Books - सुख-शांति की साधना
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Language: HINDI
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दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप
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इस अद्भुत संसार में विभिन्न प्रवृत्तियों तथा मनोदशाओं के लोग पाये जाते हैं। एक ही स्थिति, परिस्थिति तथा दशा वाले अनेक लोगों में से कोई अत्यधिक दुःखी और व्यग्र देखे जा सकते हैं और अनेक यथासम्भव प्रसन्न तथा संतुष्ट।
निःसन्देह, ऐसे व्यक्ति विचित्र होने के साथ दयनीय भी कम नहीं होते, जो हर समय दुःखी और क्लान्त ही बने रहते हैं। मिलते ही दुःखों, कष्टों तथा कठिनाइयों का रोना लेकर बैठ जाते हैं। आय कम है, खर्चा पूरा नहीं होता, बीवी बच्चे स्वस्थ ही नहीं रहते, दफ्तर में तनाव बना रहता है, तरक्की के चांस आते ही नहीं या आकर निकल जाते हैं, कोई लाभ ही नहीं होता, बेचारे ऑफिसर के अन्याय, रोष अथवा पक्षपात के शिकार बने हुये हैं—इस प्रकार की व्यक्तिगत और समय बहुत खराब आ गया है, संसार विनाश के मुख पर खड़ा है, भ्रष्टाचार चरम-सीमा पर जा पहुंचा है, मानव जाति का भविष्य खतरे में है, समाज बहुत दूषित हो चुका है, सुधार की सम्भावनायें क्षीण हो गई हैं, बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति हानि के सिवाय लाभ तो कर ही नहीं सकती, किसी समय भी युद्ध हो सकता है, मनुष्य का घोर-पतन हो गया है, सदाचार तथा सज्जनता तो कहीं दीखती ही नहीं, मर्यादा और अनुशासन जैसी कोई वस्तु ही नहीं रह गई है—आदि जगबीती सुनाते रहते हैं। उनकी व्यथा-कथा सुनने से ऐसा पता चलता है, मानो संसार के सारे दुःख सारी चिन्तायें इन्हीं बेचारों के भाग्य में भर दी गई हैं। संसार में इन जैसा कष्ट-ग्रस्त दूसरा कोई न होगा।
विचार करने की बात है कि जिस मनुष्य के मत्थे, इतनी मुसीबतें तथा चिन्तायें हों, क्या वह सामान्य मनोदशा में संसार के सारे कार्य तथा व्यापार करता रह सकता है। किसी एक वास्तविक चिन्ता के मारे तो मनुष्य का खाना-पीना, सोना-जागना हराम हो जाता है और जब तक वह उससे मुक्ति नहीं पा लेता, चैन की सांस नहीं लेता। परिश्रम और प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है। तब इतनी चिन्ताओं वाले जीवन की गाड़ी ढकेलता हुआ सामान्य गति से चलता रह सकता है—ऐसी आशा नहीं की जा सकती। ऐसे व्यक्ति की केवल दो ही दशायें सम्भव हो सकती हैं—या तो उसे विक्षिप्त हो जाना चाहिये अथवा कोई महान् पुरुष। किन्तु वह इनमें से कुछ नहीं होता। एक सामान्य सा दुःखी तथा क्लान्त व्यक्ति ही बना रहता है।
बात दर असल यह होती है कि ऐसे व्यक्ति सामान्यतः दूषित दृष्टिकोण के रोगी होते हैं। निषेधात्मक दृष्टि तथा नकारात्मक मनोवृत्ति के कारण उन्हें संसार की हर बात और हर वस्तु दोषपूर्ण दिखाई देती है। जिस प्रकार जिस रंग का चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया जाता है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी रंग की दिखाई देने लगती है। जब कि वह वास्तव में उस रंग की होती नहीं। यही दशा इस प्रकार के लोगों की होती है। दोष-दृष्टि होने से उन्हें दोष के सिवाय किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में कोई अच्छाई ही नहीं दिखलाई देती। जब कि संसार में केवल बुराई अथवा कुरूपता ही नहीं है, अच्छाई और सुन्दरता भी है।
चेतन और जड़ से मिलकर बने हुए इस संसार की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में अच्छाई-बुराई दोनों पाये जाते हैं। कोई भी वस्तु ऐसी न मिलेगी, जो या तो केवल बुरी हों या केवल अच्छी, दिन और रात, शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष की तरह हर बात के दो पहलू होते हैं। एक वस्तु जो एक स्थिति में बुरी होती है, दूसरी बार वही अच्छी दिखलाई देने लगती है। मनुष्य के भीतर स्वयं दैवी और आसुरी वृत्तियां विद्यमान् रहती हैं। हमारा स्वयं का बच्चा जब किसी समय शरारत या हठ कर रहा होता है, हमें खुद को बड़ा ही ढीठ और खराब मालूम होने लगता है और जब वही बालक दौड़कर पानी ले आता है, अपना पाठ सुना देता है, अच्छी-अच्छी प्यारी बातें करने लगता है, तब हमें बड़ा भला और अच्छा लगने लगता है। इससे वह बच्चा न तो बिल्कुल अच्छा ही माना जायेगा और न सर्वथा खराब या बुरा ही। सड़ा-गला, कूड़ा-कचरा और मल-मूत्र सर्वथा बुरी वस्तुयें मानी जाती हैं, किन्तु जब यही सब पककर खाद बन जाते हैं, तब सभी उसको एक मत से उपयोगी एवं आवश्यक मान लेते हैं और निःसन्देह वह हो भी ऐसा जाता है। तात्पर्य इस संसार की कोई भी वस्तु न तो केवल खराब है और न अच्छी। हर वस्तु के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं। दोष रहित, निर्विकार और सदा शुद्ध तो एक मात्र परमात्म सत्ता ब्रह्म ही है।
संसार तो गुण-दोषों का सम्मिलित स्वरूप है। तथापि जिन मनीषियों और महात्माओं ने अपने को पूर्ण शुद्ध और निर्विकार बना लिया है, उनका कहना तो यहां तक है कि मंगलमय भगवान् की इस मंगलमय सृष्टि में दोष है ही नहीं। उनकी यह रचना भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता, नैतिकता आदि के दिव्य गुणों के आधार पर की गई है। इसमें गन्दगी, बुराई और अपवित्रता है ही नहीं। पूर्ण शुद्ध-बुद्ध और सुन्दर परमात्मा की कृति में दोष और दूषण सम्भव भी किस प्रकार हो सकते हैं।
संसार की अच्छी-बुरी तस्वीर वस्तुतः हमारे दृष्टिकोण और मनोदशा का ही प्रतिफलन है। दूसरों को भले रूप में देखना, भले दृष्टिकोण और बुरे रूप में देखना, बुरे दृष्टिकोण का ही परिणाम है। एक ही कोई व्यक्ति किसी को भला और हमें बुरा दीखता है तो इसको हम दोनों का दृष्टि वैचित्र्य ही माना जायेगा। यदि वह व्यक्ति अच्छा या बुरा ही होता, तो हम दोनों को अच्छा या बुरा ही दीखना चाहिये। जिस मरणासन्न रोगी कुत्ते को देखकर लोग घृणा से मुंह फेर लेते थे, उसको छू कर आती हुई हवा से बचते थे, उसी में दया और प्रेम की पवित्रता से प्रकाशमान् हृदय वाले ईसा मसीह ने भगवान् की प्रभुता का दर्शन किया और विह्वल होकर गोद में उठा लिया।
एक मन्दिर में भौतिक और आध्यात्मिक भिन्न दृष्टिकोण वाले दो व्यक्ति जाते हैं और प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखते हैं। जहां भौतिक दृष्टिकोण का व्यक्ति मूर्ति के पत्थर, मुकुट और साज-श्रृंगार तक सीमित रहकर उसका मूल्य और कोटि ही देखता रहता है, वहां आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला उसमें भगवान् की झांकी का दर्शन करता हुआ, भक्ति-भावना में विभोर हो जाता है। उसी प्रकार यदि चोर व्यक्ति उसको देखता है, तो उसे बड़ा माल दीखता है और चोरी के दांव-घात सोचने लगता है और यदि कोई उदार दानी देखता है, तो सोने लगता है कि अभी यहां पर इस वस्तु या इस बात की पूर्ति नहीं हो पाई है, यह पूर्ति होनी चाहिये और उसकी उदार वृत्ति कुछ कर सकने के लिये प्रेरित हो उठती है।
संसार की भलाई-बुराई इतना महत्त्व नहीं रखती, जितना कि हमारा निज का दृष्टिकोण। यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित नहीं है, तो हमको संसार में दोष दिखाई ही न देंगे और यदि दिखाई भी देंगे, तो न हमारा ध्यान ही उधर जायेगा और न हम उसको कोई महत्त्व ही देंगे। जिसे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी मनोभावना अनुकूल है, दृष्टिकोण स्निग्ध एवं सरल है वह यदि कोई अप्रियता भी कर देता है, किसी बुराई या हानि का प्रमाण भी देता है, तो भी हमारे मन में उसके लिए द्वेष अथवा घृणा उत्पन्न नहीं होती, हम उसे हंसकर टाल देते हैं अथवा उधर ध्यान ही नहीं देते। इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित है, तो पीलिया के रोगी की तरह हमें सारा संसार पीला-पीला ही दिखाई देगा। किसी की साधारण-सी भूल भी हमें पहाड़ जैसी दीखेगी और हम अपना अप्रिय करने वाले से लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जायेंगे।
संसार का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है। वह हर मनुष्य को उसके मनोभावों के अनुकूल ही दिखाई देता है। हमारा मानसिक प्रतिबिम्ब ही हमें बाह्य संसार में प्रतिफलित होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे को भले रूप में देखना हमारी पुरोगामी मानसिक दशा का और बुरे रूप में देखना प्रतिगामी मानसिक दशा का परिणाम है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, उसके विचार भी उसी के अनुसार बन जाते हैं। सर्वत्र सच्चाई और अच्छाई का दृष्टिकोण रखने वाले को संसार में कहीं भी अप्रियता अथवा प्रतिकूलता दिखलाई नहीं देती और दृष्टिकोण के प्रतिगामी होते ही संसार में बुराई के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शिष्यों को इसी सत्य के अवगत करने के लिए एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा कि एक बुरा आदमी खोज लाओ और दुर्योधन को एक अच्छा आदमी खोज लाने के लिये भेजा। कुछ देर बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन अकेले ही वापिस आ गये और उन्होंने क्रम से बतलाया कि आचार्य उनको कोई बुरा अथवा अच्छा आदमी नहीं मिला।
आचार्य ने शिष्यों को समझाया कि यह दोनों नगर में अच्छे-बुरे आदमियों की खोज करने गये, किन्तु अपनी शुभ मनोभावना के कारण युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी न दीखा और अशुभ दृष्टि-दोष के कारण दुर्योधन को कोई आदमी अच्छा ही न दिखलाई दिया नगर के सारे आदमी वही थे, किन्तु इन दोनों को अपने मनोभावों और दृष्टिकोण के कारण सब अच्छे अथवा बुरे ही दिखाई दिये। संसार में न कुछ सर्वदा अच्छा है और न बुरा, यह हमारे अपने मनोभावों और दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि संसार हमको किस रूप में दिखलाई देता है।
दोष-दृष्टि अथवा दूषित मनोभाव रखकर संसार को बुरा देखते रहने से उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, अपनी ही मनःशांति और संतोष नष्ट हो जाता है। सर्वत्र बुरा ही बुरा देखते रहने से जीवन बड़ा ही अशांत एवं प्रतिगामी बनकर रह जाता है। इस दोष के कारण हम संसार में सर्वत्र बिखरे पड़े सौन्दर्य और व्यक्तियों के प्रेम, सौहार्द्र और स्नेह से वंचित हो जाते हैं। हर ओर विरोध और प्रतिकूलता का ही वातावरण बना रहता है। सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करते रहने और दूसरों को आत्मीय दृष्टि से देखने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं। अपने से शत्रुता मानने वाले के प्रति भी यदि विरोधी-भाव न रक्खे जायें और हर प्रकार से अपने स्नेह और अनुकूल दृष्टि की अभिव्यक्ति की जाये, तो निश्चय ही शत्रु भी लज्जित होकर विरोध से विरत हो जाये। ऋषियों के आश्रम में शेर, भालू जैसे हिंसक जीव मनुष्यों के साथ हिले-मिले रहते थे। आश्रम-वासियों के अनुकूल मनोभावों के कारण ही उनकी हिंसा-वृत्ति दबी रहती थी और वे उनसे मित्रता का सुख अनुभव किया करते थे। सबके प्रति सद्भाव और अनुकूल दृष्टिकोण रखने के कारण ही धर्मराज युधिष्ठिर अजातशत्रु कहे जाते थे।
दूषित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति साधारण-सी कठिनाई का अनुचित मूल्यांकन कर अपनी परेशानियों की वृद्धि कर लेता है। तनिक-सा अभाव, छोटा-सा रोग अथवा साधारण-सी प्रतिकूलता उसे पहाड़ जैसी भारी और भयानक दिखाई देती है। जिससे वह अनावश्यक रूप से रोता-झींकता रहता है। परिस्थितियों का प्रभाव मनोभूमि के अनुसार ही पड़ता है। आग का प्रभाव जितना सूखी लकड़ी पर पड़ता है, उतना गीली पर नहीं। बीमारी जितना शीघ्र दुर्बल को दबा लेती है, उतना शीघ्र सबल को नहीं। वलुई जमीन जितनी शीघ्र पानी सोख लेती है, उतनी शीघ्र दूसरी पक्की जमीन नहीं। रंग जितना गाड़ा और शीघ्र महीन और श्वेत कपड़े पर चढ़ता है, उतना मोटे मैले पर नहीं, इसी प्रकार जो निर्बल दृष्टिकोण अथवा दूषित मनोभूमि के लोग हैं, जो जितना अधिक प्रतिकूलताओं के अनुकूल अपने को बनाये रहता है, वह उतना ही शीघ्र और गहराई तक उनसे प्रभावित होकर दुःखी होता है।
संसार में सफलता, सुन्दरता और सुख-शांति के लिये आवश्यक है कि अपना दृष्टिकोण परिमार्जित और मनोभूमि को तदनुकूल बनाया और रक्खा जाये, अन्यथा आघ्रत व्यक्ति की विकल दशा की तरह संसार की हर वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति से एक असन्तोष और संताप के अतिरिक्त और कुछ न मिल सकेगा और हम संसार के सुख-शांति और सुन्दरता से सर्वदा वंचित रह जायेंगे।
निःसन्देह, ऐसे व्यक्ति विचित्र होने के साथ दयनीय भी कम नहीं होते, जो हर समय दुःखी और क्लान्त ही बने रहते हैं। मिलते ही दुःखों, कष्टों तथा कठिनाइयों का रोना लेकर बैठ जाते हैं। आय कम है, खर्चा पूरा नहीं होता, बीवी बच्चे स्वस्थ ही नहीं रहते, दफ्तर में तनाव बना रहता है, तरक्की के चांस आते ही नहीं या आकर निकल जाते हैं, कोई लाभ ही नहीं होता, बेचारे ऑफिसर के अन्याय, रोष अथवा पक्षपात के शिकार बने हुये हैं—इस प्रकार की व्यक्तिगत और समय बहुत खराब आ गया है, संसार विनाश के मुख पर खड़ा है, भ्रष्टाचार चरम-सीमा पर जा पहुंचा है, मानव जाति का भविष्य खतरे में है, समाज बहुत दूषित हो चुका है, सुधार की सम्भावनायें क्षीण हो गई हैं, बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति हानि के सिवाय लाभ तो कर ही नहीं सकती, किसी समय भी युद्ध हो सकता है, मनुष्य का घोर-पतन हो गया है, सदाचार तथा सज्जनता तो कहीं दीखती ही नहीं, मर्यादा और अनुशासन जैसी कोई वस्तु ही नहीं रह गई है—आदि जगबीती सुनाते रहते हैं। उनकी व्यथा-कथा सुनने से ऐसा पता चलता है, मानो संसार के सारे दुःख सारी चिन्तायें इन्हीं बेचारों के भाग्य में भर दी गई हैं। संसार में इन जैसा कष्ट-ग्रस्त दूसरा कोई न होगा।
विचार करने की बात है कि जिस मनुष्य के मत्थे, इतनी मुसीबतें तथा चिन्तायें हों, क्या वह सामान्य मनोदशा में संसार के सारे कार्य तथा व्यापार करता रह सकता है। किसी एक वास्तविक चिन्ता के मारे तो मनुष्य का खाना-पीना, सोना-जागना हराम हो जाता है और जब तक वह उससे मुक्ति नहीं पा लेता, चैन की सांस नहीं लेता। परिश्रम और प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है। तब इतनी चिन्ताओं वाले जीवन की गाड़ी ढकेलता हुआ सामान्य गति से चलता रह सकता है—ऐसी आशा नहीं की जा सकती। ऐसे व्यक्ति की केवल दो ही दशायें सम्भव हो सकती हैं—या तो उसे विक्षिप्त हो जाना चाहिये अथवा कोई महान् पुरुष। किन्तु वह इनमें से कुछ नहीं होता। एक सामान्य सा दुःखी तथा क्लान्त व्यक्ति ही बना रहता है।
बात दर असल यह होती है कि ऐसे व्यक्ति सामान्यतः दूषित दृष्टिकोण के रोगी होते हैं। निषेधात्मक दृष्टि तथा नकारात्मक मनोवृत्ति के कारण उन्हें संसार की हर बात और हर वस्तु दोषपूर्ण दिखाई देती है। जिस प्रकार जिस रंग का चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया जाता है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी रंग की दिखाई देने लगती है। जब कि वह वास्तव में उस रंग की होती नहीं। यही दशा इस प्रकार के लोगों की होती है। दोष-दृष्टि होने से उन्हें दोष के सिवाय किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में कोई अच्छाई ही नहीं दिखलाई देती। जब कि संसार में केवल बुराई अथवा कुरूपता ही नहीं है, अच्छाई और सुन्दरता भी है।
चेतन और जड़ से मिलकर बने हुए इस संसार की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में अच्छाई-बुराई दोनों पाये जाते हैं। कोई भी वस्तु ऐसी न मिलेगी, जो या तो केवल बुरी हों या केवल अच्छी, दिन और रात, शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष की तरह हर बात के दो पहलू होते हैं। एक वस्तु जो एक स्थिति में बुरी होती है, दूसरी बार वही अच्छी दिखलाई देने लगती है। मनुष्य के भीतर स्वयं दैवी और आसुरी वृत्तियां विद्यमान् रहती हैं। हमारा स्वयं का बच्चा जब किसी समय शरारत या हठ कर रहा होता है, हमें खुद को बड़ा ही ढीठ और खराब मालूम होने लगता है और जब वही बालक दौड़कर पानी ले आता है, अपना पाठ सुना देता है, अच्छी-अच्छी प्यारी बातें करने लगता है, तब हमें बड़ा भला और अच्छा लगने लगता है। इससे वह बच्चा न तो बिल्कुल अच्छा ही माना जायेगा और न सर्वथा खराब या बुरा ही। सड़ा-गला, कूड़ा-कचरा और मल-मूत्र सर्वथा बुरी वस्तुयें मानी जाती हैं, किन्तु जब यही सब पककर खाद बन जाते हैं, तब सभी उसको एक मत से उपयोगी एवं आवश्यक मान लेते हैं और निःसन्देह वह हो भी ऐसा जाता है। तात्पर्य इस संसार की कोई भी वस्तु न तो केवल खराब है और न अच्छी। हर वस्तु के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं। दोष रहित, निर्विकार और सदा शुद्ध तो एक मात्र परमात्म सत्ता ब्रह्म ही है।
संसार तो गुण-दोषों का सम्मिलित स्वरूप है। तथापि जिन मनीषियों और महात्माओं ने अपने को पूर्ण शुद्ध और निर्विकार बना लिया है, उनका कहना तो यहां तक है कि मंगलमय भगवान् की इस मंगलमय सृष्टि में दोष है ही नहीं। उनकी यह रचना भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता, नैतिकता आदि के दिव्य गुणों के आधार पर की गई है। इसमें गन्दगी, बुराई और अपवित्रता है ही नहीं। पूर्ण शुद्ध-बुद्ध और सुन्दर परमात्मा की कृति में दोष और दूषण सम्भव भी किस प्रकार हो सकते हैं।
संसार की अच्छी-बुरी तस्वीर वस्तुतः हमारे दृष्टिकोण और मनोदशा का ही प्रतिफलन है। दूसरों को भले रूप में देखना, भले दृष्टिकोण और बुरे रूप में देखना, बुरे दृष्टिकोण का ही परिणाम है। एक ही कोई व्यक्ति किसी को भला और हमें बुरा दीखता है तो इसको हम दोनों का दृष्टि वैचित्र्य ही माना जायेगा। यदि वह व्यक्ति अच्छा या बुरा ही होता, तो हम दोनों को अच्छा या बुरा ही दीखना चाहिये। जिस मरणासन्न रोगी कुत्ते को देखकर लोग घृणा से मुंह फेर लेते थे, उसको छू कर आती हुई हवा से बचते थे, उसी में दया और प्रेम की पवित्रता से प्रकाशमान् हृदय वाले ईसा मसीह ने भगवान् की प्रभुता का दर्शन किया और विह्वल होकर गोद में उठा लिया।
एक मन्दिर में भौतिक और आध्यात्मिक भिन्न दृष्टिकोण वाले दो व्यक्ति जाते हैं और प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखते हैं। जहां भौतिक दृष्टिकोण का व्यक्ति मूर्ति के पत्थर, मुकुट और साज-श्रृंगार तक सीमित रहकर उसका मूल्य और कोटि ही देखता रहता है, वहां आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला उसमें भगवान् की झांकी का दर्शन करता हुआ, भक्ति-भावना में विभोर हो जाता है। उसी प्रकार यदि चोर व्यक्ति उसको देखता है, तो उसे बड़ा माल दीखता है और चोरी के दांव-घात सोचने लगता है और यदि कोई उदार दानी देखता है, तो सोने लगता है कि अभी यहां पर इस वस्तु या इस बात की पूर्ति नहीं हो पाई है, यह पूर्ति होनी चाहिये और उसकी उदार वृत्ति कुछ कर सकने के लिये प्रेरित हो उठती है।
संसार की भलाई-बुराई इतना महत्त्व नहीं रखती, जितना कि हमारा निज का दृष्टिकोण। यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित नहीं है, तो हमको संसार में दोष दिखाई ही न देंगे और यदि दिखाई भी देंगे, तो न हमारा ध्यान ही उधर जायेगा और न हम उसको कोई महत्त्व ही देंगे। जिसे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी मनोभावना अनुकूल है, दृष्टिकोण स्निग्ध एवं सरल है वह यदि कोई अप्रियता भी कर देता है, किसी बुराई या हानि का प्रमाण भी देता है, तो भी हमारे मन में उसके लिए द्वेष अथवा घृणा उत्पन्न नहीं होती, हम उसे हंसकर टाल देते हैं अथवा उधर ध्यान ही नहीं देते। इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित है, तो पीलिया के रोगी की तरह हमें सारा संसार पीला-पीला ही दिखाई देगा। किसी की साधारण-सी भूल भी हमें पहाड़ जैसी दीखेगी और हम अपना अप्रिय करने वाले से लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जायेंगे।
संसार का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है। वह हर मनुष्य को उसके मनोभावों के अनुकूल ही दिखाई देता है। हमारा मानसिक प्रतिबिम्ब ही हमें बाह्य संसार में प्रतिफलित होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे को भले रूप में देखना हमारी पुरोगामी मानसिक दशा का और बुरे रूप में देखना प्रतिगामी मानसिक दशा का परिणाम है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, उसके विचार भी उसी के अनुसार बन जाते हैं। सर्वत्र सच्चाई और अच्छाई का दृष्टिकोण रखने वाले को संसार में कहीं भी अप्रियता अथवा प्रतिकूलता दिखलाई नहीं देती और दृष्टिकोण के प्रतिगामी होते ही संसार में बुराई के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शिष्यों को इसी सत्य के अवगत करने के लिए एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा कि एक बुरा आदमी खोज लाओ और दुर्योधन को एक अच्छा आदमी खोज लाने के लिये भेजा। कुछ देर बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन अकेले ही वापिस आ गये और उन्होंने क्रम से बतलाया कि आचार्य उनको कोई बुरा अथवा अच्छा आदमी नहीं मिला।
आचार्य ने शिष्यों को समझाया कि यह दोनों नगर में अच्छे-बुरे आदमियों की खोज करने गये, किन्तु अपनी शुभ मनोभावना के कारण युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी न दीखा और अशुभ दृष्टि-दोष के कारण दुर्योधन को कोई आदमी अच्छा ही न दिखलाई दिया नगर के सारे आदमी वही थे, किन्तु इन दोनों को अपने मनोभावों और दृष्टिकोण के कारण सब अच्छे अथवा बुरे ही दिखाई दिये। संसार में न कुछ सर्वदा अच्छा है और न बुरा, यह हमारे अपने मनोभावों और दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि संसार हमको किस रूप में दिखलाई देता है।
दोष-दृष्टि अथवा दूषित मनोभाव रखकर संसार को बुरा देखते रहने से उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, अपनी ही मनःशांति और संतोष नष्ट हो जाता है। सर्वत्र बुरा ही बुरा देखते रहने से जीवन बड़ा ही अशांत एवं प्रतिगामी बनकर रह जाता है। इस दोष के कारण हम संसार में सर्वत्र बिखरे पड़े सौन्दर्य और व्यक्तियों के प्रेम, सौहार्द्र और स्नेह से वंचित हो जाते हैं। हर ओर विरोध और प्रतिकूलता का ही वातावरण बना रहता है। सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करते रहने और दूसरों को आत्मीय दृष्टि से देखने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं। अपने से शत्रुता मानने वाले के प्रति भी यदि विरोधी-भाव न रक्खे जायें और हर प्रकार से अपने स्नेह और अनुकूल दृष्टि की अभिव्यक्ति की जाये, तो निश्चय ही शत्रु भी लज्जित होकर विरोध से विरत हो जाये। ऋषियों के आश्रम में शेर, भालू जैसे हिंसक जीव मनुष्यों के साथ हिले-मिले रहते थे। आश्रम-वासियों के अनुकूल मनोभावों के कारण ही उनकी हिंसा-वृत्ति दबी रहती थी और वे उनसे मित्रता का सुख अनुभव किया करते थे। सबके प्रति सद्भाव और अनुकूल दृष्टिकोण रखने के कारण ही धर्मराज युधिष्ठिर अजातशत्रु कहे जाते थे।
दूषित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति साधारण-सी कठिनाई का अनुचित मूल्यांकन कर अपनी परेशानियों की वृद्धि कर लेता है। तनिक-सा अभाव, छोटा-सा रोग अथवा साधारण-सी प्रतिकूलता उसे पहाड़ जैसी भारी और भयानक दिखाई देती है। जिससे वह अनावश्यक रूप से रोता-झींकता रहता है। परिस्थितियों का प्रभाव मनोभूमि के अनुसार ही पड़ता है। आग का प्रभाव जितना सूखी लकड़ी पर पड़ता है, उतना गीली पर नहीं। बीमारी जितना शीघ्र दुर्बल को दबा लेती है, उतना शीघ्र सबल को नहीं। वलुई जमीन जितनी शीघ्र पानी सोख लेती है, उतनी शीघ्र दूसरी पक्की जमीन नहीं। रंग जितना गाड़ा और शीघ्र महीन और श्वेत कपड़े पर चढ़ता है, उतना मोटे मैले पर नहीं, इसी प्रकार जो निर्बल दृष्टिकोण अथवा दूषित मनोभूमि के लोग हैं, जो जितना अधिक प्रतिकूलताओं के अनुकूल अपने को बनाये रहता है, वह उतना ही शीघ्र और गहराई तक उनसे प्रभावित होकर दुःखी होता है।
संसार में सफलता, सुन्दरता और सुख-शांति के लिये आवश्यक है कि अपना दृष्टिकोण परिमार्जित और मनोभूमि को तदनुकूल बनाया और रक्खा जाये, अन्यथा आघ्रत व्यक्ति की विकल दशा की तरह संसार की हर वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति से एक असन्तोष और संताप के अतिरिक्त और कुछ न मिल सकेगा और हम संसार के सुख-शांति और सुन्दरता से सर्वदा वंचित रह जायेंगे।