Books - प्रज्ञा पुत्रों को इतना तो करना ही है
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
महान लक्ष्य—तीव्रतर गति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
एक से पांच, पांच से पच्चीस, पच्चीस से छः सौ पच्चीस जैसी पांच कदम आगे बढ़ने की प्रक्रिया अपना कर, अपने ही परिकर को भारत की 80 करोड़ जनता और संसार की प्रायः 600 करोड़ जनसंख्या के सम्पर्क तक पहुंचाना। इस प्रकार समयानुसार विस्तार प्रक्रिया के द्वारा, उन सबके अन्तःकरण अवचेतना की स्थिति से उबारना संभव होगा, ऐसी आशा अपेक्षा रखनी चाहिए। यह अभियान शान्तिकुंज से आरम्भ भर हुआ है; पर उसका विस्तार तो देशव्यापी—विश्वव्यापी होकर रहेगा। सभी को उसी प्रवाह के अनुरूप गतिविधियां गतिशील करने के लिए प्रबल प्रयास करना है। इसके लिए इतना और भी आवश्यक होगा कि प्रस्तुत अभियान को सभी भाषा भाषियों के क्षेत्र में प्रवेश करा सकने वाले साधन जुटाने की तैयारियां अभी से आरम्भ की जायें। उस संकल्प पूर्ति के लिए अपने क्षेत्र में अपनी ओर से जो कुछ कर सकना संभव हो उसे पूरी शक्ति से सम्पन्न करें।
भाषायी विभाजनों में बंटी हुई दुनिया एक प्रकार से अधिकांशतः दो पाटों के भीतर बंटी हुई घिरी बैठी है। प्रस्तुत अभियान विश्वव्यापी है। उसे व्यापक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हर भाषायी क्षेत्र से प्रज्ञापुत्र निकलें और उस कठिनाई का समाधान करें जो मिशन को व्यापक बनाने में प्रमुख रूप से बाधक बन रही हैं।
युग सृजन साहित्य प्रधानतया हिन्दी में ही छपा है। अन्य भाषाओं में उसके थोड़े से अनुवाद हुए हैं। समय की आवश्यकता है कि जो कुछ महत्वपूर्ण सृजा और लिखा गया है, उस समूची विचारधारा को हर भाषायी क्षेत्र में प्रवेश पाने का अवसर मिले। इसमें पूंजी, योग्यता और प्रतिभा तीनों की ही आवश्यकता पड़ेगी। इसे जुटाना भी उन्हीं का कर्तव्य है जो गाड़ी को धकेलकर यहां तक ले आये हैं। उन्हें ही अपने साथियों समेत जुट कर अभीष्ट लक्ष्य के उच्च शिखर तक पहुंचाना है।
विचार परिष्कार के लिए इन दिनों दृश्य और श्रव्य के रूप में युग चेतना को सुविस्तृत करने की भी महत्ती आवश्यकता है। इसके लिए वीडियो और टैप रिकॉर्डर का माध्यम ऐसा है जिसे मध्यम वृत्ति के लोग भी चला सकते हैं। फिल्में यों आज की स्थिति में भाव प्रेरणा का सशक्त माध्यम है; पर उसके लिए आवश्यक पूंजी और प्रतिभा के आगे आने में देर लग सकती है। तब तक की प्रतीक्षा न कर के हमें वीडियो और टेपरिकॉर्डर से ही प्रचार मंडलों का काम लेना चाहिए।
संसार अनेक समस्याओं से घिरा है। वे अपने समाधान चाहती है। नव सृजन की समानान्तर भावी आवश्यकताओं तथा उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक मार्गदर्शनों की सामयिक व्यवस्था किये जाते रहना निरन्तर अभीष्ट रहेगा। इस प्रयोजन की पूर्ति का मध्य बिन्दु अभी हिन्दी भाषा में छपने वाली मासिक पत्रिका ‘‘अखण्ड ज्योति’’ ही है, जो शान्तिकुंज से लिखी जाती और मथुरा में छपती है। इसे पढ़ने और पढ़ाने वाले इतनी अधिक संख्या में होने चाहिए कि वे अपने-अपने सम्पर्क एवम् प्रभाव क्षेत्र को प्रस्तुत निर्धारणों से निरन्तर अवगत कराते रह सकें। इसे प्रकाश की प्रेरणा उभारने वाले तंत्र की निरन्तर निःसृत होने वाली वाणी कहा जा सकता है। इसके पाठक इतने होने चाहिए जिसका आंकलन वर्तमान में कुछ लाख तक की सीमा में सीमित न रहे; वरन् वह करोड़ तक पहुंचे। संसार में अनेक पत्रिकायें इतनी संख्या में प्रकाशित भी हो रही हैं। अखण्ड-ज्योति के पाठक हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी इक्कीसवीं सदी तक इक्कीस लाख तक जा पहुंचे तो उसे न तो अत्युक्ति मानना चाहिए और न असंभव कल्पना कहना चाहिए। आवश्यकता इतनी भर है कि वर्तमान पाठक यदि सचमुच उसे पसंद करते हैं, तो हर साल नये चार ग्राहक बढ़ाकर, एक से पांच बनाने की योजना में अपनी सक्रिय भागीदारी के अनुबंध का निर्वाह कर दिया करें।
जहां दीपयज्ञों, झोला पुस्तकालयों आदि के माध्यम से युग-चेतना का प्रवाह द्रुतगामी बनाया जा रहा है, वहां उसी की एक कड़ी यह भी होनी चाहिए कि अखण्ड ज्योति का हर सदस्य अपने नाम पहुंचने वाली पत्रिका को दस अन्यों को पढ़ाते रहा करें। इस प्रकार एक साल पढ़ाते रहने के बाद, उनमें से पांच की श्रद्धा को इतनी विकसित कर लिया करें कि उसे स्वयं सदस्य बनने की आवश्यकता अनुभव होने लगे। मिशन की विचारधारा और कार्यपद्धति का प्रधानतया इसी माध्यम से इतना विस्तार हो सका है। आगे भी इस माध्यम को और भी अधिक समर्थ बनाना, प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना, समय की मांग को पूरी करना है।
बड़े कार्यों के लिए बड़े साधन ही नहीं बड़े व्यक्तित्व भी चाहिए। बड़ी प्रतिभायें प्रायः बड़े सरंजाम जुटाती और बड़ी आवश्यकताओं को पूरी करने में समर्थ होती रही हैं। अपने समय की यों सर्वोपरि शक्ति शासन सत्ता की मानी जाती है, पर उस एक को ही सर्वांगपूर्ण, सर्व-समर्थ नहीं मान लेना चाहिए। कोई अन्य वर्ग भी हैं जो जन मानस को आन्दोलित करने में समर्थता सिद्ध करते रहे हैं। इन प्रतिभा क्षेत्रों का सम्बन्ध युग सृजन मिशन के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ सके, इस चेष्टा से भी उदासीन नहीं रहना चाहिए।
1. साहित्यकार, 2. कलाकार, 3. सम्पत्तिवान, 4. मनीषी, 5. संगठन कर्ता एवम् प्रवक्ता; यह पांचों भी ऐसे वर्ग हैं जिन्हें अपने समय की प्रमुख शक्तियों में गिना जा सकता है। यों उपरोक्त पांच प्रचंड धाराओं ने अपने-अपने क्षेत्र में आश्चर्यजनक सफलतायें पायी हैं, पर उन्हें समय की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता के साथ जोड़ा नहीं जा सका। अब इस निमित्त भी प्रयासों में शिथिलता नहीं रहने देनी चाहिए? जिनकी पहुंच इन वर्गों में हो, उन्हें समय की आवश्यकता से अवगत कराना और सहयोग हेतु कुछ कदम बढ़ाने के लिए सहमत कराना चाहिए।
शासकों के पास यों शक्ति की कमी नहीं, पर उसका नियोजन प्रायः सुरक्षा व्यवस्था और सम्पन्नता जैसे कुछ थोड़े ही संदर्भों तक सीमित होकर रह गया है। उसे अनुभव, अभ्यास और रुझान भी प्रायः इसी स्तर का उपलब्ध है। इसलिए युग परिवर्तन जैसी चेतनात्मक योजनाओं को सफल बनाने की प्रधानतया युग मनीषियों की ही जिम्मेदारी है। यों सहयोग तो इस पुण्य प्रयोजन में किसी का भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
भाषायी विभाजनों में बंटी हुई दुनिया एक प्रकार से अधिकांशतः दो पाटों के भीतर बंटी हुई घिरी बैठी है। प्रस्तुत अभियान विश्वव्यापी है। उसे व्यापक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हर भाषायी क्षेत्र से प्रज्ञापुत्र निकलें और उस कठिनाई का समाधान करें जो मिशन को व्यापक बनाने में प्रमुख रूप से बाधक बन रही हैं।
युग सृजन साहित्य प्रधानतया हिन्दी में ही छपा है। अन्य भाषाओं में उसके थोड़े से अनुवाद हुए हैं। समय की आवश्यकता है कि जो कुछ महत्वपूर्ण सृजा और लिखा गया है, उस समूची विचारधारा को हर भाषायी क्षेत्र में प्रवेश पाने का अवसर मिले। इसमें पूंजी, योग्यता और प्रतिभा तीनों की ही आवश्यकता पड़ेगी। इसे जुटाना भी उन्हीं का कर्तव्य है जो गाड़ी को धकेलकर यहां तक ले आये हैं। उन्हें ही अपने साथियों समेत जुट कर अभीष्ट लक्ष्य के उच्च शिखर तक पहुंचाना है।
विचार परिष्कार के लिए इन दिनों दृश्य और श्रव्य के रूप में युग चेतना को सुविस्तृत करने की भी महत्ती आवश्यकता है। इसके लिए वीडियो और टैप रिकॉर्डर का माध्यम ऐसा है जिसे मध्यम वृत्ति के लोग भी चला सकते हैं। फिल्में यों आज की स्थिति में भाव प्रेरणा का सशक्त माध्यम है; पर उसके लिए आवश्यक पूंजी और प्रतिभा के आगे आने में देर लग सकती है। तब तक की प्रतीक्षा न कर के हमें वीडियो और टेपरिकॉर्डर से ही प्रचार मंडलों का काम लेना चाहिए।
संसार अनेक समस्याओं से घिरा है। वे अपने समाधान चाहती है। नव सृजन की समानान्तर भावी आवश्यकताओं तथा उनकी पूर्ति के लिए आवश्यक मार्गदर्शनों की सामयिक व्यवस्था किये जाते रहना निरन्तर अभीष्ट रहेगा। इस प्रयोजन की पूर्ति का मध्य बिन्दु अभी हिन्दी भाषा में छपने वाली मासिक पत्रिका ‘‘अखण्ड ज्योति’’ ही है, जो शान्तिकुंज से लिखी जाती और मथुरा में छपती है। इसे पढ़ने और पढ़ाने वाले इतनी अधिक संख्या में होने चाहिए कि वे अपने-अपने सम्पर्क एवम् प्रभाव क्षेत्र को प्रस्तुत निर्धारणों से निरन्तर अवगत कराते रह सकें। इसे प्रकाश की प्रेरणा उभारने वाले तंत्र की निरन्तर निःसृत होने वाली वाणी कहा जा सकता है। इसके पाठक इतने होने चाहिए जिसका आंकलन वर्तमान में कुछ लाख तक की सीमा में सीमित न रहे; वरन् वह करोड़ तक पहुंचे। संसार में अनेक पत्रिकायें इतनी संख्या में प्रकाशित भी हो रही हैं। अखण्ड-ज्योति के पाठक हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी इक्कीसवीं सदी तक इक्कीस लाख तक जा पहुंचे तो उसे न तो अत्युक्ति मानना चाहिए और न असंभव कल्पना कहना चाहिए। आवश्यकता इतनी भर है कि वर्तमान पाठक यदि सचमुच उसे पसंद करते हैं, तो हर साल नये चार ग्राहक बढ़ाकर, एक से पांच बनाने की योजना में अपनी सक्रिय भागीदारी के अनुबंध का निर्वाह कर दिया करें।
जहां दीपयज्ञों, झोला पुस्तकालयों आदि के माध्यम से युग-चेतना का प्रवाह द्रुतगामी बनाया जा रहा है, वहां उसी की एक कड़ी यह भी होनी चाहिए कि अखण्ड ज्योति का हर सदस्य अपने नाम पहुंचने वाली पत्रिका को दस अन्यों को पढ़ाते रहा करें। इस प्रकार एक साल पढ़ाते रहने के बाद, उनमें से पांच की श्रद्धा को इतनी विकसित कर लिया करें कि उसे स्वयं सदस्य बनने की आवश्यकता अनुभव होने लगे। मिशन की विचारधारा और कार्यपद्धति का प्रधानतया इसी माध्यम से इतना विस्तार हो सका है। आगे भी इस माध्यम को और भी अधिक समर्थ बनाना, प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना, समय की मांग को पूरी करना है।
बड़े कार्यों के लिए बड़े साधन ही नहीं बड़े व्यक्तित्व भी चाहिए। बड़ी प्रतिभायें प्रायः बड़े सरंजाम जुटाती और बड़ी आवश्यकताओं को पूरी करने में समर्थ होती रही हैं। अपने समय की यों सर्वोपरि शक्ति शासन सत्ता की मानी जाती है, पर उस एक को ही सर्वांगपूर्ण, सर्व-समर्थ नहीं मान लेना चाहिए। कोई अन्य वर्ग भी हैं जो जन मानस को आन्दोलित करने में समर्थता सिद्ध करते रहे हैं। इन प्रतिभा क्षेत्रों का सम्बन्ध युग सृजन मिशन के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ सके, इस चेष्टा से भी उदासीन नहीं रहना चाहिए।
1. साहित्यकार, 2. कलाकार, 3. सम्पत्तिवान, 4. मनीषी, 5. संगठन कर्ता एवम् प्रवक्ता; यह पांचों भी ऐसे वर्ग हैं जिन्हें अपने समय की प्रमुख शक्तियों में गिना जा सकता है। यों उपरोक्त पांच प्रचंड धाराओं ने अपने-अपने क्षेत्र में आश्चर्यजनक सफलतायें पायी हैं, पर उन्हें समय की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता के साथ जोड़ा नहीं जा सका। अब इस निमित्त भी प्रयासों में शिथिलता नहीं रहने देनी चाहिए? जिनकी पहुंच इन वर्गों में हो, उन्हें समय की आवश्यकता से अवगत कराना और सहयोग हेतु कुछ कदम बढ़ाने के लिए सहमत कराना चाहिए।
शासकों के पास यों शक्ति की कमी नहीं, पर उसका नियोजन प्रायः सुरक्षा व्यवस्था और सम्पन्नता जैसे कुछ थोड़े ही संदर्भों तक सीमित होकर रह गया है। उसे अनुभव, अभ्यास और रुझान भी प्रायः इसी स्तर का उपलब्ध है। इसलिए युग परिवर्तन जैसी चेतनात्मक योजनाओं को सफल बनाने की प्रधानतया युग मनीषियों की ही जिम्मेदारी है। यों सहयोग तो इस पुण्य प्रयोजन में किसी का भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।