Books - प्रज्ञा पुत्रों को इतना तो करना ही है
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Language: HINDI
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पंचम कार्यक्रम
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पांचवां और अंतिम चरण है—शान्ति कुंज के प्रशिक्षण सत्रों में सम्मिलित होते रहने का नियम बनाना। अपने सम्पर्क क्षेत्र के शिक्षितों और समर्थों को भी इस शिक्षण प्रक्रिया से लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित करते रहना। निवास, भोजन आदि का वहां समुचित प्रबन्ध है। शिक्षण में वे सभी पाठ्यक्रम सम्मिलित हैं, जिनके आधार पर आत्म-परिष्कार, परिवार में सत्प्रवृत्ति संवर्धन और समाज का अभिनव निर्माण जैसी सभी सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति संभव हो सके। इन प्रयासों के आधार पर व्यक्तित्व का निखार और प्रतिभा परिवर्धन का असाधारण लाभ हर किसी को मिलता है।
इक्कीसवीं सदी में लोक व्यवस्था का कायाकल्प जैसा महान परिवर्तन होने जा रहा है। इस ईश्वरीय कार्य में सहयोग देने वाले संसार के महामानवों की तरह विशिष्टता, यशस्विता और गौरव गरिमा एवं आत्मसंतोष का असाधारण लाभ प्राप्त कर सकेंगे। इसलिए आपत्ति काल की तरह निजी लाभों में कटौती करते हुए भी, इस गंगावतरण जैसी प्रक्रिया में भागीदार बनने के लिए हर प्राणवान को साहस जुटाना चाहिए। यह ऐतिहासिक अलभ्य अवसर निकल जाने पर करवट बदलने वाले आलसियों को अपनी अदूरदर्शिता के लिए पछताना ही शेष रह जायेगा।
महाकाल का आमंत्रण स्वीकार करने और युग धर्म के निर्वाह की उमंग आने पर किसे, किस प्रकार क्या करना चाहिए, इसका निर्धारण और प्रशिक्षण इन नौ दिवसीय सत्रों में कम समय होते हुए भी जितना अधिक संभव है, उतना मिल जाता है। हर व्यक्ति की अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति होती है। योग्यता, क्षमता और अनुभव-अभ्यास में भी अन्तर पाया जाता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए इन नौ दिवसीय सत्रों में वह सिखाया जा सकता है, जो उच्चस्तरीय स्वार्थ और परमार्थ को समन्वित कर सके और कम से कम अपने उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में आवश्यक आलोक प्राप्त कर सके। इस सत्र साधना को एक प्रकार से बैटरी चार्ज करा लेने जैसी प्रक्रिया समझा जा सकता है। इनमें सम्मिलित कराने के लिए अपने प्रभाव क्षेत्र में से ढूंढ़-ढूंढ़ कर ऐसे मनस्वी—ओजस्वी, नर—नारियों को तो भेजना ही चाहिए, जो नवयुग के निर्माण में कुछ कर सकने की योग्यता वाले व्यक्तित्व सम्पन्न हों।
दीप यज्ञ आयोजन हर वर्ष, हर गांव मुहल्ले में सन् 2000 तक लगातार होते रहेंगे। इसके लिए मंच संभाल सकने वालों की हजारों की संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। वे न केवल अपने यहां के, वरन् समीपवर्ती अनेकानेक आयोजनों को भी उभारते संजोते, सम्भालते रहें। ऐसे कार्यकर्त्ता अब सभी प्रज्ञा केन्द्रों को अपने-अपने यहां उभारकर, स्वावलम्बी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शान्तिकुंज की प्रचार गाड़ियां हर वर्ष होने वाले लाखों आयोजनों में न पहुंच सकेंगी। अपने अपने क्षेत्र के प्रतिभाशाली नर-नारी ही उस प्रयोजन की पूर्ति कर लिया करेंगे। भविष्य की सम्भावनाओं को देखते हुए अपने यहां से ऐसा नेतृत्व उभारना चाहिए जो शिक्षित, समर्थ, भावनाशील एवं मिशन के कार्यक्रमों से पूर्ण परिचित हों। उन्हें शान्तिकुंज के एक माह वाले सत्रों में से किसी में भेजकर नये उत्तरदायित्व संभालने में सक्षम बना लेना चाहिए।
सुयोग्य होने पर प्रशिक्षण में भाग लेने नर और नारी दोनों ही आ सकते हैं, पर उन्हें छोटे बच्चों तथा अशिक्षित, असमर्थों की मंडली साथ लेकर नहीं आना चाहिए। इससे भीड़ को पर्यटक का मनोरंजन नहीं मिलता और शिक्षार्थियों का मानस तथा समय उस कार्य में नहीं लगता जिसके लिए उन्हें बुलाया गया था। एक महीने के सत्र में मात्र चुने हुए लोग ही बहुत सोच विचार कर भेजने चाहिए; ताकि वे क्षेत्रीय आवश्यकता को पूरा करने का स्तर साथ लेकर वापस लौट सकें।
इन दिनों प्राणवान प्रज्ञापुत्रों को जिन उत्तरदायित्वों के निर्वाह में कटिबद्ध होना है, उनकी चर्चा ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है। पांच चरणों में समूचे क्रिया-कलापों का विभाजन किया गया है।
(1) दीपयज्ञ आयोजन द्वारा गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले नवयुग का संदेश पहुंचाना और प्रगतिशील लोगों को प्रज्ञामंडल के अन्तर्गत गठित करके उनके माध्यम से साप्ताहिक सत्संगों का उपक्रम नियमित रूप से चलाना।
(2) विचार क्रान्ति अभियान— युग चेतना के आलोक से जन-जन को अवगत एवं संबद्ध कराना। इस हेतु समयदान और अंशदान की उदार साहसिकता उभारना। नव निर्माण के अन्तर्गत आने वाले विचारों से जन-जन को, शिक्षितों और अशिक्षितों सभी को प्रभावित करना। इसी योजना के अन्तर्गत झोला पुस्तकालय, ज्ञान-रथ को चलाते रहने के लिए संकल्पपूर्वक कटिबद्ध होना।
(3) नारी जागरण— आधी जनसंख्या को अपंग, अबला और क्रीतदासी की दयनीय दुर्दशा से उबार कर एक पूर्ण मनुष्य स्तर की समर्थता एवं विशेषता से सम्पन्न करना। इसके लिए अपने प्रभाव क्षेत्र की महिलाओं को आगे बढ़ाना और उनमें नारी शिक्षा, स्वावलम्बन जैसे कार्यों में रुचि उत्पन्न करना। व्यक्तित्व विकास, परिवार निर्माण एवं समाज सेवा के कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दे सकने के योग्य बनाना। इसे जनसंख्या के वरिष्ठ अर्धांग को नयी शक्ति के रूप में उभरने विकसित होने का अवसर देना भी कहा जा सकता है।
(4) तीर्थयात्रा। जन सम्पर्क साधने और उस परिकर में मानवी गरिमा के अनुरूप श्रद्धा उभारने का प्रबल प्रचलन करना। इस प्रयोजन के लिए ज्ञानरथ घुमाना—पदयात्रा या साइकिल यात्रा के रूप में प्रवास के लिए परिव्राजक रूप में निकालना। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना, सहगान के माध्यम से नव सृजन के सिद्धान्तों को उपस्थित जनों के गले उतारना। विचारशीलों के घरों में आदर्श वाक्यों के स्टीकर चिपकाने— जैसे अनेक कार्यक्रम इस उद्देश्यपूर्ण तीर्थयात्रा के प्रमुख कार्यक्रम हैं।
(5) शान्तिकुंज में सदा चलते रहने वाले नौ दिवसीय एवं एक माह सत्रों से युग सृजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने की योग्यता प्राप्त करना। इस हेतु क्षेत्र के प्रतिभाशाली नर-नारियों को उत्साहित करके लाभान्वित कराना। सत्रों की स्वीकृति मिलने पर ही चलने की तैयारी करनी चाहिए। बिना स्वीकृति के किसी को भी नहीं आना चाहिए।
उपरोक्त पंचसूत्री योजना को सफल बनाने के लिए हर प्राणवान प्रज्ञापुत्र को विशेष रूप से आमंत्रण और उत्साहित किया जा रहा है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि इस जानकारी को सीमित न रख कर अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले सभी विचारशीलों को अवगत कराया जाय और उनके साथ सम्पर्क जारी रखा जाय, जिसके प्रभाव से वे भी युगसृजन की भागीदारी में यथास्थिति सम्मिलित होने की मनःस्थिति तक पहुंच सकें।
इक्कीसवीं सदी में लोक व्यवस्था का कायाकल्प जैसा महान परिवर्तन होने जा रहा है। इस ईश्वरीय कार्य में सहयोग देने वाले संसार के महामानवों की तरह विशिष्टता, यशस्विता और गौरव गरिमा एवं आत्मसंतोष का असाधारण लाभ प्राप्त कर सकेंगे। इसलिए आपत्ति काल की तरह निजी लाभों में कटौती करते हुए भी, इस गंगावतरण जैसी प्रक्रिया में भागीदार बनने के लिए हर प्राणवान को साहस जुटाना चाहिए। यह ऐतिहासिक अलभ्य अवसर निकल जाने पर करवट बदलने वाले आलसियों को अपनी अदूरदर्शिता के लिए पछताना ही शेष रह जायेगा।
महाकाल का आमंत्रण स्वीकार करने और युग धर्म के निर्वाह की उमंग आने पर किसे, किस प्रकार क्या करना चाहिए, इसका निर्धारण और प्रशिक्षण इन नौ दिवसीय सत्रों में कम समय होते हुए भी जितना अधिक संभव है, उतना मिल जाता है। हर व्यक्ति की अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति होती है। योग्यता, क्षमता और अनुभव-अभ्यास में भी अन्तर पाया जाता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए इन नौ दिवसीय सत्रों में वह सिखाया जा सकता है, जो उच्चस्तरीय स्वार्थ और परमार्थ को समन्वित कर सके और कम से कम अपने उज्ज्वल भविष्य के निर्धारण में आवश्यक आलोक प्राप्त कर सके। इस सत्र साधना को एक प्रकार से बैटरी चार्ज करा लेने जैसी प्रक्रिया समझा जा सकता है। इनमें सम्मिलित कराने के लिए अपने प्रभाव क्षेत्र में से ढूंढ़-ढूंढ़ कर ऐसे मनस्वी—ओजस्वी, नर—नारियों को तो भेजना ही चाहिए, जो नवयुग के निर्माण में कुछ कर सकने की योग्यता वाले व्यक्तित्व सम्पन्न हों।
दीप यज्ञ आयोजन हर वर्ष, हर गांव मुहल्ले में सन् 2000 तक लगातार होते रहेंगे। इसके लिए मंच संभाल सकने वालों की हजारों की संख्या में आवश्यकता पड़ेगी। वे न केवल अपने यहां के, वरन् समीपवर्ती अनेकानेक आयोजनों को भी उभारते संजोते, सम्भालते रहें। ऐसे कार्यकर्त्ता अब सभी प्रज्ञा केन्द्रों को अपने-अपने यहां उभारकर, स्वावलम्बी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। शान्तिकुंज की प्रचार गाड़ियां हर वर्ष होने वाले लाखों आयोजनों में न पहुंच सकेंगी। अपने अपने क्षेत्र के प्रतिभाशाली नर-नारी ही उस प्रयोजन की पूर्ति कर लिया करेंगे। भविष्य की सम्भावनाओं को देखते हुए अपने यहां से ऐसा नेतृत्व उभारना चाहिए जो शिक्षित, समर्थ, भावनाशील एवं मिशन के कार्यक्रमों से पूर्ण परिचित हों। उन्हें शान्तिकुंज के एक माह वाले सत्रों में से किसी में भेजकर नये उत्तरदायित्व संभालने में सक्षम बना लेना चाहिए।
सुयोग्य होने पर प्रशिक्षण में भाग लेने नर और नारी दोनों ही आ सकते हैं, पर उन्हें छोटे बच्चों तथा अशिक्षित, असमर्थों की मंडली साथ लेकर नहीं आना चाहिए। इससे भीड़ को पर्यटक का मनोरंजन नहीं मिलता और शिक्षार्थियों का मानस तथा समय उस कार्य में नहीं लगता जिसके लिए उन्हें बुलाया गया था। एक महीने के सत्र में मात्र चुने हुए लोग ही बहुत सोच विचार कर भेजने चाहिए; ताकि वे क्षेत्रीय आवश्यकता को पूरा करने का स्तर साथ लेकर वापस लौट सकें।
इन दिनों प्राणवान प्रज्ञापुत्रों को जिन उत्तरदायित्वों के निर्वाह में कटिबद्ध होना है, उनकी चर्चा ऊपर की पंक्तियों में की जा चुकी है। पांच चरणों में समूचे क्रिया-कलापों का विभाजन किया गया है।
(1) दीपयज्ञ आयोजन द्वारा गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले नवयुग का संदेश पहुंचाना और प्रगतिशील लोगों को प्रज्ञामंडल के अन्तर्गत गठित करके उनके माध्यम से साप्ताहिक सत्संगों का उपक्रम नियमित रूप से चलाना।
(2) विचार क्रान्ति अभियान— युग चेतना के आलोक से जन-जन को अवगत एवं संबद्ध कराना। इस हेतु समयदान और अंशदान की उदार साहसिकता उभारना। नव निर्माण के अन्तर्गत आने वाले विचारों से जन-जन को, शिक्षितों और अशिक्षितों सभी को प्रभावित करना। इसी योजना के अन्तर्गत झोला पुस्तकालय, ज्ञान-रथ को चलाते रहने के लिए संकल्पपूर्वक कटिबद्ध होना।
(3) नारी जागरण— आधी जनसंख्या को अपंग, अबला और क्रीतदासी की दयनीय दुर्दशा से उबार कर एक पूर्ण मनुष्य स्तर की समर्थता एवं विशेषता से सम्पन्न करना। इसके लिए अपने प्रभाव क्षेत्र की महिलाओं को आगे बढ़ाना और उनमें नारी शिक्षा, स्वावलम्बन जैसे कार्यों में रुचि उत्पन्न करना। व्यक्तित्व विकास, परिवार निर्माण एवं समाज सेवा के कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दे सकने के योग्य बनाना। इसे जनसंख्या के वरिष्ठ अर्धांग को नयी शक्ति के रूप में उभरने विकसित होने का अवसर देना भी कहा जा सकता है।
(4) तीर्थयात्रा। जन सम्पर्क साधने और उस परिकर में मानवी गरिमा के अनुरूप श्रद्धा उभारने का प्रबल प्रचलन करना। इस प्रयोजन के लिए ज्ञानरथ घुमाना—पदयात्रा या साइकिल यात्रा के रूप में प्रवास के लिए परिव्राजक रूप में निकालना। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना, सहगान के माध्यम से नव सृजन के सिद्धान्तों को उपस्थित जनों के गले उतारना। विचारशीलों के घरों में आदर्श वाक्यों के स्टीकर चिपकाने— जैसे अनेक कार्यक्रम इस उद्देश्यपूर्ण तीर्थयात्रा के प्रमुख कार्यक्रम हैं।
(5) शान्तिकुंज में सदा चलते रहने वाले नौ दिवसीय एवं एक माह सत्रों से युग सृजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने की योग्यता प्राप्त करना। इस हेतु क्षेत्र के प्रतिभाशाली नर-नारियों को उत्साहित करके लाभान्वित कराना। सत्रों की स्वीकृति मिलने पर ही चलने की तैयारी करनी चाहिए। बिना स्वीकृति के किसी को भी नहीं आना चाहिए।
उपरोक्त पंचसूत्री योजना को सफल बनाने के लिए हर प्राणवान प्रज्ञापुत्र को विशेष रूप से आमंत्रण और उत्साहित किया जा रहा है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि इस जानकारी को सीमित न रख कर अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले सभी विचारशीलों को अवगत कराया जाय और उनके साथ सम्पर्क जारी रखा जाय, जिसके प्रभाव से वे भी युगसृजन की भागीदारी में यथास्थिति सम्मिलित होने की मनःस्थिति तक पहुंच सकें।