Books - सुख-शांति की साधना
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Language: HINDI
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सुख चाहिए किन्तु दुःख से डरिये मत
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जीवन में दुःख, शोक संघर्षों का आना स्वाभाविक है। इससे कोई भी जीवधारी नहीं बच सकता। सुख, दुःख मानव-जीवन के दो समान पहलू हैं। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आते ही रहते हैं। यदि कोई इतना साधन सम्पन्न भी हो कि उसके जीवन में किसी दुःख, किसी अभाव अथवा किसी संघर्ष की सम्भावना को अवसर ही न मिले और वह निरन्तर अनुकूल परिस्थितियों में मौज करता रहे, तब भी एक दिन उसका एकरस सुख ही दुःख का कारण बन जायेगा। वह अपनी एकरसता से ऊब उठेगा, थक जायेगा। उसे एक अप्रिय नीरसता घेर लेगी, जिससे उसका मन विषाद से भरकर कराह उठेगा, वह दुःखी रहने लगेगा। मानव-जीवन में दुःख सुख के आगमन के अपने नियम को प्रकृति किसी भी अवस्था में अपवाद नहीं बना सकती। जो सुखी है उसे दुःख की कटुता अनुभव करनी ही होगी और इस समय जो दुःखी है उसे किसी न किसी कारण से सुख की शीतलता का अनुभव करने का अवसर मिलेगा ही।
दुःख सुख है क्या? यह किसी भी मनुष्य के लिए परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही है। और यदि ठीक दृष्टिकोण से देखा जाये तो परिस्थितियां भी दुःख सुख का वास्तविक हेतु नहीं है। वास्तविक हेतु तो मनुष्य की मनःस्थिति ही है, जो किसी परिस्थिति विशेष में सुख-दुःख का आरोपण कर लिया करती है। बहुत बार देखा जा सकता है कि किसी समय कोई एक परिस्थिति मनुष्य को पुलकित कर देती है, हर्ष विभोर बना देती है, तो किसी समय वही अथवा उसी प्रकार की परिस्थिति पीड़ादायक बन जाती है। यदि सुख-दुःख का निवास किसी परिस्थिति विशेष में रहा होता तो तदनुकूल मनुष्य को हर बार सुखी या दुःखी ही होना चाहिए। एक जैसी परिस्थिति में यह सुख-दुःख की अनुभूति का परिवर्तन क्यों? वह इसीलिए कि सुख दुःख वास्तव में परिस्थितिजन्य न होकर मनोजन्य ही होते हैं।
इस सत्य के अनुसार मनुष्य को सुखी अथवा दुःखी होने का कारण अपने अन्तःकरण में ही खोजना चाहिए, परिस्थितियों को श्रेय अथवा दोष नहीं देना चाहिए। जो मनुष्य अपने दुःख के लिए परिस्थितियों को कोसा अथवा सुख के लिए उन्हें धन्यवाद दिया करता है वह अपनी अल्पज्ञता का ही द्योतक करता है। वह सर्वदा सत्य है कि कोई भी मनुष्य दुःख की कामना तो करता ही नहीं, वह तो सदा सुख ही चाहा करता है। इसलिए उसे अपनी यह चाह पूरी करने के लिए परिस्थितियों से अधिक मन पर ध्यान देने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, क्षोभ अथवा असन्तोष से अभिभूत न होने देना चाहिए। इस प्रकार का निराभिभूत मानव गोमुखी गंगाजल की तरह निर्मल एवं प्रसन्न होता है। मन प्रसन्न है तो संसार में सभी ओर प्रसन्नता ही प्रसन्नता दृष्टिगोचर होगी, सुख ही सुख अनुभव होगा। तब ऐसी सहज प्रसन्नता की दशा में परिस्थितियों के अनुकूल होने की अपेक्षा नहीं रहती। परिस्थितियां अनुकूल हैं—मनभावनी हैं—बहुत अच्छा। परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं तब भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रसन्न-मन मानव उन्हें अनुकूल करने के लिए प्रयत्न करेगा, संघर्ष करेगा, पसीना बहायेगा, मूल्य चुकायेगा, कष्ट उठायेगा किन्तु दुःखी नहीं होगा। वह, यह सब हंसते-हंसते, प्रसन्न मनो मुद्रा में ही करता रहेगा। उसे परिश्रम में आनन्द आयेगा। संघर्ष में सुख मिलेगा। असफलता पर हंसी आयेगी और सफलता का स्वागत करेगा। जीवन की विविध परिस्थितियां तथा विविध उपलब्धियां उसकी प्रसन्नता को बढ़ा ही सकती हैं घटा नहीं सकती।
यह सही है कि संसार का कोई मनुष्य दुःख की कामना नहीं करता। यदि चाहता है तो केवल सुख ही चाहता है। किन्तु एक मात्र सुख की स्वार्थपूर्ण कामना का अर्थ यह है कि दुःख क्लेश आ जाने पर हाय-हाय करते हुए हाथ-पैर छोड़कर बैठे रहना और दुर्भाग्य अथवा नियति को कोसते रहना। इस प्रकार की निरुत्साह वृत्ति ही सुख की स्वार्थ कामना है जो कि किसी मानव को शोभा नहीं देती।
एक मात्र सुख की आकांक्षा रखने वाले दुःख क्लेशों से भयभीत होने वाले न केवल स्वार्थी ही होते हैं अपितु कायर भी होते हैं। कायरता मनुष्य जीवन का कलंक है जो संघर्षों, मुसीबतों एवं आपत्तियों से डरता है, उनके आने पर निराश अथवा निरुत्साहित हो जाता है वह और कोई बड़ा काम कर सकना तो दूर साधारण मनुष्यों की तरह साधारण जीवन भी यापन नहीं कर सकता है। संसार में न तो आज तक ऐसा कोई मनुष्य हुआ है और न आगे ही होगा जिसके जीवन में सदा प्रसन्नता की परिस्थितियां ही बनी रहे। उसे कभी दुःख क्लेश के तप्त झोंके न सहन करने पड़े हों। राजा से लेकर रंक तक और बलवान से लेकर निर्बल तक प्रत्येक प्राणी को अपनी-अपनी स्थिति में अपनी तरह के दुःख क्लेश उठाने ही पड़ते हैं। कभी शारीरिक कष्ट, कभी मानसिक क्लेश, कभी सामाजिक कठिनाई कभी आर्थिक अभाव तो कभी आध्यात्मिक अन्धकार मनुष्य को सताते ही रहते हैं। सदा सर्वदा कोई भी व्यक्ति कष्ट एवं कठिनाइयों से सर्वथा मुक्त नहीं रह सकता। तब ऐसी अनिवार्य अवस्था में किसी प्रकार की कठिनाई, आ जाने पर निराश, चिन्तित अथवा क्षुब्ध हो उठना इस बात का प्रमाण है कि हम संसार के शाश्वत नियमों से सामंजस्य स्थापित नहीं करना चाहते, हम असामान्यता के प्रति हठी अथवा दुराग्रही बने रहना चाहते हैं।
सुख-सुविधा की कामना बेशक की जाये और उसके लिए अथक प्रयत्न भी, पर साथ ही कठिनाइयों का स्वागत करने के लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिए। अनुकूलता पाकर हर्षोन्मत्त हो उठना और प्रतिकूलता देखते ही रो उठना मानसिक हीनता का लक्षण है। मनोहीन मनुष्य संसार में कुछ भी करने लायक नहीं होता। वह जीता जरूर है लेकिन मृतकों से भी बुरी जिन्दगी। जिसका हृदय विषाद से आक्रान्त है, चिन्ताओं से अभिभूत है उसका जीना जीने में नहीं गिना जा सकता। जिन्दगी वास्तव में वही है जिसमें जीने के साथ कुछ ऊंचा और अच्छा करते रहने का उत्साह सक्रिय होता रहे। यह उत्साहपूर्ण सक्रियता केवल उसी में सम्भव है जो हर समय कठिनाइयों से लड़ने का साहस रखता है आपत्तियों से संघर्ष करने की हिम्मत वाला है। जो व्यग्र है त्रस्त है और निराश है वह न केवल संसार पर ही बल्कि अपने पर भी बोझ बना हुआ श्वासों का भार ढोया करता है। चिन्तित तथा निराश मनःस्थिति वाला व्यक्ति किसी पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता। जिसकी जड़ में दीमक लग चुकी है अथवा जिसका मूल किसी कीड़े ने काट डाला है उस लता से, उस वृक्ष से सुन्दर फल-फूलों की आशा नहीं की जा सकती।
सुख-सुविधा की कामना अवश्य करिए यह उपयुक्त है। किन्तु साथ ही कठिनाइयों से लोहा लेने के लिए भी सदैव तत्पर रहिये। कठिनाइयां स्वयं कष्ट लेकर नहीं आतीं। वे केवल आती है आपकी मानसिक प्रसन्नता, आपकी आशा तथा आपके उत्साह पर आवरण डालने। यदि आपने उनको अपनी इन आत्म-किरणों पर परदा डाल लेने दिया तो आपके मनो-मन्दिर में अन्धकार हो जायगा और तब तमोजन्य निराश, क्षोभ, दुःख, भय तथा असन्तोष की अशिव भावनायें आपको तरह-तरह से त्रस्त करने लगेंगी और आप अकारण ही पीड़ित रहने लगेंगे।
आशा और उत्साह मनुष्य जीवन के दो बहुत बड़े सम्बल हैं। मनुष्य की प्रसन्नता के यह दोनों प्रमाणिक आधार हैं जो बुद्धिमान किसी भी दशा में इनको मन्द नहीं होने देते, अभाव, दुःख, कष्ट तथा प्रतिकूलतायें उस पर वैसे ही प्रभाव नहीं डाल पातीं जैसे कवच-सज्जित शरीर पर शत्रु के वाण! कष्ट आयेगा, कठिनाई खड़ी हो जायगी आशा उनका सत्य स्वरूप समझने और उनके हल के लिए मार्ग दिखलायेगी, उत्साह आगे बढ़ायेगा। और बढ़ते हुए व्यक्ति का मार्ग कोई भी अवरोध रोक नहीं सकता। दुःख-क्लेश होता उन्हीं को है जो किसी कारण से किंकर्तव्य विमूढ़ होकर एक जगह ठिठके रहते हैं। जो ठिठककर रुकना नहीं जानता, वह कठिनाइयों को परास्त कर आगे निकल ही जाता है।
आशा और उत्साह की शक्ति अपरिमित है। उसका परिमाण लगाया ही नहीं जाता। प्राणान्तक संकट में पड़े हुये न जाने कितने वीर व्यक्तियों ने केवल आशा और उत्साह के बल पर इतिहास प्रसिद्ध विजयों का वरण किया है। आशा और उत्साह के अभाव में एक नगण्य से कारण से परास्त होकर न जाने कितने व्यक्ति आत्म-हत्या कर लिया करते हैं, जब कि उनका वह दुःख, वह क्लेश अथवा वह अभाव—प्राण तो दूर, एक रोम के बलिदान योग्य भी नहीं होता। आशा और उत्साह का अभाव तिनके जैसी कठिनाई को पहाड़ जैसा बना दिया करता है। निराशा अन्धकार है और निरुत्साह व्याधि। अन्धेरे में एक छोटी-सी आशंका प्राण लेवा बन जाया करती है और व्याधिग्रस्त व्यक्ति एक कदम आगे बढ़ने का साहस नहीं रखता।
दिनों, महीनों और वर्षों के संचित विषाद को आशा की एक छोटी-सी किरण क्षणभर में दूर करके जीवन में उल्लास तथा उत्साह का संचार कर देती है। मरण शय्या पर पड़ा रोगी औषधि की अपेक्षा आशा के सहारे रोग या मृत्यु पर अधिक विजय पाता है जीवन से क्षुब्ध परेशानियों से परेशान होकर आत्महत्या को उद्यत यदि किसी व्यक्ति को किसी संयोग से आशा की किरण मिल जाती है तो वह तुरन्त अशुभ विचार छोड़कर जीवन-पथ पर हंसता हुआ बढ़ चलता है। तिल-तिल भूमि पर बलिदान देता हुआ कोई भी योद्धा विजय की आशा से ही युद्ध-भूमि में बढ़ता चला जाता है।
अनेक बार अनुभव किया जा सकता है कि कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जिनसे जीवन का हर क्षेत्र निराशा, कठिनाइयों तथा आपत्तियों से भरा दिखाई पड़ता है। हर समय वही अनुभव होता है कि अब जीवन में कोई सार नहीं रहा है, उसके अस्तित्व को हर प्रकार से खतरा पैदा हो गया है किन्तु किसी भी माध्यम से आशा का एक प्रकाश कण दीख जाने से परिस्थिति बिल्कुल बदल जाती है और वही निराश व्यक्ति एक बार फिर कमर कसकर जीवन संग्राम में योद्धा की तरह उतर पड़ता है व निश्चय विजय किया करता है। हानि के धक्के अथवा असफलता के क्षोभ से जब भी किसी व्यक्ति की मरने अथवा निराश, निकम्मे हो बैठने का समाचार सुनें तो समझ लें कि उसने अपनी भौतिक हानि के साथ अपनी आशा की भी हानि करली है अपने उत्साह का पल्ला छोड़ दिया है।
आशा तथा उत्साह कहीं से लाने अथवा आने वाली वस्तु नहीं है। यह दोनों तेज आपके अन्तःकरण में सदैव ही विद्यमान रहते हैं। हां आवश्यकता के समय उनको जगाना एवं पुकारना अवश्य पड़ता है। जीवन की कठिनाइयों तथा आपत्तियों से घबराकर अपने इन अन्तरंग मित्रों को भूल जाना अथवा इनका साथ छोड़ देना बहुत बड़ी भूल है। ऐसा करने का अर्थ है कि आप अपने दुर्दिनों को स्थायी बनाते हैं अपनी कठिनाइयों को पुष्ट तथा व्यापक बनाते हैं। किसी भी अन्धकार में, किसी भी प्रतिकूलता अथवा कठिनाई में अपने आशा उत्साह के सम्बन्ध को कभी मत छोड़ियेगा, कठिनाइयां आपका कुछ भी नहीं कर सकेंगी।
सुख की कामना करिये, किन्तु दुःख से डरिये नहीं। आशा और उत्साह के बल पर उन्हें जीतकर सुख के रूप में बदल डालिये। चिर प्रसन्न आशान्वित तथा उत्साहित रहिये। आपको सुख की याचना करने की आवश्यकता न होगी। वह स्वयं दरवान की ही तरह आपके जीवन की हर ड्यौढ़ी पर खड़ा आपका स्वागत करता हुआ मिलेगा।
दुःख सुख है क्या? यह किसी भी मनुष्य के लिए परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही है। और यदि ठीक दृष्टिकोण से देखा जाये तो परिस्थितियां भी दुःख सुख का वास्तविक हेतु नहीं है। वास्तविक हेतु तो मनुष्य की मनःस्थिति ही है, जो किसी परिस्थिति विशेष में सुख-दुःख का आरोपण कर लिया करती है। बहुत बार देखा जा सकता है कि किसी समय कोई एक परिस्थिति मनुष्य को पुलकित कर देती है, हर्ष विभोर बना देती है, तो किसी समय वही अथवा उसी प्रकार की परिस्थिति पीड़ादायक बन जाती है। यदि सुख-दुःख का निवास किसी परिस्थिति विशेष में रहा होता तो तदनुकूल मनुष्य को हर बार सुखी या दुःखी ही होना चाहिए। एक जैसी परिस्थिति में यह सुख-दुःख की अनुभूति का परिवर्तन क्यों? वह इसीलिए कि सुख दुःख वास्तव में परिस्थितिजन्य न होकर मनोजन्य ही होते हैं।
इस सत्य के अनुसार मनुष्य को सुखी अथवा दुःखी होने का कारण अपने अन्तःकरण में ही खोजना चाहिए, परिस्थितियों को श्रेय अथवा दोष नहीं देना चाहिए। जो मनुष्य अपने दुःख के लिए परिस्थितियों को कोसा अथवा सुख के लिए उन्हें धन्यवाद दिया करता है वह अपनी अल्पज्ञता का ही द्योतक करता है। वह सर्वदा सत्य है कि कोई भी मनुष्य दुःख की कामना तो करता ही नहीं, वह तो सदा सुख ही चाहा करता है। इसलिए उसे अपनी यह चाह पूरी करने के लिए परिस्थितियों से अधिक मन पर ध्यान देने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, क्षोभ अथवा असन्तोष से अभिभूत न होने देना चाहिए। इस प्रकार का निराभिभूत मानव गोमुखी गंगाजल की तरह निर्मल एवं प्रसन्न होता है। मन प्रसन्न है तो संसार में सभी ओर प्रसन्नता ही प्रसन्नता दृष्टिगोचर होगी, सुख ही सुख अनुभव होगा। तब ऐसी सहज प्रसन्नता की दशा में परिस्थितियों के अनुकूल होने की अपेक्षा नहीं रहती। परिस्थितियां अनुकूल हैं—मनभावनी हैं—बहुत अच्छा। परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं तब भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रसन्न-मन मानव उन्हें अनुकूल करने के लिए प्रयत्न करेगा, संघर्ष करेगा, पसीना बहायेगा, मूल्य चुकायेगा, कष्ट उठायेगा किन्तु दुःखी नहीं होगा। वह, यह सब हंसते-हंसते, प्रसन्न मनो मुद्रा में ही करता रहेगा। उसे परिश्रम में आनन्द आयेगा। संघर्ष में सुख मिलेगा। असफलता पर हंसी आयेगी और सफलता का स्वागत करेगा। जीवन की विविध परिस्थितियां तथा विविध उपलब्धियां उसकी प्रसन्नता को बढ़ा ही सकती हैं घटा नहीं सकती।
यह सही है कि संसार का कोई मनुष्य दुःख की कामना नहीं करता। यदि चाहता है तो केवल सुख ही चाहता है। किन्तु एक मात्र सुख की स्वार्थपूर्ण कामना का अर्थ यह है कि दुःख क्लेश आ जाने पर हाय-हाय करते हुए हाथ-पैर छोड़कर बैठे रहना और दुर्भाग्य अथवा नियति को कोसते रहना। इस प्रकार की निरुत्साह वृत्ति ही सुख की स्वार्थ कामना है जो कि किसी मानव को शोभा नहीं देती।
एक मात्र सुख की आकांक्षा रखने वाले दुःख क्लेशों से भयभीत होने वाले न केवल स्वार्थी ही होते हैं अपितु कायर भी होते हैं। कायरता मनुष्य जीवन का कलंक है जो संघर्षों, मुसीबतों एवं आपत्तियों से डरता है, उनके आने पर निराश अथवा निरुत्साहित हो जाता है वह और कोई बड़ा काम कर सकना तो दूर साधारण मनुष्यों की तरह साधारण जीवन भी यापन नहीं कर सकता है। संसार में न तो आज तक ऐसा कोई मनुष्य हुआ है और न आगे ही होगा जिसके जीवन में सदा प्रसन्नता की परिस्थितियां ही बनी रहे। उसे कभी दुःख क्लेश के तप्त झोंके न सहन करने पड़े हों। राजा से लेकर रंक तक और बलवान से लेकर निर्बल तक प्रत्येक प्राणी को अपनी-अपनी स्थिति में अपनी तरह के दुःख क्लेश उठाने ही पड़ते हैं। कभी शारीरिक कष्ट, कभी मानसिक क्लेश, कभी सामाजिक कठिनाई कभी आर्थिक अभाव तो कभी आध्यात्मिक अन्धकार मनुष्य को सताते ही रहते हैं। सदा सर्वदा कोई भी व्यक्ति कष्ट एवं कठिनाइयों से सर्वथा मुक्त नहीं रह सकता। तब ऐसी अनिवार्य अवस्था में किसी प्रकार की कठिनाई, आ जाने पर निराश, चिन्तित अथवा क्षुब्ध हो उठना इस बात का प्रमाण है कि हम संसार के शाश्वत नियमों से सामंजस्य स्थापित नहीं करना चाहते, हम असामान्यता के प्रति हठी अथवा दुराग्रही बने रहना चाहते हैं।
सुख-सुविधा की कामना बेशक की जाये और उसके लिए अथक प्रयत्न भी, पर साथ ही कठिनाइयों का स्वागत करने के लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिए। अनुकूलता पाकर हर्षोन्मत्त हो उठना और प्रतिकूलता देखते ही रो उठना मानसिक हीनता का लक्षण है। मनोहीन मनुष्य संसार में कुछ भी करने लायक नहीं होता। वह जीता जरूर है लेकिन मृतकों से भी बुरी जिन्दगी। जिसका हृदय विषाद से आक्रान्त है, चिन्ताओं से अभिभूत है उसका जीना जीने में नहीं गिना जा सकता। जिन्दगी वास्तव में वही है जिसमें जीने के साथ कुछ ऊंचा और अच्छा करते रहने का उत्साह सक्रिय होता रहे। यह उत्साहपूर्ण सक्रियता केवल उसी में सम्भव है जो हर समय कठिनाइयों से लड़ने का साहस रखता है आपत्तियों से संघर्ष करने की हिम्मत वाला है। जो व्यग्र है त्रस्त है और निराश है वह न केवल संसार पर ही बल्कि अपने पर भी बोझ बना हुआ श्वासों का भार ढोया करता है। चिन्तित तथा निराश मनःस्थिति वाला व्यक्ति किसी पुरुषार्थ के योग्य नहीं रहता। जिसकी जड़ में दीमक लग चुकी है अथवा जिसका मूल किसी कीड़े ने काट डाला है उस लता से, उस वृक्ष से सुन्दर फल-फूलों की आशा नहीं की जा सकती।
सुख-सुविधा की कामना अवश्य करिए यह उपयुक्त है। किन्तु साथ ही कठिनाइयों से लोहा लेने के लिए भी सदैव तत्पर रहिये। कठिनाइयां स्वयं कष्ट लेकर नहीं आतीं। वे केवल आती है आपकी मानसिक प्रसन्नता, आपकी आशा तथा आपके उत्साह पर आवरण डालने। यदि आपने उनको अपनी इन आत्म-किरणों पर परदा डाल लेने दिया तो आपके मनो-मन्दिर में अन्धकार हो जायगा और तब तमोजन्य निराश, क्षोभ, दुःख, भय तथा असन्तोष की अशिव भावनायें आपको तरह-तरह से त्रस्त करने लगेंगी और आप अकारण ही पीड़ित रहने लगेंगे।
आशा और उत्साह मनुष्य जीवन के दो बहुत बड़े सम्बल हैं। मनुष्य की प्रसन्नता के यह दोनों प्रमाणिक आधार हैं जो बुद्धिमान किसी भी दशा में इनको मन्द नहीं होने देते, अभाव, दुःख, कष्ट तथा प्रतिकूलतायें उस पर वैसे ही प्रभाव नहीं डाल पातीं जैसे कवच-सज्जित शरीर पर शत्रु के वाण! कष्ट आयेगा, कठिनाई खड़ी हो जायगी आशा उनका सत्य स्वरूप समझने और उनके हल के लिए मार्ग दिखलायेगी, उत्साह आगे बढ़ायेगा। और बढ़ते हुए व्यक्ति का मार्ग कोई भी अवरोध रोक नहीं सकता। दुःख-क्लेश होता उन्हीं को है जो किसी कारण से किंकर्तव्य विमूढ़ होकर एक जगह ठिठके रहते हैं। जो ठिठककर रुकना नहीं जानता, वह कठिनाइयों को परास्त कर आगे निकल ही जाता है।
आशा और उत्साह की शक्ति अपरिमित है। उसका परिमाण लगाया ही नहीं जाता। प्राणान्तक संकट में पड़े हुये न जाने कितने वीर व्यक्तियों ने केवल आशा और उत्साह के बल पर इतिहास प्रसिद्ध विजयों का वरण किया है। आशा और उत्साह के अभाव में एक नगण्य से कारण से परास्त होकर न जाने कितने व्यक्ति आत्म-हत्या कर लिया करते हैं, जब कि उनका वह दुःख, वह क्लेश अथवा वह अभाव—प्राण तो दूर, एक रोम के बलिदान योग्य भी नहीं होता। आशा और उत्साह का अभाव तिनके जैसी कठिनाई को पहाड़ जैसा बना दिया करता है। निराशा अन्धकार है और निरुत्साह व्याधि। अन्धेरे में एक छोटी-सी आशंका प्राण लेवा बन जाया करती है और व्याधिग्रस्त व्यक्ति एक कदम आगे बढ़ने का साहस नहीं रखता।
दिनों, महीनों और वर्षों के संचित विषाद को आशा की एक छोटी-सी किरण क्षणभर में दूर करके जीवन में उल्लास तथा उत्साह का संचार कर देती है। मरण शय्या पर पड़ा रोगी औषधि की अपेक्षा आशा के सहारे रोग या मृत्यु पर अधिक विजय पाता है जीवन से क्षुब्ध परेशानियों से परेशान होकर आत्महत्या को उद्यत यदि किसी व्यक्ति को किसी संयोग से आशा की किरण मिल जाती है तो वह तुरन्त अशुभ विचार छोड़कर जीवन-पथ पर हंसता हुआ बढ़ चलता है। तिल-तिल भूमि पर बलिदान देता हुआ कोई भी योद्धा विजय की आशा से ही युद्ध-भूमि में बढ़ता चला जाता है।
अनेक बार अनुभव किया जा सकता है कि कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जिनसे जीवन का हर क्षेत्र निराशा, कठिनाइयों तथा आपत्तियों से भरा दिखाई पड़ता है। हर समय वही अनुभव होता है कि अब जीवन में कोई सार नहीं रहा है, उसके अस्तित्व को हर प्रकार से खतरा पैदा हो गया है किन्तु किसी भी माध्यम से आशा का एक प्रकाश कण दीख जाने से परिस्थिति बिल्कुल बदल जाती है और वही निराश व्यक्ति एक बार फिर कमर कसकर जीवन संग्राम में योद्धा की तरह उतर पड़ता है व निश्चय विजय किया करता है। हानि के धक्के अथवा असफलता के क्षोभ से जब भी किसी व्यक्ति की मरने अथवा निराश, निकम्मे हो बैठने का समाचार सुनें तो समझ लें कि उसने अपनी भौतिक हानि के साथ अपनी आशा की भी हानि करली है अपने उत्साह का पल्ला छोड़ दिया है।
आशा तथा उत्साह कहीं से लाने अथवा आने वाली वस्तु नहीं है। यह दोनों तेज आपके अन्तःकरण में सदैव ही विद्यमान रहते हैं। हां आवश्यकता के समय उनको जगाना एवं पुकारना अवश्य पड़ता है। जीवन की कठिनाइयों तथा आपत्तियों से घबराकर अपने इन अन्तरंग मित्रों को भूल जाना अथवा इनका साथ छोड़ देना बहुत बड़ी भूल है। ऐसा करने का अर्थ है कि आप अपने दुर्दिनों को स्थायी बनाते हैं अपनी कठिनाइयों को पुष्ट तथा व्यापक बनाते हैं। किसी भी अन्धकार में, किसी भी प्रतिकूलता अथवा कठिनाई में अपने आशा उत्साह के सम्बन्ध को कभी मत छोड़ियेगा, कठिनाइयां आपका कुछ भी नहीं कर सकेंगी।
सुख की कामना करिये, किन्तु दुःख से डरिये नहीं। आशा और उत्साह के बल पर उन्हें जीतकर सुख के रूप में बदल डालिये। चिर प्रसन्न आशान्वित तथा उत्साहित रहिये। आपको सुख की याचना करने की आवश्यकता न होगी। वह स्वयं दरवान की ही तरह आपके जीवन की हर ड्यौढ़ी पर खड़ा आपका स्वागत करता हुआ मिलेगा।