Books - प्रज्ञा पुत्रों को इतना तो करना ही है
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Language: HINDI
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चतुर्थ कार्यक्रम
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चौथा कार्यक्रम है—तीर्थ यात्रा। यह सदा से धर्म प्रचार की पद यात्रा के रूप में ही सम्पन्न होती रही है। पुण्य फल उसी का है। वाहनों में द्रुतगति से दौड़ लगाना और दर्शन की झांकी तथा डुबकी लगाने की चिह्न पूजा करके लौट आना, मात्र लकीर पीटने जैसी आत्म प्रवंचना है। धर्म प्रचार के लिए परिभ्रमण करना, जन-सम्पर्क साधना और आदर्शों की धर्म-धारणा को व्यापक बनाना, इसी में तीर्थ-यात्रा के पुण्यफल का सच्चा समावेश है। अभी भी कांवर में गंगा जल लेकर पद यात्री इसी प्रयोजन के लिए निकलते हैं। किसी क्षेत्र विशेष की परिक्रमाएं होती रहती हैं। ‘चरैवेति’ का सिद्धान्त इसी प्रयास के साथ जुड़ा हुआ है।
दैनिक तीर्थ-यात्रा के लिए ज्ञान रथ घुमाने की बात सर्वोत्तम है। उसमें युग साहित्य, लाउड स्पीकर, टैपरिकार्डर जैसे उपकरण रहते हैं, जो रास्ते में मिलने वालों को युग संगीत एवं युग-धर्म के प्रेरणा भरे प्रवचन सुनाते चलते हैं। ज्ञान के प्रत्यक्ष देवता—युग साहित्य को देखने, जानने का अवसर मिलता है। झोला पुस्तकालय की पढ़ाने, देने और वापिस लेने की प्रक्रिया भी चलती रहती है। जो चाहते हैं वे कुछ खरीद भी लेते हैं। इस आधार पर नये विचारवानों से सम्पर्क सधता है और युग सृजन के लिए नया क्षेत्र मिलता है। ज्ञानरथ घुमाना एक तरह से चलती-फिरती प्रज्ञापीठ बना लेने जैसा पुण्य कार्य भी है। इसके निर्माण में इतनी ही पूंजी लगती है जिसे आसानी से मध्यम वृत्ति का व्यक्ति वहन कर सकता है। यह व्यवस्था अपने निकटवर्ती गांव मुहल्लों में तो अति सरलतापूर्वक चल ही सकती है।
कुछ और बड़ा क्षेत्र अपनी तीर्थ यात्रा में सम्मिलित करना हो, तो इसके लिए साइकिल-यात्रा द्वारा निकटवर्ती ग्रामों को सीमा-क्षेत्र बनाकर कार्यरत हुआ जा सकता है। एक और साथी मिल सके तो दो सह यात्रियों की तीर्थ-यात्रा और भी मनोरंजक एवं प्रभावशाली बन सकती है। जिन्हें हर रोज निकलने का अवकाश न हो, वे सप्ताह में एक दिन तो इसके लिए निर्धारित कर ही सकते हैं।
यात्रा पथ में पड़ने वाली दीवारों पर आदर्शवाक्य लिखते चलने की रीति नीति अपनानी चाहिए। गेरू या काले रंग में गोंद मिलाकर बांस की कूची या बालों के ब्रुश से यह लिखने का क्रम सरलतापूर्वक चलता रह सकता है। दीवार लेखन के चार प्रमुख आदर्शवाक्य यह हैं— 1. इक्कीसवीं सदी—उज्ज्वल भविष्य। 2. नर और नारी एक समान—जाति वंश सब एक समान। 3. हम बदलेंगे युग बदलेगा—हम सुधरेंगे युग सुधरेगा। 4. नया संसार बनायेंगे—एकता, समता लायेंगे।
कुछ दिन के अभ्यास से उपरोक्त वाक्यों को सुन्दर लिपि में लिखने में सफलता मिल सकती है। इस तीर्थ-यात्रा में अधिक साइकिल यात्री सम्मिलित हो सकें तो और भी अच्छा। उपरोक्त चारों वाक्यों के ‘स्टीकर’ भी बने हुए हैं। उन्हें दरवाजों, दुकानों, दफ्तरों, कारखानों आदि में लगाया जा सकता है। इनका मूल्य किन्हीं उदार व्यक्तियों की सहायता से भी पूरा किया जा सकता है या फिर इन सस्ते स्टीकरों को बेचा भी जा सकता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि हर विचारशील के घर में यह स्टीकर लगे दिखाई दें। बाजारों में कोई दुकान खाली न रहे। मंदिर, धर्म-शालाओं, पार्कों के गेटों पर भी इनको चिपकाया जाय। यह उपक्रम अपनाया जाय तो, दर्शकों के मस्तिष्क में एक नयी हलचल उत्पन्न करने—वाला सिद्ध होता है।
साइकिल यात्री जहां कहीं भी कुछ समय ठहरें, वहां बिगुल आदि बजाकर समीपवर्ती लोगों को एकत्रित कर लें और सहगान-कीर्तन का माहौल खड़ा कर दें। हो सके तो निर्धारित कीर्तन में सन्निहित भावों की संक्षिप्त व्याख्या भी करते चलें। इससे कीर्तन और सत्संग प्रवचन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। यह प्रक्रिया सवेरे घर से निकलने और रात तक लौट आने के क्रम में भी चलती रह सकती है। यदि संभव हो तो एक सप्ताह का भी कार्यक्रम बनाया जा सकता है। पूर्व सूचना भेज देने पर स्थानीय लोगों का सहयोग भी निर्धारित समय पर मिलता रह सकता है। लोग इकट्ठे भी मिल सकते हैं और ठहरने, खाने आदि का सहयोग भी प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं।
सस्ता प्रचार साहित्य भी इस प्रवास में बेचते या वितरित करते चलने की बात भी बन सकती है। विनिर्मित प्रज्ञापीठों को तो अपने पास इस प्रयोजन के लिए दो साइकिलों की निजी व्यवस्था भी रखनी चाहिए। प्रज्ञामंडलों के लिए भी इतना प्रबन्ध कर लेना कुछ कठिन नहीं है। दो साइकिलें अपनी हों तो समयदानियों के माध्यम से नियमित साइकिल यात्रायें चलती रह सकती हैं। उत्साह पैदा होते ही बड़ी संख्या में लोग अपनी साइकिलें लेकर इन यात्रियों में साथ चल पड़ते हैं।
दैनिक तीर्थ-यात्रा के लिए ज्ञान रथ घुमाने की बात सर्वोत्तम है। उसमें युग साहित्य, लाउड स्पीकर, टैपरिकार्डर जैसे उपकरण रहते हैं, जो रास्ते में मिलने वालों को युग संगीत एवं युग-धर्म के प्रेरणा भरे प्रवचन सुनाते चलते हैं। ज्ञान के प्रत्यक्ष देवता—युग साहित्य को देखने, जानने का अवसर मिलता है। झोला पुस्तकालय की पढ़ाने, देने और वापिस लेने की प्रक्रिया भी चलती रहती है। जो चाहते हैं वे कुछ खरीद भी लेते हैं। इस आधार पर नये विचारवानों से सम्पर्क सधता है और युग सृजन के लिए नया क्षेत्र मिलता है। ज्ञानरथ घुमाना एक तरह से चलती-फिरती प्रज्ञापीठ बना लेने जैसा पुण्य कार्य भी है। इसके निर्माण में इतनी ही पूंजी लगती है जिसे आसानी से मध्यम वृत्ति का व्यक्ति वहन कर सकता है। यह व्यवस्था अपने निकटवर्ती गांव मुहल्लों में तो अति सरलतापूर्वक चल ही सकती है।
कुछ और बड़ा क्षेत्र अपनी तीर्थ यात्रा में सम्मिलित करना हो, तो इसके लिए साइकिल-यात्रा द्वारा निकटवर्ती ग्रामों को सीमा-क्षेत्र बनाकर कार्यरत हुआ जा सकता है। एक और साथी मिल सके तो दो सह यात्रियों की तीर्थ-यात्रा और भी मनोरंजक एवं प्रभावशाली बन सकती है। जिन्हें हर रोज निकलने का अवकाश न हो, वे सप्ताह में एक दिन तो इसके लिए निर्धारित कर ही सकते हैं।
यात्रा पथ में पड़ने वाली दीवारों पर आदर्शवाक्य लिखते चलने की रीति नीति अपनानी चाहिए। गेरू या काले रंग में गोंद मिलाकर बांस की कूची या बालों के ब्रुश से यह लिखने का क्रम सरलतापूर्वक चलता रह सकता है। दीवार लेखन के चार प्रमुख आदर्शवाक्य यह हैं— 1. इक्कीसवीं सदी—उज्ज्वल भविष्य। 2. नर और नारी एक समान—जाति वंश सब एक समान। 3. हम बदलेंगे युग बदलेगा—हम सुधरेंगे युग सुधरेगा। 4. नया संसार बनायेंगे—एकता, समता लायेंगे।
कुछ दिन के अभ्यास से उपरोक्त वाक्यों को सुन्दर लिपि में लिखने में सफलता मिल सकती है। इस तीर्थ-यात्रा में अधिक साइकिल यात्री सम्मिलित हो सकें तो और भी अच्छा। उपरोक्त चारों वाक्यों के ‘स्टीकर’ भी बने हुए हैं। उन्हें दरवाजों, दुकानों, दफ्तरों, कारखानों आदि में लगाया जा सकता है। इनका मूल्य किन्हीं उदार व्यक्तियों की सहायता से भी पूरा किया जा सकता है या फिर इन सस्ते स्टीकरों को बेचा भी जा सकता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि हर विचारशील के घर में यह स्टीकर लगे दिखाई दें। बाजारों में कोई दुकान खाली न रहे। मंदिर, धर्म-शालाओं, पार्कों के गेटों पर भी इनको चिपकाया जाय। यह उपक्रम अपनाया जाय तो, दर्शकों के मस्तिष्क में एक नयी हलचल उत्पन्न करने—वाला सिद्ध होता है।
साइकिल यात्री जहां कहीं भी कुछ समय ठहरें, वहां बिगुल आदि बजाकर समीपवर्ती लोगों को एकत्रित कर लें और सहगान-कीर्तन का माहौल खड़ा कर दें। हो सके तो निर्धारित कीर्तन में सन्निहित भावों की संक्षिप्त व्याख्या भी करते चलें। इससे कीर्तन और सत्संग प्रवचन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। यह प्रक्रिया सवेरे घर से निकलने और रात तक लौट आने के क्रम में भी चलती रह सकती है। यदि संभव हो तो एक सप्ताह का भी कार्यक्रम बनाया जा सकता है। पूर्व सूचना भेज देने पर स्थानीय लोगों का सहयोग भी निर्धारित समय पर मिलता रह सकता है। लोग इकट्ठे भी मिल सकते हैं और ठहरने, खाने आदि का सहयोग भी प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं।
सस्ता प्रचार साहित्य भी इस प्रवास में बेचते या वितरित करते चलने की बात भी बन सकती है। विनिर्मित प्रज्ञापीठों को तो अपने पास इस प्रयोजन के लिए दो साइकिलों की निजी व्यवस्था भी रखनी चाहिए। प्रज्ञामंडलों के लिए भी इतना प्रबन्ध कर लेना कुछ कठिन नहीं है। दो साइकिलें अपनी हों तो समयदानियों के माध्यम से नियमित साइकिल यात्रायें चलती रह सकती हैं। उत्साह पैदा होते ही बड़ी संख्या में लोग अपनी साइकिलें लेकर इन यात्रियों में साथ चल पड़ते हैं।