Books - सुख-शांति की साधना
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Language: HINDI
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सुख की आकांक्षा को बुरी मन कहिए !
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इस संसार के सभी लोगों को सुख की आकांक्षा होती है। धन, स्वास्थ्य, पद, प्रशंसा की कामना सभी करते हैं और इन्हें सुख का आधार मान कर लोग अपनी-अपनी तरह से इन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न भी करते हैं। तरीके भिन्न हो सकते हैं, किन्तु सुख प्राप्ति की आकांक्षा सभी की एक जैसी ही होती है। धन—सुख का प्रधान साधन माना जाता है। इसे कमाने और प्राप्त करने के लिए लोग कड़ी मेहनत, उद्योग-धन्धे, खेती, दुकान, नौकरी आदि करते हैं। कई लोग इसके लिए अनैतिक कर्म भी करते हैं। इस साधनों में कितनी ही भिन्नता हो, किन्तु धन कमाने का मूल-उद्देश्य जीवन का सुख प्राप्त करना ही है।
यह आकांक्षा बुरी नहीं, आत्म-विकास में इससे सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यह तभी संभव है, जब सुख प्राप्ति की भावना का व्यतिक्रमण न हो। संसार में जो कुछ भी परमात्मा ने बनाया है, उसका उचित रीति से उपभोग करें, तो यहां की कोई भी वस्तु मानवीय-विकास और आत्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न न करेगी। कामेच्छा आध्यात्मिक विकास के मार्ग में प्रमुख शत्रु मानी गई है। किन्तु इसका एक विशिष्ट महत्व भी है। काम की चेष्टा मनुष्य में न रही होती तो सृष्टि संचालन का क्रम कहां से चलता? राम, कृष्ण, गौतम, गान्धी, तिलक, मालवीय आदि महापुरुष कहां से आते? जीवन संचार का क्रम इसी भांति आगे भी चलने देने की दृष्टि से कामोपभोग बुरी वस्तु नहीं कही जा सकती। बुराई तो तब उत्पन्न होती है, जब केवल वासना पूर्ति और क्षणिक सुख की आकांक्षा से अपने शरीर का सार-तत्व अनुपयुक्त मात्रा में निचोड़ते रहते हैं। क्रोध को ही लीजिए—यह न हो तो संग्राम में लड़ने वाले जवान दुश्मनों का सफाया कैसे करें? गुण्डे बदमाश आततायी व्यक्तियों पर क्रोध आये, उन्हें दण्ड दिया जाय तो यह बुरी बात नहीं। भगवान् राम ने रावण पर, कृष्ण ने कौरवों पर क्रोध किया। सत्य और संस्कृति की रक्षा के लिए क्रोध भी धर्म है। लोभ का भावी-जीवन की आकस्मिक घटनाओं के समय संचित द्रव्य के उपयोग का महत्व है। मोह का तो महत्व और भी अधिक है। गृहस्थी की सुघड़ व्यवस्था बच्चों का पालन-पोषण, श्रम-उद्योग और क्रियाशीलता का आधार सूत्र मोह होता है। इससे यह बात समझ में आती है कि अपनी मर्यादा के अन्दर संसार की कोई भी वस्तु बुरी नहीं है। सुख प्राप्ति की आकांक्षा भी इसी प्रकार बुरी नहीं। यह स्वाभाविक एवं उचित भी है कि लोग सुखों की कामना करते हैं। जीवन के विभिन्न व्यापार इसी से तो चलते हैं।
सुख की आकांक्षा न हो तो कौन परिश्रम करना चाहेगा? कड़ी धूप में अपनी चमड़ी कौन सुखाना चाहेगा? आठ घण्टे ड्यूटी बजाने में कौन-सा आनन्द रखा है? सुख की आकांक्षा के पीछे संसार की एक बहुत बड़ी व्यवस्था सन्निहित है, किन्तु यह है तभी तक जब तक सुख की प्राप्ति के साधनों में व्यत्तक्रम उत्पन्न न हो। इसे साधन न मानें, आसक्ति न हो। शक्ति के रूप में ही सुख का महत्व है।
‘सुख’ एक दृष्टिकोण है—जो लोगों की रुचि के अनुरूप होता है। वस्तुतः संसार की किसी भी वस्तु में न सुख है, न दुःख। जिसके सन्तान नहीं होती है, वह इसके लिए बड़ा व्यग्र, दुःखी तथा बेचैन रहता है, उसकी दृष्टि में पुत्र-प्राप्ति का सुख ही संसार का बड़ा भारी सुख होगा। पर जिसके कई सन्तानें पहले ही हैं, घर में धन का अभाव है, उन्हें सन्तान का होना दुर्भाग्य जान पड़ता है। सुख का प्रधान साधन और आकांक्षा की प्रमुख वस्तु ऐसे लोगों के लिए धन होगी। धन और पुत्र दोनों अवस्थाओं में एक जैसे हैं। किन्तु भिन्न दृष्टिकोणों के कारण एक व्यक्ति धन कसे सुख का सार मानता है दूसरे के लिए ‘पुत्र’ सुख है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि संसार के किसी भी पदार्थ में सुख नहीं। रुचि के अनुकूल सुख का भाव अपने दृष्टिकोण में होता है। लोगों के दुःख का कारण पदार्थ के सुख की आसक्ति ही है। अधिकांश लोग इसी कारण दुःखी रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को दो श्रेणी में विभक्त कर सकते हैं—
(1) विचारों से दुःखी— ऐसे लोग 90 प्रतिशत होते हैं, जिन्हें केवल मानसिक दुःख होता है। भविष्य के प्रति गलत निर्णय कर लेने से लोग अकारण ही दुःखी बने रहते हैं। पुत्री की शादी की चिन्ता, तरक्की न मिलने का दुःख, चोरों का भय, हानि का आशा का, मित्रों से विश्वास-घात की आशंका, गृह-नक्षत्र द्वारा हानि पहुंचने का डर पाये जाते हैं। ऐसे दुःखों का कारण वस्तुतः इतना बड़ा नहीं होता जितना कि वे उद्विग्न और संतप्त रहते हैं।
(2) शारीरिक दुःखी— इनके दुःख को दुःख कहा जा सकता है। शरीर रोगी है तो सुख कहां मिलेगा? पाचन-क्रिया खराब हो रही हो तो बहु स्वाद युक्त भोजन भी फीका जान पड़ेगा। ऐसे लोगों को एक हद तक वास्तविक दुःखी मान सकते हैं।
किन्तु यदि भावनाओं में परिष्कार किया जा सके तो अरुचिकर कारणों को भी सुख में बदला जा सकता है। तपस्वी लोग घर के सुखों को त्याग कर जंगल का जीवन अधिक व्यतीत करते हैं। देखने में वनवासी जीवन नितान्त अभावपूर्ण लगता है। आहार, विहार और आमोद-प्रमोद की जो सुविधा गृहस्थ जीवन में सम्भव है वह भला वन के जीवन में कहां मिलेगी? फिर भी एकान्त वासियों को आनन्द-पूर्ण जीवन बिताते देखा जाता है, इसका कारण भावनाओं का परिष्कार ही है। स्वार्थी मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति को सुख मानते हैं किन्तु परमार्थी व्यक्तियों को परोपकार में सुख मिलता है। परोपकार देखने में घाटे का सौदा है। बाह्य दृष्टि से माप करें तो दूसरों के हित के लिये सदैव ही अपने हितों को होम देना होता है। समय, श्रम और कभी-कभी धन भी लगाना पड़ता है, किन्तु परोपकारी को अपनी उच्च भावनाओं में ही अतीव सुख प्राप्त होता है। देखने वाला उसे बेवकूफ मान सकता है किन्तु उसके आन्तरिक सुख को वह स्वयं ही जान सकता है। भावनाओं का सुख ही सच्चा है।
आध्यात्मिक अनुभूतियों से प्राप्त सुख ही जीवन का सच्चा सुख है। दयावान् व्यक्ति दूसरों के दुःख दूर करने में अलौकिक सुख का आनन्द लूटते हैं। असहाय व्यक्तियों की सहायता करने वाले शक्तिमान् व्यक्ति परमात्मा का ध्यान-सान्निध्य प्राप्त करने वाले योगी की ही तरह जीवन का सच्चा सुख प्राप्त करते हैं। जो इस जीवन में ऐसा सुख प्राप्त कर सका वह परलोक में भी सुख प्राप्त करेगा, ऐसा मानना चाहिए। कई लोगों की यह मान्यता है कि जितना यहां कष्ट भोग लें उतना ही स्वर्ग में सुख मिलता है। यह भावना नितान्त भ्रामक है। परलोक में स्वर्ग और मुक्ति का आधार यह है कि मनुष्य इस जीवन में भी सच्चा सुख—आध्यात्मिक सुख—प्राप्त करें। स्वर्ग की सद्गति उन्हें ही मिलती है जो उसे प्राप्त कर लेते हैं।
यहां यह समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि सुख, चित्त का वह भाव है जो मनुष्य के हृदय में उसकी अभिलाषाओं के पूरा होने से या जिस कार्य में वह लगा हो उसमें सफलता प्राप्त कर लेने या उद्देश्य की सफलता से उत्पन्न होता है। गणितज्ञ को सच्चा सुख किसी प्रमेय या साध्य को हल करने में मिलता है। अनुसन्धान कर्त्ताओं को सबसे बड़ी प्रसन्नता उस समय मिलती है जब वह कोई नया आविष्कार करता है। अपने विषय की सफलता को ही जीवन का सुख कह सकते हैं। आत्मा का विषय है—आनन्द की प्राप्ति। मानव-जीवन का उद्देश्य भी यही है। यह सुख अपने जीवन को समष्टि में घुलाने से होता है। सबके हित में अपना हित समाहित कर देने से जिस दिव्य-ज्योति के दर्शन होते हैं आत्मा को उससे बड़ा सुख अन्यत्र नहीं मिलता। इसलिये आध्यात्मिक-जीवन सुखों का मूल कहकर पुकारा गया है। लौकिक कामनाओं की पूर्ति से आंशिक सुख मिलता है। किन्तु सबके कल्याण की भावना से सर्वाङ्गपूर्ण सुख की अनुभूति होती है।
शास्त्रकार का कथन है:—
अपहृत्यार्तिमार्तानाम् सुखं यदुपजायते । तस्य स्वर्गोपवर्गो वा कलां नहित षोडशीम् ।।
अर्थात्—परोपकार से, दुःखियों के दुःख दूर करने से जो सुख मिलता है, वह चिरस्थायी और सच्चा होता है। इस सुख की कोई सीमा नहीं।
यह आकांक्षा बुरी नहीं, आत्म-विकास में इससे सुविधा प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यह तभी संभव है, जब सुख प्राप्ति की भावना का व्यतिक्रमण न हो। संसार में जो कुछ भी परमात्मा ने बनाया है, उसका उचित रीति से उपभोग करें, तो यहां की कोई भी वस्तु मानवीय-विकास और आत्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न न करेगी। कामेच्छा आध्यात्मिक विकास के मार्ग में प्रमुख शत्रु मानी गई है। किन्तु इसका एक विशिष्ट महत्व भी है। काम की चेष्टा मनुष्य में न रही होती तो सृष्टि संचालन का क्रम कहां से चलता? राम, कृष्ण, गौतम, गान्धी, तिलक, मालवीय आदि महापुरुष कहां से आते? जीवन संचार का क्रम इसी भांति आगे भी चलने देने की दृष्टि से कामोपभोग बुरी वस्तु नहीं कही जा सकती। बुराई तो तब उत्पन्न होती है, जब केवल वासना पूर्ति और क्षणिक सुख की आकांक्षा से अपने शरीर का सार-तत्व अनुपयुक्त मात्रा में निचोड़ते रहते हैं। क्रोध को ही लीजिए—यह न हो तो संग्राम में लड़ने वाले जवान दुश्मनों का सफाया कैसे करें? गुण्डे बदमाश आततायी व्यक्तियों पर क्रोध आये, उन्हें दण्ड दिया जाय तो यह बुरी बात नहीं। भगवान् राम ने रावण पर, कृष्ण ने कौरवों पर क्रोध किया। सत्य और संस्कृति की रक्षा के लिए क्रोध भी धर्म है। लोभ का भावी-जीवन की आकस्मिक घटनाओं के समय संचित द्रव्य के उपयोग का महत्व है। मोह का तो महत्व और भी अधिक है। गृहस्थी की सुघड़ व्यवस्था बच्चों का पालन-पोषण, श्रम-उद्योग और क्रियाशीलता का आधार सूत्र मोह होता है। इससे यह बात समझ में आती है कि अपनी मर्यादा के अन्दर संसार की कोई भी वस्तु बुरी नहीं है। सुख प्राप्ति की आकांक्षा भी इसी प्रकार बुरी नहीं। यह स्वाभाविक एवं उचित भी है कि लोग सुखों की कामना करते हैं। जीवन के विभिन्न व्यापार इसी से तो चलते हैं।
सुख की आकांक्षा न हो तो कौन परिश्रम करना चाहेगा? कड़ी धूप में अपनी चमड़ी कौन सुखाना चाहेगा? आठ घण्टे ड्यूटी बजाने में कौन-सा आनन्द रखा है? सुख की आकांक्षा के पीछे संसार की एक बहुत बड़ी व्यवस्था सन्निहित है, किन्तु यह है तभी तक जब तक सुख की प्राप्ति के साधनों में व्यत्तक्रम उत्पन्न न हो। इसे साधन न मानें, आसक्ति न हो। शक्ति के रूप में ही सुख का महत्व है।
‘सुख’ एक दृष्टिकोण है—जो लोगों की रुचि के अनुरूप होता है। वस्तुतः संसार की किसी भी वस्तु में न सुख है, न दुःख। जिसके सन्तान नहीं होती है, वह इसके लिए बड़ा व्यग्र, दुःखी तथा बेचैन रहता है, उसकी दृष्टि में पुत्र-प्राप्ति का सुख ही संसार का बड़ा भारी सुख होगा। पर जिसके कई सन्तानें पहले ही हैं, घर में धन का अभाव है, उन्हें सन्तान का होना दुर्भाग्य जान पड़ता है। सुख का प्रधान साधन और आकांक्षा की प्रमुख वस्तु ऐसे लोगों के लिए धन होगी। धन और पुत्र दोनों अवस्थाओं में एक जैसे हैं। किन्तु भिन्न दृष्टिकोणों के कारण एक व्यक्ति धन कसे सुख का सार मानता है दूसरे के लिए ‘पुत्र’ सुख है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि संसार के किसी भी पदार्थ में सुख नहीं। रुचि के अनुकूल सुख का भाव अपने दृष्टिकोण में होता है। लोगों के दुःख का कारण पदार्थ के सुख की आसक्ति ही है। अधिकांश लोग इसी कारण दुःखी रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को दो श्रेणी में विभक्त कर सकते हैं—
(1) विचारों से दुःखी— ऐसे लोग 90 प्रतिशत होते हैं, जिन्हें केवल मानसिक दुःख होता है। भविष्य के प्रति गलत निर्णय कर लेने से लोग अकारण ही दुःखी बने रहते हैं। पुत्री की शादी की चिन्ता, तरक्की न मिलने का दुःख, चोरों का भय, हानि का आशा का, मित्रों से विश्वास-घात की आशंका, गृह-नक्षत्र द्वारा हानि पहुंचने का डर पाये जाते हैं। ऐसे दुःखों का कारण वस्तुतः इतना बड़ा नहीं होता जितना कि वे उद्विग्न और संतप्त रहते हैं।
(2) शारीरिक दुःखी— इनके दुःख को दुःख कहा जा सकता है। शरीर रोगी है तो सुख कहां मिलेगा? पाचन-क्रिया खराब हो रही हो तो बहु स्वाद युक्त भोजन भी फीका जान पड़ेगा। ऐसे लोगों को एक हद तक वास्तविक दुःखी मान सकते हैं।
किन्तु यदि भावनाओं में परिष्कार किया जा सके तो अरुचिकर कारणों को भी सुख में बदला जा सकता है। तपस्वी लोग घर के सुखों को त्याग कर जंगल का जीवन अधिक व्यतीत करते हैं। देखने में वनवासी जीवन नितान्त अभावपूर्ण लगता है। आहार, विहार और आमोद-प्रमोद की जो सुविधा गृहस्थ जीवन में सम्भव है वह भला वन के जीवन में कहां मिलेगी? फिर भी एकान्त वासियों को आनन्द-पूर्ण जीवन बिताते देखा जाता है, इसका कारण भावनाओं का परिष्कार ही है। स्वार्थी मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति को सुख मानते हैं किन्तु परमार्थी व्यक्तियों को परोपकार में सुख मिलता है। परोपकार देखने में घाटे का सौदा है। बाह्य दृष्टि से माप करें तो दूसरों के हित के लिये सदैव ही अपने हितों को होम देना होता है। समय, श्रम और कभी-कभी धन भी लगाना पड़ता है, किन्तु परोपकारी को अपनी उच्च भावनाओं में ही अतीव सुख प्राप्त होता है। देखने वाला उसे बेवकूफ मान सकता है किन्तु उसके आन्तरिक सुख को वह स्वयं ही जान सकता है। भावनाओं का सुख ही सच्चा है।
आध्यात्मिक अनुभूतियों से प्राप्त सुख ही जीवन का सच्चा सुख है। दयावान् व्यक्ति दूसरों के दुःख दूर करने में अलौकिक सुख का आनन्द लूटते हैं। असहाय व्यक्तियों की सहायता करने वाले शक्तिमान् व्यक्ति परमात्मा का ध्यान-सान्निध्य प्राप्त करने वाले योगी की ही तरह जीवन का सच्चा सुख प्राप्त करते हैं। जो इस जीवन में ऐसा सुख प्राप्त कर सका वह परलोक में भी सुख प्राप्त करेगा, ऐसा मानना चाहिए। कई लोगों की यह मान्यता है कि जितना यहां कष्ट भोग लें उतना ही स्वर्ग में सुख मिलता है। यह भावना नितान्त भ्रामक है। परलोक में स्वर्ग और मुक्ति का आधार यह है कि मनुष्य इस जीवन में भी सच्चा सुख—आध्यात्मिक सुख—प्राप्त करें। स्वर्ग की सद्गति उन्हें ही मिलती है जो उसे प्राप्त कर लेते हैं।
यहां यह समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि सुख, चित्त का वह भाव है जो मनुष्य के हृदय में उसकी अभिलाषाओं के पूरा होने से या जिस कार्य में वह लगा हो उसमें सफलता प्राप्त कर लेने या उद्देश्य की सफलता से उत्पन्न होता है। गणितज्ञ को सच्चा सुख किसी प्रमेय या साध्य को हल करने में मिलता है। अनुसन्धान कर्त्ताओं को सबसे बड़ी प्रसन्नता उस समय मिलती है जब वह कोई नया आविष्कार करता है। अपने विषय की सफलता को ही जीवन का सुख कह सकते हैं। आत्मा का विषय है—आनन्द की प्राप्ति। मानव-जीवन का उद्देश्य भी यही है। यह सुख अपने जीवन को समष्टि में घुलाने से होता है। सबके हित में अपना हित समाहित कर देने से जिस दिव्य-ज्योति के दर्शन होते हैं आत्मा को उससे बड़ा सुख अन्यत्र नहीं मिलता। इसलिये आध्यात्मिक-जीवन सुखों का मूल कहकर पुकारा गया है। लौकिक कामनाओं की पूर्ति से आंशिक सुख मिलता है। किन्तु सबके कल्याण की भावना से सर्वाङ्गपूर्ण सुख की अनुभूति होती है।
शास्त्रकार का कथन है:—
अपहृत्यार्तिमार्तानाम् सुखं यदुपजायते । तस्य स्वर्गोपवर्गो वा कलां नहित षोडशीम् ।।
अर्थात्—परोपकार से, दुःखियों के दुःख दूर करने से जो सुख मिलता है, वह चिरस्थायी और सच्चा होता है। इस सुख की कोई सीमा नहीं।