटी-छोटी उपजातियों को तो इस सन्दर्भ में एक मान ही लिया जाय।
लड़की वाले तो इस सुधार पर आसानी से सहमत हो जाते हैं, पर लड़के वाले प्रायः लोभ वश नखरे दिखाते हैं। इसमें झूठी शान भी जोड़ते हैं। अस्तु मिशन के प्रभाव क्षेत्र में जितने भी लोग आते हों, कम से कम उनमें से प्रत्येक को ही तो प्रयत्न करना चाहिए कि लड़के पर तो दहेज और धूमधाम का आग्रह किसी भी हालत में न करेंगे। इस प्रकार मुख्य अड़चन दूर हो जाने पर सादगी के विवाहों का प्रचलन चल पड़ने में कोई कठिनाई न रहेगी। बारात में परिवार के दस-पांच लोग ही जाया करें। लौटने पर यदि स्वजनों को स्वल्पाहार कराना आवश्यक जान पड़े तो उतना भर किया जा सकता है।
भाषा, क्षेत्र, प्रान्त, जाति आदि के नाम पर जो विलगाव अपने समाज में पनपा है, उसका भी अन्त होना चाहिए। लोक-मानस में एकता और समता के बीज बोये जाने चाहिए, ताकि हम सब समर्थ राष्ट्र के नागरिक होने का गर्व कर सकें।
मृतक-भोज, पर्दा-प्रथा, जाति-पांति, ऊंच-नीच, बाल-विवाह, भिक्षा-व्यवसाय, भाग्यवाद, कुरीतियों की परम्परा जैसी अनेकों मूढ़मान्यताएं हैं, जिनके बदले जाने की आवश्यकता है। इनको स्वयं तो मान्यता देनी ही नहीं चाहिए, अन्यान्यों को भी इन हठवादियों से निरत होने के लिए समझाया जाना चाहिए। जो कुरीतियों से चिपके हों, उन्हें समर्थन और सहयोग देने की भी भूल नहीं करनी चाहिए।
जिनके जीवन में लोभ, व्यामोह, अहंकार, अपव्यय, आलस्य, कटु भाषण, अनुशासन का उल्लंघन जैसी अनेकों बुराइयां, दृष्टिकोण एवं आचरण में घुसी बैठी होती है, उन्हीं के कारण प्रगति का मार्ग रुका पड़ा रहता है। अस्तु आत्म-परिष्कार के लिए अपने पूर्वाग्रहों से भी संघर्ष करने की आवश्यकता है। सारी सामर्थ्य स्वार्थ-साधन में ही खपा देना, लोक-मंगल के लिए समयदान और अंशदान प्रस्तुत करने के कर्तव्य पालन में बहानेबाजी करना भी ऐसी अदूरदर्शिता है जिसे हर कीमत पर हटाया जाना चाहिए। अपने आप में पूर्ण सामर्थ्य से लड़ते हुए, अर्जुन की तरह आन्तरिक महाभारत जीतने के लिए कमर कसनी चाहिए। सहयोग आवश्यक है। सेवा-धर्म अपनाना भी ठीक है। क्षमा, दया आदि की उपयोगिता से भी इनकार नहीं किया जा सकता; पर साथ ही यह भी गांठ बांध लेनी चाहिए कि अनीति और दुष्टता के साथ मिल-जुलकर संघर्षरत रहने का भी और कोई विकल्प नहीं है।
महिलाओं के पास मध्याह्न में बारह से चार बजे के बीच प्रायः अवकाश रहता है। उसमें शिक्षा संवर्धन, कुटीर उद्योग, परिवार निर्माण, कुरीति निवारण, सर्वतोमुखी महिला विकास की रूप-रेखा आदि विषय पढ़ाए जाने चाहिए। इन परिस्थितियों का प्रबंध सेवा भावी शिक्षित महिलाओं को सौंपा जाय। वे ‘महिला प्रशिक्षण’ की व्यवस्था अधिक अच्छी तरह बिठा सकती हैं।
अवांछनीयता का उन्मूलन भी
विचार क्रान्ति का एक पक्ष है वांछित विचारों-संस्कारों की स्थापना और दूसरा पक्ष है अवांछनीयता का निवारण। इसके लिए असहयोग, विरोध-संघर्ष जैसे सूत्रों का भी उपयोग करना पड़ सकता है। कुछ अवांछनीयताएं, कुरीतियां, मूढ़ मान्यताएं ऐसी हैं जिनके कारण सर्व साधारण का असामान्य अहित होता है। इनके विरोध में वातावरण बनाना चाहिए। समझाने-बुझाने, दुष्परिणामों से अवगत कराने, असहयोग करने, दबाव डालने जैसे अनेक उपाय ऐसे हैं, जिनका आश्रय लेकर दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन का कार्य भी भली प्रकार होता रह सकता है।
नशेबाजी का शिकार होने वालों को अपने शारीरिक स्वास्थ्य— मानसिक संतुलन बिगड़ने, सामाजिक अपमान, आर्थिक अपव्यय परिवार पर बुरा प्रभाव आदि की अनेकानेक हानियां उठानी पड़ती हैं। इनसे व्यक्ति और समाज को जो नुकसान उठाने पड़ते हैं, उन्हें और अनेकों को समय रहते सावधान करके बचाया जा सकता है। उनके स्वास्थ्य, धन और चरित्र की रक्षा की जा सकती है।
धूमधाम वाली शादियों में दहेज, जेवर और बारात, प्रीतिभोज जैसे इतने निरर्थक अपव्यय होते हैं कि इनमें दोनों ही पक्षों का कचूमर निकल जाता है। अर्थव्यवस्था चौपट होती है तथा गरीबी बेईमानी के गर्त में गिरना पड़ता है। संबंधियों के बीच दरार पड़ती है और सुयोग्य जोड़े मिलने में भारी अड़चन उत्पन्न होती है। अस्तु बिना खर्च की शादियों का ही प्रचलन होना चाहिए। शान्तिकुंज में भी ऐसे आदर्श विवाह सम्पन्न होते रहते हैं। अच्छा हो सुयोग्य जोड़े आसानी से ढूंढ़ने के लिए उपजाति की सीमा में ही सीमित रहने की बालहठ छोड़ दी जाय और बड़ी जाति के अन्तर्गत मिली हुई छोटी-छोटी उपजातियों को तो इस सन्दर्भ में एक मान ही लिया जाय।
लड़की वाले तो इस सुधार पर आसानी से सहमत हो जाते हैं, पर लड़के वाले प्रायः लोभ वश नखरे दिखाते हैं। इसमें झूठी शान भी जोड़ते हैं। अस्तु मिशन के प्रभाव क्षेत्र में जितने भी लोग आते हों, कम से कम उनमें से प्रत्येक को ही तो प्रयत्न करना चाहिए कि लड़के पर तो दहेज और धूमधाम का आग्रह किसी भी हालत में न करेंगे। इस प्रकार मुख्य अड़चन दूर हो जाने पर सादगी के विवाहों का प्रचलन चल पड़ने में कोई कठिनाई न रहेगी। बारात में परिवार के दस-पांच लोग ही जाया करें। लौटने पर यदि स्वजनों को स्वल्पाहार कराना आवश्यक जान पड़े तो उतना भर किया जा सकता है।
भाषा, क्षेत्र, प्रान्त, जाति आदि के नाम पर जो विलगाव अपने समाज में पनपा है, उसका भी अन्त होना चाहिए। लोक-मानस में एकता और समता के बीज बोये जाने चाहिए, ताकि हम सब समर्थ राष्ट्र के नागरिक होने का गर्व कर सकें।
मृतक-भोज, पर्दा-प्रथा, जाति-पांति, ऊंच-नीच, बाल-विवाह, भिक्षा-व्यवसाय, भाग्यवाद, कुरीतियों की परम्परा जैसी अनेकों मूढ़मान्यताएं हैं, जिनके बदले जाने की आवश्यकता है। इनको स्वयं तो मान्यता देनी ही नहीं चाहिए, अन्यान्यों को भी इन हठवादियों से निरत होने के लिए समझाया जाना चाहिए। जो कुरीतियों से चिपके हों, उन्हें समर्थन और सहयोग देने की भी भूल नहीं करनी चाहिए।
जिनके जीवन में लोभ, व्यामोह, अहंकार, अपव्यय, आलस्य, कटु भाषण, अनुशासन का उल्लंघन जैसी अनेकों बुराइयां, दृष्टिकोण एवं आचरण में घुसी बैठी होती है, उन्हीं के कारण प्रगति का मार्ग रुका पड़ा रहता है। अस्तु आत्म-परिष्कार के लिए अपने पूर्वाग्रहों से भी संघर्ष करने की आवश्यकता है। सारी सामर्थ्य स्वार्थ-साधन में ही खपा देना, लोक-मंगल के लिए समयदान और अंशदान प्रस्तुत करने के कर्तव्य पालन में बहानेबाजी करना भी ऐसी अदूरदर्शिता है जिसे हर कीमत पर हटाया जाना चाहिए। अपने आप में पूर्ण सामर्थ्य से लड़ते हुए, अर्जुन की तरह आन्तरिक महाभारत जीतने के लिए कमर कसनी चाहिए। सहयोग आवश्यक है। सेवा-धर्म अपनाना भी ठीक है। क्षमा, दया आदि की उपयोगिता से भी इनकार नहीं किया जा सकता; पर साथ ही यह भी गांठ बांध लेनी चाहिए कि अनीति और दुष्टता के साथ मिल-जुलकर संघर्षरत रहने का भी और कोई विकल्प नहीं है।