Books - प्रज्ञा पुत्रों को इतना तो करना ही है
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Language: HINDI
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प्रथम कार्यक्रम
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नव—सृजन के आरंभिक चरण में दीप यज्ञ आयोजनों द्वारा युगान्तरीय चेतना का आलोक घर-घर में पहुंचाने का प्रयत्न किया जा रहा है; साथ ही उसके साथ जुड़े हुए सिद्धान्तों से सर्वसाधारण को उन्हीं की मनःस्थिति के अनुरूप अवगत कराने का प्रबल प्रयत्न किया जा रहा है। इस प्रक्रिया को व्यापक बनाने में गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, नर-नारी सभी का अपने-अपने ढंग का योगदान हो सकता है। अभी हमें इसी प्रक्रिया को प्राथमिकता देते हुए कदम आगे बढ़ाने चाहिए। उपस्थित लोगों में से प्रत्येक से उनकी स्थिति को ध्यान में रखते हुए, कुछ अवांछनीयता छोड़ने और कुछ आदर्शवादी विधेयक व्रत संकल्प लेने के लिए उद्यत किया जाना चाहिए। नशेबाजी, दहेज, आलस्य, अपव्यय मूढ़ मान्यताएं, कुटेवों जैसी अनेक कुप्रथाएं इन दिनों ऐसी हैं, जिन्हें हर हालत में निरस्त किया ही जाना चाहिए। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी की मान्यताएं उभारने के लिए इन दीप यज्ञों के अवसर पर प्रवचन उद्बोधन द्वारा प्रयत्न किये जाने चाहिए। सहगान कीर्तन का समन्वय भी अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में असाधारण रूप से सहायक होता है। इसलिए आयोजनों में उसकी भी अनिवार्यता बनाये रखी गई है।
दीप-यज्ञ की पूर्णाहुति होते-होते स्थानीय प्रतिभावानों में से कुछ का एक संगठन गठित कर दिया जाना चाहिए, जो आगे चल कर साप्ताहिक सत्संगों की श्रृंखला अनवरत रूप से चलाते रहें और नवसृजन की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाते रहें।
युग संधि की अवधि में महापुरश्चरण साधना में प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को भागीदार बने रहने के लिए कहा गया है। इस प्रक्रिया में गायत्री-मंत्र का जप और सूर्य का ध्यान प्रमुख है। इसे नियमित रूप से चलते ही रहना चाहिए।
इसके अतिरिक्त प्रातःकाल उठते ही शान्तिकुंज पहुंचने का ध्यान करना, वहां से सम्पर्क साधना-प्रेरणा प्राप्त करना और अभिनव प्रकाश लेकर वापिस लौटने की मानसिक ध्यान प्रक्रिया को भी संजोए रहना चाहिए। इस उपक्रम को भी सृजन शिल्पियों को आवश्यक नित्य नियम की तरह अपनाए रहना चाहिए।
दीप-यज्ञ की पूर्णाहुति होते-होते स्थानीय प्रतिभावानों में से कुछ का एक संगठन गठित कर दिया जाना चाहिए, जो आगे चल कर साप्ताहिक सत्संगों की श्रृंखला अनवरत रूप से चलाते रहें और नवसृजन की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाते रहें।
युग संधि की अवधि में महापुरश्चरण साधना में प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को भागीदार बने रहने के लिए कहा गया है। इस प्रक्रिया में गायत्री-मंत्र का जप और सूर्य का ध्यान प्रमुख है। इसे नियमित रूप से चलते ही रहना चाहिए।
इसके अतिरिक्त प्रातःकाल उठते ही शान्तिकुंज पहुंचने का ध्यान करना, वहां से सम्पर्क साधना-प्रेरणा प्राप्त करना और अभिनव प्रकाश लेकर वापिस लौटने की मानसिक ध्यान प्रक्रिया को भी संजोए रहना चाहिए। इस उपक्रम को भी सृजन शिल्पियों को आवश्यक नित्य नियम की तरह अपनाए रहना चाहिए।