Books - सुख-शांति की साधना
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Language: HINDI
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तटस्थ रहिए—दुःखी मत हूजिये
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‘‘संसार-दुख-सागर है’’—ऐसी मान्यता रखने वाले प्रायः वे ही लोग हुआ करते हैं जो अपनी दुर्बलताओं के कारण संसार में सुख-दर्शन नहीं कर पाते। उनकी यह मान्यता ही बतलाती है कि वे कितने दुखी रहने वाले व्यक्ति होंगे। ऐसे व्यक्तियों के लिये संसार की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रत्येक परिस्थिति तथा घटना दुःख-दायी ही होती है—और होनी भी चाहिये। जिसका विश्वास बन चुका है कि संसार दुःख-सागर है उसे इस दुनिया में सिवाय दुःख के और क्या हाथ आ सकता है? ऐसी निराशापूर्ण भावना बना लेने वाला जीवन भर रोने, झींखने, चिढ़ाने और कुढ़ाने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकता है? दूसरे को हंसते, खेलते, खाते-पीते, बोलते, बात करते और प्रसन्न रहते देख कर ईर्ष्या करता और मन ही मन जलता रहता है। ऐसे व्यक्ति को औरों का हंसना, बोलना अपने पर व्यंग मालूम होता है, अपना उपहास-सा प्रतीत होता है। हंसना, बोलना ही नहीं दूसरों का रोना धोना भी उसे अच्छा नहीं लगता। किसी का हंसना, प्रसन्न होना तो ईर्ष्या के कारण नहीं भाता और खुद के दुःख को उत्तेजित करने के कारण किसी के रोने-धोने में भी बुरा मानता है। निःसन्देह, ऐसे दुःख-प्रवण व्यक्तियों का जीवन एक भयंकर अभिशाप बन जाता है।
दुःखों के कारणों में दुर्भावनायें भी बहु बड़ा कारण है। दुर्भावनायें एक भयंकर रोग की तरह हैं। जिसको लग जाती हैं, जिसके हृदय में बस जाती हैं, उसे कहीं का नहीं रखती हैं। दुर्भावना वाले व्यक्ति का जीवन प्रतिक्षण दुःखी रहता है।
दुर्भावनाओं में अधिकतर दूसरों का अहित करने का ही भाव निहित रहता है। दुर्भावनाओं वाला व्यक्ति किसी का थोड़ा-सा भी अभ्युदय नहीं देख सकता। किसी के अभ्युदय से अपनी कोई हानि न होने पर भी ऐसा व्यक्ति यही प्रयत्न करता है कि अमुक व्यक्ति की उन्नति न हो, विकास न हो, उसे कोई सफलता न मिले। किन्तु जो प्रयत्नशील है, परिश्रम कर रहा है उसकी उन्नति तो होती है। ऐसी दशा में रोड़े अटकाने, कोसने अथवा चाहने पर भी जब किसी की उन्नति नहीं रोक पाता तो दुर्भावी व्यक्ति के लिये जलने, कुढ़ने तथा दुःखी होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। इस प्रकार दुर्भावना रखने वाला व्यक्ति दुहरा दुःख पाता है—एक तो किसी का अहित चाहने पर भी उसकी असफलता तथा आत्म-प्रतारणा दण्डित करती है, दूसरे जिसका उसने अहित चाहा उसकी उन्नति उसे दिन-रात चैन न लेने देगी।
दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति अपने निजी सुख के लिये कुछ ऐसे काम भी करने की कामना कर सकता है जो शासन तथा समाज की दृष्टि में अवांछनीय हों। दुर्भावनायें प्रायः होती ही समाज विरोधिनी हैं। ऐसी दशा में जब वह दण्ड के भय से उन्हें नहीं कर पाता तो मन ही मन दुःखी होता रहता है और उसके पाले हुये अविचारों के अतृप्त प्रेत उसे प्रति क्षण पीड़ा देते रहते हैं। अविचारी का अपना कोई मित्र नहीं होता। सारा मानव समाज ऐसे व्यक्ति से घृणा किया करता है और ऐसी दशा में किसी का दुःखी न होना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?
इसके विपरीत जो व्यक्ति सद्भावना पूर्ण है, जिसके हृदय में दूसरों के लिये हितकर भाव है, जो सबको अपना समझता है, सबके हित में अपना हित मानता है, वही डाह तथा ईर्ष्या द्वेष से सर्वथा मुक्त रहता है। जिसका हृदय स्वच्छ है, निर्मल है उसके हृदय में मलीनताजन्य कीटाणु उत्पन्न ही न होंगे। निर्विकार हृदय व्यक्ति को न ईर्ष्या के सर्प डसते हैं और न डाह के बिच्छू डंक मारते हैं। वह सदा सुखी तथा प्रसन्न रहता है।
सबके प्रति सद्भावना रखने वाला बदले में सद्भावना ही पाता है जो उसे सब प्रकार से शीतल और शांत रखती है। सब के हित में अपना हित देखने वाला प्रत्येक के अभ्युदय से प्रसन्न ही होता है। दूसरों की उन्नति में सहायता करता है और बदले में सहयोग पाकर सुखी वह सन्तुष्ट होता है। दुर्भावना तथा सद्भावना रखने वाले दो व्यक्तियों की स्थिति में वही अन्तर रहता है जो विष से मरणासन्न और अमृत से परितृप्त तथा प्रसन्न व्यक्ति में।
सुख की अत्यधिक चाह भी दुःख का कारण है। हर समय हर क्षण तथा हर परिस्थिति में सुख के लिये लालायित रहना एक निकृष्ट हीन भावना है। इस क्षण-क्षण परिवर्तनशील तथा द्वन्द्वात्मक संसार में हर समय सुख कहां? जो सम्भव नहीं उसकी कामना करना असंगत ही नहीं अबुद्धिमत्ता भी है। दुःख उठाकर ही सुख पाया जा सकता है। साथ ही दुःख के अत्यन्ताभाव में सुख का कोई मूल्य महत्व भी नहीं है। विश्रांति के बाद ही विश्राम का मूल्य है। भूख प्यास से विकल होने पर ही भोजन का स्वाद है।
जिस प्रकार आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जाता है इसी प्रकार दुःख को सुख का जनक मान लिया जाय तो अनुचित न होगा। जिसके सम्मुख दुःख आते हैं वही सुख के लिये प्रयत्न करता है। जिसने गरीबी से टक्कर ली है वही अर्थाभाव दूर करने के लिये अग्रसर होगा। दुःख, तकलीफ ही पुरुषार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती हैं उस पर पानी चढ़ाती हैं। अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव होकर एक मृतक तुल्य बन कर रह जाये।
सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना भी दुःख का एक विशेष कारण है। यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जायें कि आपकी अनुभूतियां सुख की ही गुलाम बन कर रह जाये। वे प्रसन्नता परक परिस्थितियों की ही अभ्यस्त हो जायें। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जायेगी और जरा-सा भी कारण उपस्थित होते ही आप अत्यधिक दुःखी होने लगेंगे। अस्तु दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाये। सन्तुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। तटस्थ भाव सिद्ध करने के लिये दुःख से नहीं सुख से अभ्यास करना होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिये। हर्षातिरेकता में न आइये। इस प्रकार प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है वह जल्दी सीखा जा सकता है।
हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाये रखता है, विषाद के अवसर पर भी वह सुरक्षित रहता है। दुःख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इसलिये भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दुःख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रम वश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।
किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दुःख का विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिज़ाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दुःखी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिये घंटों दुःखी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है।
भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहां तक कि एक बार दुःखी व्यक्ति तो अपना दुःख भूल सकता है किन्तु भावुक व्यक्ति उसके दुःख को अपनाकर महीनों दुःखी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दुःख का कारण बन जाता है।
दुःखों के कारणों में दुर्भावनायें भी बहु बड़ा कारण है। दुर्भावनायें एक भयंकर रोग की तरह हैं। जिसको लग जाती हैं, जिसके हृदय में बस जाती हैं, उसे कहीं का नहीं रखती हैं। दुर्भावना वाले व्यक्ति का जीवन प्रतिक्षण दुःखी रहता है।
दुर्भावनाओं में अधिकतर दूसरों का अहित करने का ही भाव निहित रहता है। दुर्भावनाओं वाला व्यक्ति किसी का थोड़ा-सा भी अभ्युदय नहीं देख सकता। किसी के अभ्युदय से अपनी कोई हानि न होने पर भी ऐसा व्यक्ति यही प्रयत्न करता है कि अमुक व्यक्ति की उन्नति न हो, विकास न हो, उसे कोई सफलता न मिले। किन्तु जो प्रयत्नशील है, परिश्रम कर रहा है उसकी उन्नति तो होती है। ऐसी दशा में रोड़े अटकाने, कोसने अथवा चाहने पर भी जब किसी की उन्नति नहीं रोक पाता तो दुर्भावी व्यक्ति के लिये जलने, कुढ़ने तथा दुःखी होने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। इस प्रकार दुर्भावना रखने वाला व्यक्ति दुहरा दुःख पाता है—एक तो किसी का अहित चाहने पर भी उसकी असफलता तथा आत्म-प्रतारणा दण्डित करती है, दूसरे जिसका उसने अहित चाहा उसकी उन्नति उसे दिन-रात चैन न लेने देगी।
दुर्भावनापूर्ण व्यक्ति अपने निजी सुख के लिये कुछ ऐसे काम भी करने की कामना कर सकता है जो शासन तथा समाज की दृष्टि में अवांछनीय हों। दुर्भावनायें प्रायः होती ही समाज विरोधिनी हैं। ऐसी दशा में जब वह दण्ड के भय से उन्हें नहीं कर पाता तो मन ही मन दुःखी होता रहता है और उसके पाले हुये अविचारों के अतृप्त प्रेत उसे प्रति क्षण पीड़ा देते रहते हैं। अविचारी का अपना कोई मित्र नहीं होता। सारा मानव समाज ऐसे व्यक्ति से घृणा किया करता है और ऐसी दशा में किसी का दुःखी न होना किस प्रकार सम्भव हो सकता है?
इसके विपरीत जो व्यक्ति सद्भावना पूर्ण है, जिसके हृदय में दूसरों के लिये हितकर भाव है, जो सबको अपना समझता है, सबके हित में अपना हित मानता है, वही डाह तथा ईर्ष्या द्वेष से सर्वथा मुक्त रहता है। जिसका हृदय स्वच्छ है, निर्मल है उसके हृदय में मलीनताजन्य कीटाणु उत्पन्न ही न होंगे। निर्विकार हृदय व्यक्ति को न ईर्ष्या के सर्प डसते हैं और न डाह के बिच्छू डंक मारते हैं। वह सदा सुखी तथा प्रसन्न रहता है।
सबके प्रति सद्भावना रखने वाला बदले में सद्भावना ही पाता है जो उसे सब प्रकार से शीतल और शांत रखती है। सब के हित में अपना हित देखने वाला प्रत्येक के अभ्युदय से प्रसन्न ही होता है। दूसरों की उन्नति में सहायता करता है और बदले में सहयोग पाकर सुखी वह सन्तुष्ट होता है। दुर्भावना तथा सद्भावना रखने वाले दो व्यक्तियों की स्थिति में वही अन्तर रहता है जो विष से मरणासन्न और अमृत से परितृप्त तथा प्रसन्न व्यक्ति में।
सुख की अत्यधिक चाह भी दुःख का कारण है। हर समय हर क्षण तथा हर परिस्थिति में सुख के लिये लालायित रहना एक निकृष्ट हीन भावना है। इस क्षण-क्षण परिवर्तनशील तथा द्वन्द्वात्मक संसार में हर समय सुख कहां? जो सम्भव नहीं उसकी कामना करना असंगत ही नहीं अबुद्धिमत्ता भी है। दुःख उठाकर ही सुख पाया जा सकता है। साथ ही दुःख के अत्यन्ताभाव में सुख का कोई मूल्य महत्व भी नहीं है। विश्रांति के बाद ही विश्राम का मूल्य है। भूख प्यास से विकल होने पर ही भोजन का स्वाद है।
जिस प्रकार आवश्यकता को अविष्कार की जननी कहा जाता है इसी प्रकार दुःख को सुख का जनक मान लिया जाय तो अनुचित न होगा। जिसके सम्मुख दुःख आते हैं वही सुख के लिये प्रयत्न करता है। जिसने गरीबी से टक्कर ली है वही अर्थाभाव दूर करने के लिये अग्रसर होगा। दुःख, तकलीफ ही पुरुषार्थी व्यक्ति की क्रियाशीलता पर धार रखती हैं उस पर पानी चढ़ाती हैं। अन्यथा मनुष्य निकम्मा तथा निर्जीव होकर एक मृतक तुल्य बन कर रह जाये।
सुख में अत्यधिक प्रसन्न होना भी दुःख का एक विशेष कारण है। यह साधारण नियम है कि जो अनुकूल परिस्थितियों में खुशी से पागल हो उठेगा, उसी अनुपात से प्रतिकूल परिस्थितियों में दुःखी होगा। सुख प्रसन्नता का कारण होता है, किन्तु इसका अर्थ कदापि नहीं कि आप उसमें इतना प्रसन्न हो जायें कि आपकी अनुभूतियां सुख की ही गुलाम बन कर रह जाये। वे प्रसन्नता परक परिस्थितियों की ही अभ्यस्त हो जायें। ऐसा होने से आपकी सहन शक्ति समाप्त हो जायेगी और जरा-सा भी कारण उपस्थित होते ही आप अत्यधिक दुःखी होने लगेंगे। अस्तु दुःख से बचने का एक उपाय यह भी है कि सुख की दशा में भी बहुत प्रसन्न न हुआ जाये। सन्तुलन पूर्ण तटस्थ अवस्था का अभ्यास इस दिशा में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। तटस्थ भाव सिद्ध करने के लिये दुःख से नहीं सुख से अभ्यास करना होगा। जब-जब मनोनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हों, सुख का अवसर मिले तब तब साधारण मनोभाव से उसका स्वागत कीजिये। हर्षातिरेकता में न आइये। इस प्रकार प्रसन्नावस्था में जो कार्य किया अथवा सीखा जाता है वह जल्दी सीखा जा सकता है।
हर्ष के समय जो अपना संतुलन बनाये रखता है, विषाद के अवसर पर भी वह सुरक्षित रहता है। दुःख-सुख में समान रूप से तटस्थ रहना इसलिये भी आवश्यक है कि अतिरेकता के समय किसी बात का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता। हर्ष के समय ठीक बात भी गलत लगती है। इस प्रकार बुद्धि भ्रम हो जाने से दुःख के कारणों की कोई कमी नहीं रहती। हर्ष के समय जब हमें किसी की कोई बात अथवा काम गलत होने पर भी ठीक लगेगी तो फिर भ्रम वश किसी समय भी वैसा कर सकते हैं और तब हमें क्षोभ होगा, जिससे दुखी होना स्वाभाविक ही है।
किसी मनुष्य की भावुकता जब अपनी सीमा पार कर जाती है तो वह भी दुःख का विशेष कारण बन जाती है। अत्यधिक भावुक तुनुक मिज़ाज हो जाता है। एक बार वह सुख में भले ही प्रसन्न न हो किन्तु मन के प्रतिकूल परिस्थितियों में वह अत्यधिक दुःखी हुआ करता है। अत्यधिक भावुक कल्पनाशील भी हुआ करता है। वे इसके एक छोटे से आघात को पहाड़ जैसा अनुभव करता है। एक क्षण दुख के लिये घंटों दुःखी रहता है। जिन बहुत सी घटनाओं को लोग महत्वहीन समझ कर दूसरे दिन ही भूल जाया करते हैं भावुक व्यक्ति उनको अपने जीवन का एक अंग बना लेता है, स्वभाव का एक व्यसन बना लिया करता है।
भावुक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संवेदनशील होता है। यहां तक कि एक बार दुःखी व्यक्ति तो अपना दुःख भूल सकता है किन्तु भावुक व्यक्ति उसके दुःख को अपनाकर महीनों दुःखी होता रहता है। आवश्यक भावुकता तथा संवेदनशीलता ठीक है किन्तु इसका सीमा से आगे बढ़ जाना दुःख का कारण बन जाता है।